खण्ड ६ (ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासना के मन्त्रों के अर्थ)
षष्ठ मन्त्र
अब इस ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के क्रम प्राप्त छठवे मन्त्र के महर्षि कृत अर्थ पर विचार करेंगे। मन्त्र है-
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।।
– ऋग्वेद १०//१२१//१०
हे प्रजापते अर्थात् सब प्रजा के स्वामी परमात्मा, त्वत् अर्थात् आप से, अन्यः अर्थात् भिन्न दूसरा कोई, ता अर्थात् उन, एतानि अर्थात् इन, विश्वा अर्थात् सब, जातानि अर्थात् उत्पन्न हुए जड़ चेतानादिकों को, न अर्थात् नहीं परिबभूव अर्थात् तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। यत्कामाः जिस अर्थात् जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग, ते अर्थात् आपका, जुहुमः अर्थात् आश्रय लेवें और वाञ्छा करें, तत् अर्थात् उस-उस की कामना, नः अर्थात् हमारी सिद्ध, अस्तु अर्थात् होवे, जिससे वयम् अर्थात् हम लोग रयीणाम् अर्थात् धनैश्वर्यों के पतयः अर्थात् स्वामी, स्याम अर्थात् होवें।
इस मन्त्र में निम्न बातें ध्याने रखने योग्य हैं-
(क) वह परमपिता परमात्मा सब प्रजा का स्वामी है।
(ख) वह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सम्पूर्ण जड़ -चेतनादिकों में सर्वोपरि है।
(ग) जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले होकर हम उसका आश्रय प्राप्त करेंगे, उसको चाहेंगे, वह कामना हमारी सफल होगी।
(घ) हम उसकी कृपा से ही धनैश्वर्य के स्वामी होंगे।
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ऋग्वेद का वचन है-
स्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ।
अथा ते सुम्नमीमहे।।
-ऋग्वेद ८//९८//११
अर्थात् हे असंख्य लोकों का निर्माण करने वाले प्रभो! आप ही हमारे माता-पिता हैं। इसलिए हे आनन्दस्वरूप प्रभो! हम आपसे आपका जो परम आनन्द है, उसकी याचना करते हैं। हमें अपनी कृपा से अपने परमानन्द का भागी बनावें।
सत्य ही वह परमात्मा हमारा पिता है। वह हमारे भीतर भी है, बाहर भी है, अतः हमारे सम्पूर्ण कर्मों का यथावत् ज्ञाता है, वह हमारा सच्चा हितैषी है। अतः हमें पाप कर्मों से बचना चाहिए तथा उसके द्वारा निर्देशित वेदमार्ग पर चलकर अपना व सबका कल्याण करना चाहिए।
न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव अर्थात् आपसे भिन्न दूसरा कोई उन इन सब उत्पन्न हुए जड़ चेतनादिकों को नहीं तिरस्कार करता है अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। वह परमपिता परमात्मा ऐसा प्रजापति नहीं है जो सामान्य स्थिति का उत्पादन कर अपने आपको मिथ्या ‘अहम्’ में फंसा लेता है और पतन का कारण बन जाता है, कोई छोटे-बड़े देश का शासक है और अपने को महान् समझने का दम्भ कर लेता है। थोड़े से परिवारों का पोषण करनेवाला अपने मिथ्या अहम् में फूला नहीं समाता है। हे भक्त! तू तो उस प्रजापति के अनन्त सामर्थ्य को देख जो समस्त जड़-चेतन जगत् का अधिपति है, स्वामी है, अधिष्ठाता है। सामान्य या विशिष्ट जन अपने सामान्य धन वैभव से या अधिकारों से उसे अभिभूत नहीं कर सकते हैं, उसको तिरस्कृत नहीं कर सकते हैं अर्थात् वह सर्वोपरि है, सबसे महान् है-वह तो ‘महतो महीयान्’ है। उससे महान् कोई नहीं है। वह स्वरूप से महान् है, अधिकार से महान है, सामर्थ्य से महान हैं, विशालता से महान् है, बड़प्पन से महान् है और कारण कार्य भाव से महान् है।
ऊपर ‘उन’ ‘इन’ शब्दों का प्रयोग है यह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष जगत् के लिए हैं। यह जो संसार हमें दिखाई देता है उसकी इयत्ता सीमा इतनी ही नहीं है जितनी दिखाई देती है। अपितु अनन्त लोक हैं जो अदृश्य हैं।
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यत्कामाः ते जुहुमः अर्थात् जिस-जिस पदार्थ की कामना वाले हम लोग आपका आश्रय लेवें और वाञ्छा करें।
तत् नः अस्तु अर्थात् उस-उस की कामना हमारी सिद्ध होवे।
यहां एक स्वाभाविक प्रश्न का समाधान आवश्यक है। प्रश्न है- परमेश्वर सर्वसामर्थ्यशाली है तो वह प्रत्येक की प्रत्येक कामनाओं को पूर्ण करता होगा। चोर की, डाकू की, दुष्ट की और दुराचारी की सभी की कामनायें वह पूर्ण करता होगा?
