खण्ड ४ (सन्ध्या के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)
अघमर्षण (२)
ईश्वर में ज्ञान और क्रिया दोनों हैं। हर रचियता के लिए ये दो गुण आवश्यक हैं- ज्ञान भी हो और क्रिया करने का सामर्थ्य भी हो। ज्ञान का क्रिया द्वारा प्रकाश करना ही ‘रचना’ है। जो घड़ीसाज घड़ी बनाना नहीं जानता वह क्या बनायेगा? परन्तु जो जानता है परन्तु क्रिया करने में असमर्थ है वह भी घड़ी-साजी नहीं कर सकता। परमात्मा में ब्रह्माण्ड के बनाने के ये दोनों गुण हैं, अर्थात् वह हर वस्तु के स्वरूप को जानता है और इस तत्वज्ञान के द्वारा वह हर वस्तु को रच देता है। ब्रह्माण्ड पर दृष्टि डालने से हम इसी परिणाम पर पहुँचते हैं।….
यहाँ ‘सत्’ का अर्थ है ‘बचे हुए पदार्थ’ अर्थात् ब्रह्माण्ड की वे चीजें जो पहले न थीं और पीछे से बन गई। यदि ये पहले से होतीं तो सृष्टि-रचना की क्या आवश्यकता थी? सूर्य, चन्द्र, भूमि, वायु, नदी और पर्वत पहले न थे। रचना के पीछे इनका प्रादुर्भाव हुआ। इसलिए इनका नाम ‘सत्’ है।
‘ऋतं च सत्यं च’ में ‘सत्य’ का यही अर्थ है, अर्थात् सृष्टि के रचे हुए भिन्न-भिन्न पदार्थ। इन्हीं का सामूहिक नाम ‘ब्रह्माण्ड’ है। ‘सत्य’ में दो चीजें आ जाती हैं- एक तो पदार्थ या चीजें (objects) दूसरी क्रिया या घटनायें (events)। सूर्य एक पदार्थ है। सूर्य का निकलना एक घटना है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड में असंख्य पदार्थ हैं और असंख्य घटनायें। हमारा हाथ एक पदार्थ है। हाथ का हिलना एक घटना है। कारण से कार्य की उत्पत्ति, पदार्थ और घटना दोनों के द्वारा होती है। कारण एक पदार्थ है, कार्य भी एक पदार्थ है। मिट्टी भी एक पदार्थ है और घड़ा भी एक पदार्थ है। परन्तु मिट्टी अर्थात् कारण से घड़ा अर्थात् कार्य की उत्पत्ति एक घटना है। घटना के लिए चाहिये – गति का उत्पन्न करनेवाला और गति को ग्रहण करनेवाला। मैं कलम को हिलाता हूँ। कलम हिलता है। यह गति है। मैं गति देनेवाला हूँ। ‘गति’ उत्पन्न करना ही ‘तप’ है, और गति का उत्पादक भी ‘तप’ है। वही ईश्वर है। वेद-मन्त्रों में कई स्थानों पर ईश्वर को ‘तप’ कहा है (ओ३म् तपः पुनातु पादयोः)
वेद-मन्त्र कहता है कि ‘सत्य’ को उत्पादन करनेवाला ‘तपस्’ नामवाला और ‘तपस्’ गुणों वाला परमात्मा है। जब उसने जड़ प्रकृति को गति प्रदान की तो घटनायें और पदार्थ दोनों उत्पन्न हो गये, अर्थात् ‘ब्रह्माण्ड’ बन गया। यदि परमात्मा गति न देता तो कोई वस्तु न बन सकती। यह बात खण्डन करती है उस मत का कि संसार की चीजें स्वयं बन जाती हैं या बन सकती हैं। कोई पदार्थ स्वयं नहीं बनता। प्रत्येक वस्तु को बनाने वाला होना चाहिये। यदि संसार की सभी चीजें स्वयं बन जातीं तो बनाने-वाले प्राणियों की आवश्यकता न होती। लड्डू स्वयं बन जाते तो हलवाई न होता। मकान स्वयं बन जाते, थबई न होता। कुर्ते स्वयं बन जाते, दर्जी न होता। न वस्तुएँ होतीं, न शिल्पकारी होती, न शिल्पकार होते। क्या ऐसी सृष्टि कहीं देखने में आती है? यह केवल आलसी मस्तिष्कों की उपज है।….
