वेद-ज्ञान
-महात्मा आनन्द स्वामी
वेद का ज्ञान तो किसी एक युग या काल के लिए नहीं किसी एक देश या समाज के लिए नहीं। वेद का ज्ञान तो हर युग, हर काल, हर देश, हर समाज के लिए हैं। सतयुग, त्रेता या द्वापर के लिए ही नहीं, कलियुग के लिए भी है, केवल भारत के लिए नहीं, हर देश के लिए है, केवल आर्यसमाज के लिए नहीं हर उस समाज के लिए है जो मनुष्यों पर आधारित है।
मिल कर चलने का अर्थ
– नरेन्द्र आहूजा ‘विवेक’
संगच्छध्वं.- वेद भगवान ने इस संगठन सूक्त से आदेश दिया ‘मिलकर चलो’ अब प्रश्न उठता है कि मिलकर कैसे चलें क्या आकाश में उड़ रही ग़िद्धों एवं चीलों की भाँति किसी मरे हुए जानवर का भक्षण करने के लिए एक स्थान पर इक्ट्ठे हो जाने को ही ‘मिल कर चलना’ कहेंगे। शायद नहीं, क्योंकि बुद्धिहीन प्राणियों द्वारा अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए मिलना या झुंड बनाना ‘समज’(समाज नहीं) कहलाता है। मनुष्य तो एक सामाजिक प्राणी है और उसके लिए मिलकर चलने के लिए बुद्धिपूर्वक सोचविचार कर बनाई गई योजना से बना संगठन या समाज आवश्यक है। मननशील या विचारवान होना मनुष्य होने का प्रथम आवश्यक गुण है। अतः ‘संगच्छध्वं’ मिल कर चलने के लिए प्रथम आवश्यकता है कि मनुष्य विचार करते हुए योजना बनाकर श्रेष्ठ लोगों के समान अर्थात् समाज का गठन करके मिल कर चले।
अब दूसरा प्रश्न उठता है कि ‘मिल कर चलना’ किधर है इसके लिए हमें अपने अर्थात् मनुष्य जीवन के उद्देश्य को समझना होगा। क्या मनुष्य के जीवन का उद्देश्य शरीर के सुख के साधन एकत्रित करना है। यदि हम केवल ऐसा ही समझते है तो शायद हमारी स्थिति ‘साधन आधीन’ वाली है जोकि ‘पराधीन’ से भी बदतर है और जीवन यात्रा में दुर्घटना को अवश्यंभावी बना देती है। यह ठीक है कि साधक द्वारा साधना के लिए साधन का ठीक होना साध्य अर्थात उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अत्यंत आवश्यक है। हम इस साध्य अर्थात् उद्देश्य प्राप्ति के लिए साधन एकत्रित करने के लिए क्या करें। तो इस प्रश्न का उत्तर यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के प्रथम मंत्र में मिलता है ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ अर्थात् समस्त ऐश्वर्य प्रदान करने वाले परमपिता परमेश्वर द्वारा प्रदत्त प्रकृति के साधनों का त्यागपूर्वक भोग वा उपयोग करें ।
लेकिन इन साधनों को पाकर भी चलने की दिशा का प्रश्न अनुत्तरित रह जाता है इसके लिए हमें अपने लक्ष्य वा उद्देश्य को समझना होगा।
सूर्य के अनुसरण का अर्थ
-महात्मा आनन्द स्वामी
सूर्य के पीछे चलना है तो अपने कर्तव्य के पालन में किसी भी समय एक क्षण के लिए प्रमाद न करो।
कुछ भी हो जाय अपने कर्तव्य को पूरा करो, अपने कर्तव्य से हटो नहीं, भागो नहीं।
सूर्य का दूसरा गुण है- चमक। हर समय, हर क्षण वह चमकता हुआ दिखाई देता है। तुम यदि सूर्य के पीछे चलना चाहते हो, तो तुम भी चमको। परन्तु कैसे चमको। मुँह पर तेल मलके, चेहरे पर सुर्खी और पाउडर लगाकर? नहीं । चमक को अपने अंदर से पैदा करो ।
