योग का पहला अंग-यम
परिभाषा– यम का अर्थ है उपरम हो जाना‚ अलग हो जाना। सम्पूर्ण दुखों से छुड़ाने वाला होने से इसे यम कहते हैं।
यम के पांच विभाग है –
1. अहिंसा 2. सत्य 3. अस्तेय 4. ब्रह्मचर्य 5. अपरिग्रह
1. अहिंसा
लोक में यह मान्यता है कि किसी को कष्ट, पीड़ा व दु:ख देना हिंसा है। इसके विपरीत अहिंसा है। इस मान्यता को स्वीकार किया जाये, तो संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है, जो अन्यों को कष्ट नहीं देता है। माता, पिता, गुरु, समाज, राष्ट्र व सभी प्राणी एक दूसरे को कष्ट देते हैं। ईश्वर कर्मफल प्रदाता होने से संसार में सर्वाधिक कष्ट देता है। क्या इससे ईश्वर हिंसक हो जाता है ? वेद में ईश्वर को पूर्ण अहिंसक स्वीकारा है। माता-पिता, शिक्षक, अधिकारी आदि सुधारने के लिए हमारी त्रुटियों का दण्ड देते हुए हमें कष्ट देते हैं, क्या उनका यह कर्म हिंसा हो जायेगा?
अब तक जो हानि हुई सो हुई, पर आगे न हो। इस कारण महर्षियों व वेद के मन्तव्यों को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।
वेद व ऋषियों का मन्तव्य यही कहता है कि, हिंसा व अहिंसा अन्याय व न्याय पर खड़ी है। न्याय पूर्वक दण्ड-कष्ट देना भी अहिंसा है व अन्याय पूर्वक पुरस्कार-सुख देना भी हिंसा है।
अहिंसा-पालन के लाभ
- अहिंसा का पालन करने वाले के मन, वाणी व शरीर में किसी प्रकार का वैर-द्वेष नहीं रहता है। प्राणी मात्र (मनुष्य व मनुष्येतर योनियों) के प्रति पूर्ण प्रेम की भावना रहती है।
- ईश्वर पूर्ण अहिंसक है। अतः अहिंसक व्यक्ति ईश्वर का परम मित्र बन जाता है।
- व्यक्ति दुःखों से निवृत और सुखों से युक्त हो जाता है।
- निर्भयता की प्राप्ति होकर बुद्धि का पूर्ण विकास होता है।
- मन शान्त होने से समस्त मनोविकारों से मुक्ति मिल जाती है।
- व्यक्ति आत्मा व परमात्मा के दर्शन करने का अधिकारी बन जाता है।
कौन मनुष्य कहाँ किस देश में, किस कोने में, किस मत में, किस जाति में उत्पन्न हुआ है, यह कोई अधिक महत्व नहीं रखता। हाँ, कौन अपनी आत्म भावना को सब में एक सा सोच, देख व कर पाता है, यह विशेष महत्व रखता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन ही उपादेय बनता है, ऐसे ही जीवन फलता है, वही आदर्श होता है, वही प्रेरक होता है, वही अपने लक्ष्य को पूर्ण करता है।
हिंसक प्रवृति वाले मनुष्य अपनी आत्मग्लानि, असन्तोष, अतृप्ति , भय आदि को दबाने के लिए आत्मा को प्रसन्न करने का प्रयास करते रहते हैं। उनका यह प्रयास यह भी प्रकट करता है कि उनकी आत्मा में छुपा डर उनको बार-बार प्रेरित करता है कुछ दान-पुण्य करो, जिससे हिंसा से मिलने वाले भयंकर दण्ड में कुछ कमी हो जाए। इसी कारण वे हिंसक व्यक्ति मंदिरों में, ब्राह्मणों में, आश्रमों में, मठों में तरह-तरह का दान कर के कुछ राहत की सांस लेते हैं। पर वे यह नहीं जान पाते हैं कि किया हुआ पाप कभी कम नहीं होता, चाहे कितना ही पुण्य करो। पुण्य का फल पुण्य व पाप का फल पाप के रूप में ही मिलता है। मनुष्य इस भ्रान्ति में न रहे कि कर्मों में परस्पर एक दूसरे से घट कर समाप्त हो जाना होता है।
और अधिक सुखी होने के लिए और अधिक दुःख देने में लगा हुआ यह मानव क्या वास्तव में सुखी हो रहा है? हाँ यदि वह यह समझ रहा हो कि झूठ, चोरी, व्यभिचार व संग्रह आदि के माध्यम से भौतिक पदार्थों को विपुल मात्रा में प्राप्त कर सुखी हूँ, तो यह उसकी भ्रांति ही है।
वास्तव में मनुष्य को जितना दुःख प्राण जाने से होता है, उतना दुःख और किसी से नहीं होता। यदि कोई प्राण-दान करे कि तुम्हारे प्राणों की रक्षा मैं करूँगा, तो इससे बढ़ कर और क्या चाहिए? परन्तु आज मनुष्य नाना प्रकारों से, नाना प्रकार के दुःख दे दे कर निरपराध लोगों के प्राण-हरण कर रहा है। जो लोग अपने शरीर की रक्षा के लिए, पुष्टि के लिए, संवर्धन के लिए दूसरों को कष्ट दे रहे हैं- चाहे झूठ से, चोरी से, व्यभिचार से या अत्यन्त परिग्रह से-वे हिंसा की ही रक्षा, पुष्टि, संवर्धन कर रहे है।
वेद, वेदानुकूल ऋषियों की मान्यता यह संदेश देती है कि जितने भी गलत कार्य हैं उन सब का मूल हिंसा ही है और जितने भी उत्तम कार्य हैं उन सबका मूल अहिंसा ही है।
सत्य आदि बाकि चारों यम व शौच आदि पांचों नियम अहिंसा पर ही आधारित हैं। अहिंसा को पुष्ट करना ही उनका मुख्य लक्ष्य है। अहिंसा की सिद्धि के लिए उनका आचरण किया जाता है।
यहां एक महत्त्वपूर्ण तथ्य जिसके विषय में आज समाज में भ्रान्तिपूर्ण माहौल है पर प्रकाश डालना आवश्यक है। स्वयं हिंसा न कर दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने को मूक द्रष्टा बन देखते रहना भी हिंसा ही है। हिंसा का मूल ‘अन्याय’ है। दूसरों पर होते अन्याय का उचित प्रतिरोध न करना हिंसा का समर्थन करना ही है। इसलिए यह आवश्यक है कि अहिंसा का व्रत लेने वाला व्यक्ति स्वयं हिंसा न करने के साथ-साथ दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ भी उठाए। हाँ, इसका दूसरों द्वारा हिंसा किए जाने के विरोध में आवाज़ उठाना उतना ही सार्थक होगा जितना वह स्वयं दूसरों के प्रति हिंसा नहीं करता होगा।
