योग का पांचवा अङ्ग – प्रत्याहार
परिभाषा-आंख, कान, नासिका आदि दसों इन्द्रियों को ससांर के विषयों से हटाकर मन के साथ-साथ रोक अर्थात् बांध देने को प्रत्याहार कहते हैं।
प्रत्याहार के लाभ
1. इन्द्रियजित अर्थात् इन्द्रियों को जीतने वाला बन जाते हैं।
2. विषय भोगों में नहीं फंसते हैं।
3. अपनी इच्छा से इन्द्रियों को जहाँ लगाना चाहें लगा सकते हैं।
4. पूर्ण एकाग्रता से ध्यान कर सकते हैं।
5. आत्म दर्शन के अधिकारी बन जाते हैं।
प्रत्याहार का मोटा स्वरूप है संयम रखना, इन्द्रियों पर संयम रखना। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति मीठा बहुत खाता है कुछ समय बाद वह अपनी मीठा खाने की आदत में तो संयम ले आता है परन्तु अब उसकी प्रवृति नमकीन खाने में हो जाती है। यह कहा जा सकता है कि वह पहले भी और अब भी अपनी रसना इन्द्रिय पर संयम रख पाने में असफल रहा। उसने मधुर रस को काबू करने का प्रयत्न किया तो उसकी इन्द्रिय दूसरे रस में लग गई। इसी भांति अगर कोई व्यक्ति अपनी एक इन्द्रिय को संयमित कर लेता है तो वह अन्य इन्द्रिय के विषय (देखना, सुनना, सूंघना, स्वाद लेना, स्पर्श करना आदि) में ओर अधिक आनन्द लेने लगता है। अगर एक इन्द्रिय को रोकने में ही बड़ी कठिनाई है तो पाँचों ज्ञानोन्द्रियों को रोकना तो बहुत कठिन हो जायेगा।
इन्द्रियों को रोकना हो तो अन्दर भूख उत्पन्न करनी होगी। इनको जीतना हो तो तपस्या करनी पड़ती है और तपस्या के पीछे त्याग की भावना लानी पड़ती है। त्याग की भावना और तपस्या को हमने साथ में जोड़ लिया तो हम इन्द्रियों को जीतने में सक्षम हो जायेंगे।
वैसे हम तपस्या बहुत करते हैं। दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो तपस्या करता ही न हो। पैसे की भूख है तो हम पता नहीं कहाँ-कहाँ जाते हैं। कहाँ-कहाँ से लाते हैं। क्या-क्या करते हैं। सुबह से लेकर रात्रि में सोने तक और जब होश में हैं तब से आज तक हम उसी के लिए लगे हैं। र्इश्वर को प्राप्त करने की ऐसी भूख नहीं है। जब ईश्वर को प्राप्त करने के लिए भूख नहीं है तो इन्द्रियों के ऊपर संयम नहीं कर पायेंगे हम।
एक मदारी चेतन होकर एक चेतन वस्तु को नचाता है। कोई चेतन अन्य चेतन को नचा दे तो समझ में आता है, (जैसे मदारी, भालू, बन्दर आदि को नचाता है), लेकिन कोई जड़ किसी चेतन को नचा दे, समझना बड़ा कठिन है। लेकिन हो यही रहा है। हम अपने जड़ मन को अपने अधिकार में नहीं रख पा रहे हैं। बल्कि यह जड़ मन हमें नचा रहा है।
हर आदमी यही कहता है कि मन नहीं मानता, मन ही ले जाता है, मन ही लाता है, मन नचा रहा है, मैं क्या करूँ? मैं तो चाय बन्द करना चाहता हूँ लेकिन मन मानता ही नहीं। मन को रोके बिना इन्द्रियाँ काबू में नहीं आ सकती।
कैसे अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, इस बात को प्रत्याहार में समझाया है। एक को रोकते हैं तो दूसरी इन्द्रिय तेज हो जाती है। दूसरी को रोकें तो तीसरी, तीसरी को रोकें तो चौथी, तो पाँचों ज्ञानेनिद्रयों को कैसे रोकें? इसके लिए एक बहुत अच्छा उदाहरण देकर हमें समझाया जाता है जैसे जब रानी मक्खी कहीं जाकर बैठ जाती है तो उसके इर्द-गिर्द सारी मक्खियाँ बैठ जाती हैं। उसी प्रकार से हमारे शरीर के अन्दर मन है। वह रानी मक्खी है और बाकी इन्द्रियाँ बाकी मक्खियाँ हैं। रानी मक्खी को उड़ाकर ले जाओ और वहाँ पर बिठाओ जहाँ पर वास्तव में बिठाना चाहिये। उस रानी मक्खी को आज तो हम न जाने किस-किस जड़ वस्तु में बिठा रहे हैं। रानी मक्खी को वहाँ से उड़ा दो, और उड़ा के वहाँ बिठा दो जहाँ पर उसको इच्छित रस प्राप्त हो जाये।
संसार में से उस रानी मक्खी को हटाकर भगवान में बिठा दो। फिर यह अनियंत्रित देखना, सूंघना व छूना आदि सब बन्द हो जायेंगे।
प्रत्याहार की सिद्धि के बिना हम अपने मन को पूर्णत्या परमात्मा में नहीं लगा सकते।
अष्टांग योग: यम | नियम | आसन | प्राणायाम | प्रत्याहार | धारणा | ध्यान | समाधि