वेद वाणी
सामान्य प्रार्थना
मन्त्र
ओम् विश्वानिदेव -से- आ सुव।
-यजुर्वेद 30//3
अर्थ-हे संसार को उत्पन्न करने वाले सब सुखों के दाता, शुद्धस्वरूप, ऐश्वर्ययुक्त परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे सब दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुखों को दूर कर दीजिये, तथा जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वे सब हम को प्राप्त कीजिए।
गुरु-मंत्र, जिसमें ईश्वर की पूजा के तीनों स्तम्भ- स्तुति, उपासना और प्रार्थना विद्यमान हैं
मन्त्र
ओम् भूर्वुवः स्वः -से- प्रचोदयात्।
-यजुर्वेद 36//3
मन्त्रार्थ– हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप प्राणों के प्राण, अर्थात सबको जीवन देने वाले, सब दुखों से छुड़ानेवाले, स्वयं सुखस्वरूप और अपने उपासकों को सुखों की प्राप्ति कराने वाले हैं। आप सकल जगत के उत्पादक, सूर्यादि प्रकाशकों के भी प्रकाशक, वरण अथवा कामना करने-योग्य, निरुपद्रवी अर्थात सभी स्थितियों में अचल, निष्पापी, पवित्र, सब दोषों से रहित व पूर्ण अर्थात परिपक्व हैं। हम आपको धारण करते हैं। आप हमारी बुद्धियों को उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव में प्रेरित कीजिए, अर्थात आप हमें सद्बुद्धि दीजिए।
वेद में धर्म का स्वरूप
मन्त्र
ओम् सं गच्छध्वं -से- उपासते।
-ऋग्वेद 10//191//2
अर्थ– हे मनुष्य लोगो! जो पक्षपातरहित न्याय सत्याचरण से युक्त धर्म है, तुम लोग उसी को ग्रहण करो, उससे विपरीत कभी मत चलो, किन्तु उसी की प्राप्ति के लिए विरोध को छोड़ के परस्पर सम्मति में रहो, जिससे तुम्हारा उत्तम सुख सब दिन बढ़ता जाए और किसी प्रकार का दुख न हो। तुम लोग विरुद्ध वाद को छोड़ के परस्पर प्रीति से प्रश्न उत्तर सहित संवाद करो, जिससे तुम्हारी सत्यविद्या नित्य बढ़ती रहे। तुमलोग अपने यथार्थ ज्ञान को नित्य बढ़ाते रहो, जिससे तुम्हारा मन प्रकाशयुक्त होकर पुरुषार्थ को नित्य बढ़ावे। जैसे पक्षपातरहित धर्मात्मा विद्वान् लोग वेदरीति से सत्यधर्म का आचरण करते हैं, उसी प्रकार से तुम भी करो।
विशेष विवरण– यहां इस मंत्र का यह भाव नहीं है कि सभी लोगों की सोच और व्यवहार बिल्कुल एक जैसे होने चाहिए। कर्मो की भिन्नता व कर्मफलों की भिन्नता के कारण यह सम्भव ही नहीं है कि सभी की सोच और व्यवहार एक जैसा हो। सोच और व्यवहार में समानता का अर्थ यहां केवल इतना है कि वह दूसरों की सोच व व्यवहार को काटने वाला अर्थात अहित करने वाला न हो। जब बात सत्य सिद्धांतों की हो, तो सबको एकमत होना ही चाहिए, अन्यथा हमारे सुखों में कमी होकर दुखों में वृद्धि होना निश्चित होता है।
मन्त्र
ओम् समानो -से- जुहोमि।
-ऋग्वेद 10//191//3
अर्थ– हे मनुष्य लोगो! जो तुम्हारा मन्त्र अर्थात सत्य असत्य का विचार है, वह समान हो, उसमें किसी तरह का विरोध न हो और जब-जब तुम लोग मिलके विचार करो, तब-तब सबके वचनों को अलग-अलग सुन के, जो-जो धर्मयुक्त और जिसमें सबका हित हो सो-सो सबमें से अलग करके (छांट करके), उसी का प्रचार करो, जिससे तुम सभी का सुख बराबर बढ़ता जाए। और जिसमें सब मनुष्यों का मान, ज्ञान, विद्याभ्यास, ब्रह्मचर्य आदि आश्रम, अच्छे-अच्छे काम, उत्तम मनुष्यों की सभा से राज्य का प्रबन्ध का यथावत करना और जिससे बुद्धि, शरीर, बल,पराक्रम आदि गुण बढ़ें तथा परमार्थ और व्यवहार शुद्ध हों, ऐसी जो उत्तम मर्यादा है, सो भी तुम लोगों की एक ही प्रकार की हो, जिससे तम्हारे सब श्रेष्ठ काम सिद्ध होते जाएं। हे