हमें विचारना चाहिये कि इतनी योनियों में ये अगणित प्राणी जो कष्ट भोग रहे हैं इसका कारण क्या है? तब हमें पता चलेगा कि हिंसा क्या है? और अहिंसा क्या है? यह अहिंसा है जिसके कारण हम उत्तम योनि में आकर सुख भोग रहे हैं। यह हिंसा है जिसके कारण अनेकों निकृष्ट योनियों में पड़े असंख्य जीव दारुण दु:ख भोग रहे हैं।
2. सत्य
जो चीज़ जैसी है उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। उदाहरण के तौर पर सांप को सांप जानना व मानना सत्य कहलाएगा और सांप को रस्सी जानना व अन्यथा रस्सी को सांप जानना असत्य कहलाता है। साधरणतया यह कहा जाता है कि जिस झूठ से किसी का भला होता हो, उसे बोलना कोर्इ गलत नहीं। यह ठीक नहीं। हमें सदा अपनी वाणी से ठीक वैसी ही बात करनी चाहिए जैसी कि हमारी आत्मा में किसी घटना अथवा वस्तु के बारे में जानकारी हो। इस बात को एक उदाहरण की मदद से समझाने का प्रयत्न करते हैं। मान लीजिए कि आपने एक आदमी को कुछ व्यक्तियों से, जो उस आदमी को मारना चाहते हैं, बच के एक घर में घुसते हुए देख लिया है। अब हो सके तो आपको उस जगह से हट जाना चाहिए ताकि वे व्यक्ति आपसे किसी तरह की पूछताछ न कर सकें। यदि आप उस जगह से नहीं हट सके और व्यक्तियों द्वारा उस आदमी के बारे में पूछने पर आपने सच बता दिया तो वह आदमी मारा जाएगा। ऐसी अवस्था में आपका सच बोलना उस आदमी के वास्तव में अपराधी होने पर पुरस्कार का हकदार होगा अन्यथा दण्डनीय होगा। आपका झूठ बोलना शायद उस आदमी को बचा दे (हमारा झूठ किसी प्राणी को क्षणिक, एक घंटे तक, एक दिन तक, एक वर्ष तक या ज़्यादा से ज़्यादा एक जन्म तकलाभ तो पहुँचा सकता है परन्तु उसका अन्तिम फल उस प्राणी के लिए हानिकारक ही होता है। इसलिए क्योंकि हमारा झूठ बोलना, संबंधित प्राणियों के लिए अन्तत: हानिकारक ही होता है, हमें सत्य ही बोलना चाहिए।), परन्तु यदि वह आदमी वास्तव में अपराधी हुआ तो आपका झूठ बोलना दो तरह से दण्डनीय होगा आपके दण्डनीय होने का पहला कारण तो होगा आपका झूठ बोलना व दूसरा कारण होगा एक अपराधी को बचाना। ऐसी परिस्थित में निम्न व्यवहार आपको उचित होगा –
- यदि आपमें ब्राह्मण (संक्षेप में ब्राह्मण वह व्यक्ति होता है जिसकी रुचि विद्या के ग्रहण करने व उसके प्रचार- प्रसार में हो) के गुण हैं तो आपको उन व्यक्तियों द्वारा दिए जाने वाले कष्टों को सहते हुए मौन रहना चाहिए।
- यदि आपमें क्षत्रिय (संक्षेप में क्षत्रिय वह व्यक्ति होता है जो स्वभाव से अपने शारीरिक बल का प्रयोग दूसरों की रक्षा के लिए करता हो) के गुण हैं तो आपको उन व्यक्तियों से भिड़ जाना चाहिए।
- यदि आपमें वैश्य (संक्षेप में वैश्य वह व्यक्ति होता है जो व्यापार करता है) के गुण हैं तो आपको गिड़–गिड़ा आदि कर इस परिस्थिति से निकल जाना चाहिए।
- यदि आपमें शूद्र (संक्षेप में शूद्र वह व्यक्ति होता है जो शारीरिक कार्य अर्थात मज़दूरी आदि करता है) के गुण हैं तो चिल्ला आदि कर लोगों को इक्टठा करना चाहिए ताकि इस परिस्थिति से निकला जा सके।
विशेष परिस्थितियों में (विशेष परिस्थितियों के होने का निर्णय प्रत्येक का आत्मा करता है) यदि किसी वस्तु को यज्ञ भावना से वाणी से भाषित किया जाता है तो वह अक्षरक्ष: सत्य न होने पर भी सत्य भाषण ही है। यज्ञ भावना क्या है? संक्षेप में कहा जाए तो जो कर्म अन्याय के विरोध में सृष्टि के कल्याणार्थ किए जाते हैं वे कर्म यज्ञ भावना से ओत-प्रोत माने जाते हैं।
कहा गया है – सत्य बोलो प्रिय बोलो। ऐसा बहुत कम होता है कि कोई विषय सत्य भी हो और अप्रिय भी न हो। ऐसे समय में स्वयं का आत्मा ही निर्णायक होता है कि अप्रिय सत्य को बोला जाए या ना। हां, यदि किसी को प्रिय रूप में बोला सत्य भी कठोर लगता है तो यह उसका दोष है। कुछ विद्वान ऐसा भी मानते हैं कि अपवाद स्वरूप झूठ भी बोला जा सकता है परन्तु यह नितान्त आवश्यक है कि झूठ बोलने वाले की मनोवृति सात्विक हो। इस बात का कि अपवाद रूप में किसी की भलाई के लिए झूठ बोल लेना चाहिए, सहारा लेकर हम साधारण परिस्थितियों में भी अपने आप को झूठ बोलने से नहीं रोक पाते। साधारण परिस्थितियों में हमें सत्य ही बोलना चाहिए। राष्ट्र हित व विश्व हित के मामलों को ही केवल असाधारण परिस्थितियां माना जाना चाहिए। असत्य बोला जाना किसी भी परिस्थिति में अदण्डनीय नहीं होता।