सूर्य का तीसरा गुण है- आकर्षण। सबको अपनी ओर खींचे रखना। तुम भी इस गुण को धारण करो, मेरे भाई! तुम्हारे बेटे, बेटियाँ, भाई, बहन, माता, पिता, सम्बन्धी, मित्र और सभी लोग जो तुम्हारे निकट हैं, तुम्हारे अन्दर आकर्षण-शक्ति अनुभव करें, तुम्हारे पास आना चाहें, तुम्हारे पास रहना चाहें- ऐसा स्वभाव बनाओ अपना। सूर्य में यदि यह आकर्षण- शक्ति न हो, यदि थोड़ी देर के लिए भी यह समाप्त हो जाय तो यह सारा सूर्य-मण्डल नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा।
सूर्य का चौथा गुण है यह कि वह अपनी कीली (धुरी) से कभी इधर-उधर नहीं होता। दो अरब वर्ष पहले जहाँ खड़ा था, वहीं अब भी विद्यमान है। वहीं अपने केन्द्र पर घूमता है। यदि वह कहे कि एक ही जगह, एक ही केन्द्र पर घूमता हुआ तो मैं बोर हो गया, थोड़ी देर के लिए पचास-साठ हजार मील पृथिवी की ओर बढ़ जाता हूँ। तो इस धरती पर सबका भुर्ता बन जाएगा। यह बात सूर्य से सीखो, मेरे भाई! तुम मानव हो, मानवता तुम्हारा केन्द्र है।
यह है सूर्य के पीछे चलने, सूर्य के अनुसार अपने जीवन को बनाने का अर्थ।
अभ्यास
-प्रोफैसर उमाकान्त उपाध्याय
अर्जुन बोले-हे कृष्ण! जो योग में श्रद्धा रखने वाला हैः किन्तु संयमी नहीं है, इस कारण जिसका मन अन्तकाल में योग से विचलित हो गया है, ऐसा साधक योग की सिद्धि को अर्थात् भगवत्साक्षात्कार को न प्राप्त होकर किस गति को प्राप्त होता है।
श्री कृष्ण जी उत्तर देते हैं कि योग का मार्ग कल्याण का मार्ग है। योग के मार्ग में चलने वाले की कभी दुर्गति नहीं होती। गीता में श्रीकृष्ण के आश्वासन ध्यान देने योग्य हैं-
‘पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते!
न हि कल्याणकृत्कश्चिद् दुर्गतिं तात गच्छति।’
गीता ६//४0
श्री भगवान् बोले-हे पार्थ। उस पुरुष का न तो इस लोक में नाश होता है। और न परलोक में ही। क्योंकि हे प्यारे। आत्मोद्धार के लिये अर्थात् भगवत्प्राप्ति के लिये कर्म करने वाला कोई भी मनुष्य दुर्गति को प्राप्त नहीं होता।
‘प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुशित्वा शाश्रवतीः समाः।
शुचीनां श्रीमतां गेहे योग भ्रष्टोऽभिजायते।।’
गीता ६//४१
योगभ्रष्ट पुरुष पुण्यवानों के लोकों को अर्थात् स्वार्गादि उत्तम लोकों को प्राप्त होकर, उनमें बहुत वर्षों तक निवास करके फिर शुद्ध आचरण वाले श्रीमान् पुरुषों के घर में जन्म लेता है।
अथवा वैराग्यवान पुरुष ज्ञानवान् योगियों के ही कुल में जन्म लेता है। परन्तु इस प्रकार का जो यह जन्म है, सो संसार में निःसन्देह अत्यन्त दुर्लभ है।
‘तन्न तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन।’
-गीता ६//४३
वहाँ उस पहले शरीर में संग्रह किये हुए बुद्धि-संयोग को अर्थात् समबुद्धिरूप योग के संस्कारों को अनायास ही प्राप्त हो जाता है और हे कुरुनन्दन! डसके प्रभाव से वह फिर आत्मा की प्रतिरूप सिद्धि से पहले से भी बढ़कर प्रयत्न करता है।
पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्यिते ह्मवशोऽपि सः।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते।।
-गीता ६//४४
