वैदिक व्यवस्थाएँ
-कृष्ण चन्द्र गर्ग
1. वैदिक राजधर्म
‘राजधर्म’ का अर्थ है राजा अर्थात् शासक का कर्तव्य यानि राजवर्ग को देश का संचालन कैसे करना है, इस विद्या का नाम ही राजधर्म’ है। राजधर्म की शिक्षा के मूल वेद हैं। मनुस्मृति, शुक्रनीति, महाभारत के विदुर प्रजागर तथा शान्तिपर्व आदि में भी राजधर्म की बहुत सी व्याख्या है। महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भी ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में एक पूरा समुल्लास राजधर्म पर लिखा है। इस लेख में इन्हीं ग्रन्थों के आधार पर राजधर्म का वर्णन किया जायगा। वह सब वेद अनुकूल होने से इस विषय का नाम ‘वैदिक राजधर्म’ रखा गया है।
१. लूटने वाला हमारा शासक न हो-
ओम् रक्षा माकिर्नो- मा नो-ईशत।
अर्थ- हे ईश्वर! आप हमारी रक्षा करें। कोई भी दुष्ट दुराचारी, अन्यायकारी हम पर शासन न करे। हमारी वाणी पर पाबन्दी लगाने वाला, हम किसानों से हमारी भूमि छीनने वाला तथा हम पशु पालकों से हमारे गौ आदि पशु छीनने वाला व्यक्ति हमारा शासक न बने। भेड़िया बकरियों का राजा न हो।
-अथर्ववेद
२. तानाशाह प्रजा का नाशक होता है-
राष्ट्रमेव-से-इति।
अर्थ-यदि राजवर्ग पर प्रजा का नियन्त्रण न रहे तो राजवर्ग प्रजा का ऐसे नाश कर देता है जैसे जंगल में शेर सभी हृष्ट पुष्ट पशुओं को मारकर खा जाता है। इसलिए किसी एक को स्वतन्त्र शासन का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए।
-शतपथ ब्राह्मण
राजा कौन? वैदिक ग्रन्थों में सभापति को ही राजा (राष्ट्रपति) कहा गया है। यह राजा या सभापति कोई खानदानी नहीं होता अपितु प्रजा द्वारा चुना हुआ ही होता है। शास्त्रों में ऐसा बताया गया है कि राजा के ऊपर सभा का नियंत्रण, सभा के ऊपर राजा का, प्रजा के ऊपर सभा का तथा राजा और सभा दोनों के ऊपर प्रजा का नियन्त्रण रहना चाहिए।
३. सचिव कैसे और कितने हों-
मौलान्-से- परीक्षितान्।
अर्थ-अपने देश में उत्पन्न हुए, वेदादि शास्त्रों के विद्वान, जिनमें अपने लक्ष्य तक पहुँचने की योग्यता हो और जो सदाचारी परिवार से सम्बन्ध रखते हों, अच्छी प्रकार परीक्षा करके ऐसे सात या आठ सचिव रखे जाएं।
-मनुस्मृति
४. शासक प्रजा की रक्षा कैसे करे-
यथोद्धरति-से-परिपन्थिनः।
अर्थ-जैसे धान से चावल निकालने वाला छिलके को अलग कर चावल की रक्षा करता है, चावल को टूटने नहीं देता। वैसे ही राजा रिश्वतखोरों, अन्यायकारियों, चोर बाजारी करने वालों, डाकुओं, चोरों और बलात्कारियों को मारे और बाकी प्रजा की रक्षा करे।
-मनुस्मृति
यथा हि-से-राज्ञाप्यसंशयम्।
अर्थ-राजा को गर्भिणी के समान वर्तना चाहिए। जिस प्रकार गर्भिणी अपना हित त्याग गर्भ की रक्षा करती है उसी प्रकार राजा को अपना हित त्याग सदा प्रजा के हित का ही ध्यान रखना चाहिए।
-महाभारत-शान्तिपर्व
५. वैदिक दण्ड व्यवस्था-
कार्षापणं-से-घारणा।
अर्थ-जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक रुपया दण्ड हो उसी अपराध में राजा पर हजार रुपया दण्ड होना चाहिए। क्योंकि शेर अधिक दण्ड से तथा बकरी थोड़े दण्ड से ही वश में आ जाती है। जिसका ज्ञान और प्रतिष्ठा जितनी अधिक हो, उसे उतनी ही अधिक सजा होनी चाहिए।
-मनुस्मृति
६. रिश्वत लेने वालों को दण्ड-
ये-से-वासनम्।
अर्थ-जो न्यायधीश वादी या प्रतिवादी से रिश्वत लेकर के पक्षपात से अन्याय करे उसकी सारी सम्पति जब्त करके उसे कहीं दूर भेज दिया जाए।
-मनुस्मृति
७. कर लेने का ढंग-
