योग का दूसरा अङ्ग – नियम

 

परिभाषा-जिस प्रकार से यम का अर्थ दुःखों से छूटना है, उसी प्रकार से नियम का अर्थ है विशेष रूप से दुःखों से छूटना।

          यहाँ पर यम व नियम के मौलिक अन्तर को अवश्य समझना चाहिए।

यम व नियम में अन्तर

जब हम व्यवहार करते हैं तो परिवार, समाज, राष्ट्र व विश्व के साथ करते हैं। वैयक्त्तिक जीवन के साथ परिवार, समाज, राष्ट्र व विश्व का सूक्ष्मता से सम्बन्ध होता है। साधक को सब (प्राणिमात्र) के साथ शुद्ध, निर्मल, पवित्र रहते हुए व्यवहार करना होता है।

यम का संबंध मुख्य रूप से अन्यों के साथ है और नियम का संबंध मुख्य रूप से व्यक्तिक जीवन के साथ है। विशेष रूप से स्वयं के दु:खों से छुड़ाने वाला होने से इसे नियम कहते हैं।

नियम के पाँच विभाग हैं :-

1. शौच, 2. संतोष, 3. तप, 4. स्वाध्याय, 5. ईश्वर-प्रणिधान

1. शौच

परिभाषा– शुद्धि-निर्मलता-पवित्रता को ‘शौच’ कहते हैं। शुद्धि दो प्रकार की होती है-

1.       बाह्य शुद्धि      2.       आभ्यन्तर शुद्धि।

बाह्य शद्धि– वस्त्र, पात्र, स्थान, खान-पान एवं धनोपार्जन को पवित्र रखना तथा शरीर को बाहर से पवित्र अर्थात् निर्मल रखना।

आन्तरिक शुद्धि– विद्या, ज्ञान, सत्संग, संयम, स्वाध्याय, सत्य और धर्म से मन व बुद्धि को पवित्र रखना।

          मन की शुद्धि शरीर की शुद्धि से अधिक महत्त्वपूर्ण है परन्तु मानव जीवन के अधिक साधन-समय, धन आदि शरीर की शुद्धि में ही लगाए जा रहें हैं।

बाहर की शुद्धि रखना आवश्यक है किन्तु इतना आवश्यक नहीं जितना कि अन्दर की शुद्धि रखना। बिना स्नान के चल सकता है परन्तु बिना मन की शुद्धि के नहीं। मन की शुद्धि के बिना शान्ति, तृप्ति, सन्तोष, उपासना आदि नहीं हो सकते हैं।

शौच-पालन के लाभ

(क)     बाह्य शुद्धि से-

  1. स्वयं व अन्यों के प्रति आसक्ति नहीं होती है।
  2. शरीर व अन्य वस्तुओं की नश्वरता का बोध होता है।
  3. नित्य पदार्थों के प्रति आकर्षण, प्रेम, श्रद्धा व लगाव उत्पन्न होता है।
  4. आत्म-तत्व के लिए अधिक समय मिलता है।

(ख)    आन्तरिक शुद्धि से-

मन प्रसन्न होता है। मन की प्रसन्नता से एकाग्रता, एकाग्रता से इन्द्रिजय, इन्द्रिजय से समाधि व समाधि में आत्मा व परमात्मा का दर्शन होता है।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश की शुद्धि से मनुष्य की शुद्धि और इनकी अशुद्धि से मनुष्य की अशुद्धि होती है।

सभी शुद्धियों में धन की शुद्धि बड़ी मानी गई है। इसलिए यहीं से शुद्धि का प्रारम्भ करना चाहिए।

          मनुष्य जीवन का एक प्रमुख आधार धन है। यह धन हृदय की भांति है। जिस प्रकार हृदय दूषित हो जाने से शरीर सुचारु से नहीं चल सकता, उसी प्रकार धन के दूषित होने से मनुष्य जीवन सुचारु रूप से नहीं चल सकता। इसी कारण महर्षि मनु ने स्वीकारा है कि सभी शुद्धियों में अर्थ अर्थात् धन की शुद्धि सर्वोत्कृष्ट है। धन को अशुद्ध रखते हुए अन्य पदार्थों की शुद्धि कितनी भी करें, मनुष्य अपने प्रयोजन को पूरा नहीं कर सकता।