वह श्रीमानों के घर में जन्म लेनेवाला योगभ्रष्ट पराधीन हुआ भी उस पहले के अभ्यास से ही निःसन्देह भगवान् की ओर आकर्षित किया जाता है, तथा समबुद्धिरूप योग का जिज्ञासु भी वेद में कहे हुए सकाम कर्मों के फल का उल्लंघन कर जाता है।
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संगुद्धकिल्विषः।
अनेक जन्मसंसिद्धस्ततों याति परां गातिम्।।
-गीता ६//४५
परन्तु प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करनेवाला योगी तो पिछले अनेक जन्मों के संस्कार बल से इसी जन्म में सम्पूर्ण पापों से रहित हो फिर तत्काल ही परमगति को प्राप्त हो जाता है।
इस सबका यही आशय है कि मनुष्य को जहाँ तक सुविधा मिले, शरीर साथ दे, परमेश्वर के साक्षात्कार के लिये योगसाधना अवश्य करते रहना चाहिए।
स्वाभाविक व नैमित्तिक ज्ञान
-खुशहालचन्द्र आर्य
जीवों में दो किस्म का ज्ञान होता है। एक स्वाभाविक दूसरा नैमित्तिक। स्वाभाविक ज्ञान पशु-पक्षियों में अधिक होता है, कारण- उनको इसी ज्ञान से पूरा जीवन व्यतीत करना होता है। इस ज्ञान से जीव खाना-पीना, सोना-जागना, उठना-बैठना तथा बच्चे पैदा करना ही नित्य कर्म कर सकता है, इसका जीव को कोई फल नही मिलता। नैमित्तिक ज्ञान वह होता है जो सीखने से सीखा जाये। यह ज्ञान पशु-पक्षियों में बहुत कम और मनुष्यों में बुद्धि से सम्बन्ध है। मनुष्य का बच्चा, पैदा होते ही पानी में नहीं तैर सकता। यदि पानी में छोड़ोगे तो वह डूब जायेगा और जब तक इसको तैरना सिखाया नही जायेगा तब तक वह पानी में नही तैर सकेगा, कारण- यह मनुष्य के लिए नैमित्तिक ज्ञान है।
मनुष्य का स्वाभाविक ज्ञान, खाने-पाने, सोने-जागने, उठने-बैठने तक ही सिमित है। बाकी काम वह सिखाने से सीखता है। स्वाभाविक ज्ञान के कार्यों में मनुष्य को भी फल नहीं मिलता, बाकी नैमित्तिक ज्ञान से किये हुए अच्छे या बुरे कार्यों का ईश्वर मनुष्य को अच्छे कार्यों का सुख के रूप में, बुरे कार्यों का दुःख के रूप में फल देता है। मनुष्य की पढ़ाई, लिखाई सब नैमित्तिक ज्ञान से होती है। इसलिए ईश्वर ने मनुष्य को अपने तथा दूसरों के जीवन को सुखी व उन्नत बनाने के लिए वेद ज्ञान दिया।
यदि ईश्वर प्रारम्भ में ही मनुष्यों को वेद ज्ञान न देता, तो मनुष्य भी अन्य पशु-पक्षियों की भाँति असभ्य रूप में रहता हुआ पशुवत् ही अपना जीवन व्यतीत करता। इसलिए सभी मनुष्यों को अभिष्ट है कि वह वैदिक धर्म को अपनाकर अपने व अन्यों के जीवन को उन्नत व सफल बनावें।
आर्य भारत में बाहर से आए?
-डाक्टर बिजेन्द्रपाल सिंह
आर्य भारत में बाहर से आए कुछ स्वार्थी तत्वों की चाल थी, यदि बाहर से यहां आते, तो वहां के नील, यूफ्रेट्रस आदि नदियों, स्थानों के नाम उनकी संस्कृति के साथ जुड़े होते अपितु विदेशों में भारतीय शासकों के नामों का उल्लेख मिलता है शिलालेख मिलते हैं मूर्तियां व उनके बनाए स्थान आदि हैं पूरे तथ्य इसके मिलते हैं कि भारत से आर्य संस्कृति बाहर गई। भारतीयों का विश्व भर में शासन व आधिपत्य रहा था। विषय अत्यन्त विस्तृत है देश विदेश की इतिहास पुस्तकों, शिलालेखों आदि में, पुराणों आदि में इसका वर्णन मिलता है। आज की पाठ्य पुस्तकों में इस विषय को संशोधित कर लिखना व पढ़ाना चाहिए कि आर्य भारत के आदि काल से निवासी हैं आर्य संस्कृति यहाँ से पृथ्वी पर गई तथा विश्व भर में भारतीयों का आधिपत्य रहा।