‘सत्य’ के पहले ‘ऋत’ है। ‘ऋत’ की व्याख्या हमने पहले नहीं की, क्योंकि ‘ऋत’ का समझना ‘सत्य’ के समझने से अधिक कठिन है। ‘सत्य’ की अपेक्षा ऋत सूक्ष्म है। सत्य का अर्थ समझने के पश्चात् ‘ऋत’ का अर्थ समझने में सुगमता होगी।
हम अभी बता चुके हैं कि ‘ऋत’ सत्य की अपेक्षा सूक्ष्मतर है। पहले ‘ऋत’ होता है तब ‘सत्य’ होता है। ‘ऋत’ के बिना सत्य हो ही नहीं सकता। ‘ऋत’ सत्य से अलग नहीं है, न ‘सत्य’ ऋत से अलग है। फिर भी ‘ऋत’ के भाव में और सत्य के भाव में भेद है। इन दोनों में विवेक करना आवश्यक है। कुछ उदाहरणों पर विचार कीजिए-
ऋत के उदाहरण
(१) दो और तीन पाँच होते हैं।
(२) तीन और चार सात होते हैं।
(३) हर मनुष्य जो पैदा होता है मरेगा।
(४) हाईड्रोजन और आक्सीजन के मिलाने से पानी बनता है।
(५) त्रिभुज के तीन कोणों का योग १८० डिगरी का होता है।
(६) पानी नीचे को बहता है।
सत्य के उदाहरण
(१) दो और तीन कुत्ते पाँच कुत्ते होते हैं।
(२) तीन कुर्सियाँ और चार कुर्सियाँ सात कुर्सियाँ होती हैं।
(३) कृष्ण पैदा हुआ है और मरेगा।
(४) हमने इस बर्तन में हाईड्रोजन और आक्सीजन मिलाया और पानी बन गया।
(५) देखो इस त्रिभुज के तीन कोणों का योग १८० डिगरी हुआ।
(६) मैंने गिलास में से पानी उड़ेला और वह नीचे को बहने लगा।
हमने यहाँ उदाहरणों की दो पंक्तियाँ दी हैं। इनको ध्यान-पूर्वक पढ़िये और इनमें जो भेद है उसको समझने का यत्न कीजिये। बाईं ओर के उदाहरण ‘ऋत’ के हैं और दाहिनी ओर के ‘सत्य’ के। जब हमने कहा कि दो और तीन पाँच होते हैं तो हमने एक ऐसे मौलिक नियम का वर्णन किया जो कुत्तों, मनुष्यों, मेजों और किताबों सभी पर लागू होता है। परन्तु जब हमने कहा कि दो कुत्ते और तीन कुत्ते मिलकर पाँच कुत्ते होते हैं तो हमारे ध्यान में केवल कुत्ते थे। उन्हीं का नियम बता दिया। पहला वाक्य एक विश्वव्यापी नियम को बताता है, दूसरा वाक्य अर्थ को सीमित करके एक विशेष वर्ग का उल्लेख करता है, सत्ता तो दोनों की है-मौलिक विश्वव्यापी नियम की भी और विशेष वस्तु ‘कुत्ते’ की भी। देखने से तो भेद का पता नहीं चलता, परन्तु भेद तो है ही। पहला वाक्य विस्तृत है, दूसरा संकुचित। आप दूसरी पंक्ति के वाक्यों को और अधिक सीमित और संकुचित कर सकते हैं। ‘मेरे ये दो कुत्ते और तीन कुत्ते मिलकर पाँच कुत्ते हुए।’ आपने विशेष वस्तुओं को गिना और गिनने का जो फल निकला उसका वर्णन कर दिया। ‘नियम’ की ओर ध्यान नहीं दिया। परन्तु जब अनेक प्रकार की ‘दो’ वस्तुओं और उसी जाति की ‘तीन’ वस्तुओं को मिलाया तो उसी जाति की पाँच चीजें हो गई। तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप विशेष वस्तुओं के भीतर प्रवेश करके उस ‘सामान्य नियम’ की खोज करते हैं जो दूसरी वस्तुओं पर भी लागू होता है। पदार्थ आपके मस्तिष्क के बाहर स्थित हैं। नियम आपके मस्तिष्क के भीतर है। संख्या ‘दो’ संख्या ‘तीन’ से मिलकर संख्या पाँच होती है। यह बात न किसी कुर्सी में विद्यमान है, न कुत्ते में, न मेज में। यह गिनती करना या संख्या को नियत करना आपका मस्तिष्क करता है।….
