खण्ड ६ (सन्ध्या के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)
मनसा परिक्रमा (३)
उपासक को इस बात को ध्यान में लाना चाहिये कि ईश्वर छहों दिशाओं में है अर्थात् पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, नीचे और ऊपर। इन छः दिशाओं में समस्त जगत् आ जाता है। समास रूप से यह कह सकते हैं कि ईश्वर सर्वत्र व्यापक है। परन्तु ‘सर्वत्र’ शब्द की भी विस्तृत अर्थों में अनुभूति होनी चाहिये। इसलिए छहों दिशाओं का अलग-अलग नाम लिया गया। और केवल एक सामान्य नाम ‘ईश्वर’ या ‘परमेश्वर’ कहने के स्थान में ईश्वर के गुणों के अनुसार ईश्वर के छः नाम अलग-अलग लिये गये।
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जब हम प्रातः काल उठकर सूर्य का दर्शन करते हैं और हम सूर्याभिमुख होते हैं, तो जिस दिशा की ओर हमारा मुँह होता है, उसको ‘पूर्व’ या ‘प्राची’ कहते हैं। इस प्रकार, जो दिशा हमारे दाहिने हाथ की ओर होती है, उसको ‘दक्षिण’ या ‘दक्षिण’ दिशा कहा गया। जिधर पीठ होती है उस को ‘प्रतीची’ अर्थात् ‘पिछली’ दिशा कहा गया । जिधर को बायाँ हाथ है उसको ‘उदीची’ कहा अर्थात् ‘प्राची’ से सर्वथा विपरीत दिशा। नीचे की दिशा को ‘ध्रुव’ कहने का तात्पर्य यह है कि जिस भूमि पर हम खड़े हैं, वह सुदृढ़ है और हमको स्थिर रखती है। ‘ध्रुव’ का अर्थ है ‘दृढ़’ -प्रबल (जिस पर से हम फिसल न जायँ। जो हमको अच्छी तरह जमा रक्खे)। ‘उर्ध्वा’ ऊपर की दिशा है। वह हमारे सिर के ऊपर है। यह स्पष्ट है।
इन छहों दिशाओं में ईश्वर है, परन्तु हर दिशा में ईश्वर के विशेष नाम दिये हैं। इसी रहस्य को समझने की आवश्यकता है।
हमारे सामने ईश्वर है। उसको ‘अग्नि’ कहा है। ‘अग्नि’ का अर्थ है ‘अग्रणी’ अर्थात् हमको आगे ले जाने वाला नायक, नेता। हम ईश्वर को अपने आगे देखते हैं। वह हमारा पथ-प्रदर्शन करता है। पथ-प्रदर्शन का अर्थ है ‘ज्ञान देने वाला’। भौतिक अग्नि को भी अग्नि इसलिये कहते हैं कि वह मार्ग दिखाती है। जो काम अँधेरे जंगल में मशाल करती है वही काम कष्टों के अवसर पर ईश्वर-विश्वास करता है, इसलिए हम पूर्व दिशा में ईश्वर को अग्नि के रूप में देखते हैं।
दाहिने हाथ की ओर हम ईश्वर को ‘इन्द्र’ के रूप में देखते हैं। ‘इन्द्र’ का अर्थ है शक्ति, वीर्य, बल, सामर्थ्य। हमारा दाहिना हाथ बल चाहता है जिससे हमकों ‘शक्ति’ मिलती है। हम आज भी कहते हैं कि अमुक पुरुष हमारा दायाँ हाथ है। ईश्वर से अधिक दाहिना हाथ हो भी कौन सकता है।
