खण्ड १ (ईश्वरस्तुतिप्रार्थनाउपासना के मन्त्रों के अर्थ)
-अर्जुन देव स्नातक
आचमन एवं अंगस्पर्श के मन्त्रों के पश्चात् दैनिक यज्ञ में ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के मन्त्रों का पाठ करना चाहिये। महर्षि ने सर्वत्र शुभ कर्मों के आरम्भ में ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना करने का निर्देश किया है। ये मन्त्र, अपनी अल्पता का बोध देते हैं, ईश्वर के सामर्थ्य का बोध देते हैं, सृष्टि के सभी विशाल तत्व उसी की सत्ता का परिचय देते हैं, ऐसा ईश्वर हमारा बन्धु है, वही हमारा कल्याण कर्त्ता है, इसी भाव को धारण कर सुपथ पर चलते हुए सम्पूर्ण कामनाओं की पूर्ति हो सकती है आदि भावों को पुष्ट करने वाले ये मन्त्र हैं। अतः हमारे विचार में पूर्ण श्रद्धा के साथ तन्मय होकर इन मन्त्रों का पाठ मधुर स्वर से करना चाहिए।
इन मन्त्रों का इस दृष्टि से अधिक महत्त्व है कि इन्हें महर्षि दयानन्द ने आर्षबुद्धि से संकलित किया है। ऋग्वेद के मन्त्रों की संख्या 10552 है, यजुर्वेद की संख्या 1975 है, सामवेद की मन्त्र संख्या 1875 है तथा अथर्ववेद के मन्त्रों की संख्या 5977 है। इस प्रकार चारों वेदों में कुल मन्त्र हुये 20379। इनमें से महर्षि की आर्षबुद्धि ने इन आठ मन्त्रों का चयन विशेष अभिप्राय से ही किया है। अतः हमारी सम्मति में आचमन, अंगस्पर्श मन्त्रों के बाद बिना किसी विवाद के इन मन्त्रों का पाठ अर्थ चिन्तन के साथ करना चाहिए। इन मन्त्रों में निहित भावों को जानने से पूर्व स्तुति, प्रार्थना, उपासना का तात्पर्य एवं उसके फल को जान लेना आवश्यक है।
आर्योद्देश्यरत्नमाला के अनुसार महर्षि के शब्दों में स्तुति-‘जो ईश्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुण, ज्ञान, कथन, श्रवण और सत्य भाषण करना है, वह स्तुति कहती है’।
प्रार्थना-‘अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिये परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को प्रार्थना कहते है’।
उपासना-‘जिससे ईश्वर ही के आनन्द स्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है, उसको उपासना कहते हैं’।
मनुष्य का स्वभाव होता है कि किसी में महान् या उत्तम गुण हों तो वह उसकी प्रशंसा करता ही है। उपकारी के गुणों का कथन करते-करते व्यक्ति आनन्द में डूब जाता है। जो उपकारी के उपकार को स्वीकार नहीं करता है, वह मानव समाज में आदर का पात्र नहीं होता है। जो बालक अपने उत्तम माता-पिता के गुणों को, उपकार को नहीं मानता है, वह समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है।
सच पूछा जाय तो ईश्वर के अनन्त उपकार है, ये सुन्दर नेत्र दिये हैं जो विविध दृष्य देखते हैं, आनन्दित होते हैं, नासिका से विविध गन्धों का आनन्द लेते हैं, रसना विविध रसास्वादन में रस लेती है और सभी ईश्वर की कृपा है, जिसने सभी पदार्थों की रचना की है, ऐसे उस महान् ईश्वर के गुणों का गान करना मानव का नैतिक कर्तव्य है।
लोक व्यवहार में हम सहायता किस व्यक्ति की करते हैं? आलसी, पुरुषार्थ-हीन व्यक्ति की सहायता कोई करता नहीं है, न करना चाहता है। आप कल्पना करें कि एक व्यक्ति जेब से हाथ डाले खड़ा है और आपसे कहता है भाई जी, जरा अटैची उठाना, तो आप यहीं कहेंगे कि खुद तो जेब में हाथ डाले खड़ा है और हमसे कहता है अटैची उठा देा। दूसरी ओर एक सामान्य व्यक्ति एक बोझ उठाने का बार-बार प्रयत्न करता है, उठा नहीं पाता है। बस आपकी ओर जरा देखता ही है कि आप शीघ्र उसकी सहायता के लिए तत्पर होते हैं। ठीक ऐसी ही सहायता पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त परमेश्वर की ओर से हमें सुलभ होती है। परमेश्वर तो दयालु है, वह दया का समुद्र है किन्तु हम तो दया की कटोरी भी नहीं हैं तो दयालु ईश्वर हम पर दया कैसे करेंगे, हम दया के पात्र बनें इसके लिए प्रार्थना-पुरुषार्थ करना आवश्यक है।
ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना
ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का फल क्या है? इस प्रश्न का सुन्दर समाधान महर्षि ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के सप्तम समुल्लास में किया है-
‘स्तुति से ईश्वर में प्रीति, उसके गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाव से अपने गुण, कर्म, स्वभाग, का सुधारना, प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय का मिलना, उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना।’
उपर्युक्त वचन से यह तात्पर्य निकलता है कि अपने गुण, कर्म और स्वभाव यदि नहीं सुधरते हैं तो वह स्तुति व्यर्थ है, उस स्तुति से लाभ है जिसमें अपने गुणों का विकास हो, अपने कर्म महान् हों, अपना स्वभाव उत्तम बने।
अभिमान जीवन का महान् शुत्र है। निरभिमानता की उपलब्धि प्रार्थना की महान् उपलब्धि है। महान पुरुषों के जीवन में तो ईश्वर की स्तुति प्रार्थना से महान् गुणों का विकास होता है-
निदन्तु -से- पदं न धीराः।
– भर्तृहरि नीति ७९
नीति में चतुर लोग निंदा करें या प्रशंसा करें, लक्ष्मी आवे या अपनी इच्छानुसार चली जावें, आज ही मृत्यु हो अथवा वर्षों के बाद हो। निश्चय से धैर्यशाली लोग न्याय के मार्ग से कभी विचलित नहीं होते हैं। यह गुण ईश्वर की उपासना से आता है। महर्षि ‘सत्यार्थप्रकाश’ के सप्तम समुल्लास में लिखते हैं-
‘इसका फल-जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है, वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से सब दोष दुःख छूटकर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिए। इससे इसका फल पृथक् होगा, परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा, वह पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरायेगा और सबको सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है।’
-सत्यार्थ प्रकाश सप्तम समुल्लास
कृतघ्न का कोई प्रायश्चित नहीं है, उद्धार का कोई उपाय ही नहीं है। अतः इस दोष से बचना आवश्यक है। महर्षि निर्देशित इन मन्त्रों का पाठ सम्पूर्ण शुभ कर्मों में तथा दैनिक यज्ञ में अवश्य करना चाहिए।
इन मन्त्रों का महत्त्व अनेक दृष्टियों से समझा जा सकता है। यज्ञ से पूर्व याजक अपने उद्देश्य को -‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ जो कल्याणकारी हो वह हमें प्राप्त हो, वह प्रार्थना सविता देव से है। सविता देव का सामर्थ्य, उसकी शक्ति द्वितीय मन्त्र में वर्णित है तो तृतीय मन्त्र ‘यस्य विश्व उपासते’ कहकर हमें यह कार्य करने की प्रेरणा देता है क्योंकि वह तो ‘महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव’ अपनी महानता से जगत् का राजा है, इतना ही नहीं-‘उग्रा द्यौ. पृथिवी च दृढ़ा’ उग्र पृथिवी और द्यौ को भी धारण करने वाला है- उसके समान कोई प्रजापति नहीं है-वही हमारा बन्धु है, पिता है, अमृत की प्राप्ति भी उसकी उपासना से ही हो सकती है-भद्रता की याचना ऐसे सामर्थ्यशाली परमेश्वर से उचित है, इसकी प्राप्ति कैसे हो सकेगी? इसका उत्तर भी- ‘अग्ने नय सुपथा’ सुपथ पर चलने से ही यह सब सुलभ हो सकेगा।
