खण्ड २ (ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासना के मन्त्रों के अर्थ)
द्वितीय मन्त्र
ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का द्वितीय मन्त्र सविता देव के सामर्थ्य को प्रकट करता है। ‘दुरित’ दूर करने की और ‘भद्र’ प्राप्ति की प्रार्थना प्रथम मन्त्र में की गयी है। यह प्रार्थना सफल होगी या नहीं याचक यह शंका न करे, इसके निवारणार्थ महर्षि ने इस मन्त्र को क्रम में दूसरे स्थान पर रखा है। इस द्वितीय मन्त्र में उस ईश्वर के सामर्थ्य का उत्तम वर्णन किया गया है। द्वितीय मन्त्र इस प्रकार है-
ओम् हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीम् द्यामुतेमाम् कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
-यजु. १३//४
जो हिरण्यगर्भः अर्थात् स्वप्रकाशस्वरूप, और जिसने प्रकाश करने हारे सूर्यचन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो भूतस्य अर्थात् उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का जातः अर्थात् प्रसिद्ध पति अर्थात् स्वामी एकः अर्थात् एक ही चेतनस्वरूप आसीत् अर्थात् था, जो अग्ने अर्थात् सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व समवर्त्त अर्थात् वर्त्तमान था, सः अर्थात् सो (वह) इनाम् अर्थात् इस पृथिवीम् अर्थात् भूमि उत अर्थात् और द्याम् अर्थात् सूर्यादि को दाधार अर्थात् धारण कर रहा है। हम लोग उस कस्मै अर्थात् सुखस्वरूप देवाय अर्थात् शुद्ध परमात्मा के लिए हविषा अर्थात् ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विधेम अर्थात् विशेष भक्ति किया करें।।
इस मन्त्र में परमेश्वर के सामर्थ्य का निम्न रूप में बोध होता है-
१. हिरण्यगर्भः- विभुत्व या विशालता की दृष्टि से।
२. समवर्त्तताग्रे- अग्रज की दृष्टि से।
३. भूतस्य जातः-उत्पादन सामर्थ्य की दृष्टि से।
४. पतिरेक आसीत्- स्वामित्व की दृष्टि से।
५. स दाधार पृथ्वी द्यामुतेमाम्-शक्तिमत्ता की दृष्टि से।
हमने यह वर्णन महर्षिकृत अर्थ की दृष्टि से किया है। प्रथम मन्त्र वर्णित प्रार्थना सफल होगी या नहीं होगी, इस शंका का निवारण हो, इसी दृष्टि से उस ईश्वर के, सविता देव के सामर्थ्य का वर्णन इस मन्त्र में किया गया है। ईश्वरीय सामर्थ्य का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है-
१. हिरण्यगर्भः– स्वप्रकाशस्वरूप। जिससे प्रार्थना की है वह स्वयं प्रकाशस्वरूप है। उस का प्रकाश उसका स्वयं का है, किसी अन्य तेजोमय पदार्थ से उसका प्रकाश गृहीत नहीं है।
महर्षि दयानन्द ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’प्रथम समुल्लास में ‘हिरण्यगर्भः’ का अर्थ इस प्रकार किया है-
‘ज्योति वै–से–हिरण्यगर्भः।’
जिसमें सूर्यादिक तेजवाले लोक उत्पन्न हो के जिसके आधार पर रहते हैं अथवा जो सूर्यादिक तेजःस्वरूप पदार्थों का गर्भ नाम उत्पत्ति और निवास स्थान है, इससे उस परमेश्वर का नाम हिरण्यगर्भ है।
उक्त के आधार पर ही महर्षि ने ‘हिरण्यगर्भ’ का अर्थ किया स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करने हारे सूर्य चन्द्रमादि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं। सूर्य पृथिवी से तेरह लाख गुणा बड़ा है। जरा कल्पना करें कि सूर्य के तेरह लाख टुकड़े करें तो एक हिस्सा, एक भाग के बराबर पृथिवी है। सूर्य से भी विशाल ग्रह, नक्षत्रों आदि को जो धारण किये हुए है, उसकी विशालता के विषय में सन्देह नहीं रहता है। निश्चय ही वह ईश्वर -‘महतो महीयान्’है। यजुर्वेद (३२//८) के अनुसार – ‘स ओतः प्रोतश्च विभुः प्रजासु’ वह सब में विद्यमान है, विभु-विशाल है।
इस प्रकार विभुत्व की दृष्टि से, विशालता की दृष्टि से उसका सामर्थ्य महान् है।
२. समवर्त्तताग्रे -जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व विद्यमान था। निश्चय से ईश्वर, जीव और प्रकृति ये तीनों तत्व अनादि हैं। फिर अग्रज की दृष्टि से उसका सामर्थ्य किस अर्थ में समझना चाहिये?