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पीठ-पीछे अर्थात् पश्चिम की ओर ‘वरुण’ है। ‘वरुण’ का अर्थ है शासन करनेवाला। वेदों में वरुण को समस्त जगत् पर शासन करनेवाला अर्थात् वश में रखनेवाला बताया गया है। ‘वरुण’ हमारी पीठ के पीछे है। वह हमको दिखाई नहीं देता। वरुण के नियमरूपी पाश अथवा जाल चारों ओर फैले हुए हैं। दिखाई नहीं पड़ते अर्थात् पीठ के पीछे हैं। ‘शासन’ का हाथ कभी दिखाई नहीं पड़ता। जब मनुष्य कानून के शिकंजे में जकड़ जाता है तब पता चलता है। चोर या डाकू सरकार या पुलिस के अफसरों को देख नहीं पाते। परन्तु अच्छी सरकार चुपके-चुपके उन पर दृष्टि रखती है। जिस प्रकार बिजली के करेंट अथवा तरंगें दिखाई नहीं पड़ते, इसी प्रकार वरुण के पाश अथवा फाँस भी दिखाई नहीं पड़ते। परन्तु ज्योंही मनुष्य ने शासन भंग किया, वरुण देव तुरन्त ही अपना पाश डाल देते हैं। मत समझो कि ईश्वर केवल हमारे आगे है, पीठ के पीछे नहीं है। जब बच्चा किसी चीज को चुराता है तो वह उसे पीठ के पीछे छिपा लेता है। हम भी यह समझते हैं कि ईश्वर हमको देख नहीं रहा। ईश्वर काबे में होगा, काशी में होगा, मन्दिर में होगा। हम ईश्वर को देख नहीं रहे। ईश्वर को सामने भी वही देख सकते हैं जो ज्ञानी हैं। ईश्वर को जो ‘नेता’ समझते हैं उन्हीं के लिए ईश्वर ‘अग्नि’ स्वरूप है। अज्ञानी ईश्वर को नहीं देख सकते। परन्तु जिन्होंने अपने ‘ज्ञान’ से ईश्वर को देखा है उनको पीठ-पीछे भी वरुण के पाश दिखाई देते हैं। वरुण के पाश केवल अपराधियों के लिए ही नहीं हैं। धर्मात्मा लोगों को भी उनका सहारा रहता है। वह अत्याचारियों की रोक-थाम करते रहते हैं। सरकारी पुलिस पकड़ती तो केवल अपराधियों को ही है, परन्तु जो नियम भंग नहीं करते और भद्र पुरुष हैं वे भी पुलिस को न देखते हुए भी देखते हैं। वे दूर से ही समझते रहते हैं कि नगर में पुलिस है और वे सुरक्षित हैं।
‘उत्तर’ अर्थात् बाईं दिशा में ईश्वर को ‘सोम’ नाम से सम्बोधित किया है। ‘सोम’ का अर्थ है ‘दयालु’, ‘शान्तिप्रद’, कोमल, शीतल। ‘सोम’ चन्द्रमा को इसलिए कहते हैं कि वह शान्तिदायक है। बाईं ओर ही हमारा हृदय है जो हमारे प्रेम का प्रतीक है। ईश्वर भी प्रेम करता है। दाहिनी ओर ईश्वर को ‘इन्द्र’ या ‘शन्ति’ का प्रतीक बताया था, बाईं ओर प्रेम का। शक्ति तथा शान्ति दोनों ही ईश्वर से प्राप्त होती हैं। दोनों मानव-समाज के लिए आवश्यक हैं। शक्ति से शान्ति की अपूर्णता दूर होती है और शान्ति से शक्ति की अपूर्णता की निवृत्ति होती है। दोनों एक दूसरी की पूरक हैं। ईश्वर ‘इन्द्र’ भी है और ‘सोम’ भी।
नीचे की ओर ईश्वर को ‘विष्णु’ कहा। विष्णु रक्षक हैं, वह फिसलने से बचाता है। वह सकल जगत् का आश्रय है, आधार है। ऊपर की ओर ईश्वर को ‘बृहस्पति’ या सबसे ‘ऊँचा’ बताया है। वह सबसे बड़ा पति या सबका स्वामी है।
