हमारे जीवन का ध्येय क्या है?
हमारे जीवन के छोटे-छोटे कर्मों, जैसे नहाना, खाना खाना, कहीं जाना, कुछ क्रय करना, टी.वी. पर कोई सीरियल देखना आदि का कुछ कारण अथवा ध्येय अवश्य होता है, जैसे स्वच्छ होना, भूख मिटाना, किसी से मिलना, कुछ आवश्यकताओं को पूरा करना, मनोरंजन करना आदि। फिर यह तो सम्भव नहीं कि हमारे 80-90 वर्ष तक जीवित रहने का कोई मकसद न हो। हमारे जीवन का मकसद तो है, परन्तु आज हम उस से अनजान हैं।
वास्तव में लक्ष्य वह कहाता है, जिसे प्राप्त करने के पश्चात कुछ भी प्राप्त करना शेष न रहे। शिक्षा प्राप्त करना, नौकरी अथवा व्यवसाय करना, धन कमाना, अपने परिवार की सुख-सुविधा के लिए कार्य करना आदि हमारे जीवन के वास्तविक ध्येय नहीं हैं, ये सामयिक ध्येय तो कहे जा सकते हैं। ये हमारे जीवन के मुख्य ध्येय को प्राप्त करने के लिए केवल साधन मात्र ही हैं। आत्मा की सुख प्राप्त करने की स्वाभाविक इच्छा है। ऊपर बताए गए कर्म हमारे उसी दिशा में प्रयास होते हैं अर्थात हम ये कार्य इसलिए करते हैं कि हमेंलगता है कि इन कार्यों से करने से हमें सुख प्राप्त हो जाएगा, परन्तु इनको प्राप्त करने के पश्चात हमारे हम मन नई इच्छाएं जन्म ले लेती हैं। फिर हम उन्हें प्राप्त करना अपना ध्येय मान लेते हैं। और यह चक्कर यूँही चलता जाता है, जबतक कि हमें यह अहसास न हो जाए कि संसार की वस्तुएं हमें 100 % सुख नहीं दे सकती।
परीक्षण मात्र के लिए कि भौतिक वस्तुएं हमें 100 % सुख दे सकती या नहीं, भौतिक वस्तुओं का भोग करना गलत नहीं कहाता। भौतिक वस्तुओं के भोग के पश्चात शरीर में आई क्षीणता से हमें यह प्रतीति होती है कि भौतिक वस्तुओं के भोग से आत्म-तृप्ति व शांति उत्पन्न होती है। वस्तुतः भौतिक वस्तुओं के भोग से आत्म-तृप्ति सम्भव ही नहीं। प्रत्युत भौतिक वस्तुओं के भोग से हमारी इच्छाएं प्रचण्ड रूप ग्रहण कर लेती हैं। यह ठीक वैसे ही है, जैसे आग में घी डालने से शांत होने के बजाए आग ओर अधिक उग्र हो जाती है। वैसे तो ईश्वर की न्याय व्यवस्था ही कुछ ऐसी है कि गलती करने पर भी ईश्वर की दंड-व्यवस्था के कारण प्राणी धीरे-धीरे स्वयं ही मुक्ति-पथ की ओर अग्रसर होना शुरु कर देता है, परन्तु इस तरह हजारों लाखों वर्ष का अधिक समय लगता है। इसलिए बुद्धिमानी इसी में है कि हम स्वेच्छा से मोक्ष प्राप्ति के लिए कदम बढ़ाएं।
हम केवल 100 % सुख ही प्राप्त करना नहीं चाहते, बल्कि हम 100 % दुखों से बचना भी चाहते हैं। दुखों को न चाहना भी हमारी आत्मा का स्वभाव है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि 100 % दुखों से छूटना और 100 % सुखों को प्राप्त करना हमारे जीवन का ध्येय है। क्योंकि, यह दोनों बातेँ केवल मोक्ष में ही सम्भव हैं, इसलिए हमारे जीवन का ध्येय है- मोक्ष को प्राप्त करना। आसान शब्दों में, मोक्ष का अर्थ है- ‘जन्म-मरण के चक्र’ से छूटना। हालाँकि, मोक्ष प्राप्त कर लेने पर आत्मा सदा के लिए ‘जन्म-मरण के चक्र’ से नहीं छूटता, परन्तु जिस समयावधि के लिए आत्मा को शरीर धारण नहीं करना पड़ता, वो इतनी लम्बी है कि मोक्ष को सदा के लिए ‘जन्म-मरण के चक्र’ से छूटना कह दिया जाता है। मोक्ष प्राप्त कर लेने पर 31204000 लाख वर्षों (लगभग 3 करोड़ लाख वर्ष) के लिए हमारा फिर से जन्म नहीं होता अर्थात दुख हमारे पास नहीं आता और हम इतने लम्बे समय तक सुख भोगते हैं।
जिन कर्मों को करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है, वे कर्म हैं अष्टांग योग की सिद्धि के लिए किए जाने वाले कर्म। हम जितना-जितना योग पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं, उतनी-उतनी हमारी दुखों से निवृति होती जाती है और सुखों की प्राप्ति होती जाती है। क्योंकि, भौतिक वस्तुएं हमें न तो 100 % सुख दे सकती हैं और न 100 % दुखों से छुड़ा सकती हैं, इसलिए ईश्वर-साक्षात्कार ही मोक्ष का दूसरा नाम है। इस भौतिक जगत में अगर हमें दिल्ली जाना हो, तो आवश्यक है कि पहले हमें मालूम हो कि दिल्ली कहां पर स्थित है। दिल्ली की स्थिति के बारे में हम किसी पर भी विश्वास नहीं कर लेते, बल्कि दिल्ली की स्थिति के बारे में उसीकी बात को विश्वसनीय मानते हैं, जो या तो स्वयं दिल्ली गया हो या श्रेष्ठ पुरुष हो या कोई भूगोलवित्त अर्थात भूगोल को जानने वाला हो। एक बार दिल्ली की स्थिति जानने के पश्चात अपनी स्थिति व सामर्थ्य के अनुसार दिल्ली ले जाने वाले साधनों अर्थात बस, वायुयान आदि का निर्धारण करेगें। तत्पश्चात अपने कार्यक्रम को कार्य रूप देने के लिए अपने पास उपलब्ध साधनों अर्थात धन आदि का उपयोग करेंगे। यही सब बातें ईश्वर-साक्षात्कार में भी घटित होती हैं। बहुत सारे लोग यह तो मानते हैं कि ईश्वर – साक्षात्कार जीवन का मुख्य उद्देश्य है, पर यह जानने का प्रयत्न नहीं करते कि ईश्वर-साक्षात्कार के मायने क्या हैं?, हमें उसका साक्षात्कार क्यों करना चाहिए?, उसके साक्षात्कार का हमारे जन्म-मरण के चक्र से छूटने से क्या सम्बन्ध है?, उस के साक्षात्कार का रास्ता कौन सा है?, हमें ईश्वर के साक्षात्कार करने के रास्ते पर चलने के लिए किस तरह की तैयारी की आवश्यकता है? आदि आदि।
जैसे, केवल दिल्ली-दिल्ली पुकारने से दिल्ली नहीं पहुंचा जा सकता वैसे ही ईश्वर-ईश्वर पुकारने मात्र से ईश्वर को नहीं पाया जा सकता। आज अध्यात्मिक कहे जाने वाले व्यक्तियों में यह मान्यता घर कर गई है कि कुछ विशेष शब्दों के उच्चारण मात्र से ही ईश्वर-साक्षात्कार हो जाता है, जो कि गलत है।