खण्ड १ (सन्ध्या के मन्त्रों के छुपे हुए अर्थ)

 

– पंडित गंगाप्रसाद उपाध्याय

संध्या के विभाग

मैं संध्या के मंत्रों को चार विभागों में विभक्त करता हूँ।

पहले भाग में चार मंत्र हैं-

(१) ‘शन्नो देवी’ इत्यादि जो ‘आचमन मंत्र’ कहलाता है।

(२) ओ३म ‘वाक्-वाक्’ इत्यादि जो ‘इन्द्रिय-स्पर्श’ के नाम से प्रसिद्ध है।

(३) ओ३म ‘भूः पुनातु शिरसि’ इत्यादि जिसको ‘मार्जन-मंत्र’ कहते हैं।

(४) ओ३म ‘भूः’ इत्यादि जिसको ‘प्राणायाम-मन्त्र’ कहते हैं।

दूसरा भाग ‘ऋतं च सत्यं च’ आदि तीन मन्त्रों का सूक्त है जिसको भूल से ‘अघमर्षण मन्त्र’ कहते हैं।

तीसरा भाग ‘प्राची दिगग्नि’ इत्यादि छः मन्त्रों का सूक्त है जिसको ‘मनसा-परिक्रमा-मन्त्र’ कहते हैं।

चौथा भाग ‘उद्वयं’ इत्यादि जिसको ‘उपस्थान’ कहते हैं।

इन चारों भागों की अपनी-अपनी अलग विशेषताएँ हैं। वही संध्या के ठीक-ठीक उद्देश्य की पूर्ति करती हैं, अर्थात् उनका सम्बन्ध बाहरी कृत्यों या रस्मों से नहीं है, अपितु ईश्वर के गुणों के ध्यान से है। संध्या का मुख्य उद्देश्य ध्यान है, पानी पीना या पानी के छींटे देना नहीं। ये तो ऊपरी कृत्य ही हैं।

अब थोड़ा सा सोचिये। मन्त्रों के अर्थों से पता चलता है कि इन चार भागों की अलग-अलग विशेषताएँ क्या हैं। साधारणतया लोगों ने संध्या के बाहरी कृत्यों पर ही ध्यान दिया है और मुख्य ‘ध्यान’ को भुला दिया है। इसलिए यह शिकायत रहती है कि संध्या करने में मन नहीं लगता।

मन का लगना ‘मनोविज्ञान’ (साईकालोजी) का विषय है।

मन लगने के उदाहरण हमको नित्य मिलते हैं।

बच्चे का मन खिलौने में लग जाता है। जब खिलौने में दत्त-चित्त होता है तो खाना-पीना भूल जाता है।

बड़े लोग अपने कारोबार में लग जाते हैं तो और चीजों को भूल जाते हैं। मन किसी-न-किसी चीज में अवश्य लगता है। हर चीज में नहीं लगता। जब एक गणितज्ञ किसी गणित की समस्या पर विचार करता है, या जब शतरंज खेलनेवाला किसी चाल के विषय में सोचता है, तो उनका मन ऐसा लग जाता है कि भूख-प्यास भाग जाती है।

इसलिए, जब तक मन के स्वाभाविक गुणों का ज्ञान प्राप्त न किया जाय, मन पर अधिकार पाना कठिन है। सवार को घोड़े की आदतों को जानना चाहिए। हर घोड़ा हर सवार के वश में नहीं आ सकता। जो लोग चाहते हैं कि ईश्वर जैसी निराकार, शरीर-रहित, परोक्ष सत्ता की ओर मन लगा सकें, वे मन के स्वभाव से परिचित नहीं हैं। वे शरीर रूपी घोड़े पर आसानी से चढ़ना चाहते हैं और जब उस पर वश नहीं चलता तो शिकायत करते हैं। सबसे बड़ी नासमझी यह है कि तोते के समान, बिना सोचे-समझे मन्त्रों को पढ़ लेने से उनमें मन लग जायगा। संध्या के मन्त्रों के उच्चारण-मात्र में कोई ऐसा जादू नहीं है कि मन लग सके। यह तो ठीक है कि मन्त्रों को समझने के लिए पहले उनको याद करना पड़ेगा, परन्तु केवल याद कर लेना पर्याप्त नहीं है।