इस प्रकार सब दिशाओं में हम ईश्वर की अनुभूति करते हैं। किसी समाज के समुचित संचालन के लिए सबसे अधिक आवश्यक है- ‘ईश्वर-विश्वास’। जिस समाज के व्यक्तियों में ईश्वर-विश्वास का अभाव हो जाता है, वह समाज सर्व-सम्पन्न होते हुए भी नष्ट हो जाता है। उसमें कुत्सित प्रवृत्तियाँ बढ़ जाती हैं। लोगों को अनाचार से घृणा नहीं रहती। शीघ्र ही अत्याचार की ओर प्रवृत्त हो जाते हैं। ईश्वर से डरनेवाले किसी बुराई या बुरे आदमी से नहीं डरते। जो ईश्वर से नहीं डरता वह छोटी-छोटी चीजों से डरता है, क्योंकि वह बुराईयों में शीघ्र फँस जाता है।
हम अपनी छहों दिशाओं में ईश्वर के भिन्न-भिन्न गुणों का स्मरण करते हैं। इससे हमारी सामाजिक अवस्था में उन्नति होती है। ‘मनसा परिक्रमा’ के छः मन्त्रों के जो छह पहले टुकड़े हैं उनमें जहाँ ईश्वर को भिन्न-भिन्न नामों द्वारा ‘अधिपति’ कहा गया है, वहाँ हमारे जीवन को सफलतापूर्वक व्यतीत करने के लिए मनुष्य की सहायता की भी आवश्यकता होती है। केवल ईश्वर के स्मरण-मात्र से हम सामाजिक उन्नति में कृतकार्य नहीं हो सकते। ईश्वर का स्मरण एक प्रबल अंश है, क्योंकि यदि किसी समाज के व्यक्ति नास्तिक अथवा ईश्वर विमुख हो जाते हैं तो उस समाज में अनेक बुराईयाँ उत्पन्न हो जाती हैं। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि केवल ईश्वर का नाम रटने से ही आस्तिकता या ईश्वर-उपासना के सारे साधनों की पूर्ति हो जाय। जैसे सूर्य के प्रकाश के साथ-साथ आँख के स्वास्थ्य की भी आवश्यकता है, सूर्य से कोई अंधा लाभ नहीं उठा सकता, इसी प्रकार जब तक मनुष्य का आत्मा स्वस्थ और बलयुक्त नहीं होता उस समय तक ईश्वर का स्मरण कुछ लाभ नहीं पहुँचाता। संसार में लाखों साधु रात-दिन ईश्वर का नाम रटते हैं। उनसे मानव-जाति का कोई लाभ नहीं।
इसलिए, हर दिशा के अधिपति का ध्यान करने के साथ-साथ उन सांसारिक शक्तियों का भी ध्यान करते हैं। जिनकी ओर संध्या में संकेत किया गया है, अर्थात् संध्या में हम ईश्वर का इस प्रकार ध्यान करते हैं कि समाज के प्रति जो हमारे कर्तव्य हैं, उनका आवश्यकतानुसार उचित रीति से पालन हो सके।
इन पहले टुकड़ों के तीसरे भाग पर ध्यान दीजिए। इसमें यह बताया गया है कि पूर्व दिशा में ‘आदित्य’ इषु हैं। दक्षिण दिशा के ‘इषु’ हैं ‘पितर’। पश्चिम की दिशा में ‘अन्न’ इषु हैं। उत्तर की दिशा में ‘इषु’ हैं ‘अशनि’। नीचे की दिशा में ‘वीरुध’ इषु हैं, और ऊपर की दिशा के इषुओं के नाम ‘वर्ष’ है।
प्रश्न यह है कि ‘इषु’ का क्या अर्थ है? और ‘इषु’ का हमारे सामाजिक जीवन से क्या सम्बन्ध है?