यथा-ट्पदाः-करः।
अर्थ-जैसे जोंक, बछड़ा और भंवरा थोड़े थोड़े भोज्य पदार्थ को ग्रहण करते हैं। वैसे राजा प्रजा से थोड़ा वार्षिक कर लेवे।
-मनुस्मृति
८. सभा में सभासदों का कर्तव्य-
सभा-जसम्ब्रु-किल्विषी।।
अर्थ-मनुष्य को चाहिए कि वह सभा में जाकर सत्य ही बोले। जो कोई सभा में अन्याय होते को देखकर चुप रहे या सत्य और न्याय के विरुद्ध न बोले वह महापापी होता है।
-मनुस्मृति
यत्र-च-सभासदः।
अर्थ-जिस सभा में अधर्म से धर्म यानि अन्याय से न्याय और असत्य से सत्य सब सभासदों के देखते हुए मारा जाता है, उस सभा में सब मुर्दों के समान हैं।
-मनुस्मृति
९. यथा राजा तथा प्रजा-
राज्ञि-समाः-प्रजाः।
अर्थ-यदि राजा यानि शासकवर्ग सदाचारी और न्यायकारी होंगे तो प्रजा भी सदाचारी और न्यायकारी बन जाती है। यदि शासकवर्ग दुराचारी हो तो प्रजा भी दुराचारी बन जाती है। प्रजा तो अपने शासकों के पीछे ही चलती है।
-चाणक्यनीति
आम लोग राजा के कृपापात्र बनने की इच्छा से वैसा ही आचरण करते हैं जैसा राजा करता है। इसलिए शासक वर्ग के लिए आवश्यक है कि वे दुराचार कभी न करें। सदा सत्य और न्याय पर चलते हुए प्रजा के आगे उत्तम दृष्टान्त बनें।
यद्यदाचरति-से-लोकस्तदनुवर्तते।।
अर्थ- समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति जैसा व्यवहार करते हैं दूसरे लोग भी वैसा ही करते है। वे लोगों के सामने जैसा उदाहरण रखते हैं लोग उसका अनुसरण करते हैं।
-गीता
१0. राष्ट्रीय प्रार्थना-
आ ब्रह्मन्नः-से- कल्पताम्।
अर्थ-हे सब से महान प्रभु! आपसे प्रार्थना है कि हमारे देश में सब सत्य विद्याओं के ज्ञाता विद्वान हों जिनके पुरुषार्थ से अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि होती रहे। देश के शत्रुओं को मारने में समर्थ शूरवीर उत्पन्न हों। दूध, घी, अन्न, सब्जियों और फलों की देश में भरमार हो। बैल, घोड़ा-गाड़ी आदि की सुविधाएं सदा बनी रहें। देश की महिलाएं सन्तान के धारण तथा पालण-पोषण में समर्थ रहें। जब-जब आवश्यकता हो वर्षा हुआ करे। अतिवृष्टि (वर्षा का बहुत अधिक होना) और अनावृष्टि (वर्षा का बिल्कुल न होना) कभी न हो। देशवासियों का सदा कल्याण हो। सभी आनन्द से रहें। कोई भूखा, प्यासा, नंगा और दरिद्र न रहे। देश में अज्ञान, अन्याय और अभाव का नाश हो।
-यजुर्वेद
2. वैदिक अर्थ व्यवस्था
हमारा मूल मन्त्र हो कि मेहनत करने वाला कोई गरीब न हो-मेहनत चाहे शारीरिक हो या मानसिक। कष्टदायक आर्थिक विषमता न हो। किसी के पास धन की इतनी कमी न हो कि उसका विकास रुक जाए और न ही किसी के पास धन इतना अधिक हो कि वह अय्याश (विषयी तथा आलसी) बन जाए।
न वा उ देवाः क्षुधमिद् वधं ददुः
-ऋग्वेद
अर्थ-कोई भी भूखा प्यासा न रहे।
सामानी प्रपा सह वो अन्नभागः।
-अथर्ववेद
अर्थ-सभी मिलकर खाएं पीएं। अर्थात् भौतिक आवश्यकताएं सभी की समान रूप से पूरी हों।
केवलाघों भवति केवलादी।
-ऋग्वेद
अर्थ-अन्य लोगों के भूखे रहते जो केवल अपना पेट भरता है वह पाप और अन्याय करता है। महर्षि मनु ने लिखा है कि गृहस्थी स्त्री पुरुष बाहर से आए हुओं को तथा अपने पर आश्रितों को पहले भोजन करवा के फिर स्वयं भोजन करें। ऐसा भोजन उनके लिए अमृत समान होता है।
एकः सम्पन्नमश्नाति वस्ते वासश्च शोभनम्।
योऽसंविभज्य भृत्येभ्यः को नृशंसतरस्ततः।।
जो अपने द्वारा भरण पोषण के योग्य व्यक्तियों को बांटे बिना अकेला ही उत्तम भोजन करता है और अच्छा वस्त्र पहनता है उससे बढ़कर क्रूर और कौन होगा?