किसी वस्तु का ज्ञान प्राप्त करने के लिए मन की तीन प्रवृत्तियाँ हैं-

(१) मन समीप की चीजों से चलकर दूर की चीजों पर जाता है, (from near to far) -प्रवृत्ति-संख्या एक।

(२) मन सरल वस्तु से चलकर क्लिष्ट की ओर जाता है, (from simple to complex) -यह है प्रवृत्ति-संख्या दो।

(३) मन ज्ञात से चलकर अज्ञात की ओर जाता है, (from known to unknown)-यह है प्रवृत्ति-संख्या तीन।

इनके अतिरिक्त मन का एक स्वभाव यह है कि उसकी चाल बहुत सुस्त होती है। विद्या की प्राप्ति छलाँगें मारकर नहीं होती। हमकों धीरे-धीरे एक-एक इंच भूमि को पार करना पड़ता है। डाकगाड़ी के तेज-से-तेज चलनेवाले पहिये भी मार्ग के हर इंच पर होकर गुजरते हैं।

हम ईश्वर का ध्यान करना चाहते हैं। ज्ञान की अपेक्षा से ईश्वर हमसे दूर भी है, कठिन भी है और अज्ञात भी।

इसीलिए प्रश्न यह है कि हम ईश्वर का ध्यान करने के लिए कहाँ से आरम्भ करें? यदि हमकों इलाहाबाद से कलकत्ते जाना है तो आरम्भ इलाहाबाद से करेंगे न कि कलकत्ते से, तभी तो कलकत्ते की ओर चल सकेंगे।

हर शिक्षित या अशिक्षित पुरुष के लिए निकटतम वस्तु है उसका अपना शरीर। हमारा शरीर हमारे लिए अपनी निज-सत्ता के ज्ञान से भी समीपतर है। यह तो केवल दार्शनिक पुरुष ही जानता है कि मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं। परन्तु हर मूर्ख बच्चा भी अपने शरीर को जानता है-यह मेरी आँख है, यह मेरा हाथ है। मैं क्या हूँ? यह उसे ज्ञात नहीं। परन्तु इसका उसको पूर्ण निश्चय है कि यह मेरी आँख है। केवल कुछ दार्शनिक ही हैं जिन्होंने इसको अविद्या कहा है परन्तु यह ऐसी अविद्या है जो सुगमता से भुलाई नहीं जा सकती, और जिससे आरम्भ करके ही हम दूसरी वस्तुओं को प्राप्त कर सकते हैं।

इसलिए संध्या का सबसे प्रथम भाग यह है कि अपने शरीर या पिण्ड में ईश्वर के गुणों का ध्यान करें। ‘इन्द्रिय-स्पर्श’ आदि मन्त्रों में इसी बात पर बल दिया गया है।

जब हम ईश्वर के गुणों का ध्यान अपने शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों पर कर सकें तो इससे आगे चलकर हम ईश्वर को ब्रह्माण्ड में देखने का यत्न करेंगे। यह संध्या का दूसरा भाग है जो ‘ऋतं च सत्य च’ इत्यादि मन्त्रों में बताया गया है। जैसे ‘पिण्ड’ एक शरीर है वैसे ही ‘ब्रह्माण्ड’ अर्थात् बड़ा पिण्ड भी एक शरीर है। पिण्ड और ब्रह्माण्ड में इतना भेद है कि ‘पिण्ड’ केवल मेरा है, ‘ब्रह्माण्ड’ मेरा भी है और दूसरे प्राणियों का भी। अपनी आँख से केवल मैं ही देख सकता हूँ, आप नहीं देख सकते, परन्तु सूर्य मेरा भी है और आपका भी। अतः ‘ब्रह्माण्ड’ सबके सांझे का पिण्ड समझना चाहिए। इसका वर्णन विस्तारपूर्वक हम आगे करेंगे। यहाँ केवल संध्या के चार भागों की ओर संक्षेप से संकेत मात्र करना है।