इषु का धात्वर्थ है तीर जिसको कमान अथवा धनुष पर चढ़ा कर शत्रु पर फेंकते हैं।
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परन्तु संस्कृत भाषा में ‘इषु’ शब्द के बहुत-से लाक्षणिक अर्थ लिये गये हैं। ‘इषु’ एकवचन है। इसका बहुवचन है ‘इशवः’। ‘मनसा परिक्रमा’ के मन्त्रों में बहुवचन का प्रयोग हुआ है। ‘तीर’ एक युद्ध-सम्बन्धी शब्द है। लाक्षणिकरूप से ‘इष’ सब प्रकार के युद्ध-उपकरणों के लिए आता है। इसी अर्थ में एक और शब्द का प्रयोग होता है, वह है ‘आयुध’। ‘आयुध’ का भी यही अर्थ है, अर्थात् वह समग्र सामग्री जिससे युद्ध में विजय प्राप्त हो सके ‘आयुध’ या ‘इषु’ है।
वैदिक वाङ्गमय के अध्ययन से एक और बात ज्ञात होती है। अधिकांश में जो शब्द युद्ध अथवा लड़ाई के लिए प्रयुक्त होते हैं, वही ‘यज्ञ’ के लिए भी प्रयुक्त हुए हैं।
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यहाँ यह विचार करना है कि जब युद्ध, समाज तथा यज्ञ के लिए एक समान शब्दों का प्रयोग हुआ है तो क्या इसमें कोई रहस्य है अथवा यह केवल आकस्मिक बात है? वस्तुतः यह कोई आकस्मिक बात नहीं है। आकस्मिक घटनाओं का बाहुल्य नहीं होता। ये अत्यन्त अल्प होती हैं, इसलिए वे ‘आकस्मिक’ कहलाती हैं। बात यह है कि जहाँ तक बुराइयों का सामना अथवा निराकरण करने का सम्बन्ध है यु़द्ध, समाज और यज्ञ का उद्देश्य एक ही है। यज्ञ हम उन कीटाणुओं के विनाश के लिए करते हैं जो रोगोत्पादक हैं, जैसे मलेरिया के कीटाणु। ‘समाज’ द्वारा हम उन कुत्सित जनों की रोक-थाम करते हैं जो हमारे शुभ कर्मों में बाधा डालते हैं, जैसे चोर, डाकू, दुष्टजन।
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हम ऊपर बता चुके हैं कि ‘इषु’ शब्द उन सब वस्तुओं के लिए आता है जिनसे या तो युद्ध सफलतापूर्वक लड़ा जा सके जैसे बन्दूक, तलवार, गोला, बारूद इत्यादि, अथवा वे सब चीजें अथवा सामग्री जिनकी यज्ञ में आवश्यकता होती है, जैसे, होम-पात्र, सामग्री, घृत, वेद-मन्त्र, आहुतियाँ इत्यादि, या वे लोग या वस्तुएँ जिनसे समाज की उन्नति हो सके, जैसे, विद्वान, गाय, बैल, अन्न, वर्षा आदि।
समाज के विविध प्रकार के विभाग हैं, जैसे कारागार, चिकित्सालय, पाठशालायें, पुलिस, न्यायालय इत्यादि। ये सब उन रोगों की चिकित्सा के लिए हैं जो समाज की उन्नति में बाधक हैं। कारागारों में उन लोगों का दमन किया जाता है जो चोर या डाकू कहलाते हैं। चिकित्सालयों में उन चोर और डाकुओं से रक्षा की जाती है जो यद्यपि अत्यन्त लघुकाय हैं, परन्तु हमारे शरीर में प्रवेश करके हमारे स्वास्थ्य को विकलित कर देते हैं। विद्यालय में बुराई से बचने के लिए मस्तिष्क की अवस्था को ठीक रक्खा जाता है, जिससे चोर, डाकू, धोखेबाज उत्पन्न न हो सकें। पुलिस और न्यायालय भी इन्हीं रोगों की निवृत्ति करते हैं। और यज्ञ से भी यही प्रयोजन सिद्ध होता है। यज्ञ का भौतिक पक्ष यदि ठीक रहे, तो चिकित्सालयों की आवश्यकता कम हो जावे। यदि मानसिक और आत्मिक पक्ष ठीक रहें तो सदाचार समीचीन रहे। जैसे तीर और बन्दुक के लिए शस्त्रालय होते हैं इसी प्रकार स्कूल, कालेज या यज्ञशालायें भी आध्यात्मिक शस्त्रालय होते हैं और इनके भी ‘इषु’ अर्थात् तीर या आयुध हैं।