सत्य दो प्रकार के होते हैं। संसारिक वस्तुओं में समयानुसार व परिस्थितिवश बदलाव आता रहता है। उदाहरणार्थ आज बनी गाड़ी, बीस वर्ष पश्चात समान नहीं रहेगी। गाड़ी को आज जानना, उसे बीस वर्षों के पश्चात जानने के समान नही हो सकता। हम पहले कह आए हैं कि जो जैसा है उसे वैसा ही जानना व मानना सत्य कहलाता है। इस अनुसार गाड़ी के आज के सत्य ज्ञान व बीस वर्ष पश्चात के सत्य ज्ञान में फर्क होना स्वभाविक हैं दूसरा सत्य वह होता है जिसमें समयानुसार व परस्थितिवश अन्तर नहीं आता। ईश्वर विषयक ज्ञान इसी श्रेणी में आता है। जो सत्य ज्ञान कभी नहीं बदलता उसे ऋत कहा जाता है। हमारे जीवन का ध्येय होना चाहिए कि हमारी आत्मा में अवस्थित सत्य ऋत के समीप होता जाए। जो चीज़ जैसी है उसे वैसी ही जानने के लिए महर्षि दयानन्द जी ने निम्नलिखित मापदंड सुझाए हैं –
- सत्य हाने के लिए, वस्तु अथवा घटना का ईश्वर के गुणों (ईश्वर के गुणों की व्याख्या अन्यत्र की गई है) के अनुकूल होना आवश्यक है। उदाहरणार्थ- क्योंकि किसी व्यक्ति को बगैर उसके अन्याय के दोषी हाने के मार दिया जाना ईश्वर के गुण न्यायकारिता व दयालुता के विरुद्ध है इसलिए इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता।
- किसी वस्तु अथवा घटना की सत्यता व असत्यता पर जो निर्णय प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों द्वारा हो, उसे स्वीकारें।
- वह वस्तु अथवा घटना सृष्टि नियमों के विरुद्ध नहीं होना चाहिए। उदाहरणार्थ यह मानना कि किसी शरीरधारी का शरीर मृत्यु को प्राप्त नहीं होता सृष्टि नियमों के विरुद्ध होने से असत्य है।
- हमें आप्त पुरूषों (आप्त पुरुष वे हैं जिनका व्यवहार वेदोक्त हो) के वचनों को प्रमाण के रूप में मानते हुए सत्य का निर्धारण करना चाहिए।
- जो वस्तु व घटना हमारी आत्मा की प्रवृति के अनुरूप हो, वो सत्य और जो आत्मा की प्रवृति के विरुद्ध हो, वो असत्य। आत्मा की प्रवृति है कि उसे सुख प्रिय और दुख अप्रिय लगता हे। जो वस्तु हमे॑ प्रिय व अप्रिय लगती है उसे अन्य आत्माओं के लिए भी वैसे ही जानें। जैसे अन्याय हमें अप्रिय लगता है।
थोड़ा इतिहास के पृष्ठों को पलट कर देखा जाये। क्या किसी ने झूठ बोलकर अपने जीवन के परम उद्देश्य मोक्ष को प्राप्त किया है? यदि ऐसा नहीं हुआ है, तो आज और कल भी नहीं होगा।
हमारा सत्य को अपने जीवन में धारण न कर पाने का बहुत बड़ा कारण यह है कि हमने अपने जीवन का लक्ष्य जड़-पदार्थों को प्राप्त करना बनाया है। भौतिक पदार्थों की प्राप्ति को वास्तविक लाभ समझकर भौतिक पदार्थों को प्राप्त करने पर भी आत्मतृप्ति नहीं मिल रही है, यह बात भौतिक पदार्थों के स्वामी अंदर से स्वीकार करते हैं। हमें उनके अनुभव का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। जब तक आत्म-तत्व को जीवन के सामने नहीं रखेंगे तब तक असत्य का त्याग व सत्य का ग्रहण कठिन ही रहेगा। यह योग, आत्मा को समक्ष रखकर जीवन जीने की कला सिखाता है। वर्त्तमान में सत्याचरण करने से हानि अधिक दिखार्इ देती है। इसके पीछे कारण है-भौतिक पदार्थों की हानि को अपनी आत्मा की हानि समझना।
सत्य का प्रयोग कहाँ, कैसे, कब करना चाहिए इसकी जानकारी न होने से भी सत्याचरण को बदनाम किया गया है। हमें सत्य का प्रयोग करना आना चाहिए। अनधिकारी के सामने सत्य न बोलें, वहाँ मौन रहें। बच्चों के साथ भी इस तरह व्यवहार करें कि झूठ भी न बने और व्यवहार भी कर सकें। सत्याचरण करने वाले की बुद्धि अति सूक्ष्म होनी चाहिए। अर्थात् सत्य को जिताने की क्षमता होनी चाहिए। जिससे व्यवहार न बिगड़ने पावे।
सत्य का प्रारम्भ घर से करना चाहिए। माता–पिता से‚ पति से‚ पत्नी से‚ बच्चों से‚ परिवार से‚ समाज से‚ धीरे–धीरे क्षेत्र को बढ़ाते हुए सार्वभौम रूप से पालन करने की चेष्टा करनी चाहिए।
झूठ बोलने वाला कभी भी निडर नहीं हो सकता। हम डरते हुए कभी भी एकाग्र नहीं हो सकते। अत: झूठ बोलने या मिथ्या आचरण करने वाला व्यक्ति पूर्ण एकाग्र नहीं बन सकता। हम पूर्ण एकाग्रता के बिना पूर्ण बुद्धिमान नहीं बन सकते हैं।
सत्य-पालन के लाभ
- सत्य का पालन करने वाले के प्रति मनुष्य मात्र का विश्वास बनता है।
- सत्याचरण करने वाला सब के दिलों को जीत लेता है। उसे शत्रु भी दिल से स्वीकार करता है।
- सत्याचरण करने वाले को ही आत्मदर्शन होता है।
- सत्य का पालन करने वाला अन्दर से सुखी रहता है।
- सत्य का पालन करने वाले को बुद्धिमानों से प्रशंसा, यश व धन की प्राप्ति होती है।
- सत्य से जीवन में निर्भीकता आती है।
- सत्य से अहिंसा पुष्ट होती है अर्थात् किसी को अन्यायपूर्वक कष्ट-पीड़ा दुःख नहीं देता है।
- सत्यवादी व्यर्थ चिंताओं व वैचारिक उलझनों से बचता है, क्योंकि उसे झूठ बोलने की योजना बनाने का श्रम नहीं करना पड़ता, यह याद नहीं रखना पड़ता कि किसको कब, क्या झूठ कहा था, झूठ पकड़े जाने की चिन्ता नहीं सताती और झूठ पकड़े जाने पर नई-नई कहानियाँ घढ़ने की माथापच्ची नहीं करनी पड़ती।
- जब व्यक्ति अपने आत्मा को मार कर कोई बात नहीं कहता वरन् प्रसन्नता पूर्वक एवं आत्म-विश्वास के साथ कहता है, तब वह सत्य बोल रहा होता है। आत्मा वास्तव में तभी प्रकाशित होता है जब व्यक्ति सत्य बोलता है। झूठ बोलने वाले व्यक्ति का आत्मा मृतप्रायः अर्थात् अधंकार में डूबा होता है।