मनुष्य धर्म
-मनमोहन कुमार आर्य
कहा जाता है कि अग्नि का धर्म जलाना है। इसी प्रकार से कहा जाता है कि वायु का धर्म स्पर्श, जल का शीतलता, पृथिवी का गन्ध आदि है। आकाश का गुण शब्द कहा जाता है जोकि वैज्ञानिक आधार पर भी सिद्ध है। किसी वस्तु के गुण ही वस्तुतः धर्म कहलाते हैं। यदि अग्नि का धर्म जलाना है तो क्या स्थान स्थान पर जो अग्नियां है, उनके धर्मों व गुणों में कहीं न्यूनाधिक अन्तर है? ऐसा नहीं है, अग्नि चाहे हमारे घर में हो, या पड़ोसियों के यहां या सुदूर स्थान पर, सब जगह उसके गुण वा धर्म एक समान होते हैं। किसी भी पदार्थ के गुणों को ही उसका धर्म कहा जाता है। यदि ऐसा है तो, मनुष्यों का धर्म क्या हो सकता है। मनुष्य कोई जड़ पदार्थ न होकर एक चेतन प्राणी है जो सोच सकता है, विचार, चिन्तन, मनन, ऊहापोह, विश्लेषण आदि कर सकता है। ऐसे मनुष्य या प्राणी का धर्म क्या हो सकता है। इसका निर्धारण या तो ईश्वर कर सकता है या फिर कोई बहुत बुद्धिमान मनुष्य कर सकता है। हम यह भी जानते हैं कि महाभारत काल तक भारत व संसार के अनेक देशों में वैदिक धर्म व संस्कृति का प्रचार व प्रसार रहा है। देश में ऋषियों, विद्वानों, ज्ञानियों, चिन्तकों व विचारकों की बड़ी संख्या रही है। ऐसे लोगों को ही धर्म- चर्चा करने व धर्म- निर्णय करने का ज्ञान व सलीका आता है। इन लोगों के विचारों को पढ़ने पर यह ज्ञात होता है कि सत्य का आचरण ही मनुष्य धर्म है। यह सत्याचार न केवल भारत के किसी एक या व्यक्ति समूहों का धर्म है अपितु सारी दुनिया के मनुष्यों का धर्म है। संसार में एक भी ऐसा बुद्धिमान मनुष्य नहीं मिलेगा, जो धर्म की इस परिभाषा से सहमत न हो।
वैज्ञानिकों का ईश्वर को न मानना कुछ इस प्रकार का है कि कोई विद्वान किसी पुत्र का अस्तित्व स्वीकार करता है परन्तु समीप में पिता के उपस्थित न होने पर उसके अस्तित्व से इन्कार करता है। इसी प्रकार वैज्ञानिक सृष्टि को तो स्वीकार करते हैं परन्तु इस सृष्टि के रचयिता को अस्वीकार कर दते हैं। उनका यह कथन अज्ञान व अवैज्ञानिक ही कहा जा सकता है। सृष्टि है तो सृष्टिकर्त्ता अवश्य है उसी प्रकार से जिस प्रकार से पुत्र है तो उसके माता-पिता अवश्य ही है।
प्रेय मार्ग और श्रेय मार्ग के अर्थ
-राज कुकरेजा
ईश्वर की असीम कृपा से प्रत्येक जीव कर्म करने में स्वतंत्र है। जीवन यात्रा में जीव अपना मार्ग स्वयं चयन करता है। यात्रा के दो मार्ग हैं। प्रेय मार्ग और श्रेय मार्ग । ये दोनों बिल्कुल विपरीत हैं पृथक-पृथक फलों को देने वाले हैं। प्रेय मार्ग जो इन्द्रियों को प्रिय है। अर्थात् संसार के सभी भोग्य पदार्थ, जो विभिन्न प्रकार के दुःखों से युक्त, विकारी, अनित्य और क्षणिक सुखदायी हैं, उन में सुख की भावना रखना।
श्रेय मार्ग- यह अध्यात्मिक उन्नति का मार्ग है। श्रेय पथ पर मनुष्य तृष्णा लालसा को समाप्त कर सकता है। ये सब भौतिक पदार्थ हमारे लिए साधन मात्र हैं, हम इनके लिए नहीं, ये हमारे लिए बनें हैं। हमें इनका दास नहीं होना चाहिए प्रत्युत हमें महान उद्देश्य व लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इन्हें अपना सहायक समझ उचित सीमा तक इन साधनों का प्रयोग करना चाहिए।
