खण्ड २ (सन्ध्या के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)
मार्जन मन्त्र
‘मार्जन’ का अर्थ है झाडू देना, या सफाई करना। सफाई उस वस्तु की की जाती है जिसमें कोई मैल उत्पन्न हो जाय।
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‘ओं भूः पुनातु शिरसि’- ‘मार्जन-मन्त्र’ के दो भाग हैं- ‘ओम् भूः’ और ‘पुनातु शिरसि’। ‘ओम् भूः’ पहला भाग है। इसमें ईश्वर के गुण के लिए उसका एक विशेष नाम बताया गया है। दूसरे भाग में किसी विशेष अंग को शुद्ध करने की प्रार्थना की गई है, अर्थात् ‘पुनातु शिरसि’। ईश्वर के नाम ‘भूः’ और हमारे शरीर के अंग ‘शिर’ में क्या सम्बन्ध है? इस पर विचार करना है।
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घड़ी के दोषों को हम दो विभागों में बाँट सकते हैं। एक भौतिक, दूसरा अभौतिक। घड़ी का भौतिक भाग है- उसके पुरजे। यदि, आप घड़ी को सम्भाल कर न रक्खें तो, वह टूट जायगी। उसका कोई-न-कोई पुरजा ठीक काम न करेगा। आपको घड़ी-साज की सहायता लेनी पड़ेगी।
घड़ी का अभौतिक भाग है उसका प्रयोग- समय को जानना और उसका सम्मान करना। जो लोग केवल दिखावे के लिए बायें हाथ पर घड़ी लगाये फिरते हैं वे केवल घड़ी के भौतिक भाग की रक्षा करते हैं। वे घड़ी के मौलिक उपयोग को नहीं समझते। वे अपने समय का समीचीन रूप से प्रयोग नहीं करते। वे अपनी आयु को अनिष्ट कामों में गंवा देते हैं।
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इसी प्रकार शरीर के प्रत्येक अंग की व्यवस्था है। उसका भौतिक रूप भी है और अभौतिक तत्व भी। भौतिक मस्तिष्क का भौतिक विकार तो साबुन या औषध से दूर हो जाता है, परन्तु यह तो केवल शिर के बाह्य रूप के विषय की बात है। वास्तविक मस्तिष्क केवल खोपड़ी के भीतर का गूदा या रक्त-मांस का लोथड़ा नहीं है। वास्तविक शिर है, वह आत्मा की शक्ति जिससे हम सोचते हैं। मन की समस्त वृत्तियों के लिए ‘शिर’ शब्द का प्रयोग होता है।
अतः ‘मन’ का मैल दूर करने के लिए मन के मन को मनन-शक्ति प्रदान करनेवाले परमात्मा के ज्ञान के स्वरूप को देखना होगा। ईश्वर ‘भू’ है अर्थात् तात्विक सत्ता, मौलिक सत्ता, आदि मूल। इसका ज्ञान तो ‘शिर’ अर्थात् सोचने के औजार अर्थात् करण से ही होगा। जिस ‘शिर’ में सोचने की शक्ति नहीं, वह विकृत अर्थात् गन्दा शिर है। जो ‘शिर’ वस्तुओं को देखकर उनके मूलतत्व को समझने में असमर्थ है, वह यथार्थ रूप में शिर नहीं है। शिर तो गधे के भी होता है, परन्तु वह पशु का ‘शिर’ है। ईश्वर की सत्ता को समझने के लिए विचारशील शिर चाहिए। इसी को योगदर्शन में ‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’ कहा है। यदि, हमारा ‘शिर’ अर्थात् मस्तिष्क ‘संकुचितता’ के रोग से मुक्त हो जाय, तो हम ईश्वर को पहचान सकें। इसलिए, हम अपने शिर की दुर्बलता अर्थात् रोग अनुभव करके ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि आप तो समस्त पदार्थों के आदिमूल हैं। हमारे मस्तिष्क के कूड़ा-करकट को दूर कीजिये। शिर को पवित्र कीजिये, जिससे हमको ब्रह्म-विज्ञान की योग्यता हो जाय। यह हुआ, ‘ओम् भूः पुनातु शिरसि’ का अर्थ।
‘‘ओं भुवः, पुनातु नेत्रयोः’-
हे ‘भुवः’ शब्द से प्रकट होनेवाले गुणों से युक्त परमात्मन्! आप हमारी आँखों अर्थात् समस्त ज्ञान-इन्द्रियों को शुद्ध कीजिये।
यहाँ परमात्मा को ‘भुवः’ शब्द से सम्बोधित किया है और इस नाम का सम्बन्ध ‘नेत्र’ अर्थात् समस्त ज्ञान-इन्द्रियों से जोड़ा गया है। ‘भुवः’ का अर्थ है चेतन या ‘ज्ञानवान्’। ज्ञान-इन्द्रियाँ भी ज्ञान की प्राप्ति में साधन होती हैं।
यहाँ प्रश्न होता है कि ज्ञान-इन्द्रियों में क्या विकार हो सकता है? एक विकार तो भौतिक है। उसमें पीड़ा हो या कीचड़ आ जाय, तो इसको दूर करने के लिए तो भौतिक जल या भौतिक दवा पर्याप्त है। संध्या से इसका क्या सम्बन्ध? संध्या में तो विशेषकर ‘ध्यान’ पर बल दिया गया है। हर छोटे-बड़े कृत्य के साथ ‘ध्यान’ की प्रधानता है। ध्यान नहीं तो कृत्य बेकार-केवल ढोंग! दिखावा मात्र!