जब कुम्हार कहता है कि मैंने दो घड़े बना लिये, तीन और बनाऊँगा इस प्रकार पाँच घड़े हो जायेंगे, तो वह स्थूल वस्तुओं के विषय में सोच रहा है। उसके हाथ घड़ों को बनायेंगे, परन्तु वह घड़ों को बनाने से पहले जानता था कि दो और तीन पाँच होते हैं। यह नियम उसके मस्तिष्क में था।….
‘ऋत’ वे सामान्य नियम हैं जो सदा रहते हैं। उनका अस्तित्व वस्तुओं के अस्तित्व पर निर्भर नहीं है। ‘सत्य’ वे वस्तुएँ हैं जो बनती और बिगड़ती रहती हैं। कुत्ते उत्पन्न हुए और मर जायेंगे परन्तु नियम तो बना रहेगा।
हम ऊपर बता चुके हैं कि ऋत मस्तिष्कवालों के मस्तिष्क में रहता है। ईश्वर सर्वज्ञ है। ‘ऋत’ उसके ज्ञान में रहता है। जब ‘ऋत’ सत्य के रूप में आता है तो उसका आविर्भाव होता है, ईश्वर यदि वस्तुओं की रचना न करता तो यह नियम भी प्रकाशित न होता। इसलिए ‘ऋत’ का ज्ञान तो मस्तिष्क से होता है। परन्तु सत्य अर्थात् वस्तुओं की बनावट उस सर्वज्ञ की ‘गतिशीलता’ से प्रकट होती है। इसलिए वेदमन्त्र में खोलकर बताया गया कि ‘ऋत’ अर्थात् मौलिक नियमों को प्रकाश करने के कारण ईश्वर का नाम ‘अभीद्ध’ या प्रकाशस्वरूप है और ‘सत्य’ अर्थात् पदार्थों की उत्पत्ति का प्रकाश ईश्वर के ‘गतिशीलता’ रूपी गुण से होता है। ईश्वर ऋत का ज्ञाता और ऋत का जनयिता है। सृष्टि-रचना बिना ज्ञान के सम्भव नहीं। घड़ी-साजी में घड़ी का ज्ञान और घड़ी की रचना दोनों आ जाते हैं। घड़ी स्थूल वस्तु है, आप उसे पंच-इन्द्रियों से जान सकते हैं। घड़ी की रचना का ज्ञान घड़ीसाज के मस्तिष्क में रहता है, और उसको ज्ञानी ही समझ सकते हैं। ब्रह्माण्ड का चिन्तन करने से ईश्वर के इन दोनों गुणों का ज्ञान होता है अर्थात् ईश्वर की ज्ञान शक्ति का और ईश्वर की रचना-शक्ति का।….
इस प्रकार जब हम ईश्वर के अस्तित्व का पहले ‘पिण्ड’ में अनुभव करके फिर ‘पिण्ड’ के बाहर ‘ब्रह्माण्ड’ पर दृष्टि-पात करते हैं तो ब्रह्माण्ड के रचयिता अर्थात् ‘ब्रह्मा’ की अनुभूति होती है। ब्रह्म का अर्थ है ‘बड़ा’। ब्रह्माण्ड पिण्ड से बड़ा है, सारे पिण्ड उसके अन्तर्गत आ जाते हैं।
यदि हमारा ध्यान केवल पिण्ड की छोटी-छोटी बातों तक ही सीमित रहता तो हम ब्रह्म की महत्ता को न जान सकते। हमारी दृष्टि बहुत संकुचित होती। हम स्वार्थी हो जाते, हमको अपना शरीर ही दिखाई पड़ता। अपने भाई, अपने बेटे, अपने मित्र, अपने पड़ोसी का पिण्ड भी दिखाई न पड़ता। इसलिए यह आवश्यक हुआ कि हमारी अनुभूति का मण्डल विस्तृत हो और हम पिण्ड से बाहर ब्रह्माण्ड का ध्यान कर सकें।
वेदमन्त्र कहता है कि ‘अभीद्ध’ अर्थात् सर्वज्ञ (प्रकाशस्वरूप) परमात्मा से ‘ऋत’ उत्पन्न हुआ। और ‘तपस्’ अर्थात् गतिशील परमात्मा से ‘सत्य’ अर्थात् सृष्टि के पदार्थ (objects) तथा घटनायें (events) उत्पन्न हुई। ‘ज्ञान’ अमर है और ‘क्रिया’ नश्वर है। विद्यायें अमर हैं और रचनायें नाश वाली हैं।….