एक अन्य दृष्टि से विचार करें तो -व्यक्ति में १. उत्पादन का अहम् २. सामर्थ्य का अहम् ३. दान का अहम् ४. शासन का अहम् ५. धारणा करने का अहम् ६. प्रजापालन का अहम् ७. बन्धुत्व का अहम् ८. पथ प्रदर्शन का अहम्– इन आठ प्रकार के अहम् के विनाश के लिए आठ मन्त्रों का उच्चारण आवश्यक है। इन मन्त्रों के अर्थ इन सम्पूर्ण ‘अहम्’ का विनाश करते हैं। ‘अहम्’ का विनाश जीवन की महान उपलब्धि है।
ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का प्रथम मन्त्र
महर्षि दयानन्द ने ‘संस्कार विधि’ के सामान्य प्रकरण के प्रारम्भ में ही लिखा है-
‘सब संस्कारों के आदि में निम्नलिखित मन्त्रों का पाठ और अर्थ द्वारा एक विद्वान् वा बुद्धिमान पुरुष ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना स्थिर चित्त होकर परमात्मा में ध्यान लगा के करे और सब लोग उसमें ध्यान लगाकर सुनें और विचारें।’
इस तथ्य को ध्यान में रखकर महर्षि ने स्वयं इन आठ मन्त्रों के अर्थ लिखे हैं। अतः इन मन्त्रों के अर्थ का रसास्वादन महर्षि कृत अर्थ पर विचार करके प्राप्त करना चाहिये। ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना का प्रथम मन्त्र इस प्रकार है-
ओम् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद् भद्रं तन्न आसुव।।
– यजुर्वेद ३०//३
महर्षि कृत अर्थ इस प्रकार है-
हे सवितः अर्थात् सकल जगत् के उत्पत्ति कर्त्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, देव अर्थात् शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके, नः अर्थात् हमारे, विश्वानि अर्थात् सम्पूर्ण, दुरितानि अर्थात् दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को, परासुव अर्थात् दूर कर दीजिये। यत् अर्थात् जो, भद्रम् अर्थात् कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, तत् अर्थात् वह सब, नः अर्थात् हमको, आसुव अर्थात् प्राप्त कीजिये।
इस मन्त्र में दुरित दूर हों, भद्र प्राप्ति हो, यह तो प्रार्थना है, शेष स्तुति है। इस मन्त्र में दुरितानि दूर पहले करने हैं, तब भद्र प्राप्ति होगी, यह क्रम है । लोक व्यवहार में भी यह देखा जाता है। पात्र को प्रथम मैल से रहित करते हैं, कमरे को पहले साफ करते हैं, तब अच्छी वस्तु पात्र में डालकर उसको उपयोग में ले सकते हैं। स्वच्छ कमरें में ही आनन्द के साथ निवास सम्भव होता है। अतः मन्त्र में भी प्रथम दुरित को दूर करने की प्रार्थना की गयी है, तब भद्र प्राप्ति की याचना है। वेदमन्त्र का यह क्रम व्यवहार से भी सिद्ध है।
अब विचार यह करें कि प्रार्थना किस से की जाती है। लोकव्यवहार में देखें तो प्रार्थना सदैव सामर्थ्यशाली से की जाती है। दुरित दूर करने के लिए ‘सविता’ से कहा गया है।
महर्षि ने ‘विश्वानि दुरितानि’ का अर्थ किया है- सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःख। दुर्गुणी व्यक्ति ही दुर्व्यसनों का शिकार होता है। अतः चंचल मन को वश में करना चाहिये। इस संसार में चञ्चलता से रहित मन कहीं नहीं देखा जाता है, चञ्चलता तो मन का धर्म ऐसे ही है जैसे अग्नि का धर्म उष्णता है। गीता में भी लिखा है-
असंशयं–से–गृह्यते।
–गीता ६//३५
हे-महाबाहो! मन बड़ा चंचल है, कठिनाई से वश में आता है, इसमे कोई संशय नहीं किन्तु निरन्तर अभ्यास से तथा वैराग्य से यह वश में होता है।