धन इसलिए दूषित होता है कि-

  1. धन को प्राप्त करने के लिए मानव हिंसा का आश्रय लेता है।
  2. धन को प्राप्त करने के लिए असत्य-झूठ को जीवन का अङ्ग बना लेता है।
  3. धन को प्राप्त करने के लिए विभिन्न प्रकार की चोरियाँ-जिसमें बिक्रीकर, आयकर आदि की चोरी भी शामिल है- करता है।
  4. धन प्राप्त करने के लिए व्याभिचार किया जाता है।
  5. व्यायाम, भक्ति, परोपकार, कर्तव्य-कर्म आदि को त्याग कर धनार्जन करता है।

          मनुष्य का धन अशुद्ध है तो-

– उसका ज्ञान भी अशुद्ध होगा। जिसका ज्ञान अशुद्ध है उसकी आत्मा अपवित्र ही रहेगी।

– उसके कर्म अशुद्ध ही होंगे। अशुद्ध कर्म करने वाले की आत्मा मलिन ही होती है।

– उसके जीवन में तपस्या नहीं होगी। जीवन के प्रयोजन को पूर्ण करने हेतु हानि-लाभ, सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास आदि द्वन्दों को सहन करने का सामर्थ्य उत्पन्न नहीं होगा।

– उसका आहार अशुद्ध होगा। उस आहार से शरीर रोगग्रस्त ही रहेगा।

– उसे समय अर्थात् काल का बोध नहीं होगा। परिणामतः एक-एक पल का सदुपयोग नहीं कर सकता।

हमारा धन बिना क्रूरता, हिंसा व घिनोने कर्म के विशुद्ध रूप से अहिंसक धन बन सके। हमारा धन छल-कपट, ठगी, भ्रान्ति व झूठ रहित हो, वह पवित्र धन बन सके। हमारा धन दूसरों के खून व पसीने की कमाई न होकर स्पष्ट संवैधानिक चोरी रहित धन बन सके। हमारा धन स्त्री-मात्र को अपनी माता, बहन, पुत्री मानकर प्राप्त किया गया बन सके। हमारा धन सभी कर्तव्य कर्मों को करते हुए प्राप्त किया गया बन सके। ऐसी प्रक्रिया में हमारा मन प्रसन्न, शान्त, निर्मल, पवित्र बन पायेगा। जिससे आत्मा शुद्ध, पवित्र, निर्मल होकर अविद्या, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अहंकार से रहित होकर अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकता है।

आज जिस तीव्रता से मानव ने धरती व आसमान को एक करके नवीन-नवीन साधनों का अविष्कार करके, शरीर को बाहर से सुन्दर व पवित्र बनाने का प्रयास किया। काश! ऐसा प्रयास अन्दर की शुद्धि के लिए किया होता, तो जीवन से बेचैनी, चिन्ता, तनाव, दबाव, अवसाद, अकर्मण्यता, चंचलता, हताशा, निराशा, क्रूरता, अमानवीयता आदि दूर होकर आन्तरिक पवित्रता आ जाती। आज मानव जीवन में जिस प्रकार काम, क्रोध्, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अभिमान आदि का ताण्डव हो रहा है, यह सुनिश्चित करता है कि मानव ने अन्दर की शुद्धि को त्याग कर बाहर की शुद्धि पर ही ध्यान दिया है।

          मानव अपने शरीर को बाहर से जितनी इच्छा, पुरुषार्थ, समय व धन खर्च करके शुद्ध व स्वस्थ रखने का यत्न कर रहा है, उससे अधिक इच्छा, पुरुषार्थ व समय देते हुए किन्तु कम धन खर्च करके शरीर को अन्दर से शुद्ध व स्वस्थ बनाने का यत्न करे तो अपने प्रयोजन को पूर्ण कर सकता है।

2. संतोष

परिभाषा-अपनी योग्यता व अधिकार के अनुरूप अपनी शक्ति, सामर्थ्य, ज्ञान-विज्ञान तथा उपलब्ध साधनों द्वारा पूर्ण पुरुषार्थ करने से प्राप्त फल में प्रसन्न रहने को संतोष कहते हैं।

हताश-निराश न होकर, हाय-हाय न करते हुए अपनी योग्यता, सामर्थ्य, बल, ज्ञान-विज्ञान व साधनों को और अधिक बढ़ाकर, और अधिक पुरुषार्थ करके अधिक फल को प्राप्त करने की चेष्टा सतत् करनी चाहिए। अनेक बार व्यक्ति अपने सामर्थ्य व योग्यताओं को न पहचानते हुए कम पुरुषार्थ करके संतोष कर लेता है, जो आत्मदर्शन में अत्यन्त बाधक है।