आत्मा प्रकाशित और उन्नत किस प्रकार होता है? महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं- जैसे जलती अग्नि में घी की आहुति देने से अग्नि और प्रचण्ड होकर अधिक प्रकाश उत्पन्न करती है, इस प्रकार सत्य की आहुति आत्मा में पड़ने से वह उन्नत और प्रकाशित होता है।
सत्य का पालन अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। झूठ बोलने से भी हिंसा होती है। कैसे? ‘हिंसा का अर्थ है-अन्याय पूर्वक पीड़ा, दु:ख, कष्ट देना। जब बालक माँ से झूठ बोलता है तो माँ को इससे अतीव कष्ट होता है। प्रायः हम सरकार के साथ सहज रूप से झूठ का व्यवहार करते हैं। इससे न केवल एक व्यक्ति को वरन् सम्पूर्ण राष्ट्र को ही हम दुख पहुँचा रहे हैं। हमारे झूठ से प्राप्ति तो मात्र हमें होती है। हम इस पाप से बच सकते हैं। हमें यह जानना ही चाहिये कि हमारे कार्यों का फल हमें निश्चयपूर्वक मिलेगा, तभी हम हिंसा से बच सकते हैं, अन्यथा नहीं।
आप दुकानदार हैं तो ग्राहक को झूठ बोलकर पीड़ा पहुँचा रहे हो। आप नौकरी के प्रत्याशी हैं, आपने झूठ बोल कर नौकरी ली तो जिसे नौकरी मिलनी थी, आपके कारण वह वंचित हो गया है, उसे वंचित होने पर दु:ख मिला, यह हिंसा है। जहाँ भी हम झूठ बोलतें हैं निश्चित रूप से हम वहाँ पर हिंसा ही कर रहे हैं। वहाँ अन्याय पूर्वक दूसरों को दु:ख देते हैं। जिसे हम हिंसा द्वारा पीड़ा पहुँचा रहे हैं, उसका फल हमें निश्चित रूप से मिलने वाला है। इस से हम छूट नहीं सकते। इसीलिये ऋषि कहते हैं कि सत्य ऐसी एक शक्ति है जिसे अपनाने पर मनुष्य को आगे होने वाले पापों से छूटने की शक्ति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त और कोर्इ मार्ग नहीं है।
ऐसा कोई व्यक्ति न अतीत में था, न ही वर्त्तमान में है और न ही संभवत: भविष्य में होगा जिसे सत्य में अश्रद्धा हो व असत्य में श्रद्धा हो। ऐसा इसलिये है क्योंकि परमेश्वर ने प्रारम्भ से ही मनुष्य के अन्त: करण में असत्य के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर दी है।
जबसे हमने होश संभाला है तब से हमने जो भी कुछ ज्ञान प्राप्त किया, उस सबका एकमात्र प्रयोजन है ‘सत्य’ को स्वीकार करना। इसके विपरीत जिसने सत्य को नकार कर असत्य को ही धारण किया है, उसने अपने आत्मा की स्वाभाविकता को नष्ट करके आत्मा को ही कुचल डाला है।
सत्य के धारण करने से भले ही कुछ भी चला जाये, परन्तु आत्मा का कल्याण इसी में है। जिस माँ के लिए झूठ बोलते हैं, वह तो एक दिन जायेगी ही। पिछले जन्मों में न जाने कितनी माताओं, पिताओं, पुत्रों, पत्नियों, बेटियों तथा अन्यान्य परिवार जनों को छोड़कर हम इस जन्म में वर्त्तमान हैं। जिनके लिए झूठ बोला था, वे सब कहाँ गये? जिनके लिए अब झूठ बोल रहे हैं, इन्हें भी तो छोड़ना पड़ेगा। साथ इनमें से कोर्इ नहीं देगा। साथ रहेगा वह पाप, जो इन परिजनों के लिए झूठ बोलकर कमाया है। जब सभी बिछड़ते हैं तो इनसे ममता जोड़ कर क्यों झूठ बोलते हो? इन्हें भी मन से त्याग दो। आत्मा तो अकेला था, अकेला है और आगे भी अकेला ही रहेगा।
ऋषि कहते हैं कि तुम कहते हो कि असत्य के बिना तुम्हारा काम नहीं चल सकता, यह गलत है। जिस सत्य को झूठ बनाकर प्रस्तुत कर रहे हो, भले आदमी! उस सत्य को सत्य ही के रूप में प्रयोग करके तो देखो, एक बार में ही इसकी महत्ता का पता चल जायेगा। आगे कहते हैं कि असत्य को हमें किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करना है। किसी के लिए भी असत्य नहीं बोलना है, मर जाओ, सब कुछ समाप्त हो जाये, इस सर्वप्रिय शरीर को ही समाप्त करना पड़े, किन्तु सत्य को न छोड़ें।
हम यह चाहते हैं कि किसी को कपड़ा देकर उसका कल्याण कर दें तो कपड़े के लिए झूठ बोलते हैं। पैसा, भवन, अन्न, और भी न जाने किस-किस जड़ पदार्थ को देने की इच्छा से हम झूठ बोलते हैं? आत्मा को उसके कल्याण के लिए मात्र जड़ पदार्थों की नहीं, सत्य की भी आवश्यकता है। जड़ पदार्थ, जो नष्ट हो जाते हैं, उनसे आत्मा तृप्त नहीं होता। ये पदार्थ तो यहीं छोड़ने पड़ते हैं। सत्य ही उसके साथ रहता है। इसलिये शास्त्र का वाक्य है-‘सत्यमेव जयते’ सत्य ही की विजय होती है। यह हमें आज समझ न आया, कोई बात नहीं। एक बार इसे करके तो देखें। पिछले जन्म में भी यही कहा था-झूठ के बिना काम नहीं चलता। इस जन्म में भी यही कहते हैं। अगले जन्म में भी यही कहेंगे। तो फिर सत्याचरण का अवसर कब आयेगा? एक बार परीक्षा करके देखें। डर किस बात का है? किसके लिए डरते हैं? प्रिय वस्तु छूट जायेगी। वह तो असत्य बोलने से भी छूटेगी। छूटने दो जो कुछ भी छूटता है। हमें अपनी दूषित विचारधारा बदलनी ही होगी।
