योग का सातवां अङ्ग – ध्यान
परिभाषा-शरीर के अन्दर मन को एक स्थान (धारणा स्थल) पर टिका करके किसी परोक्ष वस्तु यथा प्रभु का दर्शन अर्थात् प्रत्यक्ष करने के लिए निरन्तर चिन्तन करने, बीच में अन्य किसी का चिन्तन न करने को ध्यान कहते हैं।
ध्यान का अर्थ कुछ भी न विचारना, विचार-शुन्य हो जाना नहीं है। जिस प्रकार पीपे में से तेल आदि तरल पदार्थ एक धारा में निकलता है उसी प्रकार प्रभु के एक गुण (आनन्द, ज्ञान आदि) को लेकर सतत् चिन्तन करते रहना चाहिए। जैसे सावधानी के हटने पर तेल आदि की धारा टूटती है। वैसे ही किसी एक आनन्द आदि गुण के चिन्तन के बीच में अन्य कुछ चिन्तन आने पर ध्यान-चिन्तन की धारा टूट जाती है। ध्यान में एक ही विषय रहता है, उसी का निरन्तर चिन्तन करना होता है। ध्यान में निर्विषय होने का अभिप्राय यह है कि जिसका ध्यान करते हैं, उससे भिन्न कोई विषय नहीं हो।
ध्यान के काल में वैज्ञानिक के समान सूक्ष्म बुद्धि होकर परोक्ष वस्तु को प्रत्यक्ष करने की सुव्यवस्थित ज्ञान रूपी धारा निरन्तर चलती है। तब सर्वाधिक सचेत-सावधान रहते हुए अधिकाधिक ज्ञान को सूक्ष्मता से प्राप्त किया जाता है।
ध्यान के लाभ
1. ध्यान से उच्च एकाग्रता की प्राप्ति होती है।
2. सर्वाधिक ज्ञान होता है अर्थात् पूर्ण विवेक होता है।
3. सूक्ष्मता से सत्य का बोध होता है।
4. सूक्ष्मता से उचित -अनुचित का विश्लेषण करने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है।
5. कम समय में अधिक कार्य करके अधिक उपलब्धि को प्राप्त कर सकते हैं।
6. मन को जहाँ चाहें वहाँ एकाग्र करके अपने उत्तम कार्यों को सिद्ध कर सकते हैं।
7. बौद्धिक, मानसिक कार्यों को सरलता से कर सकते हैं।
8. जीवन में कभी हताश-निराश न हो कर सदा उत्साही, निडर रहते हैं।
9. वैज्ञानिक बनने का सर्वोत्तम उपाय है।
10. मन को शुद्ध कर अच्छे कर्मों में प्रवृत्ति और बुरे कर्मों से निवृत्ति होती है।
11. प्रभु-दर्शन का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
12. काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि से रहित हो जाते हैं।
13. मन प्रसन्न, शान्त, तृप्त रहता है।
14. रक्तचाप अर्थात् बी.पी. हृदय रोग आदि नहीं होते हैं।
15. नाड़ी तन्त्र अर्थात् नर्वस् सिस्टम सुव्यवस्थित रहता है।
16. नाड़ी तन्त्र के ठीक हो जाने से शरीर के अन्य तन्त्र अर्थात् श्वसन, पाचन आदि भी सुव्यवस्थित हो जाते हैं।
17. जीवन में तनाव अर्थात् टेंशन, अवसाद अर्थात् डिप्रेशन आदि भयानक रोग नहीं होते हैं।
प्राय: मनुष्य अपने दैनिक कार्यों में इतना व्यस्त रहता है कि उसे यह भी बोध नहीं रहता कि उसे जीवन का अनुपम कार्य ध्यान करना है। कुछ मनुष्य अपने जीवन की व्यस्त दिनचर्या में से ध्यान के लिए कुछ समय निकालते हैं, परन्तु ध्यान में मन नहीं लगा पाते हैं।
इस विकट परिस्थिति को समक्ष रखते हुए सब जन उत्तम रीति से ध्यान कैसे करें? इस प्रक्रिया को यहाँ पर दिया जा रहा है।
बाह्य -सज्जा