सन्तोष-पालन के लाभ

  1. अत्यन्त सुख की प्राप्ति होती है।
  2. मन शान्त, प्रसन्न, एकाग्र रहता है।
  3. अधिक पुरुषार्थ करने की प्रेरणा मिलती है।
  4. आत्म-विश्वास बढ़ता है।
  5. मन के विचार पवित्र रहते हैं।
  6. शरीर पर सुप्रभाव होता है जिससे व्यक्ति स्वस्थ रहता है। असंतोष के कुप्रभाव से बच जाता है।
  7. संतोष का पालन करने से अहिंसा पालन में वृद्धि होती है।

मनुष्य को सुखी करने में संतोष का महत्वपूर्ण योगदान है। सन्तोष के बिना जीवन दुःखमय बन जाता है। उपलब्ध ज्ञान, बल, सामर्थ्य व साधनों के अनुरूप कर्म अर्थात् पुरुषार्थ करने पर जो भी प्रतिफल न्यायोचित मिलता है उसी में खुश अर्थात् तृप्त रहने को सन्तोष कहते हैं। 

          यदि मनुष्य अपनी विचार-शैली पर नियन्त्रण कर ले तो निश्चित रूप से सुखी हो सकता है। वह कैसे? क्योंकि हताश-निराश होने से जीवन सार्थक नहीं बन सकता। व्यक्ति इस प्रकार विचार करे कि जितनी योग्यता मुझ में है उसी के आधार पर प्रतिफल मिल पायेगा। अर्थात् अपने ज्ञान, बल, सामर्थ्य व उपलब्ध साधनों से जो मैंने कर्म किया उससे अधिक की इच्छा मैं कैसे कर सकता हूँ। यदि अधिक प्रतिफल की चाह करूँ तो अपनी योग्यता-ज्ञान को, बल को, सामर्थ्य को, साधनों को और अधिक बढ़ाऊँ। मेरी दृष्टि प्रतिफल पर तो जाती है परन्तु योग्यता पर क्यों नहीं? अपेक्षा के अनुरूप प्रतिफल न मिलने के पीछे कौन सा कारण है, यह विचारें। चाहे वह कारण अपनी न्यूनता हो, चाहे अन्यों की न्यूनता, कारण की इस गवेषणा में बुद्धि को न लगाकर हताश-निराश, हाय-हाय में बुद्धि लगाना क्या मेरी बुद्धिमत्ता है़?

मूढ़ता के कारण मनुष्य अपने मन को, बुद्धि को मात्र धन में लगा-लगाकर मन, बुद्धि की सात्विकता को दबाता जा रहा है। आज अल्प धन के जीवन को असफल ही माना जा रहा है। क्या यह उचित है? यदि उचित है, तो इतिहास में एक भी उदाहरण ऐसा क्यों नहीं दिखता, जिसमें पैसा-पैसा करते कोई पैसे से पूर्ण तृप्त हुआ हो।

          संसार में ऐसे लोग भी होते हैं, जिनके पास न खाने-पीने को, न पहनने को, न रहने को पर्याप्त होता है, फिर भी वे सन्तुष्ट होते हैं। आज जिनके पास सब कुछ होता है, वे भी असन्तुष्ट होते हैं। इसके पीछे कहीं यह कारण तो नहीं है कि उनकी जीवन शैली अनुचित है, जीने की दृष्टि असंयमित है। संसार के वैभव का होना या न होना कोई मान्य नहीं रखता, मान्य रखता है मन की प्रसन्नता व आत्म-सन्तोष का होना। मन व आत्मा में तृष्णा बनी रहे तो कितना ही वैभव पास में हो, तो भी दरिद्रता ही मानी जायेगी और यदि तृष्णा ही समाप्त हो गयी हो, तो वैभव की न्यूनता में भी मनुष्य अर्थवान् अर्थात् धनवान् माना जायेगा।

          जीवन शैली को समुचित रूप में चलाने के लिए सन्तोष अद्भुत उपाय है। जिसने भी सन्तोष को जीवन में धारण किया है। उसे अपार सुख मिला है और मिलेगा। यदि वर्त्तमान में भी पालन करे, तो वर्त्तमान में भी मिलेगा।