विचार करके देखिये। हमारा आत्मा जाने कब से, उस प्रभु के दर्शनों के लिए, प्रभु-मिलन के लिए तरस रहा है। उस प्रभु से हम दूर क्यों हैं? कौन हमें उस प्रभु से मिलने नहीं दे रहा है। यह वही असत्य, झूठ है जो हमें ईश्वर से मिलने में बाधक है।
पता नहीं हमारे अन्दर ये भाव क्यों नहीं आ रहे हैं? गलत काम करके जाने किन साधनों को हम प्राप्त करना चाहते हैं? एक व्यक्ति गलत को गलत स्वीकार करता है, परन्तु गलत को त्यागने में असमर्थ है। यह एक स्थिति है। दूसरा व्यक्ति गलत को गलत मानने को तैयार ही नहीं। वह समझता है कि सत्याचरण की सांसारिक लोगों के लिए बाध्यता नहीं है। यह तो विरक्त के जिम्मे आ गया, यह सन्तों-महात्माओं के लिए है। यह दूसरी स्थिति है। किन्तु महर्षि दयानन्द कहते हैं-‘मैं सांसारिक गृहस्थों को कह रहा हूँ कि चाहे सार्वभौम चक्रवर्ती साम्राज्य ही क्यों न मिलता हो, झूठ कभी मत बोलो। उसे सत्य के लिए त्याग दो।’ हम आज जिन पदार्थों के लिए झूठ बोल रहे हैं वो तो तुच्छ पदार्थ हैं, परन्तु ऋषि तो सत्य के लिए सार्वभौम साम्राज्य को भी छोड़ने के लिए गृहस्थों को कह रहे हैं।
महर्षि दयानन्द ने कहा-‘कोई चाहे कितना ही बलवान-सामर्थ्यवान्, अन्यायी हो, उसका सदा विरोध करो। न्यायकारी, सत्यवादी चाहे कितना ही दुर्बल हो, उसे सदा सहयोग करो।’ परन्तु हम नहीं समझ पाते इसे।
ये प्रश्न हमें स्वयं से पूछने चाहिए-इस झूठ से हम किसका कल्याण करना चाहते हैं? किसको सुख देना चाहते हैं? जिस झूठ से आज तक किसी का कल्याण नहीं हुआ है, उसी झूठ से हम अपना कल्याण करना चाहते हैं।
3. अस्तेय
अस्तेय का शाब्दिक अर्थ है चोरी न करना। किसी दूसरे की वस्तु को पाने की इच्छा करना मन द्वारा की गई चोरी है। शरीर से अथवा वाणी से तो दूर, मन से भी चोरी न करना। किसी की कार को देखकर उसे पाने की इच्छा करना, किसी सुन्दर फूल को देखकर उसे पाने की चाह करना आदि चोरी ही तो है।
दूसरों को अपने पदार्थों को दे कर दानी बनना भी अस्तेय की स्थापना में सहायक है। सब को सब कुछ मिले, इस पुण्य विचार में अपनी आहुति दे कर हम अपने पदार्थों का उपभोग निर्विघ्नता से कर सकते हैं। अन्यथा स्वामी होकर भी पदार्थों का उपभोग शान्ति से नहीं कर पायेंगे। क्योंकि अभावग्रस्त व्यक्ति पदार्थों को छीनने का सदा प्रयत्न करते हैं। अतः दान देकर ही समाज में अस्तेय की पूर्ण स्थापना कर पायेंगे।
हम अनेक बार अपने निकटस्थों (माता, पिता, पति, पत्नी, भाई, बहन आदि) के साथ अस्तेय का पालन नहीं कर पाते हैं, अर्थात् हम एक दूसरे की वस्तु बिना पूछे ले लेते हैं। यह भी चोरी के अन्दर आ जाता है। चाहे पति की वस्तु पत्नी लेवे या पत्नी की वस्तु पति लेवे। भले ही पुनः यथास्थान रख देवें। क्योंकि बिना पूछे लेने के कारण उनको वह वस्तु समय पर नहीं मिलती है और वे दुःखी होते हैं एवं उसे ढूंढते रहते हैं, तो समय व्यर्थ होता है। अतः चाहे किसी की भी वस्तु हो बिना पूछे न लेवें।
ऐसा करने पर व्यवहारिक कठिनाइयाँ आती है। अतः यह हमें बाधक प्रतीत होगा। परन्तु बुद्धिपूर्वक विचारकर पहले से ही एक दूसरे (चाहे पति-पत्नी के बीच में भी क्यों न हो) से स्वीकृति ले कर रखें कि आपकी अनुपस्थिति में आप की कोई वस्तु ले सकता हूँ अथवा नहीं। यदि स्वीकृति मिल जाती है तो हमारे द्वारा उनकी वस्तुओं को उनकी अनुपस्थिति में लेने पर उन्हें दुःख नहीं होगा एवं उनका समय भी व्यर्थ नहीं होगा। ऐसा करना सभी बुद्धिमानों के लिए उचित होगा। ऐसी परिस्थिति में ही अस्तेय का पूर्ण पालन हो पायेगा।
अस्तेय-पालन के लाभ
- अस्तेय का पालन करने वाला व्यक्ति शान्त, प्रसन्न, सन्तुष्ट व सुखी रहता है।
- चोरी न करने वाले का सभी विश्वास करते हैं और प्रत्येक शुभ कार्य में पूर्ण सहयोग देते हैं।
- अस्तेय का पालन करने से उत्तम-उत्तम पदार्थों का सर्वाधिक प्रयोग उत्तम रीति से कर सकते हैं।
- अस्तेय का पालन करने वाला व्यक्ति प्रभु दर्शन करने का अधिकारी बनता है।
- अस्तेय का पालन करते हुए सब के आदरणीय बनकर सभी के हृदयों में अच्छा स्थान बना लेते हैं।
- अस्तेय का पालन करने से अहिंसा में निखार आता है, जिससे किसी को भी अन्याय पूर्वक दुःख-पीड़ा कष्ट नहीं होता है।
अहिंसा को परिपक्व करने के लिए जहाँ सत्य सहायक है वहीं पर अस्तेय भी अहिंसा को सिद्ध करने के लिए है। मोटे तौर पर देखने से लगता है कि हम तो चोर नहीं, हम चोरी नहीं करते। इसे सूक्ष्मता से देखने पर साफ दीखता है कि हम कितना अस्तेय का पालन करते हैं। जैसे कपड़ा बेचने वाला, ग्राहक के सामने ही उसे धोखा देता है। ग्राहक पांच मीटर कपड़े का मूल्य चुकाकर उतने कपड़े का स्वामी बन जाता है, किन्तु दुकानदार माप में धोखा देकर उसे पांच मीटर से कम कपड़ा देता है। वह उसी के सामने उसके द्रव्य (यहां कपड़ा) का चालाकी से हरण कर लेता है।
4.ब्रह्मचर्य
परिभाषा-गुप्त-इन्द्रिय (उपस्थ-जननेन्द्रिय) का संयम करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं। यह संयम मन, वचन व शरीर से करना चाहिए।