‘इषु’ अर्थात् तीर शब्द केवल मनसा परिक्रमा के मन्त्रों में ही नहीं है। दूसरी भाषाओं या संस्थाओं में भी इस शब्द का प्रयोग है। फारसी भाषा में कहते हैं कि अमुक औषध अमुक रोग के लिए ‘तीर बहदफ’ है। इसी प्रकार वैद्य लोगों को भी कहते सुना है कि अमुक औषध ‘राम बाण’ है। ‘बाण’ या ‘तीर’ ही तो इषु हैं ।
अब हम यह बताने का यत्न करेंगे कि ‘मनसा परिक्रमा’ के मन्त्रों में तीर या इषु का क्या अर्थ है और वे किस-किस रोग के लिए ‘राम बाण’ हैं।
हमारी व्याख्या का यह भाग पाठकों को कुछ विचित्र-सा लगेगा। परन्तु जहाँ शब्दों के लाक्षणिक अर्थ लिये जाते हों वहाँ उनकी व्याख्या आवश्यक हो जाती है।
प्राची अर्थात् पूर्व दिशा में ‘इषु’ हैं आदित्य! अधिपति अग्नि अर्थात् ज्ञान या प्रकाश का वास्तविक स्वरूप। परमात्मा ने ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमको आँखें दी हैं और सूर्य अर्थात् आदित्य दिया है। सूर्य की किरणें ही आदित्य कहलाती हैं। वही ज्ञान का साधन हैं। उपासक परमात्मा के अग्नि-स्वरूप का ध्यान करते हुए परमात्मा के दिये हुए ज्ञान के साधनों को अपने समाज की उन्नति में लगाना चाहता है। ‘आदित्य’- यह बहुवचन हैं, क्योंकि सूर्य की किरणें सहस्रों हैं। इसमें संसार की भलाई का रहस्य छिपा है। समस्त मनुष्यों और पशु आदि के जीवन का आधार सूर्य की किरणें हैं। ‘अग्नि’ में प्रकाश भी है और गरमी भी । सूर्य में भी रोशनी है और गरमी भी, विद्या में भी प्रकाश और गरमी अर्थात् प्रेरक-शक्ति है। अतः अग्नि, आदित्य और ज्ञान तीनों का परस्पर सम्बन्ध है।
‘अग्नि’ हमारे पूर्व की ओर है, अर्थात् हमारे जीवन के सब कार्यों में विद्या को सबसे आगे रखना चाहिये। विद्या के बिना कोई नहीं चल सकता। भौतिक प्रकाश और मस्तिष्किक विद्या यह हमारे मुँह के समक्ष रहने चाहिएँ। कभी इनकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिये। उसी अवस्था में मनुष्य व्यष्टिगत और समष्टिगत उन्नति कर सकता है। हमारे सम्पूर्ण समाज को ध्यान रखना चाहिये कि ज्ञान की वृद्धि हो। ज्ञान की वृद्धि समस्त वृद्धियों में प्रथम और श्रेष्ठ है। यह ईश्वर की महती कृपा है कि आँख खोलते ही हमको सूर्य के दर्शन होते हैं।
दाहिनी ओर अर्थात् दक्षिण दिशा में हमने परमात्मा को ‘इन्द्र’ अर्थात् शक्तिभाव के रूप में देखने की भावना की। इस दिशा के ‘इषु’ हैं ‘पितरः’। ‘पितरः’ पिता का बहुवचन है। जो वृद्ध और अनुभवी पुरुष हैं, वही पिता हैं। इन्द्र की शक्ति का समुचित प्रयोग तो अनुभवी वृद्ध पुरुष ही कर सकते हैं। इन्द्र समस्त जगत् का स्वामी है। राज्य के प्रबन्ध को ठीक रखने के लिए मनुष्यों में वृद्ध पुरुषों की गणना है।
