खण्ड ७ (सन्ध्या के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

 

मनसा परिक्रमा (४)

अब हम ‘मनसा परिक्रमा’ के उस भाग को लेते हैं जिसमें छः दिशाओं के छः रक्षिताओं का वर्णन है। पूर्व की दिशा का रक्षिता है ‘असित’, दक्षिण का ‘तिरश्चिराजी’, पश्चिम का ‘पृदाकु’, उत्तर दिशा का ‘स्वज’, नीचे की दिशा का ‘कल्माषग्रीव’ और ऊपर की दिशा का ‘श्वित्र’।

रक्षिता का अर्थ है रक्षा करनेवाला (रक्ष जमा तृच)। छहों दिशाओं के ये छः रक्षक बताये गये। ये रक्षक कौन हैं?

सायणाचार्य ने ‘असिता’ आदि छः सर्पों की कल्पना की है जो छः दिशाओं में हमारे समाज की रक्षा करते हैं। यह तो नितान्त भ्रममूलक धारणा है। हर समाज में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो नैसर्गिक रीति से बुराइयाँ उत्पन्न करते रहते हैं, जैसे काले हृदय वाले ‘असित’, कुचाली ‘तिरश्चिराजी’, झगड़ालू ‘पृदाकु’, चारों ओर से लिपट जाने वाले ‘स्विज, निर्दोषों को निगल जाने वाले कल्माष-ग्रीव, और नाना रूप वाले स्वार्थी ‘श्वित्र’, ऐसे अनिष्ट लोग समाज के लिए हानिकारक होते हैं। ऐसे लोग यद्यपि हर समाज में पाये जाते हैं तथापि उच्च समाज ऐसे लोगों के साथ ऐसा व्यवहार करता है कि उनमें कुछ-न-कुछ सुधार होता रहता है।

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तनिक यह सोचिये कि परमात्मा संसार में ऐसे लोगों को क्यों उत्पन्न करता है? साँप, बिच्छू, शेर, चीते, क्रूर और मूर्ख लोग क्यों पैदा किये जाते हैं? ईश्वर का प्रयोजन क्या है? अथवा संसार का इनसे क्या उपकार है?

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‘मनसा परिक्रमा’ के मन्त्रों में हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं, कि हमारी प्रत्येक दिशा में जो अनिष्ट अथवा हानिकारक अंश हो वह दूर हो जाय, और उससे समाज को हानि के स्थान में लाभ हो। अच्छे समाज और बुरे समाज में केवल इतना भेद है कि अच्छा समाज हर मनुष्य से उसकी योग्यता के अनुसार लाभ उठा सकता है और बुरा समाज नहीं। ‘मनसा परिक्रमा’ में हम परमात्मा के भिन्न-भिन्न गुणों का ध्यान करते हैं, और अनिष्ट अंग से द्वेश करने के स्थान में ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि ऐसा भाग हमारी रक्षा करे। न केवल हमारे कार्यों में ही हमारी सहायता करे अपितु अपना भी भविष्य सुधार सके। ‘असित’ या काले दिल वाले लोग अग्निस्वरूप परमात्मा तथा पितरों की दया से ठीक मार्ग पर लग जायँ। वरुणरूप ईश्वर का ध्यान और समाज की सम्पत्ति अथवा अन्न व्यर्थ बकवास और शिकायत करने वाले ‘पृदाकुओं’ को अच्छा बना दे। सामरूप परमेश्वर और समाज की शक्ति अर्थात् अशनिः दूसरों से अकारण लिपटनेवाले भिखारियों को ठीक कर दे। जंगलों में पैदा होनेवाले कीड़े-मकोड़े हमारी कृषि को अधिक उत्पत्तिशील बना सकें। बृहस्पति परमात्मा का ध्यान करके अनेक रूप धारण करनेवाले और बनावटी जीवन धारण करनेवाले लोग सुसमय पर होनेवाली वर्षा की सहायता से जीवन के लाभकारी साधनों के सम्पादन में सहायक हो सकें। कोई किसी से द्वेश न करे। हमारा हर एक के लिए नमस्कार हो। यदि हम दूसरों से द्वेश न करेंगे तो दूसरे भी हमसे द्वेश करना छोड़ देंगे।