ईश्वर का विराट् रूप
-महात्मा आनन्द स्वामी
यह सारा संसार ईश्वर का विराट् रूप है। वेद कहता है- नमो विरूपाय च विश्वरूपाय च।
हे भगवन्! यह सारा विश्व, यह अनन्त ब्रह्माण्ड, अनन्त सूर्य, अनन्त चाँद, अनन्त तारे और ग्रह, अनन्त पृथिवियाँ, सब तुम्हारा रूप हैं। यह आकाश में सिर उठाकर खड़ी बर्फ़ानी चोटियाँ, ये ऊँचे पहाड़, ये उजाड़ जंगल, ये गहरी घाटियाँ, ये गाते हुए प्रपात, दौड़ती हुई नदियाँ, ये झूमते हुए बाग, ये लहलहाते खेत, ये शहर, ये ग्राम, ये मैदान, इनमें भाँति-भाँति के लोग, भाँति-भाँति के प्राणी और ये उछलते हुए समुद्र, ये गर्जते हुए बादल, ये कड़कती हुई बिजलियाँ, सब तुम्हारा रूप हैं। तुम्हारे इस विश्वरूप को, विराट् रूप को मैं नमस्कार करता हूँ।
संगठन वृद्धि के उपाय
-स्वामी देवव्रत सरस्वती
ऋग्वेद का अन्तिम सूक्त ‘संगठन सूक्त’ के नाम से प्रसिद्ध है जिसमें संगठन कैसे हो, इस पर बहुत गम्भीरता से विचार किया है।
१. समान उद्देश्य – समानी व आकूतिः तुम्हारा संकल्प, निश्चय और भावना एक समान हो। संगठन तभी आगे बढ़ता है जब उसके सभी कार्यकर्त्ताओं का उद्देश्य, लक्ष्य एक ही हो और सभी उसकी पूर्ति के लिये समर्पित भाव से कार्य करें। थोड़ा-सा भी मतभेद संगठन में उसी भाँति फूट डाल देता है जैसे मनों दूध में थोड़ी-सी खटाई डालने पर वह फट जाता है।
व्यक्ति से समाज बड़ा है अतः अपना स्वार्थ छोड़कर सर्वहितकारी नियम को पालने में अपनी हानि भी होती हो तो उसकी चिन्ता न करके सबका हित देखना चाहिये। सभी सदस्य जब एक स्वर में बोलते हैं तो उसका बहुत प्रभाव पड़ता है। जैसे पञ्चतन्त्र में आई कहानी में जाल में फंसे कबूतर अपनी मृत्यु सामने देख सभी एक साथ जाल समेत उड़ चले परन्तु बहेलिये की दृष्टि से ओझल हो जाने पर उनमें फूट पड़ गई। सभी ने एक दूसरे को उपालम्भ देना प्रारम्भ कर दिया कि मैं तो पूरी शक्ति लगा रहा हूँ परन्तु तुम नहीं लगा रहे। दूसरे ने तीसरे को ऐसे ही कहा। परिणामस्वरूप सभी ने शक्ति लगानी बन्द कर दी और जाल सहित नीचे आ गिरे। ऐसा आपस की फूट का परिणाम और एक उद्देश्य के न होने के कारण हुआ। इसलिये भगवती वेदवाणी कह रही है-
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्
तुम सब मिलकर एक काम में लग जाओ तभी सफलता मिलेगी। जो निश्चय एक बार कर लिया उसी पर अडिग बने रहो। मिल कर एक ही बात बोलो। स्मरण रहे- अलग-अलग बोलने से कार्यकर्त्ता भ्रमित हो जाते हैं और दूसरे लोगों का विश्वास ऐसे संगठन से उठ जाता है। एक बात तभी कही जा सकती है जब सबका चिन्तन एक जैसा हो। जहां स्वार्थ वृत्ति आई वहीं पर शब्द बदल जाते हैं।
२. महान् उद्देश्य – समान उद्देश्य भी ऐसा होना चाहिये जो बहुजनहिताय बहुजनसुखाय वाला हो। जिस कार्य से बहुत लोगों का भला होता हो उसके साथ बहुत से लोग जुड़ जाते हैं।
३. अनुशासन– आर्यसमाज का दसवां नियम-सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें, मननीय है। मनीषियों का कहना है-