निश्चय से तीन तत्व अनादि है। प्रकृति मात्र जड़ है, उसके जड़त्व के कारण स्वयं कुछ होने का सामर्थ्य नहीं है। दूसरा जीव है। जीव अल्पज्ञ है, अल्पशक्तिवाला है, अतः शरीरनिर्माणादि सामर्थ्य से वह हीन है। यह सामर्थ्य तो मात्र-सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान ईश्वर में ही है। यजुर्वेद का वचन है-
परीत्य भूतानि परीत्य लोकान् परीत्य सर्वाः प्रतिशो दिशश्च।
उपस्थाय प्रथमजामृतस्यात्मनात्मानमभिसंविवेश।।
-यजुर्वेद ३२//११
महर्षि ने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में इसका अर्थ इस प्रकार किया है-
‘जो परमेश्वर आकाशादि सब भूतों में तथा सूर्यादि सब लोकों में व्याप्त हो रहा है। इसी प्रकार जो पूर्वादि सब दिशा और आग्नेयादि उपदिशाओं में भी निरन्तर भरपूर हो रहा है अर्थात् जिसकी व्यापकता से अणु भी खाली नहीं है जो अपने भी सामर्थ्य का आत्मा है और जो कल्पादि में सृष्टि की उत्पत्ति करने वाला है, उस आनन्दस्वरूप परमेश्वर को जो जीवात्मा अपने सामर्थ्य अर्थात् मन से यथावत् जानता है, वही उसको प्राप्त होके सदा मोक्ष सुख भोगता है।
इस सृष्टि निर्माणादि के साथ जो जीवात्मा को शरीर के साथ अनेक साधन प्रदान करता है निश्चय से वह अपने इस सामर्थ्य से अग्रज है। ऐसा सामर्थ्यवान् वह अग्रज निस्सन्देह हमारे सम्पूर्ण दुरितों को दूर करने में सक्षम है तथा ‘भद्र’ प्राप्त कराने में भी वह समर्थ है।
३. भूतस्य जातः– उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का वही प्रसिद्ध अर्थात् स्वामी है। कितना सामर्थ्यशाली है वह। इस विशाल ब्रह्माण्ड का रचयिता है। वह इसका स्वामी है, वह अत्यन्त प्रसिद्ध है।
‘सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्’
उस धाता ने अर्थात् सबको धारण करने वाले परमात्मा ने पूर्व के समान सूर्य चन्द्रादि उत्पन्न करके उनको धारण किया है। विविध प्रकार के वृक्ष, पुष्प, फल, रस आदि सभी उसी के उत्पादन सामर्थ्य का परिणाम है। हम अपने शरीर को ही देखें तो इसकी अद्भुत रचना को देखकर उसके उत्पादन सामर्थ्य का बोध हमें होता है। अन्न खाने के लिए दाँत, रसास्वादन के लिए रसना, विविध प्रकार के शरीर के यन्त्र जो भोजन पचाते हैं, रस बनाकर रक्त में परिवर्तित करते हैं, अशुद्ध रक्त को शुद्ध करके सारे शरीर में रक्त को पहुँचाकर सम्पूर्ण नस नाड़ियों को पुष्ट करने की प्रक्रिया, मज्जा, मांस, अस्थि आदि शारीरिक विकास को करने वाले तत्वों का निर्माण, विविध दृश्यों को देखने वाले सूक्ष्म तन्तुओं से निर्मित नेत्रादि अवयवों के निर्माण का सामर्थ्य जिस ईश्वर में है, उस ईश्वर के प्रति पूर्ण आस्था, श्रद्धा भाव रखना चाहिए, जिससे हमारी कामनायें सफल होगी, यह आशा, विश्वास उसके उत्पादन सामर्थ्य को देखकर हममें होना चाहिए।