उपस्थान मन्त्र (१)

संध्या के तीन भाग समाप्त हुए, चौथा आरम्भ होता है। आरम्भ में हमने अपने पिण्ड अर्थात् शरीर में ईश्वर का ध्यान किया। अपने शरीर और उसके भिन्न-भिन्न अंगों पर विचार करके हम इस परिणाम पर पहुंचे कि परमात्मा सर्वज्ञ और सर्वहितकारी है। उसका ज्ञान हमारे शरीर की बनावट से विस्तृत रीति से प्रकट होता है और उसकी दया हमको इस योग्य बनाती है कि हम शरीर से उचित रीति से लाभ उठा सकें। पिण्ड से चलकर हमारी दृष्टि ब्रह्माण्ड तक जाती है। यह समस्त सृष्टि एक बहुत बड़ा शरीर है। जो बात शरीर में केवल मेरे लिए है वही ब्रह्माण्ड में समस्त जीवों के लिए भी है। आँख केवल मेरी आँख है। सूर्य और चाँद संसार-भर के जीवों की आँख हैं। इसके उपरान्त ईश्वर की सत्ता की महिमा की अनुभूति हमको अपने मानव-समाज में होती है। मनुष्य स्वतन्त्र है काम करने में। परन्तु हमारी सबकी स्वतन्त्रता आपस में टकराकर समग्र संसार को नष्ट-भ्रष्ट न कर दे इसलिए परमात्मा अधिपति के रूप में समस्त मनुष्य-संस्थान पर आधिपत्य रखता है।

इन तीनों भागों के पश्चात् संध्या-विधि का चौथा भाग आता है जिसको उपस्थान अर्थात् ईश्वर-सामीप्य कहते हैं। किसी वस्तु से हमको उस समय तक प्रेम नहीं होता जब तक उसका पूरा सम्बन्ध अपने साथ ज्ञात न हो जाय। यदि हमको पता लग जाय कि अमुक पुरुष हमारे साथ दया करता है तो हम उससे प्रेम करने लगते हैं। यदि हमको यह अनुभव हो जाय कि जितना दयालु ईश्वर है उतना कोई माता-पिता भी नहीं, तो हम ईश्वर से प्रेम करने लगेगें और नास्तिक न रहेंगे। सुख देना और दुःख से बचाना यही ईश्वर की दयालुता है, और संध्या के पहले तीन भागों पर विचार करने से हमको यही भान होता है कि यदि ईश्वर-जैसी कोई दयावती शक्ति ऊपर न होती तो इतनी बहुमूल्य आँखें हमको कौन देता? एक राजा समस्त राज्य की सम्पत्ति बेचकर भी एक चींटी की आँख को मोल नहीं ले सकता। इसलिए जब हमने परमात्मा की दयालुता को समझ लिया तो हमारा ध्यान स्वभावतः परमात्मा की कृपाओं से आगे बढ़कर स्वयं परमात्मा की ओर आकर्षित हो जाता है। अब तक हम परमात्मा का ध्यान उसकी दयालुता के माध्यम से करते थे। अब हमको इतनी योग्यता प्राप्त हो गई कि हम बिना किसी साधन के सीधा परमात्मा का ध्यान कर सकें।