सर्वे यत्र नेतारः सर्वे पण्डितमानिनः।
सर्वे यत्र वक्तारस्तत् कुलमवसीदति।।
जहाँ सभी नेता हों। सभी अपने को पण्डित या बुद्धिमान् मानते हों, सभी बोलने वाले हों, वह संगठन या कुल-परिवार नष्ट हो जाता है। किसी कार्य में मतभेद होने पर बहुमत का आदर करके या नेता के आदेश को मानते हुये कार्य में लग जाना चाहिये। एक बार निर्णय हो जाने के पश्चात् मीन-मेख निकालना संगठन की जड़ों पर कुठाराघात करना है। परन्तु ध्यान रहे अनुशासन बाह्य न होकर स्वैच्छिक होता है। बलात् दिया गया आदेश आगे विद्रोह का रूप भी धारण कर सकता है।
४. विश्वास– संगठन के कार्यकर्त्ताओं में अपने ध्येय, नेता और परम्पराओं के प्रति निष्ठा का होना बहुत आवश्यक है। वेद ने कहा है- ‘समाना हृदयानि वः’तुम्हारे हृदय समान हों। संगठन एवं नेता में विश्वास कार्यकर्त्ता को अपने कर्तव्य से विचलित नहीं होने देता। जहाँ आपस में विश्वास नहीं है, कानों का कच्चापन है, उस संगठन को टूटने में देर नहीं लगती। पुराणों में सुन्द-उपसुन्द की कथा आती है जिनके अत्याचारों से प्रजा पीड़ित थी। अत्याचारों से पीड़ित देवों ने उनमें फूट डालने के लिए एक दिन एक कमनीय कन्या उनके सामने भेजी जिसे देख दोनों विमोहित हो गये। इतने में वह कन्या हँसती हुई सुन्द के कान में कुछ फुसफुसा कर वहाँ से लुप्त हो गई। उसके जाने के पश्चात् उपसुन्द ने सुन्द से पूछा कि वह युवती तुम्हारे कान में क्या कहकर गई है। सुन्द ने कहा- कुछ भी नहीं। परन्तु उपसुन्द को उस बात का विश्वास नहीं हुआ। थोड़ी देर में वह युवती फिर प्रकट हुई और उपसुन्द के कान में फुस-फुसाकर चली गई। सुन्द द्वारा पूछने पर उपसुन्द ने भी वैसा ही उत्तर दिया। काम भाव से विमोहित हुये उन दोनों को एक दूसरे पर विश्वास नहीं हुआ। दोनों उसे अपनी पत्नी बनाने को इच्छुक थे। झगड़ा यहाँ तक बढ़ा कि वे दोनों आपस में लड़कर मर गये।
नेता का यह कर्तव्य है कि वह सुनी-सुनाई बात के आधार पर सत्य को जाने बिना अपने साथियों की नीयत पर शक नहीं करे। कई बार चापलूसों के द्वारा किसी कार्यकर्त्ता के विरुद्ध कान भर देने से संगठन के अच्छे कार्यकर्त्ता टूट जाते हैं जिनकी क्षतिपूर्ति नहीं हो पाती।
५. आत्मनिरीक्षण– अपने से पहले बने संगठनों का अध्ययन, उनकी कार्यपद्धति, उपलब्धियाँ एवं असफलताओं का विचार करते रहना चाहिये। इस बात को वेद ने- ‘देवा भागं यथापूर्वे संजानाना उपासते’ द्वारा कहा है। हे मनुष्यो। जैसे तुम्हारे से पहले के विद्वान् लोग परस्पर एक दूसरे का सहयोग करते रहे हैं, वैसे तुम भी करो।
६. मनोबल-किसी भी कार्य में सफलता उसे मनोयोग द्वारा करने पर ही मिलती है। उत्साहपूर्वक किया गया कार्य अवश्य ही पूरा होता है। कई बार कार्य में बाधायें भी आती हैं तब
‘त्याज्यं न धैर्य विधुरेऽपिकाले धैर्यात् कदाचित् स्थिति अमाप्नुयात् सः। यथा समुद्रेऽपि च पोतभंगे सांयान्त्रिको वाञ्छति तर्तुमेव।।’