तुष्टि-दोष का अर्थ है- मनुष्य अपनी इच्छा, प्रयत्न, बल, सामर्थ्य, ज्ञान व साधनों का पूर्ण प्रयोग न करके, कम प्रयोग करता हुआ स्वयं को धन्य मानता है।

          मनुष्य को सन्तोष का पालन करते हुए यह सतत् बोध रखना पड़ता है कि मेरे जीवन में तुष्टि दोष तो नहीं आ रहा है।

          यह न विचार कर लें कि इच्छा, प्रयत्न, ज्ञान, बल व साधनों को बढ़ा देने से जीवन में असन्तोष उत्पन्न होगा। ऐसा कदापि न होगा। क्यों? यह ही योग का आश्चर्य है। क्योंकि योग मनुष्य को सदा ‘सम’ अर्थात् सन्तुलित बनाये रखता है। योगाभ्यास मनुष्य को न तुष्टि -दोष में धकेलता है और न ही असन्तोष उत्पन्न करता है।

जीवन में यदि असंतोष है तो यह असंतोष लोभ को व्यक्त करता है, लोभ से हम उस परम-सुख को नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं। जब कभी हम लोभ करते हैं या लोभ करने की चेष्टा करते हैं तब इसीलिए करते हैं कि मेरे को वह परम-सुख चाहिए। यानि सुख के लिए लोभ किया जाता है। जबकि जिस सुख के लिए लोभ किया जा रहा है, उसी सुख अर्थात् परमानन्द से लोभ हमको दूर करता है। इस बात को समझने का प्रयत्न करना चाहिये।

          मेरे को भोजन चाहिए, किसको नहीं चाहिए भोजन? लेकिन भोजन के लिए प्रवृत्त होते समय जब लोभ आ जाता है, तो वह प्रवृत्ति हमको परम-सुख से दूर पहुँचाएगी। यदि लोभ आ जाता है तो हो सकता है हम अधिक खा लें। आवश्यकता से अधिक प्राप्त करने के लिए हमको अतिरिक्त पुरुषार्थ करना पड़ेगा, यानि मन को अधिक क्रियाशील करना पड़ेगा। वाणी को भी अधिक क्रियाशील करना पड़ सकता है। शरीर से भी व्यक्ति अधिक क्रियाशील होगा। यानि लोभ के कारण से अनावश्यक अतिरिक्त पुरुषार्थ करना पड़ता है। फिर वो लोभ उस परम-सुख से हमें दूर भी करवा रहा है।

          जितना अपने पास है उसी में संतुष्ट रहना, अधिक की इच्छा नहीं रखना, इस बात को अच्छी तरह समझना होगा। मोटा उदाहरण है। मैं व्यापार करता हूँ, व्यापार के लिए मैंने जो कुछ भी सोचा कि इस साल में मेरे को इतना प्राप्त करना है। जब साल पूरा हो गया तो उतना प्राप्त नहीं किया, और जब प्राप्त नहीं किया तो मेरे मन में ये बात आती है। मैंने दस लाख का लक्ष्य बनाया था लेकिन दस लाख नहीं मिले, छः लाख मिले, चार लाख डूब गये मेरे, क्या करूँ चार लाख डूब गये। अब वह व्यक्ति असन्तुष्ट हो रहा है। चार लाख डूबे नहीं थे, वह उसने जो सोचा था उतना प्राप्त नहीं किया ये तो ठीक बात है, लेकिन बहुत कुछ प्राप्त भी किया, छः लाख तो मिल गये। अब यहाँ पर वह छः लाख को प्राप्त करके सन्तुष्ट हो सकता था। सन्तुष्ट होना और लोभ को छोड़ देना, इन दोनों को थोड़ा सामने रखकर विचार करेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा। और अधिक प्राप्त करने के लिए मना नहीं किया जा रहा। दोनों को इस तरह समझ सकते हैं। दस लाख प्राप्त करने के लिए लक्ष्य बनाया था वे नहीं मिले, छः लाख मिले। इसका अर्थ है इच्छा में कमी थी, पुरुषार्थ को और बढ़ाना चाहिए था, ज्ञान -विज्ञान के स्तर को और उन्नत करना चाहिए था, साधन और बढ़ाने चाहिएँ थे, तो दस लाख मिल सकते थे। इसलिए जो भी मिला उसमें संतोष करो क्योंकि वह आपके अनुरूप है, जितना आपने किया उसी के अनुरूप मिला है।