यह सब कैसे होता है? इस पर विचार कीजिये। आप करते तो प्रतिदिन ऐसा ही हैं, केवल समझने की आवश्यकता है। एक दृष्टान्त लीजिये। कल्पना कीजिये कि आप एक हलवाई की दुकान से मिठाई मोल लेते हैं। पहले दिन आपके चित्त की क्या वृत्ति होती है? विचारिये! आपको हलवाई से कोई हित नहीं, हलवाई को आपसे कोई हित नहीं। आप मिठाई से प्रयोजन रखते हैं और हलवाई पैसे से। आपने पैसे फेंक दिये और हलवाई ने मिठाई दे दी। न आपने हलवाई की ओर ध्यान दिया न हलवाई ने आपकी ओर। इस प्रकार एक सप्ताह तक आप मिठाई क्रय करते रहे। आप देखेंगे कि कुछ दिनों में आपके चित्त और हलवाई के चित्त की वृत्तियों में परिवर्तन उत्पन्न होने लगेगा। आप उसकी ओर और वह आपकी ओर प्रवृत्त होने लगेगा। आप उसकी आकृति से कुछ-कुछ परिचित हो जायेंगे और वह आपकी आकृति से। सम्भव है कि कुछ दिनों में ‘नमस्ते’ और कुशल- प्रश्न की भी नौबत आ जाय। यदि एक मास पीछे किसी कारण एक दिन आपका जाना न हो तो हलवाई सोचने लगेगा कि आज बाबू जी क्यों नहीं आये? क्या उन्होंने शहर छोड़ दिया? यह बात पैसे के लोभ से नहीं है। पैसे का लोभ आरम्भ में था। अब कुछ-कुछ वैयक्तिक सम्बन्ध उत्पन्न हो गया है। सम्भव है कि आप बीमार हो जायँ तो हलवाई आपको देखने भी आवे। सारांश यह है कि जो सम्बन्ध आरम्भ होते हैं, वे कालान्तर में गहरे हो जाते हैं, और कभी स्वार्थ सर्वथा छूट जाता है। जिस मनुष्य से आपको लाभ पहुँचता है वह यदि आपसे कभी न भी मिला हो, तो भी आपका उसकी ओर झुकाव हो जाता है। उसकी आकृति से परिचित न भी हों, तो भी उसके लिए आपके हृदय में स्थान हो जाता है। ऐसा लगता है मानो आपका हृदय चुपचाप उसके उपकारों के लिए कृतज्ञता प्रकट कर रहा है।

ठीक-ठीक यही बात ईश्वर के विषय में भी है। ईश्वर को हम देख नहीं सकते, परन्तु ईश्वर के उपकार को रात-दिन देखते हैं-

हर इक बर्ग शाहिद है अज़मत का तेरी।

हर इक गुल में तुझको खिला देखते हैं।।

थोड़ा-सा विचार करने से ईश्वर के उपकार समझ में आने लगते हैं। जो मनुष्य नित्य सायं-प्रातः ‘ओम् वाक् वाक्’ जपता है, और केवल रटता ही नहीं अपितु अर्थ भी समझता है, और केवल अर्थ ही नहीं समझता अपितु अपनी वाणी में ईश्वर की महिमा का प्रकाश भी देखता है, उसको ईश्वर दिखाई दे या न दे उसकी मनोकामना ईश्वर से मिलने और उससे सम्बन्ध उत्पन्न करने की हो जाती है। इसी को उपस्थान (ईश्वर का सान्निध्य) कहते हैं। हमारा पिण्ड भौतिक था। इसके साथ हमारा अहंकार अर्थात् अहंभाव भी सम्मिलित था। वाणी में ईश्वर की शक्ति है-उस वाणी में जिसको हम अपनी कहते हैं। समस्त जगत् भी भौतिक है। हमारे समाज में भौतिक और आत्मिक दोनों तत्वों का समावेश है। समाज केवल भौतिक नहीं। वह किसी कुम्हार के मिट्टी के बर्तनों या खिलौनों की दुकान नहीं। इनमें भी ईश्वर की महिमा दृष्टि-गोचर होती है। माता और बच्चे के सम्बन्ध पर विचार कीजिये। पति-पत्नी के परस्पर सम्बन्धों को समझने की कोशिश कीजिये और यह भी सोचिये कि माता-पुत्र या पति-पत्नी की दो आत्माओं के अतिरिक्त क्या कोई और भी शक्ति है जो इन दोनों में विशिष्ट प्रकार के सम्बन्ध उत्पन्न कर देती है? जितना ध्यान आपका इन बातों की ओर जायगा उतना ही आप ईश्वर का ध्यान करने लगेंगे। उपस्थान-मन्त्रों में इसी बात का विस्तारपूर्वक वर्णन है। उपस्थान-मन्त्र चार हैं- (१) उद्वयं इति, (२) उदुत्यं इति, (३) चित्रं देवानां इति, (४) तच्चक्षुरिति। इनके अतिरिक्त ऋषि दयानन्द ने संस्कार-विधि में पाँचवाँ एक मन्त्र और दिया है। इन पाँच उपस्थान-मन्त्रों के अतिरिक्त गायत्री और नमस्कार मन्त्र हैं। इन सातों की हम संक्षेपतः व्याख्या करेंगे।