विपरीत परिस्थिति होने पर भी धैर्य को नहीं छोड़ना चाहिये। जैसे समुद्र में जहाज के टूट जाने पर भी कुशल नाविक पार जाने के लिये ही प्रयत्न करते हैं। वेदमन्त्र उत्साहित करते हुये कह रहा है- ‘समानमस्तु वो मनः’ तुम्हारे मनन, चिन्तन, विचार एक हों। तुम्हारा निश्चय एक हो। मन के हारे हार है मन के जीते जीत।
७. आदर्श नेता– संगठन को गति देने में नेता का वही स्थान है जैसे रेलगाड़ी को खींचने में इञ्जिन का। नेता ही माला के मणकों के समान विविध योग्यताओं वाले कार्यकर्त्ताओं को एक सूत्र में बांधे रखता है। नेता की कथनी और करनी एक जैसी होनी चाहिये। ‘समानो मन्त्रः समितिः समानी’ तुम्हारा विचार एक हो। तुम्हारी सभा एक हो। नेता उस सभा का मुख्य अधिकारी होता है इसलिये उसका यह दायित्व है कि संगठन के कार्यकत्ताओं को मिलाकर रखे और अलग-अलग गुटबन्दी नहीं बनने दे। नेता का त्याग और स्नेह ही कार्यकर्त्ताओं का मनोबल बनाये रखता है। नेता का जीवन खुला अध्याय होना चाहिये। उसके वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में अन्तर नहीं होना चाहिये। उसे विचारना चाहिये कि मैं केवल दो आँखों से देखता हूँ परन्तु मुझे सहस्त्रों नेत्र देख रहे हैं। नेता की की हुई छोटी सी भूल भी संगठन के लिये हानिकारक है।
संगठन में बहुत शक्ति होती है। लकड़ियों का बंधा हुआ गट्ठा बलवान् व्यक्ति भी नहीं तोड़ पाता, परन्तु उनको पृथक् कर देने पर अल्पबल वाला भी उन्हें तोड़ देता है। चूल्हे में लकड़ी और अंगीठी में कोयले मिलाकर जलाने से ही अग्नि प्रज्वलित होती है। यदि उन्हें बाहर निकाल दिया जाये, तो लकड़ी धुआं देने लगेगी और कोयला बुझ जायेगा। इसमें कारण यह है कि चूल्हे और अंगीठी में उन्हें संगठन की ऊर्जा मिलती थी और बाहर उसका अभाव हो जाने से वे बुझ गये।
परमात्मा की बनाई हुई सृष्टि में एक-एक परमाणु दूसरे से मिलकर ही जगत् की रचना करता है। बूंद-बूंद से घड़ा भर जाता है। बादल की नन्हीं बूंदों से बड़े-बड़े सागर भर जाते हैं। वायु के हल्के झोंके मिलकर प्रबल झञ्झावात एवं तूफान का रूप धारण कर प्रलय का दृश्य उपस्थित कर देते हैं। अग्नि के कुछ स्फुल्लिंग मिलकर प्रचण्ड दावानल बन जंगलों को भस्मसात् कर देते हैं। छोटे-छोटे तृण रस्सा बनकर मस्त हाथियों को भी बान्ध लेते हैं तो सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव यदि संगठित होकर कार्य करे तो उसके लिये असम्भव कुछ भी नहीं रह जाता। संसार के सभी वैभव उसके चरणों में उपस्थित हो जाते हैं। शत्रु उनकी ओर आँख उठाकर देखने का भी साहस नहीं करता। धन्य हैं वे लोग, समाज या राष्ट्र जो संगठित होकर वेद की इस आज्ञा को शिरोधार्य मान, एक दूसरे का सहयोग करते हुये विद्या, राज्य और ऐश्वर्य की वृद्धि करते हैं। उनके यश एवं कीर्ति की दुन्दुभि सर्वत्र गूंज उठती है।
अज्ञानता, अन्धविश्वासों व कुरीतियों की जड़
-आचार्य भगवानदेव विद्यालंकार
‘अविद्या’ अज्ञानता, अन्धविश्वासों व कुरीतियों की जड़ है। इसके आने से व्यक्ति बन्धन में आ जाता है। बुराइयों में फंस जाता है। दुःख प्राप्त करता है। पतन की ओर जाता है। मूर्ति-पूजा सबसे बड़ी अविद्या है। बिना शुद्ध कर्म और परमेश्वर की उपासना के मृत्यु-दुःख से पार कोई नहीं होता।
इच्छा से छूटें कैसे?