ध्यान के अनुरूप शान्त, एकान्त, स्वच्छ स्थान का चयन करें। समय व स्थान को निश्चित रखें, इससे लाभ होता है। वस्त्र स्वच्छ, ढीले व अनुकूल हों। बिछौना सम-न मृदु, न कठोर न ऊँचा, न नीचा हो। निद्रा, विश्राम, शौच, स्नान आदि के बाद हल्के-फुलके चुस्त शरीर व शान्त-एकाग्र मन से ध्यान के लिए बैठें। ध्यान काल में आने वाली सम्भावित बाधाओं यथा मक्खी, मच्छर, शीत, उष्ण, ध्वनि (दूरभाष की घण्टी, प्रैशर-कुकर की सीटी, द्वार की घण्टी आदि), बच्चे, परिजन आदि का समाधान करके बैठें। आकस्मिक दुर्घटना, आपात्काल या कार्य विशेष हो तो पहले उससे निवृत हो लेवें, फिर ध्यान करें।
आन्तरिक-सज्जा
ध्यान करने वालेक प्रत्येक योगाभ्यासी को निम्नलिखित चार बिन्दुओं का अनुसरण करना चाहिए, जिससे ध्यान सम्बन्धी समस्त अवरोध दूर होकर मन पूरी तरह परमात्मा में लग सके।
पहला बिन्दु
प्रत्येक योगाभ्यासी प्रातः काल उठने से लेकर रात्रि में सोने पर्यन्त प्रत्येक कार्य को करते समय अपना उद्देश्य यह बनावे कि मैं जो कार्य कर रहा हूँ, और जो भी करूँगा, वह परमात्मा को प्राप्त करने का साधन बने। उसे विचार से, अनुचित वाणी से, अनुचित व्यवहार से बचना चाहिए। इसके परिणास्वरूप मन दिनभर प्रसन्न रहता है। प्रसन्न मन एकाग्र होता है। एकाग्र मन परमात्मा में लग जाता है।
दूसरा बिन्दु
प्रत्येक योगसाधक को चाहिए कि जैसे-जैसे ध्यान का समय निकट आता है, वैसे-वैसे अपनी मानसिकता बना ले कि मुझे ध्यान की अमुक-अमुक तैयारी करनी है, जिससे मैं ध्यान को निर्विध्न सम्पन्न कर सकूँ।
तीसरा बिन्दु
उपासक ध्यान में बैठने से पूर्व निम्नलिखित मानसिक तैयारी करके बैठे –
1. मैं शरीर से अलग हूँ। मैं शरीर नहीं हूँ। मैं आत्म -बोध बनाये रखते हुए ध्यान करूँगा।
2. समस्त सांसारिक सम्बन्धों को त्याग करके ही ध्यान में बैठूँगा, जैसे कि मेरे कोई माता-पिता, पति-पत्नी आदि हों ही नहीं।
3. मैं और मेरेपन अर्थात् स्व-स्वामी सम्बन्ध को त्याग करके ध्यान करूँगा।
4. मैं एकदेशी-एक स्थान पर रहने वाला अर्थात् व्याप्य हूँ और ईश्वर सर्वव्यापक है।
5. ईश्वर को अपने समक्ष उपस्थित स्वीकार अर्थात् ईश्वर-प्रणिधान करते हुए ही ध्यान करूँगा।
6. ईश्वर को तुम (मध्यम पुरुष) कहकर साक्षात् सम्बोधित करूँगा।
चौथा बिन्दु
प्रत्येक भक्त को चाहिए कि वह ध्यान प्रारम्भ करने से पूर्व निम्नलिखित बातों को समझ कर ध्यान के काल में भी बीच-बीच में अनुभूति बनाए रखे।
1. मैं जीवात्मा ध्यान करने वाला हूँ-साधक हूँ-ध्याता हूँ।
2. मैं जिस मन से ध्यान करता हूँ, वह मेरा साधन है। मेरा मन जड़ है, चेतन नहीं है। मेरे चलाये जाने पर ही चलता है। मन स्वयं नहीं चलता। मन सत्वगुण, रजोगुण व तमोगुण इन जड़ तत्त्वों से बनता है। मन एक प्राकृतिक अर्थात् प्रकृति से बना हुआ पदार्थ है।
3. रचना में सत्वगुण की अधिक मात्रा होने से मन स्वतः सात्विक है, शान्त है। ऐसा महर्षि वेदव्यास ने लिखा है।
4. मैंने अपनी अज्ञानता से मन को चंचल बनाया है।
5. मैं स्वयं तमोगुण व रजोगुण के प्रभाव को दबा कर सत्वगुण को उभारने वाला हूँ।
6. मन को सात्विक बना कर ही ध्यान करूँगा।
7. ईश्वर मेरा ध्येय अर्थात् ध्यान का लक्ष्य है। मैं ईश्वर का ही ध्यान करूँगा।