विज्ञान की उन्नति को सब कुछ समझने वाले, वैज्ञानिक को, सामर्थ्यशाली समझने वालों को यह समझ लेना चाहिए कि समस्त वैज्ञानिक मिलकर भी सिर के एक बाल पर निर्माण नहीं कर सकते हैं। ‘लाप्लास’ ने पृथ्वी के अनेक रहस्यों को खोलने वाली रचना लिखी, किन्तु उसमें रचयिता का कोई वर्णन नहीं था। जब मित्रों ने कहा तो लाप्लास का उत्तर था कि मुझे उसकी कोई आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। वह लाप्लास जब मृत्यु की घड़ियां गिनने लगा, तब उस ने अपने मित्र से कहा-रचना का दूसरा संस्करण छपे तो सबसे पहले उस रचयिता को प्रणाम लिखना, उसके रचना सामर्थ्य को मेरा अभिवादन लिखना। लाप्लास कहता है- उसका सामर्थ्य महान् उसका रचना-कौशल आश्चर्यजनक है, उसके नियम अटल हैं, मैं मरना नहीं चाहता हूँ किन्तु मुझे कोई बलपूर्वक अपनी ओर खींच रहा है, निश्चय से उसका सामर्थ्य अद्भुत है।
४. पतिरेक आसीत्– स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था। वह परमेश्वर जिससे हम अपनी मनोकामना पूर्ण करना चाहते है वह चेतन स्वरूप ही नहीं अपितु स्वामी है, मालिक है, पति है, पिता है-
त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ।
अथा ते सुम्नमीमहे।
– ऋग्वेद ८//९८//११
हे विशाल सृष्टि का निर्माण करने वाले प्रभो! आप ही हमारे पिता हैं। हे आनन्द स्वरूप जगन्नियन्ता प्रभो! हम आपसे, जो परम भद्र है, परम आनन्द है, उसकी याचना करते हैं। हमें अपनी कृपा से परमानन्द प्रदान कीजिये।
वह परमेश्वर ही हमारा सच्चा बन्धु, सखा आदि है। वह ही हमारा सब कुछ देवों का देव है अर्थात् हमारा स्वामी है। वह हमारा ऐसा स्वामी है जो हमारे लिए सभी कल्याणकारी साधन जुटाता है, वह हमारा परम हितैषी है। वह आनन्द का कोष है, हमें आनन्द प्रदान करना चाहता है। किन्तु हम अपने ही दुरितों-दुर्गुण, दुर्व्यसनों के कारण उसके आशीर्वाद को, वरदानों को ग्रहण नहीं कर पाते हैं। हमारी प्रार्थना की सफलता हमारे सत्प्रयत्न एवं आस्था पर, श्रद्धा पर सफल होती है। स्वामित्व की दृष्टि से उसका सामर्थ्य महान् है। एक बार अकबर ने वीरबल से कहा-‘बीरबल कोई ऐसा कार्य बताओ जिसे मैं कर सकता हूं किन्तु परमात्मा नहीं कर सकता है।’ बीरबल ने बड़े सहजभाव से कहा-‘आप चाहें तो मुझे अपने राज्य से बाहर निकाल सकते हैं। किन्तु वह परमात्मा बड़ा दयालु है वह मुझे अपने राज्य से नहीं निकालता है।’ वह मेरा प्यारा स्वामी है। गीताकार के शब्दों में-
पितासि लोकस्य-से-लोकत्रयेऽप्यप्रतिमप्रभाव।
-गीता ११//४३
वह परमेश्वर ही चराचर जगत् का पिता है, गुरु से बढ़कर गुरु और पूजनीय है। हे अतिशय विभूतिवाले! तीनों लोकों में तेरे समान कोई दूसरा नहीं है, फिर तुझसे बढ़कर कैसे हो सकता है? ऐसे स्वामित्व की दृष्टि से महान् परमात्मा से हमारी प्रार्थना अवश्य पूर्ण होगी।