आध्यात्मिक अर्थ में ईश्वर ‘इन्द्र’ है, उसकी शक्ति अनेक रूपों में जगत् में काम कर रही है। वह सर्वशक्तिमान् है। परन्तु जो काम आध्यात्मिक क्षेत्र में ईश्वर के ‘इन्द्र’ रूप का है वह समाज-क्षेत्र में ‘पिता’ अर्थात् अनुभवी वृद्ध पुरुषों का है। ईश्वर भी हमारा पिता है, और हमारा पिता मनुष्य भी होता है। आध्यात्मिक स्तर पर ईश्वर को बाप कहते हैं और सामाजिक परिभाषा में हमारा जनक हमारा पिता कहलाता है। उसी पर हमारे पालन का भार होता है। समाज की उन्नति के दो बड़े अंग हैं- ईश्वर-विश्वास तथा वृद्ध पुरुषों के अनुभवों के प्रति श्रद्धा। जिस प्रकार सूर्य, चन्द्र आदि भिन्न-भिन्न पदार्थ ईश्वर की देन में सम्मिलित हैं, इसी प्रकार अनुभव प्राप्त वृद्ध-पुरुष भी ईश्वर की बड़ी देन हैं। जैसे अन्धापन एक बड़ा अभिशाप है क्योंकि अन्धे सूर्य की रोशनी से लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं, इसी प्रकार दुर्भाग्यवान है वह समाज जिसमें या तो अनुभवी वृद्ध पुरुषों अर्थात् पितरों का अभाव है, अथवा यदि वे हैं तो उनका सम्मान नहीं किया जाता । राष्ट्र की उन्नति के लिए जहाँ बल की आवश्यकता है वहाँ अनुभवी वृद्धों की भी आवश्यकता है। जिस देश को समस्त जगत् पर शक्ति रखनेवाले ईश्वर पर विश्वास नहीं और अपने अनुभवी वृद्धों पर भी श्रद्धा नहीं, वह राष्ट्र चिरकाल तक जीवित नहीं रह सकता।
दक्षिण दिशा का अधिपति ‘इन्द्र’ है और ‘पितर’ इषु है। दक्षिण को दक्षिण इसलिए कहते हैं कि इस दिशा में ‘दक्षता’ या योग्यता है । शक्ति अर्थात् बल, और वृद्धता अर्थात् अनुभव दोनों की आवश्यकता है। ईश्वर की शक्ति का उचित प्रयोग तो अनुभवी पुरुष ही कर सकते हैं। बहुत-से लोग शक्तिशाली होते हुए भी अनुभवी नहीं होते। अनुभव के लिए आयु की आवश्यकता है।
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‘मनसा परिक्रमा’ में बताया गया है कि परमात्मा के स्वरूप को समाज में देखने के लिए उपासक को ‘इन्द्र’ अर्थात् ईश्वर की शक्ति की अनुभूति के साथ-साथ अनुभवी वृद्ध पुरुषों अर्थात् पितरों के आदर-सम्मान की भी आवश्यकता है, जिससे उनकी सहायता उचित समय पर प्राप्त हो सके।
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जब देश पर बड़ी विपत्ति आती है तो बुड्डे बुलाये जाते हैं, जिससे नवयुवकों के जोश की पूर्ति बुड्डों के होश से हो सके। यह ठीक है कि बुड्डों का जोश ठण्डा पड़ जाता है और उनमें शारीरिक बल नहीं होता, परन्तु अनुभवी बुड्डे एक छोटी-सी ओषधि से बड़े-बड़े रोगों का उपचार कर देते हैं। इसलिए बुड्डों के दुर्बल शरीर को देखकर उनकी अवहेलना मत करो! बहुधा जो बड़ी-बड़ी सेनाएँ नहीं कर सकतीं। वह बुड्डों का एक संकेत कर देता है।
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अब, आइये पश्चिम की ओर, अर्थात् अपनी पीठ के पीछे। पश्चिम अर्थात् प्रतीची दिशा का अधिपति है ‘वरुण’। हमारे कर्मों का अच्छा या बुरा फल देनेवाला ‘वरुण’ है। वरुण के जाल अर्थात् पाश समस्त संसार में फैले हुए हैं, परन्तु कोई उनको देखता नहीं।