इस प्रश्न का समाधान व्यावहारिक संसार के चिन्तन से ही सम्भव है। संसार के व्यवहार में हम देखते हैं कि एक डाकू की कामना एक बड़े अधिकारी के सामने डकैती की नहीं होती है, दुराचारी आदि की भी कामना उस समय मर्यादा के कारण या भय के कारण विपरीत नहीं होती है। एक पुत्र अपने पिता के सामने कभी भी दुष्ट कामना की इच्छा नहीं करता है।
अतः यहां भक्त प्रथम यह जान चुका है कि वह परमपिता परमेश्वर प्रजापति है तथा वह सर्वोपरि राजा है, उसकी महानता के सामने सभी तुच्छ हैं? भला ऐसे महान् पिता के सामने भक्त की कामना दुष्टता की कभी हो सकती है?
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हम भी उसके महान् सामर्थ को जानकर सामान्य जन से अपनी कामनाओं की पूर्ति की आशा न रखें अपितु उस सर्वोपरि सर्वेश का आश्रय ग्रहण करें, वह अवश्य ही हमारी कामनाओं को सिद्ध करेगा।
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जिस किसी के सामने दीन वाणी में याचना करना, मांगना नहीं चाहिये । मांगना उस सर्वोपरि राजा से ही उचित है। उसी का आश्रय महान् है।
वयं रयीणां पतयः स्याम अर्थात् हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।
कतिपय लोगों को यह मिथ्या भ्रम है कि भारतीय संस्कृति मात्र त्याग प्रधान है, इसमें भोग का कोई स्थान नहीं हैं। उनके विचार से-
‘‘तव शरीरं पतयिष्णु अर्वन्.’’ यजुर्वेद २९//२२ यह शरीर पतनशील है। तथा
‘‘भस्मान्तमिदं शरीरम्.’’ यजुर्वेद ४0//१५ यह शरीर नाशवान् है। और
‘‘अश्वत्थे वो निषदनं पण वो वसतिष्कृता.’’ यजुर्वेद ३५//४
तुम्हारा निवास अश्वत्थ अर्थात् न श्वः स्थास्यति इति अश्वत्थ अर्थात् जो कल नहीं रहेगा तथा इसका निवास पत्ते पर चलायमान है आदि वेदवचनों को पढ़कर, सुनकर लोगों में यह धारणा पुष्ट हो गयी है कि भारतीय विचारधारा त्याग प्रधान है।
इसके अतिरिक्त उक्त विचारधारा के अतिवादी दृष्टिकोण के कारण एक अन्य विचारधारा इस देश में प्रचलित हुई-
‘जब तक जीवित रहें, सुख से जीवित रहें। सुख से रहने के लिए धनादि साधन न हो तो भी ऋण लेकर घी पी लें, शरीर तो नष्ट होने वाला है, यहाँ पुनरागमन होता ही नहीं है।’
वर्त्तमान संसार इसी अति पर जीवित है। ‘खाओ पीओ मौज उड़ाओ’ की विचारधारा के कारण ही आज परिवार टूट रहे हैं, भाई-भाई से ही द्वेष करने लगा है। सच समझें तो यह कहा जा सकता है कि पहले मकान कच्चे थे किन्तु दिल सबके पक्के थे, अब मकान तो सबके पक्के हो गये हैं किन्तु दिल सबके कच्चे हो गये हैं।
महर्षि दयानन्द ने प्राचीन ऋषियों के वास्तविक विचारों को हमारे सामने रखा जो कि वेद अनुमोदित एवं तर्क सम्मत है। उन्होंने त्याग एवं भोग का समन्वयात्मक मार्ग हमारे सामाने रखा है। संसार में आये हैं तो हम दरिद्र होकर, दीन होकर, हीन होकर न जीवें, अपितु धनैश्वर्यों के स्वामी होवें। धर्म भाव से अर्थार्जन के लिए तो मनु भी कहते है-
‘ब्राह्मे मुहुर्ते धर्माथौं चानुचिन्तयेत्’
-मनु-स्मृति ४//९२
ब्राह्म मुहूर्त में जागना चाहिए, धर्म एवं धन का चिन्तन करना चाहिए। तात्पर्य स्पष्ट है प्रथम धर्म का चिन्तन तदनुसार अर्थ का चिन्तन होना चाहिये।
विवाह संस्कार में भी लाजाहुति की प्रथम परिक्रमा धर्म मार्ग पर चलने के लिए है तो द्वितीय परिक्रमा अर्थ प्राप्ति के लिए है। धर्मानुसार अर्थ, धन प्राप्ति ही लक्ष्य होना चाहिए, का स्पष्ट संकेत है।
आचमन मन्त्र में तृतीय मन्त्र-
सत्य यशः श्रीर्मयि श्री श्रयतां स्वाहा।
इस में भी श्री अर्थात् धन प्राप्ति का वर्णन है। किन्तु यह धन सत्य, यश एवं शोभा सम्पन्न हो, यह आवश्यक है।
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अतएव जो कुछ हमारी कामना हो, वह सब उसके द्वारा निर्देशित वेदमार्ग पर चलकर, ज्ञानपूर्वक, विवेकानुसार सन्मार्ग पर चलकर ही धन प्राप्त करें। धन न प्राप्त कर, संसार को त्यागकर मात्र संन्यासी बनें, यह जीवन का लक्ष्य नहीं है। अपितु धर्मानुसार धर्नाजन करें धर्म कार्यों में अर्जित धन को समर्पित करके ऐश्वर्य प्राप्त करें, यही जीवन का लक्ष्य है।