इस तथ्य से मन वश में अर्थात् स्थिर होता है, परन्तु वश का अर्थ स्थिर करना नहीं अपितु उसकी गति का मार्ग बदलना है, कुमार्ग पर है तो सुमार्ग पर चलाना है। दुरित की दृष्टि से मन या तो दुर्गुणों की ओर अग्रसर होगा, या फिर दुर्व्यसनों का शिकार होगा या फिर दुःख समुद्र में गोते खायेगा। मन की दुरित वृत्तियों को इन तीन रूपों में निरुद्ध कर ही महर्षि ने समस्त बुराईयों के आधारभूत इन तीन रूपों का वर्णन किया है। अब प्रश्न है यह दूरित भाव कैसे दूर होंगे क्योंकि बिना पुरुषार्थ के प्रार्थना निष्फल रहेगी।
दुरितों को दूर करने के उपाय
इन दुरितों को समस्त बुराईयों को दूर करने के लिए हमें निम्न उपाय अपनाने चाहिए। दुर्गुणों को दूर करने के लिए स्वाध्याय को अपनाना चाहिए। प्रतिदिन स्वाध्याय करने से आत्म-शुद्धि होती है। आत्म संस्कार का सोपान स्वाध्याय है। इसीलिए विविध विद्याओं में पारगंत छात्र को आचार्य दीक्षान्त संस्कार के अवसर पर -‘स्वाध्यायान्मा प्रमदः’ स्वाध्याय में कभी आलस्य न करो, का उपदेश देते थे। मनु महाराज ने भी -‘स्वाध्याये नास्त्यनध्यायः’। अर्थात् स्वाध्याय में कभी अवकाश नहीं ग्रहण करना चाहिए, का उपदेश देकर स्वाध्याय का महत्त्व दर्शाया है। अतः दुर्गुण को दूर करने के लिए स्वाध्याय का सद्गुण ग्रहण करना चाहिए।
दुरितानि अर्थात् दुर्व्यसन को दूर करने का साधन है-सत्संग। सत्संग का व्यसन जिसे प्राप्त होता है उसके दुर्व्यसन अनायास ही समाप्त हो जाते हैं। महाराज भर्तृहरि ने ठीक ही लिखा है-
जाड्यं धियो-से-करोति पुंसाम्।
–भर्तृहरि नीति २२
सत्संगति भक्त के सभी दुर्व्यसनों को समाप्त कर देती है। बुद्धि की मूर्खता को दूर करती है, वाणी में सत्य का संचार करती है, मान की उन्नति का मार्ग दिखाती है, चित्त को प्रसन्न करती है दिशाओं में यश का विस्तार करती है। निश्चय से सत्संगति कहो क्या नहीं करती है।
इस प्रकार दुर्व्यसनों को दूर करने के लिए सत्संगति करनी चाहिए। सत्संग के पुरुषार्थ से ही दुर्व्यसन दूर होने की प्रार्थना सफल होती है।
दुरितानि अर्थात् दुःखों को दूर करने का सर्वोत्तम साधन समर्पण का भाव है। समर्पण वह सुधा है जिसके पान से भयंकर दुःख भी दुःख नहीं प्रतीत होते हैं। जब देश भक्तों ने अपने आप को देश की स्वतन्त्रता के लिए समर्पित कर दिया, तब कारागार की भीषण यातनाएँ भी उन्हें दुःखदायी नहीं मालूम पड़ी। यहां तक कि फांसी का फन्दा भी उन्हें जयमाला ही लगी।
एक व्यक्ति अपने आपको जब परिवार के लिए समर्पित करता है तब नानाविध कष्टों को सहता भी है, साथ ही अपने मालिकों के कटुवचन, अपमान, तिरस्कार आदि सभी सहन कर लेता है। समर्पित जीवन में प्राप्त दुःख, दुःख नहीं होते हैं।
यदि भक्त अपने आपको परमात्मा को समर्पित कर दे तो उसे लोगों के कटु वचन भी व्यथित नहीं करते हैं। उस पर बरसाये गये पत्थर भी उसे पुष्प लगते हैं। विष को अमृत समझते हैं। महर्षि ने तो विषदाता को धन देकर भागने का ही परामर्श दिया। समर्पित हृदय करुणा से पूर्ण होता है। समर्पित भाव शारीरिक व्यथा को, दुःख को, दुःख नहीं समझता है।
इस प्रकार विश्वानि दुरितानि परासुव अर्थात् सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःख दूर करने की प्रार्थना -स्वाध्याय, सत्संग एवं समर्पण के पुरुषार्थ से सफल हो सकती है। पुरुषार्थहीन की प्रार्थना सफल नहीं होती है। एक भी दुर्गुण, एक भी दुर्व्यसन तथा एक भी दुःख भद्र प्राप्ति में बाधक होता है। अतः विश्वानि अर्थात् सम्पूर्ण दुरितानि अर्थात् दुर्गुणादि दूर करने की प्रार्थना की गयी है, जो सर्वथा उचित है।