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पाप और पुण्य दोनों के करने में उद्देश्य होता है अपने जीवन की रक्षा। इस रक्षा का साधन अर्थात् आयुध या इषु है ‘अन्न’ अर्थात् भोजन। जितनी वस्तुएँ जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं जैसे रोटी, पानी, वायु, ये सब ‘अन्न’ के अन्तर्गत हैं। वह समाज धन्य है जिसमें अन्न की कमी न हो, और जिसका वरुण या संचालक अर्थात् administrator इतना बुद्धिमान् और श्रेष्ठ हो कि अन्न की कभी न्यूनता न होने पावे। जिस गवर्नमेंट में ‘अन्न’ अर्थात् ‘धन’ की समस्या का वैज्ञानिक रीति से समाधान होता रहता है, उसका शासन श्रेष्ठ समझा जाता है।
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परन्तु, याद रखना चाहिए कि ‘अन्न’ अर्थात् धन हमारी पिछली दिशा या पश्चिम का इषु है, अगली अर्थात् पूर्व दिशा का नहीं। सामने की दिशा के इषु तो आदित्य अर्थात् सूर्य की किरणें ही हैं। जब हम ज्ञान को पीछे फेंकते हैं और धन को आगे रखते हैं तो अवस्था उलटी हो जाती है। ज्ञान से तो धन का भी सुप्रबन्ध होता है, परन्तु ज्ञान के बिना धन समाज का नाश कर देता है। जो सम्बन्ध शरीर में मुख और पीठ का है, वही सम्बन्ध ज्ञान का धन से है। ‘मनसा परिक्रमा’ के मन्त्रों का जाप करते समय उपासक को ध्यान रखना चाहिए कि उसे धन तो कमाना है परन्तु अपनी दृष्टि सदा ज्ञान पर रखनी है। यदि हमने ‘धन’ को सबसे आगे रक्खा तो धन भी न आवेगा और जीवन भी नष्ट हो जाएगा।
उदीची अर्थात् उत्तर की ओर हम ईश्वर को सोम अर्थात् शान्ति की मूर्ति के रूप में देखते हैं। दक्षिण की ओर का अधिपति हमने इन्द्र अर्थात् सर्वशक्तिमान् के रूप को माना था। बाईं दिशा में हम परमात्मा को शान्ति की मूर्ति के रूप में देखते हैं।
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शान्ति के लिए शक्ति आवश्यक है। शान्ति का अर्थ है प्रकृति में समन्वय स्थापित करना। समन्वय का अर्थ यह है कि कोई अङ्ग दूसरे अङ्ग से आगे न बढ़ने पाये। एक स्वस्थ शरीर की यह पहचान है कि तीन धातुओं अर्थात् वात, पित्त, कफ का अनुपात उचित और सुनियमित हो। एक के बढ़ने से स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। एक बलिष्ठ शरीर इस विषमता को रोकता है। इसी प्रकार मानव-प्रकृति के आन्तरिक अंगों को भी उचित मर्यादा में रखने के लिए शक्ति की आवश्यकता है। समाज में दलबन्दी, तनातनी या दिन-प्रतिदिन के झगड़े निर्बलता के सूचक हैं, शक्ति के नहीं। शक्तिशाली शरीर रोगों को रोकता है।
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‘अशनिः’ अर्थात् बिजली बहुत शक्तिवाली वस्तु है। समाज की वे शक्तियाँ, जो विद्युत् के समान विरोधी प्रगतियों का दमन करती हैं, समाज के इषु अर्थात् आयुध हैं। सोम अर्थात् शान्तिदाता ईश्वर की उपासना हमको वह आन्तरिक ‘अशनि’ या शक्ति प्रदान करती है कि जिसके द्वारा हम समाज को सुसंघटित कर सकते हैं।