8. ध्यान के काल में भूल कर भी संसार का चिंतन नहीं करूंगा।
9. मैं संकल्प लेकर ही ध्यान प्रारम्भ करूँगा कि ध्यान के काल में किसी प्रकार के अनधिकृत-अनुचित विचार अर्थात् वृत्ति नहीं उठाऊँगा। इस प्रकार चारों बिन्दुओं पर प्रतिदिन विचार करके ध्यान करने के लिए बैठें।
योग साधक- निम्नलिखित प्रक्रिया के अनुसार ध्यान करें। इस प्रक्रिया को एक घण्टे के काल को समक्ष रख कर प्रस्तुत किया जा रहा है। यदि कम समय तक करना चाहते हैं, तो प्रक्रिया को इसी तरह रखते हुए समय को कम करें। यदि समय की अवधि को बढ़ा कर करना चाहें, तो जप की अवधि और अधिक बढ़ाकर कर सकते हैं।
ध्यान की प्रक्रिया
एक उदाहरण
ऐसे आसन पर बैठिये, जिस पर स्थिर होकर बैठ सकें। सम्पूर्ण शरीर को सीधी रेखा में रखना है। मेरुदण्ड को सीधा रखें। पूर्ण रूप से सरल हो करके सीधा बैठें। गर्दन को सीधी रेखा में रखना है, दृष्टि सामने की ओर रखें। ऐसी स्थिति में यह अनुभूति हो कि मेरे बैठने में किसी प्रकार का कोई तनाव -खिंचाव नहीं है। यह प्रतीति नहीं होनी चाहिए कि मैंने बैठे रहकर अपने शरीर को दुख दिया, पीड़ा दी, कष्ट दिया, शरीर अकड़ गया, तनाव ग्रस्त हुआ, दबाव ग्रस्त हुआ। अभी, एक बार अपने शरीर को हिला-डुलाकर और सुव्यवस्थित कर लीजिए, जिससे आगे चलकर, ध्यान के काल में हिलना-डुलना न पड़े।
अब धीरे-धीरे, कोमलता से आँखें बन्द कर लीजिए। संकल्प मात्र से अपने सम्पूर्ण शरीर को शिथिल करना है, ढीला छोड़ना है। अकड़ करके नहीं बैठना है। शरीर के सुव्यवस्थित करने के बाद अब मन को सुव्यवस्थित करना है, मन को एक स्थान पर टिकाना है, रोकना है, बांधना है।
संकल्प से, भावना से अपने मन को अपने ही शरीर के एक स्थान पर टिकाइये। मस्तक में अथवा भ्रूमध्य में, नासिका के अग्रभाग में, जिह्वा के अग्रभाग में, कण्ठ में, हृदय में अथवा नाभि में। जहाँ पर आपने अपने मन को टिकाया, रोका, अपनी सारी आन्तरिक दृष्टि को वहीं पर केन्द्रित कीजिए। अपनी शक्ति को, सामर्थ्य को, ज्ञान-विज्ञान को वहीं पर केन्द्रित कीजिए और आत्मा से सतत् वहीं पर अनुभव कीजिए।
मैं इच्छा से, प्रयत्न से, द्वेष से, प्रीति से, ज्ञान से युक्त हूँ। किन्तु मैं सुख से, आनन्द से रहित हूँ। सुख-आनन्द मुझ आत्मा का स्वरूप नहीं है। मैं आनन्द से युक्त होना चाहता हूँ। हे परमपिता परमेश्वर! आप आनन्द से परिपूर्ण हो, सुख से परिपूर्ण हो। हे दयालु जगदीश्वर! आप दया करके मुझ आत्मा को आनन्दित करो। ऐसा कोई स्थान नहीं है, जहाँ पर आप न हों। जहाँ पर मैंने अपने मन को टिकाया, आप वहाँ पर भी हो। अर्थात् मैंने मन को आप में टिकाया, मेरा मन आप में है। सतत् अनुभूति, प्रभु में अपनी अनुभूति। अपने में प्रभु की अनुभूति।
इस संकल्प को मन में दोहरायें। हे जगदीश्वर! आप मुझे देख-सुन-जान रहे हो। मैं आपके समक्ष प्रतिज्ञा करता हूँ, संकल्प लेता हूँ, व्रत धारण करता हूँ। अब मैं मन को आप से हटाकर इधर-उधर नहीं ले जाऊँगा। पूर्णनिष्ठा से, रुचि से, श्रद्धा से, प्रेम से, तन्मयता से, अन्दर से गद्-गद् होकर, प्रभु का ध्यान करना है। ध्यान करते समय तीन बातों को अपने समक्ष रखिए। एक-प्रभु का संकेत करने वाले शब्द का उच्चारण करना, दो-शब्द के अर्थ को मन में रखना, तीन-प्रभु की उपस्थिति को सतत् अनुभव करना। इन तीन बातों को सामने रखते हुए, ध्यान प्रारम्भ करना है।