-विदुरनीति
स्वजनं तर्पयित्वा यः शेषभोजी सोऽमृतभोजी।
अर्थ-जो अपने लोगों के तृप्त करने के बाद बचा हुआ अन्न खाता है वह अमृत भोजन करता है।
-चाणक्य सूत्र
असुराः स्वेष्वेवास्येषु जुहृति अन्योऽन्यस्मिन् हऽवै देवाः।
अर्थ-औरों के भूखे रहते अकेले खाना राक्षसवृति है। सबके साथ बांट करके खाना सज्जनता है।
-शतपथ ब्राह्मण
शास्त्र ने चेतावनी दी है कि यदि कुछ लोग भूखे रहते है और उनकी भौतिक आवश्यकताएं पूरी नहीं होती तो समाज में दुख और दुराचार बढ़ जाता है।
बुभुक्षितः किन्न करोति पापम्।
क्षीणाः नरा निष्करूणा भवन्ति।।
अर्थ-भूखा आदमी कौन सा पाप नहीं कर सकता अर्थात् बड़े से बड़े अपराध भी वह कर सकता है। जब पेट में अन्न न पड़े तो बड़े से बड़े महापुरुषों का धैर्य भी डांवाडोल हो जाता है।
-पंचतन्त्र
आचार्य चाणक्य ने लिखा है-
अपुत्रस्य गृहं शून्यंदिशः शून्यास्तु अबान्धवाः।
मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्या दरिद्रता।।
अर्थ-सन्तानहीन मनुष्य को अपना घर सूना लगता है। जिस मनुष्य के सम्बन्धी वा मित्र न हों उसे घर से बाहर सूना सूना लगता है। ज्ञानहीन मनुष्य का हृदय सूना रहता है, परन्तु गरीब के लिए तो सब कुछ ही सूना सूना रहता है।
परोऽपेहृासमृद्धे वि ते हेतिं नयामसि।
वेद त्वाहं निमीवन्तीं नितुदन्तीमराते।।
-अथर्ववेद
अर्थ-ओ दरिद्रता! तू दूर जा, परे भाग जा। हम तेरे ऊपर वज्र से प्रहार करते हैं। हम जानते है कि तू सब प्रकार से निर्बल करने वाली है और नाना प्रकार से पीड़ा देने वाली है। अतः सरकार और समाज की यह सर्वप्रथम जिम्मेदारी है कि राष्ट्र से गरीबी और अभाव को दूर रखें।
3. वर्ण व्यवस्था और जातपात
महर्षि मनु द्वारा रचित पुस्तक मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था का वर्णन मिलता है। प्रत्येक मनुष्य को अपनी योग्यता और रुचि के अनुसार अपना रोजगार चुनने का अधिकार है। यह व्यवसाय अपने पिता वाला हो सकता है और उससे भिन्न भी। यही वर्ण व्यवस्था है। वर्ण संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘चुनना’। समाज की तमाम समस्याओं को तीन मुख्य भागों में बाँटा गया है-अज्ञान, अन्याय, अभाव। अज्ञान-लोगों का अनपढ़ वा मूर्ख होना। अन्याय-पक्षपात वा रिश्वत से अन्याय होना। अभाव-आवश्यकता के पदार्थों की कमी होना या वितरण ठीक न होना। इन तीनों समस्याओं को हल करने की जो लोग योग्यता रखते थे तथा जिम्मेदारी लेते थे वे क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कहलाते थे। इन तीनों शब्दों के अर्थ भी उनके कार्य के अनुरूप ही है। ब्राह्मण-विद्वान, क्षत्रिय-रक्षक, वैश्य-उत्पादक, और विभाजक। बाकी रहे शूद्र-अनपढ़ तथा मूर्ख। वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की सहायता करते थे। स्मरण रहे कि इस व्यवस्था का नाम वर्ण व्यवस्था है, जन्ममूलक जात पात नहीं।