५-स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम् – वह अर्थात् इस भूमि और सूर्यादि को धारण कर रहा है। वह हमारा प्यारा प्रभु शक्तिमत्ता की दृष्टि से भी महान् है। उसकी महान् शक्तिमत्ता से ही विशाल ब्रह्माण्ड की रचना होती है यजुर्वेद का वचन है-
नाभ्या -से-अकल्पयन्।
-यजुर्वेद ३१//१३
उस परमेश्वर की सूक्ष्म शक्तिमत्ता से भूमि और सूर्यादि लोकों के मध्यभाग अन्तरिक्ष की रचना और उसके सर्वोत्तम सामर्थ्य से सब लोकों के प्रकाश करने वाले सूर्य आदि लोक उत्पन्न हुए हैं। पृथिवी के परमाणु कारणरूप सामर्थ्य से, शक्तिमत्ता से पृथिवी उत्पन्न की है तथा जल को भी उसके कारण से उत्पन्न किया है, उसने श्रोत्ररूप सामर्थ्य से दिशाओं को उत्पन्न किया है, इसी प्रकार सब लोकों को कारणरूप सामर्थ्य से परमेश्वर ने सब लोक और उनमें बसने वाले सब पदार्थों को उत्पन्न किया है। यह सब उसकी शक्तिमत्ता के कारण है।
महाभारत शान्तिपर्व में उक्त भाव को इन शब्दों में वर्णित किया है-
यस्याग्निरास्यं -से-लोकात्मने नमः।
बृहदारण्यक उपनिषद् का वचन है–
‘एतस्याक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्ठतः’।
इसी अक्षर ब्रह्म के शक्ति सामर्थ्य से सूर्य और चन्द्र अपने-अपने स्थानों में ठहरे हुए हैं।
उस ब्रह्म की शक्तिमत्ता की कितनी प्रशंसा की जायें, उसने अपनी शक्ति से ब्रह्माण्ड को धारण कर रखा है। कठोपनिषद् में आलंकारिक ढंग से उसकी शक्तिमत्ता का वर्णन किया है-
न तत्र-से-सर्वमिदं विभाति।
– कठोपनिषद् ५//१६
वह ब्रह्म अपनी शक्तिमत्ता से, सामर्थ्य से सबको अपने शासन सूत्र में बांधे हुए है।
इस प्रकार ईश्वर की शक्तिमत्ता से भी भक्त प्रभावित होकर यह आशा रखे कि वह सविता देव अवश्य दुरितों को दूर करेंगे तथा ‘भद्र’ प्राप्त करायेंगे।
कस्मै देवाय-सुखस्वरूप परमात्मा के लिए महर्षि ने ‘कस्मै’ का अर्थ जो सुखस्वरूप किया है, वह शास्त्र सम्मत है। वैसे सामान्य लोगों के विचारानुसार ‘कस्मै’ का अर्थ ‘किसके लिए’ होना चाहिए, फिर ‘सुखस्वरूप’ अर्थ करने का आधार क्या है। वैदिक साहित्य का अध्ययन करें तो विदित होगा कि ‘कः’ के दो अर्थ है-‘कः’ का अर्थ है सुख-‘कः सुखम्’ निरुक्त 10//22 के अनुसार है। ऐतरेय ब्राह्मणादि के अनुसार -‘कः वै प्रजापतिः’ कः नाम प्रजापति का है। उक्त के आधार पर महर्षि ने जो ‘कस्मै देवाय’ का अर्थ सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए किया है, वह उचित ही है।
हविशा विधेम– ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अतिप्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
महर्षि ने ‘हविषा’ के दो अर्थ किये हैं, एक ग्रहण करने योग्य और दूसरा प्रदान करने योग्य। प्रथम लेना द्वितीय देना। वैसे ‘हविषा’ का सामान्यतः सामग्री से, वस्तु से अर्थ होता है। किन्तु महर्षि ने जो उक्त अर्थ किया है-उसका आधार क्या है? पाणिनि महर्षि के धातुपाठ के अनुसार -‘हु दानाऽदानयोः’ धातु से ‘हविषा’ शब्द बनता है। इसके अनुसार ‘हु’ के दो अर्थ हुए-प्रथम-दान, द्वितीय-ग्रहण करना। उपनिषद् के वचनानुसार-