शरीर के सर्वविध सामर्थ्यों की संयम पूर्वक रक्षा करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं।
आधुनिक ढंग से जीवन व्यतीत करने वाले अनेकों की धारणा है कि वीर्य की रक्षा करना पागलपन है। अत: वे अपने शरीर को वीर्यहीन बना लेते हैं। शरीर को नाजुक, कमज़ोर, रोग ग्रस्त बना लेते हैं। शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति को घटाते हैं।
इन्द्रियों पर जितना संयम रखते हैं उतना ही ब्रह्मचर्य के पालन में सरलता रहती है। इन्द्रियों की चंचलता ब्रह्मचर्य के पालन में बाधक है। अपने लक्ष्य के प्रति सजग रहते हुए सदा पुरुषार्थी रहने से ब्रह्मचर्य के पालन में सहायता मिलती है। महापुरुषों, वीरों, ऋषियों, आदर्श पुरुषों के चरित्र को सदा समक्ष रखना चाहिए। मिथ्या-ज्ञान अर्थात् अशुद्ध-ज्ञान का नाश करते हुए शुद्ध-पवित्र-सूक्ष्म विवेक को प्राप्त करने से वीर्य रक्षा में सहायता मिलती है।
मन में सदा पवित्र विचारों को रखने व स्मरण करने से ब्रह्मचर्य का पालन अच्छा होता है। शरीर को दृढ़-बलवान् बनाने के लिए नित्यप्रति अपने सामर्थ्य के अनुसार आसन, व्यायाम (सरल व कठोर) करने से वीर्य की रक्षा होती है। व्यवस्थित सात्विक भोजन, व्यवस्थित निद्रा व व्यवस्थित दिनचर्या से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है।
ब्रह्मचर्य-पालन के लाभ
- शरीर दृढ़, बलवान, आकर्षक व स्वस्थ हो जाता है।
- शारीरिक शक्तियाँ पूर्ण आयु तक बनी रहती हैं।
- बुद्धि सूक्ष्म होती है। कम समय में अधिक कार्य करने की क्षमता आती है। अधिक मात्रा में सामाजिक कार्य कर सकते हैं।
- रोग प्रतिरोधक क्षमता पर्याप्त मात्रा में बढ़ती है।
- प्रभु दर्शन करने के अधिकारी बनते हैं।
- मृत्यु को जीत कर मृत्युञ्जय बनते हैं।
- शारीरिक बल के साथ-साथ आत्म-बल बढ़ता है।
- अपने व्रतों/संकल्पों/निश्चयों पर दृढ़ रहने की शक्ति बहुत बढ़ती है।
- अहिंसा उन्नत होती है, जिससे परिवार, समाज, राष्ट्र व विश्व में सुव्यवस्था बनने से सार्वभौम रूप से सब को सुख-आनन्द मिलता है।
ब्रह्मचर्य के विपरीत है व्याभिचार। व्याभिचार से भी वैसे ही हिंसा होती है,जैसे झूठ से व चोरी से होती है। जो सुबह से लेकर रात तक बड़े-बड़े व अति हानिकारक झूठ बोल के आता है वह भी एक बार व्याभिचार करके आने वाले को पता नहीं कैसे देखता है? यानि जीवन भर व्यक्ति रोज झूठ बोलता है, उसमें तो जैसे उसको कुछ सोचना ही नहीं है, मानो उसने कोई पाप ही नहीं किया और दूसरे ने मान लीजिए जीवन में एक बार व्याभिचार कर दिया तो बस उसका जीना दूभर कर देगा।
जैसे झूठ के स्तर होते हैं वैसे ही व्याभिचार के भी स्तर होते हैं, एक स्तर का झूठ जो फल देता है, उसी स्तर का व्याभिचार भी उतना फल देने वाला होता है। यदि कोई व्याभिचार करता है तो वह निन्दनीय है, इसमें कोई दो राय नहीं है, लेकिन उससे अच्छा झूठ बोलने वाला नहीं। वह यम के एक विषय में गिरा हुआ है, यह यम के दूसरे विषय में गिरा हुआ है, उसके गिरने और इसके गिरने में कोई अन्तर नहीं है, दोनों गिरे हुए हैं। कोई एक रुपये के लिए झूठ बोलता है, तो कोई सौ रूपये के लिए बोलता है, कोई हज़ार के लिए बोलता है, कोई मकान के लिए बोलता है, कोई किसी के लिए बोलता है। जैसे असत्य के स्तर हैं, वैसे ही व्यभिचार के भी स्तर हैं। कोई देखकर व्यभिचार करता है, कोई छू कर व्यभिचार करता है, कोई बोलकर व्याभिचार करता है, कोई किसी प्रकार से करता है। लेकिन दोष दोनों में समान है।
सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय और अपरिग्रह योग के प्रथम अंग-यम के विभाग हैं और एक विभाग का उतना ही महत्त्व है जितना दूसरे विभाग का।
गृहस्थ आश्रम में रहने वाले भी ब्रह्मचर्य के विरुद्ध आचरण करने को प्रयत्नशील होते रहते हैं। संतान गृहस्थ का बहुत बड़ा उद्देश्य होता है। उससे अतिरिक्त सब व्याभिचार है। आज कितना असंयम हो गया है। क्यों हम संयम नहीं कर पा रहे हैं? क्योंकि ब्रह्मचर्य की महिमा हमने नहीं जानी।
जैसे हम झूठ इसलिए बोलते हैं क्योंकि सत्य की महिमा हमने नहीं जानी। हम चोरी इसलिए करते हैं क्योंकि अस्तेय की महिमा हमने नहीं जानी। ठीक उसी प्रकार से संयम इसलिए नहीं रखते हैं क्योंकि ब्रह्मचर्य की महिमा हमने नहीं जानी। एक बार हमको ये बोध हो जाये कि ब्रह्मचर्य की क्या महिमा है तो व्याभिचार छोड़कर ब्रह्मचर्य पालन में लग जायेंगे।
अहिंसा की पुष्टि में जितनी महत्ता सत्य व अस्तेय की है उतनी ही महत्ता ब्रह्मचर्य की है। ब्रह्मचर्य से अहिंसा की पुष्टि होती है, और व्याभिचार से हिंसा की पुष्टि होती है। वेदों में जितनी महिमा सत्य और अस्तेय की गई है, उतनी ही महिमा ब्रह्मचर्य की भी गाई गई है।
ब्रह्मचर्य की कितनी महिमा है। आज इस संसार में मृत्यु से कौन नहीं डरता?