          यदि हम इस तरह चलें तो संतोष का भी पालना होता रहेगा व लोभ भी हमारे अन्दर नहीं रहेगा और अधिक प्राप्त करने की चेष्टा निरन्तर करते जायेंगे।

यदि व्यक्ति संतोष का पालन करता है यानि अपनी तृष्णा को, लोभ को समाप्त कर देता है तो जो सुख मिलता है उसके सामने संसार का सारा का सारा सुख सोलहवां भाग भी नहीं होता।

महर्षि दयानन्द सरस्वती जी संतोष के सुख को मुक्ति जैसा सुख लिखते हैं, यानि मुक्ति में जैसा सुख मिलता है वैसा सुख संतोष का है।

          संसार में जितनी भी सम्पत्तियाँ हैं, सब कुछ उसकी सम्पत्तियाँ हैं जिसका मन सन्तुष्ट हो गया है, जिसके मन में लोभ नहीं है। जिसके मन में लोभ नाम की कोई चिड़िया नहीं है सारी दुनिया की सम्पत्तियाँ जैसे उसी की हैं।

संतोष के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि व्यक्ति ईश्वर के न्याय पर पूर्ण विश्वास करे। उसे यह निश्चिंतता होनी चाहिए कि उसके कर्मों का न न्यून न अधिक फल मिलता रहा है और मिलता रहेगा।

3. तप

परिभाषा-जीवन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हानि-लाभ, सुख-दुख, भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों को शान्ति व धैर्य से सहन करने को तप कहते हैं।

आज हम स्वयं को इतना कमजोर कर चुके हैं कि बिना तकिये, बिस्तर, वाहन अर्थात् कार आदि, पंखा, कूलर, ए.सी. कमरा आदि के नहीं रह पाते हैं। अनेक बार हम कुछ भौतिक पदार्थों के लिए आत्म-तत्व को ही छोड़ देते हैं।

तप-पालन के लाभ

  1. शारीरिक, मानसिक एवं आत्मिक सामर्थ्य बढ़ता है।
  2. पहाड़ जैसे दुखों व समस्याओं का सामना करने का सामर्थ्य बढ़ता है।
  3. शारीरिक, मानसिक व आत्मिक विश्वास बढ़ता है।
  4. आत्म-दर्शन व प्रभु-दर्शन के अधिकारी बनते हैं।
  5. असंयम द्वारा दूसरों को कष्ट-पीड़ा-दुख नहीं देने से अहिंसा सुदृढ़ बनती है।

अतपस्वी व्यक्ति को योग की सिद्धि नहीं होती अर्थात वह ईश्वर का दर्शन नहीं कर सकता। आन्तरिक निर्मलता, आन्तरिक पवित्रता बिना तपस्या के नहीं हो सकती। संसार में रहते हुए जिन-जिन पदार्थों, वस्तुओं, व्यक्तियों के साथ हम जुड़े हुए हैं उनको छोड़ नहीं पाते हैं, उनका त्याग नहीं कर पाते हैं। त्याग की भावना हमारे में नहीं आ पा रही है जिसके कारण से हम तपस्या नहीं कर पा रहे हैं। त्याग नहीं, अतः तपस्या नहीं।

          तपस्या का विधान इसलिये किया है कि बिना तप के चित्त की अशुद्धि छिन्न-भिन्न नहीं हो पाती। अनादि काल से हम कर्म करते हुए आ रहे हैं, जो राग व द्वेष के कारण बन रहे हैं। राग या द्वेष से युक्त हो कर जिन कार्यों को हम कर रहे हैं वे हमको ईश्वर से दूर कर रहे हैं। क्लेशों के कारण जिन कर्मों को करते जा रहे हैं उनको करते हुए हमारे मन के ऊपर संस्कार पड़ते हैं, वे भी अनादि काल से पड़ते आ रहे हैं। हमें जिन संस्कारों को मिटाना चाहिये था। जिनको ज्ञान व विवेक रूपी हथौड़े से चोट मार-मार के नष्ट करना चाहिये था उनको और पुष्ट करते जा रहे हैं। खाने के, पीने के, देखने के, हर चीज के, पाँचों विषयों से सम्बन्धित संस्कारों को और पुष्ट करते जा रहे हैं। इतने अधिक संस्कारों को मिटाना हो तो वह बिना तपस्या के हो नहीं सकता।