यहाँ भी उपासक अपने उपास्य देव का सम्बन्ध अपने ‘पिण्ड’ में देखना चाहता हैं। हमारी ज्ञान-इन्द्रियाँ ज्ञान-प्राप्ति के लिए हैं।
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जिस आँख में यह योग्यता नहीं कि हर पुष्प में ईश्वर की महिमा को खिला देख सके वह आँख रोगी है, मैली है। इसलिए, जब हमने मार्जन-मन्त्र पढ़ा तो आँख का सम्बन्ध चेतन या सर्वज्ञ ईश्वर से जोड़ा। यही वास्तविक आत्मिक शुद्धता अर्थात् मार्जन है।
‘ओं स्वः पुनातु कण्ठे’-
‘स्वः’ परमात्मा का वह नाम है जो प्रकट करता है कि परमात्मा ‘आनन्दस्वरूप’ अर्थात् पूर्ण सुख-युक्त है। हमारा कण्ठ या हलक स्वाद चखने का उपकरण है। हमको क्या वस्तु स्वादु अर्थात् अच्छी लगती है क्या नहीं, यह हमारे कण्ठ की शु़द्धता पर निर्भर है।
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उपासक अपनी रुचि को ऐसा बनाना चाहता है कि ईश्वर के चिन्तन में उसे रस आ जाये। इसीजिए हम ईश्वर के भी उस गुण का नाम लेते हैं जिससे वास्तविक आनन्द की अनुभूति हो सके।
‘ओं महः पुनातु हृदयम्’-
यहाँ ‘महः’ नाम वाले ईश्वर का हमारे हृदय से सम्बन्ध है। रोगी हृदय और स्वस्थ हृदय में क्या अन्तर है? आपको कैसे ज्ञात हो कि अमुक हृदय अस्वस्थ है और अमुक स्वस्थ? अमुक हृदय पवित्र है और अमुक अपवित्र? जो हृदय उदार है, उसको आप ‘पवित्र’ कहेंगे। जो संकुचित है, उसको ‘अपवित्र’।
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क्या आप अपना स्वार्थ ही चेतते हैं या दूसरों का हित भी? आस्तिक और नास्तिक में क्या भेद है? ईश्वर तो ‘महः’ अर्थात् महान है, उसमें तो समस्त जगत् के लिए स्थान है। ईश्वर के लिए कोई ‘पराया’ नहीं। इसलिए यदि, उपासक ईश्वर के इस गुण का अनुभव नहीं करता, तो वह उपासक नहीं है। यदि हम भी सांय-प्रातः मार्जन-मन्त्र को पढ़कर यह सोचें कि हे ईश्वर! तू महान् है। हमारे हृदय रोगी हैं। हममें संकुचितता आ रही है। तू इस संकुचितता के रोग को दूर कर दे, तो ज्यों ही हमको अनुभव होगा कि यह हमारी संकुचितता रोग हैं, त्यों ही हम इसको दूर करने का यत्न करेंगे।
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‘ओं जनः पुनातु नाभ्याम्’-
यहाँ ईश्वर का नाम ‘जनः’ अर्थात् रचयिता अर्थात् जनक है। ‘नाभि’ भी मनुष्य को छोटा-सा रचयिता जनक बनाती है। समस्त सन्तानोत्पत्ति का आरम्भ ‘नाभि’ से होता है। ईश्वर जगत् की ‘नाभि’ है। ईश्वर की रचना पवित्र नियमों पर आधारित है। ईश्वर अपवित्र वस्तु नहीं बनाता। ईश्वर की पवित्रता पर दृष्टि रखनेवाला मनुष्य किसी मलिन वस्तु को रच नहीं सकता। ईश्वर से इस मार्जन-मन्त्र द्वारा प्रार्थना की गई है कि जिस प्रकार आप कोई ऐसी वस्तु नहीं बनाते जिसमें सृष्टि का हित न हो, उसी प्रकार हम भी कोई ऐसी वस्तु न बनायें जिससे संसार के लोगों की आदतें खराब हों। इस मन्त्र से उपासना करनेवाले लोग शराब, बीड़ी आदि बनाने का व्यवसाय न करेंगे।
‘ओं तपः पुनातु पादयोः’-
यहाँ ईश्वर को ‘तपः’ नाम से स्मरण किया है। ‘तप’ का अर्थ है उष्णता या गति। ‘पाद’ अर्थात् पैर भी गति का उपकरण है। हम पैरों से चलते हैं। ईश्वर कभी निठल्ला नहीं बैठता। उसका काम हर समय और हर देश में होता रहता है। समस्त गतियाँ ईश्वर से ही आरम्भ होती हैं। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि हम निकम्मे न रहें। काम करना या चलते रहना स्वास्थ्य का लिंग अर्थात् चिन्ह है। निकम्मापन रोग है, दोष है, विकार है। इसलिए इसको दूर करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना की गई है।