उपनिषदों में पढ़ते हैं कुछ पक्षी जब आकर के खेतों के ऊपर मण्डराते हैं तो सारा का सारा खेत समाप्त। जैसे वे आ करके आतंक मचाते हैं ऐसे ही यह मृत्यु मण्डरा रही है हमारे ऊपर, सबके ऊपर आतंक मचा रही है। उसको देख कर कौन नहीं डरता? सब डरते हैं। ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्यरूपी तपस्या से ऐसे गुणों को अपने अन्दर धारण करता है, कि उससे वह मृत्यु को यूँ उठाकर के फेंक देता है जैसे तिनके को उठाकर के फैंकते हैं।
आज हम ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर पा रहे हैं। हमारे जीवन में वह संयम नहीं है। हम संयम नहीं कर सकते क्योंकि हम अपने जीवन के प्रति ईमानदार नहीं हैं। वह संयम नहीं है हमारे में, इसलिए हम डरपोक बन गये हैं। डरने वाले बन गये हैं, सदा डरते रहते हैं हम, कोई कम डरता है कोई ज्यादा डरता है, पता नहीं किस-किस से हम डरते हैं। जिस मृत्यु के डर से सारा जग काँप करके थरथरा रहा है उसको ब्रह्मचारी यूँ उठा कर फेंक देता है।
आचार्य कहते हैं-ये जो वीर्य है ये आहार का परम धाम है, उत्कृष्ट सार है, यदि तू वास्तव में अमृत पाना चाहता है तो उसकी रक्षा किया कर। यदि उसका क्षय तूने कर लिया असंयम से, तो देख लेना समझ लेना तू, दुनिया भर के रोग आ जायेंगे तुझे।
व्यक्ति ब्रह्मचर्य की उपासना करता है, जिसने ब्रह्मचर्य की रक्षा की, वह ब्रह्मचर्य सारे के सारे पापों को भस्म कर देता है। यह ब्रह्मचर्य की महिमा है।
लेकिन आज की स्थिति को देखिए। हम अपने को देखें, अपने को टटोल कर देखें तो पग-पग पर पता चलेगा कि मैं कितना असंयमी हूँ। इतना असंयमी रहते हुए मैं किसकी इच्छा रखता हूँ? किसकी कल्पना कर रहा हूँ? मेरी कल्पना कितनी ऊँची हो गई? आज मैं भगवान् का दर्शन करना चाह रहा हूँ, दल-दल में फंस करके, दल-दल में जीता हुआ। न देखने में संयम है, न खाने में संयम है, न सूंघने में संयम है, न छूने में संयम है, न उठने में संयम है, न बैठने में संयम है, न सोने में संयम है, किसी में संयम नहीं है। सारा का सारा जीवन पता नहीं कैसे बीत रहा है। अपने जीवन के मूल्य को कभी समझा नहीं है और आज मृत्यु से बचने की इच्छा कर रहा हूँ मृत्यु को जीतना चाहता हूँ। हम उड़ती-उड़ती बातों में जीवन बिता रहे हैं, जो अत्यन्त घातक है। जो बातें-वस्तुएँ सदा मृत्यु के मुख के अन्दर धकेलने वाली हैं उन्हीं को आज हम कल्याणकारक मानते हैं,
इस जीवन में कुछ तो कर डालूं मैं। कुछ तो कर लूं इस जीवन में। आदमी ये सोचता है आगे देखेंगे अभी तो मुझे कुछ गलत करने दो। जो शिक्षा खुद हम देते हैं अपने बच्चों को, बेटा ऐसा नहीं करना चाहिए, बेटा ऐसा नहीं करना चाहिए। ये नहीं करना चाहिए, वो नहीं करना चाहिए। वो ही शिक्षा बदल जाती है, बच्चे जब बड़े हो जाते हैं तो उन्हें हम कहते हैं-बेटा इसके बिना काम नहीं चल सकता, तुझे ऐसा तो करना पड़ेगा। तुझे इस संसार में जीना हो तो ऐसा-ऐसा करना पड़ेगा।
आज हमारे सामने विकट परिस्थिति है। वेद एवं ईश्वर की बातें हमारी बुद्धि में नहीं बैठ पा रही हैं। यदि इनमें से कुछ बातें हम समझ भी जाते हैं तो उनमें रुचि न होने के कारण उन बातों को प्रायः भूल जाते हैं। भूलने का एक और भी बड़ा कारण है-संयम न रख पाना। बिना संयम स्मृति नहीं बनती और स्मृति ‘ब्रह्मचर्य’ के बिना तीव्र नहीं हो सकती। शास्त्रों की सूक्ष्म-बातें सूक्ष्म-बुद्धि से ही समझी जा सकती है। बुद्धि सूक्ष्म तब होती है जब हमारे शरीर में भोजन का सार प्रचुरता से होगा। भोजन का सार सूक्ष्म तत्त्व है ‘शुक्र’। शुक्र सुरक्षित रहेगा ब्रह्मचर्य पालन से। आज सूक्ष्म बुद्धि का प्रायः अभाव है। कारण क्या है? हमारा असंयमी होना, ब्रह्मचर्य की शक्ति से पुष्ट न होना।
बहुत से लोगों, जो क्षण भर में ईश्वर साक्षात्कार करना चाहते हैं, का आशय यह होता है कि उन्हें कुछ करना धरना न पड़े और ईश्वर का साक्षात्कार हो जाए। उन्हें इस बात कें महत्त्व का ज्ञान ही नहीं है। जिस बात के लिए ब्रह्मचारी ने अपना सर्वस्व झौंककर, रात-दिन एक करके अपना जीवन ही न्योछावर कर दिया और अभी तक अपने प्रमाद-आलस्य को, अपनी न्यूनताओं को पूरी तरह दूर नहीं कर पाया। और वे उसी ब्रह्म-तत्व को क्षण मात्र में प्राप्त करना चाहते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि हमारा आज का व्यवहार, इन्द्रिय पर संयम, ऐसा ही है, जैसा कि उस व्यक्ति का जो शर्त लगा कर निर्धारित सौ जूते भी खायेगा, सौ प्याज भी खायेगा और संयम न होने के कारण शर्त हार कर सौ रुपये भी देगा।
5. अपरिग्रह
परिभाषा-मन, वाणी व शरीर से अनावश्यक वस्तुओं व अनावश्यक विचारों का संग्रह न करने को अपरिग्रह कहते हैं।
साधारण तौर पर प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु भोजन, वस्त्र, मकान एवं अन्य जीवनोपयोगी आवश्यक साधन चाहिएँ। योग्यता व अधिकार के अनुसार कुछ अतिरिक्त साधनों की भी आवश्यकता होती है। यद्यपि आवश्यकता की सीमा बाँधी जानी चाहिए, पर योग्यता व अधिकार के अनुसार आवश्यकताओं की सीमा को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिए चाहे राष्ट्रपति हो या चपरासी हो, उनके वस्त्रों की भिन्न-भिन्न सीमा निर्धारित की जा सकती है। योग्यता व अधिकार के अनुसार न्यून वा अधिक वस्त्रों की आवश्यकता होती है। अपरिग्रह का यह अभिप्राय बिलकुल नही है कि राष्ट्रपति व चपरासी के लिए वस्त्र आदि एक जैसे व समान मात्रा में हो।