संध्या का तीसरा भाग ‘प्राची दिगग्नि’ आदि छः मन्त्रों का सूक्त है। जब हमको यह अनुभूति हो गई कि ईश्वर का प्रकाश हमारे पिण्ड (शरीर) में भी है जो केवल हमारा है और ब्रह्माण्ड में भी है जो सब प्राणियों के सांझे की वस्तु है, तो अगला पग यह है कि हम ईश्वर के प्रकाश को अपने समाज में देखें। शरीर भी जड़ है और ब्रह्माण्ड भी जड़ है। परन्तु, समाज चेतन है। ईश्वर का प्रकाश जड़ पदार्थों में भी है और चेतनों में भी। परन्तु, जड़ की अपेक्षा चेतन में ईश्वर का प्रकाश अधिक विलक्षण है। जड़ वस्तुओं का समझना सुगम है और जानवरों या मनुष्यों के मस्तिष्कों का समझना कठिन है। सूर्य की गति का समझना सुगम है और उसके विषय में भविष्यवाणी देना भी सुगम है, परन्तु एक क्षुद्र प्राणी अर्थात् चींटी की गति के विषय में भविष्यवाणी सुगम नहीं है। ईश्वर की महिमा का अनुमान इतना आकाश के लोक-लोकान्तरों को देखकर नहीं होता, जितना मानवी समाज की प्रतियों से होता है। एक फैक्टरी की बड़ी से बड़ी मशीन चलाना सरल है, परन्तु मजदूरों को वश में रखना सरल नहीं, क्योंकि मजदूर चेतन हैं।

इसलिए, संध्या के तीसरे भाग में इसी पर ध्यान दिया जाता है।

संध्या का चौथा या अन्तिम भाग ‘उपस्थान’ कहलाता है, अर्थात् जब हम ईश्वर की अनुभूति को अपने पिण्ड, ब्रह्माण्ड और अपने समाज में देखने में सफल हो जाते हैं, तो ईश्वर से हमारे आत्मिक सम्बन्ध का भी भान होने लगता है। यह ध्यान की पराकाष्ठा है। योगदर्शन में कहा है कि-

तदा द्रष्टुः स्वरूपे अवस्थानम्।

अर्थात् ध्यान करनेवाला परमात्मा को अपने-आप में अनुभव करता है। यह निकटतम और सीधी अर्थात् प्रत्यक्ष अनुभूति है। अब तक हम ईश्वर का ध्यान दूसरी चीजों के माध्यम से करते रहे, अब हमारा सीधा सम्बन्ध प्रतीत हो रहा है। इसकी पूरी जानकारी तो तब होगी जब हम इन अन्तिम मन्त्रों की विस्तृत व्याख्या करेंगे।

यहाँ हमने संध्या के चार भागों का मोटे रूप से वर्णन किया है, अर्थात् हमको ईश्वर के गुणों की अनुभूति पहले अपने पिण्ड अर्थात् शरीर में होती है, इसके पश्चात् ब्रह्माण्ड अर्थात् जगत् में, इसके पश्चात् मानवी सामाजिक अवस्था में, उसके पश्चात् सीधी अपने-आप में, ध्यान की क्रिया इस प्रकार समाप्त होती है। और नित्य सायं-प्रातः उस क्रिया को करते हुए हमारा मन अधिक प्रकाशित होने लगता है। इससे हमारे जीवन के कार्यों में एक सुखद परिवर्तन होता है, हमारा आचार सुधरने लगता है और हमको ज्ञान होने लगता है कि स्वयं सुधर रहे हैं।