‘ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र’-
यह ‘मार्जन मन्त्रों’ में सबसे अन्तिम मन्त्र है, अर्थात् परमात्मा तो हर जगह और हर वस्तु में व्यापक है, हर काम में उसका प्रवेश है, समस्त सफलताओं का उद्गम ईश्वर है, इसलिए कहा गया है कि हे ईश्वर, तू हमारी हर त्रुटि को दूर कर।
‘ओं सत्यं पुनातु पुनः शिरसि’-
इससे पहले भाग में यह कहकर इस बात पर बल दिया गया है कि हे ईश्वर! आप सत्य अर्थात् स्वयं पूर्ण सत्ता हैं। हम आपसे पुनः-पुनः प्रार्थना करते हैं, हमारे मस्तिष्क के सारे दोषों को दूर कर दीजिये। हमारे शरीर का सर्वोत्तम भाग है मस्तिष्क। मस्तिष्क विकृत हो जाय तो आँख, कण्ठ, हृदय, पाँव, नाभि इत्यादि सब निरर्थक सिद्ध होते हैं। एक उच्च विचारशील अन्धा, आँखोंवाले पागल से हजार गुना अच्छा है। मस्तिष्क है तो सब-कुछ है। अतिसुन्दर, शक्तिशाली, सुरूपवान्, सुडौल पागल अपने लिए भी बवाल है और दूसरों के लिए भी। इसलिए ‘शिर’ का दो बार उल्लेख करके उसका महत्त्व दर्शाया गया है।
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यहाँ एक बात और याद रखनी चाहिए। बहुत से विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि सदाचार और दुराचार का मनुष्य के स्वास्थ्य पर अच्छा या बुरा प्रभाव पड़ा करता है। इस बात को आप मोटी रीति से जान सकते हैं। यदि आप में ‘पीति’ अर्थात् ईश्वर की देन को धन्यवादपूर्वक भोगने का गुण नहीं है, तो आपके मन में असन्तोष और असहिष्णुता का आधिक्य होता जायगा। आप अच्छी-से-अच्छी वस्तु में दोष देखने लगेंगे। धीरे-धीरे आपका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जायगा। आप छोटी-से-छोटी बात पर कुपित हो उठेंगे। यह कोप उन लोगों पर प्रभाव डाले या न डाले जिन पर आप कोप कर रहे हैं, परन्तु इसमें संशय नहीं कि क्रोध की अग्नि पहले आपके शरीर में ही भड़केगी, और आपके रक्त में उबाल उत्पन्न होगा। इससे आपके शरीर में भाँति-भाँति के रोग उत्पन्न हो जायेंगे। जिस मनुष्य ने संध्या करते समय ‘आचमन मन्त्र’ के इस ‘पीति’ शब्द के महत्त्व को समझा है और जिसके आचार-व्यवहार में ‘पीति’ का प्रकाश होने लगा है, वह रुग्ण अवस्था में भी कम दुःख अनुभव करेगा। उसकी इस प्रवृत्ति का रोग की चिकित्सा में भी कुछ भाग होगा। इस दृष्टि से संध्या करना न केवल धार्मिक कृत्य ही है अपितु इसका सांसारिक लाभ भी है।
जब हम अपने पिण्ड में ईश्वर के गुणों को सम्बन्धित देखते हैं, तो वह गुण ईश्वर में अलग से भी प्रतीत होने लगते हैं। जैसे, यदि, कोई मनुष्य आपको निरन्तर कोई-न-कोई उपहार भेजता रहे, तो आपका ध्यान कुछ दिनों के पीछे ‘दान’ से हटकर ‘दानी’ की ओर जाने लगता है। उसको देखते ही आपका ध्यान उस मनुष्य के उस गुण की ओर आकर्षित हो जाता है, जिसके कारण वह दान देता है। इसी प्रकार, जब हमने ईश्वर की ‘दया’ का प्रकाश अपने शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों में देखा तो हमारा ध्यान सीधा, बिना किसी माध्यम के, ईश्वर के गुणों की ओर खिंच गया।
महाव्याहृतियाँ
ओं भूः। ओं भुवः। ओं स्वः। ओं महः। ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम्।।
प्राणायाम के मन्त्रों में ईश्वर के एकाक्षरी या दो-अक्षरी छोटे-छोटे नाम हैं।