जैसे ही विषय हमारे सामने उपस्थित होता है, हम चाहते हुए या न चाहते हुए सब कुछ भूलकर के उसके साथ जुड़ जाते हैं।, उसी में लग जाते हैं, छोड़ नहीं पाते, त्याग नहीं कर पाते। जब कोर्इ मनोरम दृष्य सामने आता है तो उसको देखे बिना रह नहीं पाते, उसका त्याग नहीं कर पाते।

कई बार हमकों ऐसा करना पड़ता है कि कोई वस्तु हमारे लिये लाभकारी होते हुए भी उसका त्याग करना पड़ता है।

          यदि आप को पढ़ाई करनी हो तो आप सुख-सुविधाओं के पीछे मत दौड़ो, नहीं तो आप पढ़ नहीं सकते। यदि आप योगार्थी बनना चाहते हो तो आपको सुख को त्याग करना पड़ेगा।

इतना त्याग न करें कि अपका उद्देश्य धरा का धरा रह जाय, इतनी तपस्या न करें कि तपस्या से उद्देश्य ही धूमिल हो जाय। तपस्या करो लेकिन चित्त की प्रसन्नता बनी रहे।

4. स्वाध्याय

परिभाषा– समस्त दुखों से छुड़ाने वाले अर्थात् मुक्ति के बारे में बताने वाले शास्त्रों का अध्ययन करना तथा प्रणव ओम् आदि पवित्र शब्दों-मन्त्रों का जप करना स्वाध्याय कहलाता है।

शास्त्र दो प्रकार के होते हैं।

  1. सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ज्ञान व जीवनयापन करने हेतु विभिन्न शास्त्र।
  2. आत्मा व परमात्मा से सम्बन्धित शास्त्र।

भौतिक-विद्या व आध्यात्मिक-विद्या दोनों का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। केवल भौतिक या केवल आध्यात्मिक विद्या से कोई भी अपने लक्ष्य को पूरा नहीं कर सकता है। अत: दोनों का समन्वय होना अति आवश्यक है।

वेदों में दोनों भौतिक विधा व अध्यात्मिक विद्या है। विद्वान लोग वेदों के अध्ययन को ही स्वाध्याय मानते हैं। कुछ विद्वान लोग ऋषि कृत ग्रन्थों (व्याकरण, निरुक्त आदि, दर्शन शास्त्र, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिष्द आदि) के अध्ययन को भी स्वाध्याय के अन्तर्गत लेते हैं। स्वाध्याय का पालन करने से मूर्खतारूपी अविधा से युक्त होकर की जाने वाली हिंसा का अन्त होता है और हमें मुक्ति-पथ पर आगे बढ़ने में सहायता मिलती है।

स्वाध्याय करने के लाभ

  1. स्वाध्याय करने से जीवन में काम आने वाले पदार्थों का शुद्ध ज्ञान होता है।
  2. हानिकारक वस्तुओं से मिलने वाले दुखों से बचते हैं।
  3. लाभकारक वस्तुओं से मिलने वाले सुख का उपभोग कर सकते हैं।
  4. जीवन में सुखी, शान्त, प्रसन्न, तृप्त रहकर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं।
  5. आत्मा व परमात्मा के दर्शन के अधिकारी बनते हैं।
  6. स्वाध्याय माता के समान सतत् रक्षा करता है, हम पतन से बचे रहते हैं।
  7. एकाग्रता बढ़ती है। ईश्वर के प्रति प्रेम-श्रद्धा-रुचि बढ़ती है।