उस परमात्मा से दो वस्तुएँ प्रादुर्भूत होती हैं (१) रात्रि (२) समुद्रोऽर्णव। ‘रात्रि’ क्या है? और ‘समुद्रो अर्णव’ क्या? हर कार्य के दो अंग होते हैं- (१) स्थिति या ठहरना। (२) गति या चलना। ‘चलने’ में ठहरने का भाव भी अभिगुप्त है। हर गति के पश्चात् ठहरना होता है। हर ठहरने के पश्चात् चलना होता है। आप तेज डाक-गाड़ी के दौड़ते हुए पहियों पर दृष्टि डालिये, उनकी प्रगति में ठहराव (स्थिति) है। गति क्रमशः होती है। पहिया भूमि को जल्दी से छूता है और जल्दी से उसको छोड़कर आगे बढ़ जाता है। आप भी चलने में यही करते हैं, जमीन पर पैर रखते हैं और क्षण-भर में उठा लेते हैं। यह प्रगति क्रमशः होती है। एक पक्षी जो आकाश में उड़ता है- यही करता है अर्थात् आकाश के एक प्रदेश को छूता है और शीघ्र आगे बढ़ जाता है। ये दो शास्त्र अलग-अलग हैं। ‘स्थिति शास्त्र’ अर्थात् ठहरने के कुछ नियम हैं और प्रगति अर्थात् चलने के भी कुछ नियम हैं। ‘स्थिति’ के नियमों का शास्त्र है ‘स्थिति-विज्ञान’(statics) और गति के नियमों का शास्त्र है ‘गति-शास्त्र’ (dynmics)।
आपको गति करने के लिए ‘स्थिति’ अर्थात् ठहरने की क्या आवश्यकता है? यह दर्शन-शास्त्र की एक जटिल समस्या है। आराम और काम, काम और आराम अन्योन्याश्रित हैं, ‘रात्रि’ ‘स्थिति’ का प्रतीक है और ‘समुद्र-अर्णव’ ‘गति’ का।
सृष्टि-रचना से पहले प्रलयावस्था में प्रकृति के परमाणुओं में स्थिति या ठहराव था, जिस प्रकार हर मूल कारण कार्यात्व के पूर्व होता है। रचना का पहला काम यह है कि स्थिति में गति प्रेरित की जाय। जब सृष्टि की रचना आरम्भ होती है तो परमाणुओं में ‘गति’ उत्पन्न होती है। इस गति के लिए सबसे अच्छी उपमा है तीव्रगामी समुद्र की। स्थित वस्तु को गतिशील बनाना ईश्वर का काम है। मोटा उदाहरण यह है कि मेरी कलम मेरी मेज पर रक्खी है, वह गतिशील नहीं है। परन्तु यदि मैं लिखना चाहता हूँ तो कलम में गति को उत्पन्न करता हूँ। गति कलम में न थी, मेरे हाथ से कलम में आई है। मेरा हाथ अपनी गति के लिए मेरा ऋणी है, और कलम मेरे हाथ का। यदि परमाणुओं में स्वाभाविक गति होती तो सृष्टि बनकर बिगड़ न पाती। कलम चलती रहती, रुकती न, और यदि रुकती न तो भिन्न-भिन्न अक्षर न बनते, ‘गति’ में मोड़ न होता। गति की दिशायें न बदलतीं। यदि दिशायें न बदली जावें तो कोई अक्षर उत्पन्न नहीं होता। यह अक्षर जो मेरा कलम इस कागज पर लिख रहा है दिशाओं के परिवर्तन से ही उत्पन्न हुआ है। अर्थात् दिशाओं में मोड़ है। ‘मोड़’ का अर्थ ही यह है कि पहले रुके और फिर चले। यह एक बारीक बात है और शायद आसानी से समझ में न आवे। परन्तु अपनी व्यक्तिगत प्रगतियों पर ध्यान देने से इस समस्या का समाधान हो जाता है और आराम एवं काम के परस्पर सम्बन्ध का बोध हो जाता है। सृष्टि-रचना में यही होता है-ठहरना और चलना, चलना और ठहरना, रात्रि और समुद्र, समुद्र और रात्रि, बनना और बिगड़ना, प्रकट होना और लय होना।….