‘शन्नो देवी’ मन्त्र

‘शन्नो देवी’ मन्त्र से संध्या आरम्भ होती है।

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‘शन्नो देवी’ मन्त्र की कुन्जी है ‘पीति’ शब्द। ‘पीति’ का अर्थ है सन्तोष, अर्थात् किसी प्राप्त वस्तु की प्राप्ति पर धन्यवादपूर्वक ‘तुष्टि’ का प्रकाश करना। यदि आप मुझे कोई वस्तु प्रदान करें और मैं उसकी प्राप्ति पर प्रसन्नता का प्रकाश करूँ और धन्यवाद-पूर्वक उसको अंगीकार करूँ तो यह ‘पीति’ है। परमात्मा जीवों पर सहस्रों कल्याणकारक पदार्थों की वर्षा करता है, परन्तु जीव इस पर सन्तोष नहीं करते। इसलिए वह ‘देन’ निरर्थक सिद्ध होती है। ईश्वर की ओर से मनुष्य को शिकायत पैदा हो जाती है। मनुष्य की क्षुद्र-दृष्टि ही उसकी विपत्तियों का मूल है। हम निरन्तर शिकायत करते रहते हैं कि ईश्वर ने हमकों यह नहीं दिया, वह नहीं दिया। परन्तु, कभी यह कृतज्ञता प्रकट नहीं करते कि ईश्वर ने हमको क्या-क्या दिया है। इस प्रवृत्ति से ईश्वर की ओर क्रोध और घृणा का भाव उत्पन्न हो जाता है। हम प्रायः कह बैठते हैं कि हे ईश्वर! हमने तेरा क्या बिगाड़ा था कि तूने हमको अमुक कष्ट दिया? हम नहीं सोचते कि जो उपकार उसने हमारे ऊपर किये हैं, वे इतने असंख्य हैं कि यदि एक-दो अभीष्ट पदार्थ न भी मिलें तो शिकायत नहीं करनी चाहिये।

ईश्वर हमारे साथ उपकार करता है, परन्तु यदि हम इन उपकारों को धन्यवादपूर्वक स्वीकार न करें, तो इन उपकारों का मूल्य कम हो जाता है। उनसे हमको जो सुख मिलनेवाला था वह भी नहीं मिलता। ईश्वर उपकारक वस्तुएँ प्रदान कर सकता है। परन्तु, सन्तोष नहीं दे सकता। सन्तोष तो जीव को स्वयं अपनी ओर से ही मिलता है। यदि हमारी प्रवृत्ति असन्तोष की है, तो संसार-भर की उत्तम वस्तुएँ हमको सुख नहीं पहुँचा सकतीं।

‘शन्नो देवी’ मन्त्र में इसी बात पर बल दिया गया है। यद्यपि ईश्वर-प्रदत्त उपकार असंख्य हैं, परन्तु जब तक हम अपनी ओर से ‘पीति’ का प्रकाशन नहीं करते, वे समस्त पदार्थ हमको सुख नहीं दे सकते। माता बच्चे को अच्छे खाने खिला सकती है, परन्तु भोजन के स्वाद में खानेवाले की प्रवृत्ति का भी कुछ भाग होना आवश्यक है। ज्वर में हलवा कड़वा लगता है। इसलिए नहीं, कि हलवाई ने हलवा बनाने में कुछ कमी कर दी, परन्तु इसलिए कि ‘ज्वर’ ने आपके शरीर से निकला हुआ ‘विष’हलवे में मिला दिया-

राहते-क़लबी के तालिब को क़नाअत चाहिये।

कम है कारूँ का खजाना भी हवस के वास्ते।।

अर्थात् आत्म-शान्ति के लिए सन्तोष की अपेक्षा है।

असन्तोषी के लिए समस्त संसार की विभूति भी अपर्याप्त है।

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‘शन्नो देवी’ मन्त्र पढ़कर और उसके भावों पर विचार करके हम अपने मन को तैयार करते हैं कि वह ईश्वर के उपकारों का यथोचित रूप से अनुभव करे। इससे ईश्वर के लिए हमारा प्रेम बढ़ेगा।

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इस प्रकार ‘शन्नों देवी’ मन्त्र के अर्थ की भावना हमारे मन में उस ‘आपो देवीः’ अर्थात् सर्वव्यापक दयालु शक्ति अर्थात् माता के समान परमात्मा के लिए प्रेम पैदा कर देती है, और हम कहने लगते हैं कि- ‘हे परमात्मन्! ‘शंयोः’ अर्थात् सुख को प्राप्त करने और पाप से बचने के लिए आप हमारे ऊपर अपने उपकारों या उपहारों की वर्षा कीजिये और साथ ही हमको ऐसी बुद्धि दीजिये कि हम इस वर्षा का अनुभव कर सकें’। यह अनुभव करना ही ‘पीति’ है। यह अनुभूति ही सन्तोष है। ईश्वर की कृपा होते हुए भी यदि हमारे मन में ‘अनुभूति’ नहीं, तो समस्त उत्तम पदार्थों के होते हुए भी हम सुख से वंचित रहेंगे, और सुखों के दाता परमात्मा के लिए हमारे मन में कोई श्रद्धा न होगी। इसलिये, बारम्बार सोचो कि ईश्वर ने तुमको क्या दिया है? इसे सोचने के लिए तुम्हारे पास पुष्कल सामग्री है। उसके उपकार हमारे चारों ओर फैले हुए हैं।