समस्या तब पैदा हुई जब ब्राह्मण के बेटे को ब्राह्मण ही माना जाने लगा बेशक उसके गुण, कर्म, स्वभाव ब्राह्मण के नहीं थे। इसी प्रकार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की सन्तान को भी क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही माना गया चाहे उनमें ये गुण न हों। क्या यह गलत बात नहीं है? यह तो ऐसी बात है कि डाक्टर के बेटे को डाक्टर और मास्टर जी के बेटे को मास्टर माना जाए चाहे वे कम्पाउण्डर और चपरासी की योग्यता भी न रखते हों।
सम्भवतः समस्या गम्भीर तब हुई जब घरों से दूसरे का मल उठाकर के बाहर ले जाने की प्रथा देश में चली। मानना पड़ेगा कि दूसरों का मल उठाने का धन्धा भारतीय (वैदिक) संस्कृति और समाज की मूल धारा के विरुद्ध है। भारतीय इतिहास में कहीं भी घरों में ऐसे शौचालयों, जहां से मल उठाके बाहर ले जाना पड़े, का जिक्र नहीं मिलता। और भी शौच के लिए जितने भी शब्द वैदिक संस्कृति में आते हैं। उन सब का भाव यह है कि शौच के लिए बाहर जंगल में जाया जाता था। मेहत्तर आदि शब्द संस्कृत भाषा के नहीं हैं।
ऊपर बताई गलत प्रथाओं के चलने से वर्ण व्यवस्था वर्तमान जन्म मूलक जातपात में बदल गई है। निस्सन्देह इस जातपात का मनुस्मृति में कहीं कोई वर्णन नहीं है। न ही इसका तालमेल वैदिक संस्कृति या मानवता से है। वेद तो ऐसा मानता है-
अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरों वावृधुः सौभगाय।
-ऋग्वेद
अर्थ-हममें से कोई छोटा या बड़ा नहीं है। हम सब आपस में भाई भाई हैं। हम सब को मिल करके समृद्धि के लिए काम करना चाहिए।
वैदिक धर्म के अनुसार हम सब की एक ही जाति है-मनुष्य जाति। कुत्ता, बिल्ली, घोड़ा, गधा, गाय, भैंस, कबूतर, कौआ आदि ये सब अलग अलग जातियां हैं। जाति शब्द का अर्थ है जो जन्म से लक्षित हो।
भारत की स्वतन्त्रता के बाद जातपात समाप्त करने के नाम पर नए नाम देकर तथा उन नामों से आर्थिक लाभ जोड़कर जातपात की दीवार को और दृढ़ कर दिया गया है। जातपात के रोग को समाप्त करने के लिए आवश्यक होगा कि कभी भी किसी की भी जाति न पूछी जाए-न बच्चों से, न बड़ों से, न सरकारी तौर पर, न गैर सरकारी तौर पर, न लिखती और न ही ज़ुबानी। किसी फार्म पर भी कहीं भी जाति का खाना न रखा जाए। स्कूलों और कालेजों की पाठ्य पुस्तकों में भी जात-पात पर आधारित कोई कहानी या लेख न हो । इस व्यवस्था में सभी बच्चे जातपात के भेदभाव के बिना ही बड़े होंगे। जिससे उनमें समानता की भावना बनी रहेगी।
विशेष ज्ञातव्य-जितना आवश्यक जातपात को समाप्त करना है उतना ही आवश्यक गोत्र की रक्षा करना है। गोत्र को भी जातपात के साथ ही समाप्त कर देना ऐसा है कि जैसे नाक पर बैठी मक्खी को उठाने के लिए नाक को काट डालना। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मनुस्मृति के हवाले से लिखा है-जो कन्या माताकुल की छः पीढ़ियों में से न हो और पिता के गोत्र की न हो उस कन्या से विवाह करना उचित है। इससे विलक्षणता आती है। जैसे पानी में पानी मिलाने से विलक्षण गुण नहीं होता वैसे पिता के गोत्र वा माता के कुल में विवाह होने से धातुओं के अदल बदल नहीं होने से उन्नति नहीं होती। जैसे दूध में मिश्री और सौंठ आदि औषधियों के मिलाने से उत्तमता होती है वैसे ही पिता के भिन्न गोत्र तथा माता के कुल से पृथक् स्त्री पुरुष का विवाह होना उत्तम है।