खण्ड ४ (ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासना के मन्त्रों के अर्थ)

चतुर्थ मन्त्र

यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव।

     यः ईशे अस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।

-यजुर्वेद २३//

महर्षि ने संस्कार विधि में इस मन्त्र का अर्थ इस प्रकार किया है-

यः अर्थात् जो, प्राणतः अर्थात् प्राणवाले और, निमिषतः अर्थात् अप्राणिरूप जगत का, महित्वा अर्थात् अपने अनन्त महिमा से एक, इत् अर्थात् एक ही राजा, बभूव अर्थात्  है, यः अर्थात् जो, अस्य अर्थात् इस, द्विपदः अर्थात् मनुष्यादि और, चतुष्पदः अर्थात् गौ आदि प्राणियों के शरीर की, ईशे अर्थात् रचना करता है, हम लोग उस कस्मै अर्थात् सुखस्वरूप, देवाय अर्थात् सकलैश्वर्य के देने हारे परमात्मा के लिए, हविषा अर्थात् अपनी सकल उत्तम सामग्री से, विधेम अर्थात् विशेष भक्ति करें।

इस मन्त्र में ध्यान देने योग्य निम्न बातें हैं-

उस परमात्मा की महान् महिमा है। वह जड़ चेतन का अपनी महिमा से अकेला ही राजा है अर्थात् उसे सृष्टि की रचना में, सृष्टि के शासन में किसी अन्य की सहायता नहीं लेनी पड़ती है। वही परमेश्वर मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की भी रचना करता है। संसार में समस्त ऐश्वर्य का प्रदाता भी वही है। इस प्रकार जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब उस ईश्वर की महान् देन है। उसके द्वारा प्रदत्त को हम ग्रहण करें तथा गृहीत सामग्री को समर्पित करते हुए, उस-‘महतो महीयान्’ की भक्ति करें! यजुर्वेद का मन्त्र है-

                                       वेदाहमेतंसेविद्यतेऽयनाय।      

   – यजुर्वेद ३१// १८

मैं उस सर्वत्र परिपूर्ण पुरुष को जानता हूं जो महान् से महान् है, सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों की रचना करने वाला है, वह स्वप्रकाशस्वरूप है, अज्ञानान्धकार अर्थात् अविद्यादि दोषों से रहित है। अतएव ऐसे महान् परमेश्वर को जानकर ही महान् दुःख मृत्यु को पार कर सकते हैं, मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं। ‘नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय’- अर्थात् ईश्वर की भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई मुक्ति का, सांसारिक बन्धन से छूटने का, आवागमन के चक्र को समाप्त करने का मार्ग नहीं है।

उक्त मन्त्र के अभिप्राय को ही स्पष्ट करने वाला यह चतुर्थ मन्त्र है। महर्षि दयानन्द कृत अर्थ का वैशिष्टय इस प्रकार है-

यः प्राणतो निमिषतो अर्थात् जो प्राणवाले और अप्राणिरूप ।

महर्षि ने ‘प्राणतो’ का अर्थ तो प्राणवाले किया है। किन्तु ‘निमिषतो’ का अर्थ पलक झपकने वाला न करके अप्राणिरूप क्यों किया है? निश्चय से धातु कोष के अनुसार निमिष का अर्थ ‘पलक झपकने वाला’ ही होता है।

महर्षि ने ‘प्राणतो’ का अर्थ प्राण वाले किया है, और प्राणवाले से तात्पर्य चेतन प्राणी ही होता है। चेतन प्राणी है तो देखने के लिए नेत्र होंगे तो नेत्र संचालन भी आवश्यक है, यह नेत्र संचालन की क्रिया पलक झपकने के साथ होती है। वह परमपिता परमात्मा केवल चेतन जगत् का ही स्वामी नहीं है। अपितु अचेतन जगत् का भी वही स्वामी है। अतः महर्षि ने प्राणतः प्राणवाले कहा तथा निमिषतः अप्राणिरूप। यह अर्थ अर्थापत्ति के आधार पर किया है। अर्थापत्ति को शास्त्रों में प्रत्यक्षादि आठ प्रमाणों में माना गया है। अतः महर्षि का ‘निमिषतः’ का अर्थ, अप्राणिरूप करना पूर्ण तर्क संगत है।

शास्त्रों में- ‘प्राणाय नामो यस्य सर्वमिदं वशे(अथर्व. ११//४//१) के अनुसार प्राण नाम ईश्वर का भी है। तो प्राण क्या है, शरीर के लिए उसका क्या महत्त्व है, यह जान लेना आवश्यक है। निश्चय से प्राण से तात्पर्य उस शक्ति से है जिससे शरीर के अंग-प्रत्यंग में गति आती है। गति ही तो जीवन का लक्षण है। यद्यपि प्राण द्वारा सञ्चालित गति को दिशा देने वाला जीवात्मा है। इतना होने पर भी जीवात्मा से भिन्न गतिशील तत्व प्राण का अपना विशेष महत्त्व है। इसको ऐसे समझ सकते हैं जैसे कार है, कार का चलाने वाला भी है किन्तु कार में गति पेट्रोल के माध्यम से होती है। बिना पेट्रोल के कार गतिशून्य होती है। कार हो, पेट्रोल भी हो लेकिन बिना चालक के कार में गति नहीं होती है। ठीक ऐसी ही व्यवस्था ईश्वर ने शरीर में जीवात्मा एवं प्राण दोनों की समन्वयात्मक रूप से की है। इससे यह स्पष्ट है कि प्राण गतिशीलता, चेतनता, संचालन को देने वाला है। वह ईश्वर मात्र चेतन जगत् का ही नहीं अपितु अप्राणिरूप -अचेतन जगत् का भी स्वामी है। इसी तथ्य को स्पष्ट करने के लिए महर्षि ने प्राणवाले कहने के अनन्तर निमिषतः का अर्थ अर्थापत्ति के आधार पर, जो ‘अप्राणिरूप जगत्’ अर्थ किया है, वह समीचीन है।