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ओ३म् वाक् वाक्

…. ‘ओ३म् वाक् वाक्’ का सीधा अर्थ है ‘ओ३म् वाक् वाक् अस्ति’। अर्थात् जिस वाणी से हम बोलते हैं उसमें वस्तुतः ईश्वर की ही शक्ति काम करती है। जिस प्रकार लट्टू में प्रकाश बिजली का है लट्टू का नहीं, लट्टू तो केवल प्रकाश प्रकट करने के लिए है, इसी प्रकार ‘जीभ’ भौतिक पदार्थों का एक छोटा सा जड़ और ज्ञान शून्य लोथड़ा है। उसमें बोलने की ‘शक्ति’ ईश्वर की दी हुई है। इस प्रकार हम ईश्वर की सत्ता का प्रकाश अपने ‘पिण्ड’ में देखते हैं।

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‘इन्द्रिय-स्पर्श’ के पूरे मन्त्र में हम ‘ईश्वर की सत्ता’ को अपने शरीर के अत्यन्त समीपस्थ अवयवों में देखते हैं। ईश्वर को देखने के लिए हमको दूर नहीं जाना है। हमको इस सत्ता की अनुभूति का आरम्भ अपने शरीर से ही करना चाहिये। शरीर का एक-एक अंग गिनना चाहिये। आपको ईश्वर की सत्ता का साक्षात् होगा। यदि, आप अपने मन को इस उपकार के परिणाम में लगा दें, तो यह शिकायत दूर हो जाय, यद्यपि मन दूर भागता है और दूसरे पदार्थों के विषय में सोचने लगता है। आपके शरीर से प्यारा आपके लिए ओर कौन-सा पदार्थ है? वाक्, प्राण, चक्षु, श्रोत्र सभी तो अपने स्वरूप से ईश्वर की सत्ता और ईश्वर की दयालुता को बखान रहे हैं। यदि आपके बाहुओं में ‘यश’ और ‘बल’ है तो वह भी ईश्वर-प्रदत्त है, आपका स्वयं-निर्मित नहीं। आपने तो अपने शरीर में नाखून तक नहीं बनाया। बिजली के लट्टू में प्रकाश बिजली का है, लट्टू का नहीं। इससे भी बढ़कर बात यह है कि बिजली लट्टू को बनाती नहीं, प्रकाशित करती है। परन्तु, हमारे शरीर की आँख को ईश्वर बनाता भी है और प्रकाशित भी करता है।

अपने पिण्ड के अवयवों में ईश्वर की महिमा का ध्यान करना निकटस्थ वस्तु से आरम्भ करके दूरस्थ वस्तु तक पहुँचना है। ईश्वर निकट भी है और दूर भी। यह अनुभव करना कठिन है कि ईश्वर हमारे हृदय में है। हम स्वयं नहीं जानते कि हृदय क्या है, कहाँ है और कैसे काम करता है? परन्तु वाक्, आँख, कान को बच्चे भी समझते हैं। इसलिए बच्चों में भी परमात्मा की भावना उत्पन्न की जा सकती है।

यदि, आप किसी बच्चे से पूछें कि ईश्वर कहाँ है?, तो वह ऊपर को हाथ उठा देता है। उसने स्वर्ग और नरक की मनगढ़न्त कहानियाँ सुन रखी हैं। संध्या इस भ्रान्ति को दूर करती है। बच्चे को समझना चाहिये कि जिस आँख से तुम देखते हो उसमें ईश्वर विद्यमान है। जिस कान से तुम सुनते हो उसमें परमात्मा की शक्ति है। जब बच्चा समझने लगे कि ईश्वर की ओर से उसको किस-किस वस्तु की प्राप्ति हुई है तो उसके मन में ऐसे दयालु ईश्वर के जानने की इच्छा उत्पन्न होगी। ‘भक्ति’ सिखाने का यह सबसे अच्छा साधन है।