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‘प्राणायाम’ पर संध्या का पहला भाग समाप्त हो जाता है, अर्थात् परमात्मा की महिमा को अपने पिण्ड में अनुभव करना। ईश्वर की उपासना का यह सबसे सुगम आरम्भ है। दुर्भाग्यवश संध्या आरम्भ करनेवालों ने इस महत्त्वपूर्ण भाग को कुछ दिखावटी कृत्यों तक ही सीमित रक्खा। संध्या करनेवाले सबसे कम ध्यान इस भाग की ओर देते हैं। जिनको दिखावट प्रिय है वे केवल रूढ़ियों के पालन में ही सारा परिश्रम व्यय कर देते हैं। वे समझते हैं कि केवल तीन बार आचमन कर लेना या इन्द्रियों को स्पर्श करना ही सब-कुछ है। संध्या की पुस्तकों में भी कृत्यों की रस्मों पर ही अधिक बल दिया गया है और इसकी भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्या की गई है। ध्यान पर बल नहीं दिया गया या बहुत कम दिया गया है। यह बात बार-बार दुहराने की आवश्यकता रहती है कि संध्या का मुख्य भाग ध्यान है। ध्यान मानसिक कर्म है और यही मुख्य है।
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ईश्वर की सत्ता की जो अनुभूति हमारे आँख-कान करा सकते हैं वह अच्छी से अच्छी मूर्तियाँ नहीं करा सकतीं।
यह सत्य है कि मन चंचल है, और वह जल्दी-जल्दी एक वस्तु से हटकर दूसरी वस्तु की ओर दौड़ता है, परन्तु आपका शरीर तो भिन्न-भिन्न अंगों का संग्रह है। आप अपने मन को जल्दी-जल्दी एक अंग से दूसरे अंग की ओर ले जा सकते हैं। मन की दौड़ के लिए पर्याप्त अवकाश है। आप सोचने की आदत तो डालिये। आँख के विषय में सोचिये, पलकों के विषय में सोचिये, पुतली के विषय में और आँख की भीतरी शक्ति के विषय में सोचिये। आपके शरीर का प्रत्येक भाग, आपको ईश्वर तक ले जाने के लिए पर्याप्त है, क्योंकि यह शरीर उसी का रचा हुआ है। बड़े-बडे़ मन्दिर आपके मन को बड़े-बडे़ इंजीनियरों तक ले जायेंगे। परन्तु, क्या आपकी छोटी सी अँगुली या आपकी नाक का नथुना जिससे आप साँस लेते हैं, किसी बड़े-से बड़े इंजीनियर से अधिक शिक्षाप्रद नहीं है? आप परेशान रहते हैं कि ध्यान किस वस्तु से किया जाय और कैसे किया जाय? आप कल्पित प्रकाश को देखना चाहते हैं, कल्पित शब्द को सुनना चाहते हैं, परन्तु प्रकाश और शब्द से एक पग आगे बढ़कर प्रकाश शब्द के आदिस्रोत ईश्वर के विषय में सोचना नहीं चाहते। मन को एकाग्र करने का सबसे बड़ा साधन है विचार। स्वामी दयानन्द ने एक स्थान पर लिखा है कि ईश्वर के गुण तो इतने अनगिनत हैं कि उनके विषय में सोचते-सोचते मन थक जायगा। मन के लिए विचार की आवश्यकता है। विचार करने की आदत डालिये, और विचार का आरम्भ अपने शरीर से कीजिये, क्योंकि आपका शरीर आपके लिए निकटम वस्तु है। आपके शरीर का रोम-रोम आपका पथ-प्रदर्शन करने के लिए उद्यत है।
साधारणतया कहा करते हैं कि मन को बाहर की वृत्तियों से हटाकर भीतर की ओर ले जाइये। यह कहना आसान है, परन्तु करना कठिन है। हम जितना बाहर की ओर से उसे हटाते हैं, वह बाहर के दृश्यों को अपनी ओर खींचता है। आप भागना चाहते हैं, परन्तु भाग नहीं सकते। यदि आप अपने शरीर के भीतरी अंगों की रचना और बनावट की दक्षता पर विचार करने लगें, तो आपके काम के सरल होने की सम्भावना है। मन को आप किसी वस्तु से हटाने के लिए आदेश न दीजिए, अपितु आप किसी विशेष वस्तु के चिन्तन में लगाइये। आप मन को अपने शरीर के अंगों के रचयिता के ध्यान में लगाइये।