अब दो दिशाएँ शेष हैं, अर्थात् नीचे की दिशा और ऊपर की दिशा। नीचे की दिशा का अधिपति है विष्णु, जो समस्त संसार को सम्भाले हुए है। ऊपर की दिशा का अधिपति है ‘वृहस्पति’ अर्थात् समस्त जगत् को ऊपर से ढकनेवाला। विष्णु का गुण यह है कि वह हर वस्तु में व्यापक होकर उसको ठीक रखता है। उसी के कारण नीचे की दिशा का नाम ‘ध्रुवा’ अर्थात् ‘निश्चल’ या ‘सुदृढ’ है। ‘बृहस्पति’ का अर्थ है, सबसे बड़ा ‘पति’ या स्वामी, जो हर वस्तु को वश में रखता है। मनुष्य जब, ऊपर की दिशा का ध्यान करता है, तो सोचता है कि मेरे ऊपर कोई मेरा संरक्षक है।
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अब, तनिक सोचिये कि नीचे के इषु अथवा आयुध कौन हैं? और ऊपर के कौन? अर्थात् प्रकृति देवी हमारे नीचे की ओर से कौन से पदार्थ उत्पन्न करती है जो हमारे समाज को सुस्थित रख सकें। और ऊपर से कौन-सी चीजें उतारती है जो हमारे जीवन के लिए अनिवार्य हैं?
नीचे की दिशा के आयुध अथवा इषु हैं वीरुध अर्थात् वनस्पति, घास-फूस से लेकर भिन्न-भिन्न प्रकार के पौधे, वृक्ष, लताएँ। ये सब भूमि से उत्पन्न होते हैं और हमारे जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। हमारे लिए केवल भूमि की आवश्यकता नहीं है, अपितु उपजाऊ भूमि की। उपजाऊ भूमि की नहीं अपितु भोजन-उपजाऊ भूमि की। लोग उस भूमि को बहुमूल्य समझते हैं जिसमें लोहा, सोना, चाँदी आदि खनिज पदार्थ हों। परन्तु खनिज पदार्थ भी तभी तक उपयोगी हैं जब अन्न या फल-फूल उत्पन्न होते रहते हैं। लोहे आदि धातुओं की वह मात्रा जिससे हमारा जीवन स्वस्थ रहता है, प्रकृति ने भूमि में गाड़ने के बजाय वनस्पति में सुरक्षित कर दी है। जैसे, लोहा पालक के शाक में होता है, परन्तु उतनी मात्रा में जो हमारी जीविका के लिए उपयोगी हो। लोहा शक्तिप्रद है, परन्तु लोहे के गोले निगले नहीं जा सकते। बैल भूसा खाकर बलिष्ठ होता है, सोने के डले खाकर शक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। अतएव वीरुध अर्थात् वनस्पति को अपने जीवन की भूमिका कहना अनुचित नहीं होगा। ऊपर की दिशा अर्थात् उर्ध्वादिग् का ‘इषु’ है ‘वर्ष’ अर्थात् वर्षा। जब वर्षा होती है तो कहते हैं कि अन्न बरस रहा है। अन्न तो नीचे से ही उत्पन्न होता है, परन्तु भूमि की पूर्ति आकाश से होती है। परमात्मा विष्णु के रूप में नीचे से भोजन उत्पन्न करते हैं और बृहस्पति के रूप में ऊपर से अमृत बरसाते हैं जिससे अन्न-अनाज बन सके। उर्वरा भूमि वर्षा के बिना अन्न उत्पन्न नहीं कर सकती। हमको अपने जीवन को स्वस्थ रखने के लिए नीचे भूमि की ओर भी देखना है और ऊपर आकाश की ओर भी।
यहाँ हमने छः इषुओं का उल्लेख किया है। अब आगे हर दिशा के ‘रक्षतृ’ अर्थात् रक्षा करने वाले का वर्णन होगा।