हे सर्वरक्षक प्रभो! आप नाना प्रकार से, अनन्त प्रकारों से सतत् मेरी रक्षा कर रहे हो। आप प्राण से भी प्रिय हो। आप समस्त दुःखों से रहित हो, अपने भक्तों के सम्पूर्ण दुःखों को दूर करते हो। करुणा करके मुझ भक्त के सम्पूर्ण दुखों को दूर कीजिए। आप आनन्द से परिपूर्ण हो। अपने भक्तों को आनन्द से परिपूर्ण करते हो। दया करके मुझ भक्त को भी अपने आनन्द से आनन्दित करो। आप सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने वाले सृष्टिकर्त्ता हो, सर्वोत्पादक हो, जनक हो। सविता स्वरूप हो। आप समस्त मलिनताओं से रहित हो। आप शुद्ध, पवित्र, निर्मल भर्गः स्वरूप हो। आप दिव्य गुणों से युक्त हो। आपमें अनन्त गुण, कर्म स्वभाव हैं। अनन्त ज्ञान, अनन्त बल, अनन्त सामर्थ्य, अनन्त दया, अनन्त करुणा, अनन्त कृपा।
प्रभो! आप वरणीय हो, अपनाने योग्य हो, आपके वरणीय प्राण-प्रदाता स्वरूप को, दुख विनाशक स्वरूप को, आनन्द स्वरूप को, सविता स्वरूप को, शुद्ध, निर्मल, पवित्र भर्गः स्वरूप को, दिव्य गुणों से युक्त देव स्वरूप को मैं अपनी आत्मा में धारण कर रहा हूँ। आप प्रभु हमारी बुद्धियों को उत्तम गुण-कर्म-स्वभावों में प्रवृत करो, अपनी मनः स्थिति को देखिये। मेरा मन प्रभु में है। मैं स्वयं प्रभु में हूँ। भूल से, अज्ञानता से, अपने मन को इधर-उधर ले जाते हों तो तत्काल रोकना है। अपनी प्रतिज्ञा को अपने समक्ष रखना है। पुनः प्रतिज्ञाबद्ध होना है। जहाँ पर मन को टिकाया था वहीं पर अपने मन को रख कर वहीं पर प्रभु का ध्यान करना। अन्दर से गद्-गद् होकर, आत्मस्थ होकर प्रभु का ध्यान करना है। पूर्णनिष्ठा से, रुचि से, श्रद्धा से, प्रेम से, तन्मयता से ध्यान करना है।
हे सत्यसिन्धो! असत्य से छुड़ाकर मुझको सत्य की ओर ले चलो, हे सर्वज्ञ जगदीश्वर! तमस् रूपी अज्ञान से, अविद्या से, मूर्खता से छुड़ाकर ज्ञानरूपी, विवेकरूपी, वैराग्यरूपी ज्योति की ओर ले चलो। हे मोक्ष प्रदाता! हे आनन्द से परिपूर्ण परमपिता परमेश्वर मृत्यु आदि समस्त दुःख से छुड़ा कर नित्य, शाश्वत, आनन्द रूपी अमृत की ओर ले चलो।
हे परमपिता परमेश्वर! आपने मुझ पर अनन्त उपकार किये, कर रहे हो व करोगे। मुझ उपकृत आत्मा की इस कृतज्ञता को स्वीकार करो।
भूल से या अज्ञानता से यदि मन इधर-उधर जाए तो तत्काल मन को पुन:-पुन: धारणा स्थल पर टिकाकर प्रभु की पूर्ण निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम व तन्मयता से चिन्तन करना है।
ध्यान को ही उपासना कहा जाता है।
यद्यपि ध्यान का सर्वोतम समय सुबह का है फिर भी ध्यान दिन के किसी भी समय, कितनी ही बार किया जा सकता है परन्तु प्राणायाम को ध्यान की प्रक्रिया में तभी शामिल करें यदि वह समय प्राणायाम के नियमों के अनुकूल हो।
अष्टांग योग: यम | नियम | आसन | प्राणायाम | प्रत्याहार | धारणा | ध्यान | समाधि