जगतः महित्वा एक इत् राजा बभूव अर्थात् जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है।

निश्चय से वह परमेश्वर ही चेतनाचेतन जगत् का अपनी विशाल महत्ता से अकेला ही विराजमान अर्थात् संसार में व्यापक राजा है, स्वामी है या अधिष्ठाता है। अतएव वह एक ही नमन योग्य है। अन्य कोई भी उसके समक्ष नमस्कार करने योग्य नहीं है। वही राजा है, एक है, अनेक नहीं-

                               दिव्यो गन्धर्वो-से-ते सधस्थम्।     

     – अथर्ववेद २//२//१

उक्त मन्त्र भी उसको एकमात्र चराचर जगत् का अधिष्ठाता वर्णित कर रहा है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठ सकता है कि वह अकेला है, एकमात्र है, तो समस्त विश्व की रचना, पालन तथा विनाश कैसे कर देता है?

इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार है। अल्पशक्ति वाले, अल्प सामर्थ्य वाले, साकार एकदेशीय व्यक्ति को किसी रचना के लिए हाथ-पैर आदि साधनों की आवश्यकता होती है। किन्तु सर्वशक्तिमान, सर्वसामर्थ्य वाले, निराकार सर्वव्यापक को सृष्टि-रचना के लिए किसी भी साधन की आवश्यकता नहीं होती है। श्वेताश्वरतर उपनिषद् का वचन इस तथ्य का समाधान इन शब्दों में करता है-

                                       अपाणिपादो-से- ज्ञानबलक्रिया च।           

श्वेताश्वतर उपनिषद् ६//८

वह बिना हाथों के पकड़ सकता है, बिना पैरों के चल सकता है, वह बिना आंखों के देख सकता है और बिना कानों के सुन सकता है। वह अपने स्वाभाविक ज्ञान, बल, क्रिया के द्वारा सम्पूर्ण कार्य कर लेता है।

….

वह मात्र चराचर जगत् का स्वामी ही नहीं है अपितु संसार के सभी प्राणियों के शरीर की भी रचना वही अपने सामर्थ्य से करता है। प्रत्येक मानव को शरीर रचना के अद्भुत कौशल को देखना चाहिए। देखने के लिए नेत्र हैं तो विविध दृष्य भी हैं, सुनने के कान हैं तो अनेक श्रवणेन्द्रियों को तृप्त करने वाले उपकरण भी हैं, नाना सौन्दर्य भी हैं, स्वाद के लिए जिह्वा है तो -कटु, तिक्त, अम्ल, लवण, मधुरादि पदार्थ भी उपलब्ध हैं, सूंघने के लिए नासिका है तो विविध सुगन्ध संयुक्त पदार्थ भी हैं, स्पर्श के लिए त्वचा है तो मृदु, कोमल वस्तुओं का संयोजन भी है। इतना ही नहीं पदार्थों तक पहुँचने के लिए पैर हैं, ग्रहण करने के लिए, प्रयोग करने के लिए हाथ हैं, चिन्तन के लिए मन, निश्चय के लिए बुद्धि, जीवन के लिए प्राण आदि सभी शरीर को साधन प्राप्त हैं। इनमें से एक के अभाव की कल्पना कीजिये तो जीवन कैसा होगा अनुभव कीजिये।

आन्तरिक दृष्टि से शरीर की सुखद यात्रा के साधनों को देखिये, अन्न खाने के लिए मुख एवं दांतों का निर्माण (ये दांत मुख के सौन्दर्य को भी स्थित रखते हैं तथा साथ ही भोजन को पाचन योग्य भी बनाते हैं, इसके अतिरिक्त वाणी को स्पष्ट, मधुर भी बनाने में सहायक हैं) भीतर स्थित पाचन यन्त्र, रक्त निर्माण, शोधन एवं शरीर में सर्वत्र व्याप्त करने का साधन, मल निष्कासन-साधन, रक्त, मज्जा अस्थि निर्माण यन्त्र, शरीर के लिए आवश्यक ओजादि का निर्माण यन्त्र आदि अद्भुत, नियमित तथा प्रत्येक मानव में एक सी प्रक्रिया वाले इन तत्वों का निर्माण क्या मानव द्वारा सम्भव है? नहीं, कदापि नहीं। ऐसा ही निर्माण पशु, पक्षी आदियों के शरीर की नियमित रचना क्या मानव द्वारा सुलभ है? वैज्ञानिकों के एक सम्मेलन में प्रसिद्ध वैज्ञानिक (सम्भवतः आइन्स्टीन) ने घोषणा करके कहा था कि -‘आप सब अपने आविष्कारों पर अभिमान न करें क्योंकि सारे संसार के वैज्ञानिक मिलकर भी सिर के एक बाल का भी निर्माण नहीं कर सकेंगे।’ यह वैज्ञानिक-घोषणा भी यही कहती है कि प्राणियों के अद्भूत शरीर की रचना परमपिता परमात्मा की ही देन है। उसी ने इतने सुन्दर, सुखद, सर्वसाधन संयुक्त शरीर की रचना की है। अतएव वह उपास्य है।

….