-स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक
इच्छा से छूटें कैसे? उत्तर है- इससे उल्टा काम करो। जहाँ सुख दिखता है, वहाँ-वहाँ दुख देखना शुरू करो। जब दुख देखना शुरू करेंगे, तो इच्छा स्वतः खत्म हो जाएगी।
वेद काव्य का वास्तविक अध्ययन
-डाक्टर धीरज कुमार आर्य
परमकवि का प्रथम काव्य अजर-अमर है, जिसे वेद चतुष्टय कहा जाता है, जो शब्दमय है। दूसरा काव्य यह प्रत्यक्ष जगत् है, जो अर्थमय है और नश्वर है। प्रथम काव्य में जो कुछ अंकित है दूसरे काव्य में उसी का अर्थ है। दोनों में समन्वय है। यह समन्वय ही दोनों को एक कर्त्ता की दो विभिन्न कृतियाँ सिद्ध करता है। एक के अध्ययन से दूसरे का ज्ञान होता है। वेद काव्य में जैसे ही अध्येता ने पढ़ा -अन्योऽन्यमभिर्यत वत्सं जातमिवाध्न्या (अथर्ववेद ३//३0//१) आपस में तुम ऐसे ही प्यार करो जैसे गौ अपने नवजात बछड़े से प्यार करती है, तो तत्काल वह सृष्टिकाव्य के पन्ने पर बछड़े को चाटती हुई गौ का प्रत्यक्ष करता है। यह है वेद काव्य का वास्तविक अध्ययन। इस प्रकार के अध्ययन से ही सृष्टि के सब रहस्यों की उलझन सुलझती है।
ईश्वर क्या दूषित पदार्थों में भी है? –डाक्टर धीरज कुमार आर्य
किसी के मत में ईश्वर इसलिए सर्वव्यापक नहीं है क्योंकि उसे सर्वत्र मानने पर दूषित पदार्थों एवं सुअर आदि प्राणियों में उसकी उपस्थिति माननी पड़ेगी, जिस कारण वह शुद्ध, पवित्र न रह सकेगा। किन्तु वे यह भूल जाते हैं कि ईश्वर सर्वव्यापक होने के साथ-साथ परमसूक्ष्म एवं निर्विकार है। उसमें किसी भी प्रकार का विकार संभव नहीं है। न उस पर कोई लेप ही चढ़ सकता है। जैसे विद्युत् सर्वत्र रहती हुई भी अपने स्वरूप में यथावत् बनी रहती है। वह लोहे के तार से बहे अथवा तांबे के तार से, उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वैसे ही अग्नि भी गले सड़े पदार्थों को भस्म करती हुई भी निर्लेप बनी रहती है। ईश्वर निर्विकार और परमसूक्ष्म है। उस पर किसी भी भौतिक पदार्थ का कोई प्रभाव नहीं होता।
आत्मा की सिद्धि
–डाक्टर धीरज कुमार आर्य
दर्शन और स्पर्शन इन्द्रियों के द्वारा एक अर्थ के ग्रहण से दोनों एक के आश्रय होने से आत्मा की सिद्धि होती है। (न्याय0 ३//१//१) अर्थात् नेत्रों से जिस वस्तु को देखा जाता है हाथ से उसी को स्पर्श किया जाता है। दोनों की अनुभूति एक के अन्दर होने से, कि मैं ही देखता हूँ, मैं ही छूता हूँ, यह ‘मैं’ दर्शन और स्पर्शन दोनों में आत्मा का साधक है।
ज्ञान और भाषा का संबन्ध
–डाक्टर धीरज कुमार आर्य
ज्ञान और भाषा का नित्य संबन्ध है। एक के बिना दूसरा संभव नहीं। ज्ञान और भाषा की उत्पत्ति मनुष्य स्वयं नहीं कर सकता। प्रारम्भ में वह उन्हें मानव-परम्परा से ग्रहण करता है। क्योंकि ज्ञान दो प्रकार का होता है- एक स्वाभाविक और दूसरा नैमित्तिक। मनुष्येतर सभी प्राणियों का जीवन स्वाभाविक ज्ञान पर ही निर्भर होता है। उन्हें किसी भी प्रकार के नैमित्तिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जिसका जीवन केवल स्वाभाविक ज्ञान से नहीं चल सकता उसे नैमित्तिक ज्ञान की परमावश्यकता होती है। वह ज्ञान उसे माता-पिता, गुरु, समाज आदि से प्राप्त होता है। सृष्टि के आदि में जब प्रथम मानवोत्पत्ति हुई तब मानव परम्परा न होने से नैमित्तिक ज्ञान के अभाव में उनका जीवन सम्भव ही न होता यदि उनके आत्मा में ज्ञान के आदिस्रोत के रूप में वेदों का ज्ञान प्रादुर्भूत न होता। सृष्टि के आदि में जो, वेद रूप में ज्ञान व भाषा मानव को प्रदान करती है वह परमसत्ता ईश्वर ही है।