मनुष्य लोगो! तुम्हारा मन भी आपस में विरोधरहित, अर्थात सब प्राणियों के दुख का नाश और सुख की वृद्धि के लिए अपने आत्मा के समतुल्य पुरुषार्थ वाला हो। जो तुम्हारा मन और चित्त हैं, ये दोनों सब मनुष्यों के सुख ही के लिए प्रयत्न में रहें। इस प्रकार से जो मनुष्य सबका उपकार करने और सुख देने वाले हैं, मैं उन्हीं पर सदा कृपा करता हूँ। सब मनुष्य मेरी इस आज्ञा के अनुकूल चलें, जिससे उनका सत्य धर्म बढ़े और असत्य का नाश हो। हे मनुष्य लोगो! जब-जब कोई पदार्थ किसी को देना चाहो, तब-तब धर्म से युक्त ही करो और उससे विरुद्ध व्यवहार को मत करो। यह बात निश्चय करके जान लो कि मैं सत्य के साथ तुम्हारा और तुम्हारे साथ सत्य का संयोग करता हूँ। इसलिए, तुम लोग इसी को धर्म मान के सदा करते रहो और इससे भिन्न को धर्म कभी मत मानो।
मन्त्र
अग्ने व्रतपते -से- सत्यमुपैमी
-यजुर्वेद 1/5
भाषार्थ– इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि सब मनुष्य लोग ईश्वर के सहाय की इच्छा करें, क्योंकि उसके सहाय के बिना धर्म का पूर्ण ज्ञान और उसका अनुष्ठान पूरा कभी नहीं हो सकता।
हे सत्यपते परमेश्वर! मैं जिस सत्यधर्म का अनुष्ठान किया चाहता हूँ, उसकी सिद्धि आपकी कृपा से ही हो सकती है। मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मैं सत्यधर्म का अनुष्ठान पूरा कर सकूँ। उस अनुष्ठान की सिद्धि करनेवाले एक आप ही हो। सो कृपा से सत्यरूप धर्म के अनुष्ठान को सदा के लिए सिद्ध कीजिए। सो यह व्रत है कि जिसको मैं निश्चय से चाहता हूँ। मैं सब असत्य कामों से छूट के सत्य के आचरण करने में सदा दृढ़ रहूँ।
परन्तु मनुष्य को यह करना उचित है कि ईश्वर ने मनुष्यों में जितना सामर्थ्य रखा है, उतना पुरुषार्थ अवश्य करें। उसके उपरान्त ईश्वर के सहाय की इच्छा करनी चाहिए। मनुष्यों में सामर्थ्य रखने का ईश्वर का यही प्रयोजन है कि मनुष्यों को अपने पुरुषार्थ से ही सत्य का आचरण अवश्य करना चाहिए। जैसे कोई मनुष्य आंख वाले पुरुष को ही किसी चीज को दिखला सकता है, अंधे को नहीं, इसी रीति से जो मनुष्य सत्यभाव पुरुषार्थ से धर्म को किया चाहता है, उस पर ईश्वर भी कृपा करता है, अन्य पर नहीं। ईश्वर ने धर्म करने के लिए बुद्धि आदि साधन जीव के साथ रखे हैं। जब जीव पूर्ण पुरुषार्थ करता है, तब परमेश्वर भी अपने सब सामर्थ्य से उस पर कृपा करता है, अन्य पर नहीं।
मन्त्र
ओम् सहृदयं -से- वाध्न्या।
-अथर्ववेद 3//30//1
अर्थ– सभी मनुष्य एक हृदय वाले तथा एक मन वाले हों। कोई भी किसी से द्वेष न करे। सभी एक दूसरे को ऐसे चाहें जैसे गौ अपने नये उत्पन्न हुए बछड़े को चाहती है।
सबकी उन्नति का मार्ग बताने वाला मंत्र
ओम् स्वस्ति -से- गमेमहि।
-ऋग्वेद 5//51//15
अर्थ– हम सूर्य और चन्द्र की तरह कल्याणकारी मार्ग पर चलते रहें और परोपकारी, दानशील, वैरभाव रहित विद्वान् मनुष्यों की संगति करते रहें।
उत्तम व्यवहार के लिए प्रार्थनाएं
श्लोक
ओम् असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।
(बृहदारण्यक उपनिषद्)
अर्थ-हे ईश्वर! आप हमको असत् (गलत) मार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर ले चलिए। अविद्या अंधकार को छुड़ाकर विद्या रुपी सूर्य को प्राप्त कीजिए और मृत्यु रोग से बचा करके मोक्ष के आनन्द रुपी अमृत को दीजिए।
मन्त्र/श्लोक
ओम् तेजोऽसि -से- मयि धेहि।