सवितः शब्द का महत्त्व
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जो सब जगत् की उत्पत्ति करता है, अतः परमेश्वर का नाम सविता है। संस्कार-विधि में इस मन्त्र के अर्थ में महर्षि ने सविता अर्थात् सकल जगत् के उत्पत्तिकर्त्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, अर्थ किया है। सविता शब्द बोध दे रहा है कि दुरितानि को दूर करने के लिए जिससे प्रार्थना की जा रही है, वह ईश्वर सामर्थ्यशाली है। वह अपने इस सामर्थ्य से समस्त दुरितों को दूर करे। सामर्थ्यहीन से की गयी प्रार्थना निष्फल हो सकती है, किन्तु इस ‘सविता’ से की गयी प्रार्थना अवश्य सफल होगी। क्योंकि सकल जगत् का उत्पत्तिकर्त्ता होने से ही वह हमारा पिता है, पालक है। वह हमसे स्नेह करता है। ध्यान यह भी रखना है कि वह दरिद्र पिता नहीं है अपितु ऐश्वर्यशाली है। वह ऐश्वर्य युक्त है, सामर्थ्य युक्त है, अतः हमारी प्रार्थना को पूर्ण करने में सक्षम है। हमारी प्रार्थना अवश्य सफल होगी, यह आशा ही हमें पुरुषार्थ करने की प्रबल प्रेरणा देती है। निश्चय से- ‘आशा सर्वोतमं ज्योतिः’ आशा ही सर्वोत्तम प्रकाश होता है।
‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ इसका अर्थ महर्षि ने किया है-
जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ है, वह सब हमको प्राप्त कीजिये। महर्षि ने जो यहां भद्र शब्द का -गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ अर्थ किया है वह उनकी ऋषि बुद्धि या आर्षबुद्धि का वैशिष्टय है। दुरितानि का अर्थ किया है-दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःख। भद्र का अर्थ है- गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ।
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गति के तीन अर्थ हैं-ज्ञान, गमन और प्राप्ति। दुर्गुण दूर होंगे सद् ज्ञान से, ज्ञान का विकास होगा स्वाध्याय से।
दुर्व्यसन दूर होंगे सद् गमन, सद् व्यवहार या सत्कर्म से, सत्कर्म में प्रवृत्ति होगी सत्संग से।
दुःख दुर होंगे प्राप्ति से, प्रभु प्राप्ति से, प्रभु प्राप्ति होगी, भक्ति से समर्पण भाव से। यह समर्पण का भाव हमारे स्वभाव का अंग होना चाहिए। अतः भद्र का अर्थ महर्षि ने गुण, कर्म, स्वभाव प्रमुखता से किया है।
‘भद्र’ शब्द का अर्थ पदार्थ भी किया है। बिना पदार्थ के, भौतिक वस्तुओं के अभाव में सामान्य जीवन भी नहीं चल सकता है।
भूखा व्याकरण के सूत्रों से पेट नहीं भरता है और प्यासा व्यक्ति काव्य रस से अपनी प्यास नहीं बुझाता है। कणाद मुनि ने धर्म की परिभाषा की है- ‘यतोऽभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः’ इहलोक उन्नति तथा परलोक उन्नति या मोक्ष की प्राप्ति जिन कर्मों से होती है वे कर्म, धर्म हैं। कालिदास का वचन है-‘शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्’। स्वस्थ शरीर ही धर्म की साधना में सक्षम होता है शरीर स्वस्थ रहता है भौतिक आवश्यक साधनों की पूर्ति से, भौतिक वस्तुओं या पदार्थों से। भूखा व्यक्ति आत्म -साधना में कैसे प्रवृत्त हो सकता है? यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का वचन इस तथ्य को इस आलंकारिक शैली में व्यक्त करता है-
विद्यां चाविद्यां-से-विद्ययाऽमृतमष्नुते।
– यजु. ४०//१४