हम जितने अधिक साधनों को बढ़ाते जायेंगे, उतने ही अधिक हिंसा के भागी बनते जायेंगे। उदाहरणार्थ कपास की खेती से वस्त्र निर्माण होने तक की प्रक्रिया में अनेक जीव पीड़ित होते व मरते हैं। परन्तु हमें आवश्यकता के अनुसार कुछ न कुछ साधन तो चाहिए। हम मात्र उतने ही साधनों का प्रयोग करें। ऐसा न हो कि हमारे कारण दूसरे अपनी मूलभूत आवश्यकताओं से भी वंचित रह जायें।
हमारी अधिक संग्रह करने की भावना से अनावश्यक उत्पादन बढ़ता जा रहा है। जिससे पन्च भूतों अर्थात् पृथ्वी, जल आदि की हाऩि होती जा रही है। ऐेसा न हो कि हम क्षणिक सुख के लिए विपुल मात्रा में हिंसा कर बैठें।
अपरिग्रह-पालन के लाभ
- अधिक संग्रह करने हेतु हम जिन झूठ-छल-कपट, अन्याय, ईर्ष्या, द्वेष आदि को न चाहते हुए भी करते हैं, उन सब से परे हो कर सत्य, न्याय, प्रेम से व्यवहार करने लगते हैं।
- आत्मशान्ति व तृप्ति मिलती है। मन प्रसन्न होता है।
- प्रभु दर्शन हेतु प्रयत्न बढ़ता है। व्यायाम, भक्ति, परिवार को समय देना आदि सभी कार्य कुशलता से हो जाते हैं।
- आत्म-चिन्तन करने का पर्याप्त काल मिलता है। जिससे आत्मदर्शन के अधिकारी बनते हैं।
- गौण विषयों से हटकर मुख्य विषयों में सरलता से अपनी शक्ति, सामर्थ्य आदि लगा कर शीघ्र ही चरम लक्ष्य अर्थात् मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।
- आखिर इतना संग्रह किसके लिए करता हूँ? क्यों करता हूँ व कब तक करता रहूँगा? मैं कहाँ था? कब आया, क्यों आया? पहले का संग्रह कहाँ है? इस प्रकार के संग्रह से क्या होगा? कब तक संग्रह करूँ? इस प्रकार आत्मा का बोध होता है।
- भौतिक पदार्थों की नश्वरता का बोध होता है कि कोई भी वस्तु मेरे साथ सदा नहीं रह सकती, न ही कोई वस्तु मेरे साथ जा सकती है न आ सकती है।
- अपरिग्रह का पालन करने से अहिंसा में व्यापक वृद्धि होती है, जिससे प्रत्येक मनुष्य अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति कर आनन्दित रह सकता है। समाज में आवश्यकताओं के अभाव से होने वाली अराजकता नष्ट हो जाती है।
अपरिग्रह का पालन भी अहिंसा की सिद्धि के लिए ही किया जाता है। परिग्रह सदैव दूसरों को पीड़ा देकर ही किया जाता है। अनावश्यक वस्तुओं का, अनावश्यक विचारों का, उचित-अनुचित स्थानों से निरुद्देश्य संग्रह करना परिग्रह है। इसके विपरीत ऐसा न करने को अपरिग्रह कहते हैं। यदि कभी अधिक संग्रह भी हो जाये तो शेष को दान करते रहना चाहिए। इस दान से उपजे आत्म संतुष्टि के भाव का मूल्य संसार के मूल्यवान पदार्थों से भी अधिक ही रहेगा।
यह अनाप-शनाप परिग्रह ही तो हमें ईश्वर से दूर कर रहा है। हमारे पास ईश्वर-आराधना के लिए समय ही नहीं बचता। हम रात-दिन इन्हीं अनावश्यक वस्तुओं को सहेजने, संवारने, रक्षण करने में व्यतीत कर देते हैं। इसलिये इनका अपरिग्रह किये बिना हम अहिंसा को पुष्ट नहीं कर सकते।
प्रत्येक व्यक्ति के लिए जो न्यूनतम आवश्यकता है वह सब तो अपरिग्रह के ही अन्तर्गत आती है, क्योंकि अपरिग्रह का अर्थ ‘कुछ भी अपने पास न रखना’ करें तो यह अतिशयोक्ति मात्र है, अपरिग्रह नहीं। इसलिये हमें विचारपूर्वक अपना नियमन स्वयं करना चाहिये कि कौन सी वस्तु हमारे लिये नितान्त आवश्यक है, हम केवल उसे ही रखें। इस तरह हम अहिंसा को अधिकाधिक पुष्ट करते हुए हिंसा से बच सकेंगे। तभी हमें ईश्वर साक्षात्कार एवं आत्मदर्शन होकर आत्मा की इच्छा को पूर्ण करने का अवसर प्राप्त हो सकेगा। ये सब कड़ियाँ हमारे जीवन के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ी हुई हैं।
अनियंत्रित परिग्रह करने से आत्मा सदैव पाँचों प्रकार के दोषों के कारण भयभीत रहता है। भयभीत होने पर आत्मा मुक्ति की ओर उन्मुख नहीं हो सकता। ये दोष ही मुक्ति के द्वार को बंद करने वाले बड़े-बड़े पत्थर हैं। इन्हें हटाये बिना उसमें प्रवेश संभव नहीं।
जो हमारा पुरुषार्थ हमारे साथ जाना चाहिये, जो अदृष्ट के रूप में मुक्ति में सहायक बनना चाहिये वह व्यर्थ पदार्थों के संग्रह और रक्षण में ही व्यय हो रहा है। संग दोष से राग बढ़ता जाता है। याद रखिये कि जितना हम संग्रह करेंगे उतना ही हमारा मोह बढ़ेगा। मुक्ति के लिए मोह एक भयंकर शत्रु है। इन दोषों से युक्त संग्रह को हम जिन अपने प्रिय बेटे-बेटियों को सौंपते हैं, इससे हम उनका हित नहीं करते क्योंकि इस संग्रह के साथ जो पाँच प्रकार के दोष चिपके हुए हैं वे सब भी इस संग्रह के साथ उन प्रियजनों को प्राप्त होते हैं। अज्ञान के कारण हम इस संग्रह से अपने प्रियजनों का कल्याण नहीं कर रहे वरन् उनके नाश के बीज बो रहे हैं। यह बड़ी भूल करते हैं हम। इस संग्रह से उनका निश्चय से अकल्याण ही होगा। ‘वयं स्याम पतयो रयीणाम्’ के लक्ष्य को सामने रखकर हम न्यूनतम संग्रह करें। ताकि इन भौतिक पदार्थों के उपभोग से हम सुखपूर्वक जीवन यापन करते हुए मुक्ति के अपने प्रयास को भी निर्बाध रूप से करते रह सकें।
इस प्रकार सभी पक्षों पर सूक्ष्मता से दृष्टि रखते हुए हमें अपरिग्रह का पालन करना चाहिये ताकि हमारा सर्वांगीण विकास हो सके। ईश्वर ने जिस-जिस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु इन्हें बनाकर दिया, ये ऐश्वर्य जिस रूप में भोगने का निर्देश किया है, हमें उस सीमा का किञ्चित्मात्र भी अतिक्रमण नहीं करना चाहिये। यही अपरिग्रह है। ईश्वरेच्छानुसार अपरिग्रह होना चाहिये।
अष्टांग योग: यम | नियम | आसन | प्राणायाम | प्रत्याहार | धारणा | ध्यान | समाधि