अर्थ– हे प्रभु! आप प्रकाश स्वरूप हैं कृपा कर मुझ में भी प्रकाश की स्थापना कीजिए। आप अनन्त पराक्रमयुक्त है मुझ में भी पराक्रम दीजिए। आप अनन्त बलयुक्त हैं मुझे भी बल प्रदान कीजिए। आप अनन्त सामर्थ्ययुक्त हैं मुझ को भी पूर्ण सामर्थ्य दीजिए। आप दुष्टों पर क्रोधकारी हैं मुझ को भी वैसा ही कीजिए। आप निन्दा, स्तुति आदि को सहन करने वाले हैं, कृपाकर मुझको भी वैसा ही कीजिए।
व्यवहार को दिशा देने वाले तथ्य
मन्त्र
ओम् ईशा -से- स्विद्धनम्।
-यजुर्वेद 40//1
अर्थ– ब्रह्मांड की हर चीज बदलती है और हर चीज में ईश्वर मौजूद हैं। इस ब्रह्मांड की हर चीज का उपयोग वैराग्य की भावना के साथ करें। संतुष्ट रहें और लालच मत करें। लालची मत बनें। यह पैसा या संपत्ति किस व्यक्ति की है? अर्थात यह पैसा या संपत्ति हमेशा के लिए किसी की नहीं है।
मन्त्र
ओम् कुर्वन्नेवेह -से- नरे।
-यजुर्वेद 40//2
अर्थ– मनुष्य को सौ वर्ष के सक्रिय जीवन की कामना करनी चाहिए। ऐसा करने से कर्म बंधन का कारण नहीं बनेंगे। बंधन से बचने का यही एकमात्र उपाय है।
मन्त्र
ओम् असुर्या -से- जनाः।
-यजुर्वेद 40//3
अर्थ– जो व्यक्ति अपनी आत्मा की हत्या करते हैं, वे मृत्यु के बाद उन जातियों में जन्म लेते हैं, जो मनुष्य की तुलना में बहुत नीची होती हैं और जो अन्धकार से भरी होती हैं।
विशेष विवरण– मन, वाणी और शरीर से अधर्माचरण करने वाले लोगों को ही अपनी आत्मा की हत्या करने वाले लोग कहा गया है।
मन्त्र
ओम् हिरण्मयेन -से- खं ब्रह्म
-यजुर्वेद 40//17
भावार्थ- सब मनुष्यों के प्रति ईश्वर उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! सूर्यादि लोकों में व सूर्य से इतर सब जगह मैं ही आकाश के तुल्य व्यापक हूँ। मैं ही अबसे बड़ा हूँ व मैं ही सबका रक्षक हूँ और मेरा निज नाम ओम है। मैं अपनी शरण में आई आत्माओं की अविद्या का नाश कर, सत्यस्वरुप का आवरण हटाकर और सब दुखों से अलग करके मोक्ष को प्राप्त कराता हूँ।
विशेष विवरण—बच्चों की तरह बड़े भी वस्तुओं की बहरी चमक से मोहित होकर गहराई में जाने से बचते हैं। ईश्वर आत्माओं को सलाह देते हैं कि वे चीजों की बाहरी चमक से आकर्षित न हों, बल्कि उनकी गहराई में जाकर उन्हें समझने की कोशिश करें। इसके लिए सांसारिक सूर्य का उदाहरण दिया गया है। सूर्य को देखकर मनुष्य उसकी चमक के आगे झुक जाता है और सोचता है कि पृथ्वी पर संपूर्ण प्रकाश का स्रोत सूर्य ही है, लेकिन यह सच नहीं है। सूर्य में जो चमक है, वह ईश्वर की है। लेकिन इस बात को तभी समझा जा सकता है, जब बाहरी चमक को नज़र-अंदाज़ करके विषय की गहराई में जाएं।
श्लोक
ओम् सत्यमेव -से- निधानम्।
-मुण्डक उपनिषद् 3//6
अर्थ– सत्य की ही जीत होती है, झूठ की नहीं। सत्य पर चलकर ही मनुष्य देवता बनता है। ऋषि लोग सत्य पर चलकर ही परमात्मा को पाकर आनन्द प्राप्त करते हैं।
श्लोक
ओम् श्रेयश्च-से-वृणीते।
-कठोपनिषद् 2//2
अर्थ– श्रेय (कल्याणकारी) तथा प्रेय (प्रिय लगने वाला)-ये दोनों भावनाएं मनुष्य के सामने आती हैं। धीर पुरुष इन दोनों की अच्छी तरह मन से विचार कर परीक्षा करता है। वह प्रेय की अपेक्षा श्रेय को ही चुनता है। धीर पुरुष वह है जो कोई काम जल्दी में नहीं करता, तत्काल फल नहीं देखता। मन्द बुद्धि व्यक्ति सुख चैन के लिए, आराम से जीवन बिताने के लिए प्रेय को चुनता है।
श्लोक
ओम् अनुपश्य-से-पुनः।
-कठोपनिषद् 1//6
अर्थ– जो तुझसे पहले हो चुके है तथा जो तेरे पीछे होंगे उन की बाबत विचार। यह मनुष्य अन्न की तरह पैदा होता है, पकता है, नष्ट हो जाता है, और फिर उत्पन्न हो जाता है।
यह मंत्र मनुष्य के मरने के डर का समाधान करता है।