इहलोक से तरने के दो साधन या मार्ग हैं-विद्या अविद्या दोनों को ही जानना है, प्राप्त करना है। अविद्या से-भौतिक साधनों से मृत्यु को, सांसारिक दुःख को दूर करना है तथा विद्या से, ज्ञान से, आत्म बोध से अमृत को, मोक्ष को, प्राप्त करना है।
इस आधार पर ही महर्षि ने ‘भद्र’ शब्द के ‘भदि कल्याणे सुखे च’ के अनुसार गुण कर्म स्वभाव और पदार्थ अर्थ किये हैं। भौतिक पदार्थों के बिना आत्म उन्नति सम्भव नहीं है। निश्चय से महर्षि की आर्षबुद्धि का ही यह वैशिष्टय है जो उन्होंने त्याग-भोग, प्रवृत्ति-निवृत्ति, श्रेय-प्रेय के वैदिक सिद्धान्त को ध्यान में रखकर ‘भद्र’ शब्द का समीचन या सार्थक अर्थ किया है।
‘देव’ शब्द का महत्त्व
निरुक्त का वचन है-‘देवो दानाद्वा, द्योतनाद्वा0’ इत्यादि सुखों का दाता, ज्ञान का प्रकाशक व प्रकाशस्वरूप होने से परमात्मा का नाम देव है। महर्षि ने देव शब्द का अर्थ किया है- ‘शुद्ध स्वरूप, सब सुखों का दाता परमेश्वर’। लोक व्यवहार में जो व्यक्ति निर्मल अन्तःकरण वाला है, ज्ञानानुसार आचरण वाला है, वही शुद्ध पवित्र कहलाता है। परमेश्वर शुद्ध स्वरूप इस अर्थ में भी है कि उसके सब कर्म लोक कल्याणकारक है, समानता के साथ बिना भेदभाव के-
‘याथातथ्योऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः’
– यजु. ४०//८
अर्थात् नित्य प्रजाओं के लिए ठीक-ठीक कर्तव्य पदार्थों का विधान करता है। इसी अर्थ में तो वह ईश्वर बिना किसी पक्षपात के सबको शुद्धस्वरूपता के साथ सुविधायें प्रदान करता है। वह तो शुद्ध और पाप से रहित कहा गया है।
सब इन्द्रियों में से यदि एक इन्द्रिय भी पथ भ्रष्ट हो जाये तो उससे ज्ञान सम्पन्न की भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है या ऐसे नष्ट हो जाती है जैसे फूटे पात्र में से पानी बूँद-बूँद करके टपक जाता है और पात्र रिक्त हो जाता है। अतः दुरितानि का विशेषण ‘विश्वानि’ साभिप्राय रखा गया है अर्थात् ‘सम्पूर्ण बुराईयाँ’। एक भी बुराई शेष न रहे। एक भी दुर्गुण व्यक्ति को पतन की ओर ले जाने में समर्थ है। इन दुर्गुणों को सावधानी से दूर करना है। सम्पूर्ण दुर्गुणों के समाप्त होने पर ही ‘भद्र’ की प्राप्ति सुलभ है। दुर्गुणों को दूर कर सत्पात्रता प्राप्त करनी है। अतः मन्त्र में ‘विश्वानि दुरितानि’ अर्थात् सम्पूर्ण बुराईयों को दूर करने की प्रार्थना की गयी है।
मन्त्र में ‘यद् भद्रं’ कहा गया है। यहां ‘यद्’ शब्द परमात्मा के प्रति पूर्ण आस्था भाव को प्रकट करता है। जीव अल्पज्ञ है, अतः उसे क्या पता है, उसके लिए क्या भद्र है? कोई धन के माध्यम से ‘भद्र’ की प्राप्ति करता है, कोई निर्धनता में ही ‘भद्र’ के मार्ग पर अग्रसर होता है, कोई नानाविध कष्टों को प्राप्त कर ‘भद्र’ मार्ग पर अग्रसर होता है तो कोई विरक्त भाव को प्राप्त होकर ‘भद्र’ प्राप्त करता है। हम अल्पज्ञ है। हमें बोध नहीं है कि हमें ‘भद्र’ क्या प्राप्त हो। जन्म-जन्मान्तर के कर्मजाल में ग्रथित मानव अपनी अल्पज्ञता के कारण उसे जान भी कैसे सकता है? अतः ‘समर्पण’ भाव के साथ उस परमात्मा से प्रार्थना है-‘यद् भद्रं तन्न आसुव’ जो ‘भद्र’ हो वह हमें प्राप्त कराइये। हम तो आपको समर्पित है। समर्पण एवं प्राप्ति का सुन्दर योग ही इस मन्त्र का वैशिष्टय है।
ईश्वरस्तुतिप्रार्थनोपासना के ये आठों मन्त्र ‘अहम्’ भाव को दूर करने वाले भी है। जो यह कहे कि मैं तुम्हारा भद्र करने वाला हूं, यह उसका मिथ्याभिमान ही है। क्योंकि किसका कब कैसे ‘भद्र’ सम्भव है यह ‘अल्पज्ञ’के ज्ञान से परे है। अतः हम ‘भद्र’ करने वाले हैं आदि मिथ्या ‘अहम्’ भाव से बचाने वाला यह मन्त्र है।