‘इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन् महती विनिष्टः’ केनोपनिषद् २//१५ इस मानव जीवन को पाकर कुछ जान लिया तो सत्य है, नहीं जान पाये तो महान् विनाश है। यह वचन मानव जीवन की श्रेष्ठता को वर्णित करता है। अतः उसे जानना है, जिसने इस सृष्टि को धारण कर रखा है। वह विशाल है, वह अग्रज है, वह उत्पादक है, वह स्वामी है तथा शक्तिमान् है, वह सब दृष्टियों से महान् है-
‘तमेव विदित्वाऽतिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय’
-यजु ३१//१८
उस महान् सामर्थ्यशाली परमेश्वर को जानकर ही व्यक्ति मृत्यु से, दुःख से छूट जाता है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग गति के लिए है नहीं। जीवन के इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही महर्षि ने-हविषा का अर्थ योगाभ्यास किया है, क्योंकि मृत्यु से, दुःख से छूटने के लिए योगाभ्यास ही ग्रहण करने योग्य उत्तम साधन है। योगाभ्यास के द्वारा व्यक्ति मोक्ष का पथिक बन सकता है, ‘भद्र’ की प्राप्ति के लिए योगाभ्यास आवश्यक साधन है। अतः महर्षि ने हविषा का अर्थ योगाभ्यास किया है।
अब प्रश्न है योगाभ्यास की सफलता किस साधन से हो सकती है। उसका प्रमुख साधन है, अभ्यास और दूसरा साधन है उपासना। उपासना के द्वारा शरीर से ऊपर उठा जाता है, अन्तर आत्मा में प्रवेश किया जाता है। यह सब ध्यान के अभ्यास से होता है। ध्यान की सफलता श्रद्धाभाव, समर्पण भाव पर अवलम्बित होती है। समर्पण ही तो जीवन है। समर्पण क्या करें? भौतिक वस्तुएं फल, धन, रत्न, अन्न तो उस दाता की देन है, वह ईश्वर ही मुझे यह सब कुछ देता है, फिर भला मैं यह सब उसे कैसे समर्पित करूँ? फिर मैं तो मोक्षमार्ग का पथिक बनना चाहता हूँ। मोक्षमार्ग का साधन है-‘मन एवं मनुष्याणां कारण बन्ध्मोक्षयोः’
मन ही मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का कारण होता है।
मन जब भौतिक वस्तुओं में आसक्ति करता है, प्रेम करता है तो नाना प्रकार के दुःख उठाता है। आज भौतिक वस्तु के प्रति अत्यधिक आसक्ति ने ही तो क्या आश्चर्यजनक दशा कर रखी है-
इस दौर-ए-तरक्की के अन्दाज़ निराले हैं।
ज़ेहनों में अन्धेरे हैं सड़कों पे उजाले हैं।।
अतः एक दूसरा मार्ग है मन को ईश्वरार्पण कर देना। मन की वृत्ति है-प्रेम करने की। यह प्रेम ईश्वर के प्रति हो जाये तो ‘भद्र’ की प्राप्ति सरलता से हो सकती है। अतः आवश्यकता है उसकी भक्ति करने की। तो योगाभ्यास ग्रहण करो, प्रेम समर्पित करो।
इस प्रकार महर्षि ने हविषा का अर्थ जो योगाभ्यास और प्रेम किया है। वह सर्वथा उचित ही है।