प्रणव आदि पवित्र वचनों-मंत्रों का जप करना व मोक्ष विषयक ग्रंथों को पढ़ना स्वाध्याय कहलाता है। परमपिता परमात्मा का मुख्य निज नाम प्रणव है। प्रणव क्या है? प्रणव ‘ओ३म्’ को कहते हैं। प्रणव शब्द से ओ३म् का ही ग्रहण होता है। ओ३म् का उच्चारण हम चाहे वाणी से करें चाहे मन से। जब हम उच्चारण करते हैं तो अर्थ की भावना भी करें। जब अर्थ सामने न हो यानि ईश्वर सामने न हो, तब हम अपने मन को इधर-उधर अन्यत्र जिसमें हमारा प्रेम-आकर्षण होता है, लगाव होता है वहाँ ले जाते हैं, उस विषय के बारे में विचार करने लगते हैं। यदि ईश्वर को सामने उपस्थित रखते हैं तो इधर-उधर सोचने पर निश्चित रूप से हम ईश्वर के दण्ड से डरेंगे। जैसे- शिक्षक के सामने बैठकर एक बच्चा पढ़ता है। शिक्षक के सामने शिक्षक की उपस्थिति में अन्य कार्य नहीं करता। ना तो दूरदर्शन को चला सकता है, ना खेल सकता है, ना ही कुछ अन्य कार्यों को कर सकता है। तो शिक्षक के सामने जैसे बच्चा शब्द को बोलते हुए, अर्थ को समझते हुए, शिक्षक की अनुभूति सतत्  बनाए रखता है वैसे ही हमें जप के समय करना होता है। ईश्वर सर्वरक्षक है तो ऐसा सर्वरक्षक है। शक्तिशाली है तो ऐसा शक्तिशाली है। आन्दस्वरूप है तो ऐसा आनन्दस्वरूप् है, इसकी सतत् अनुभूति करते हुए जप करते जाना।

          जप करने से आत्मा का साक्षात्कार होगा, परमपिता परमात्मा का साक्षात्कार होगा। चेतन का अधिगम, चेतन की प्राप्ति, आत्मा की प्राप्ति, परमात्मा की प्राप्ति होती है। इतना ही नहीं उसके साथ में एक महत्वपूर्ण बात और भी कही है, ‘अन्तरायाभावश्च’अर्थात जितनी भी बाधाएँ हैं, जितने भी विघ्न हैं, जिन के कारण से आज हम ईश्वर का दर्शन नहीं कर पा रहे हैं, जप से उन सब विघ्नों को समाप्त किया जा सकता है।

स्वाध्याय के दूसरे अर्थ को बताते हुए महर्षि वेद व्यास जी लिखते है कि मुक्ति को दिलाने वाले शास्त्रों का अध्ययन करो। जब तक हम शास्त्रों का अध्ययन नहीं करेंगे, तब तक हमें वह ज्ञान नहीं मिलेगा, जिस ज्ञान-विज्ञान के माध्यम से हम ईश्वर तक पहुँच सकते हैं।

          व्याधि एक बड़ा जबरदस्त अन्तराय है, विघ्न है, बाधक है, रोड़ा है, जो हमको आगे नहीं बढ़ने दे रहा है। व्याधि के कारण हम रुक जाते हैं। मुक्ति तो बहुत दूर की बात है, आदमी व्याधि के कारण अपने दैनिक कार्यों को भी ढंग से नहीं कर पाता। व्याधियों को दूर करने के लिए हमें जानकारी चाहिए। शरीर के एक-एक अङ्ग से सम्बन्धित जितने भी रोग उभर कर सामने आ रहे हैं, उन समस्त रोगों को मैं कैसे दूर कर सकता हूँ? उन रोगों की जानकारी हमें हो। वे रोग हमें ग्रस्त न करें, बाधा न करें, उसके लिए हमें जानकारी चाहिए। इसलिए स्वाध्याय करना होगा।

          स्त्यान भी एक अन्तराय है, अकर्मण्यता, जी चुराना। उस अकर्मण्यता को दूर करना हो तो कितना ज्ञान चाहिए? मैं अकर्मण्य हूँ या नहीं हूँ, इसकी जानकारी पाने के लिए शास्त्रों से तुलना करनी पड़ेगी। शास्त्रों को पढ़ने से पता चलेगा कि मैं कर्मठ हूँ या अकर्मठ। संशय भी एक अन्तराय है। संसार में कितने संशय हैं, देखियेगा।

          इस तरह एक-एक अन्तराय को दूर करने के लिए विचार करें, तो बहुत जानकारी हमको चाहिए। तो इस प्रकार से जप और शास्त्रों का अध्ययन दोनों को मिलाकर रखेंगे, तो इसका भी एक बहुत ऊँचा परिणाम है।

          ओ३म् का, गायत्री मंत्र का, असतो मा सद्गमय का वा इसी तरह जो मंत्र, जो वाक्य, जो शब्द हमको ज्यादा प्रभावित कर सकते हैं, जिनसे हम सबसे ज्यादा मन लगाकर ध्यान कर सकते हैं उन मंत्रों, उन वाक्यों, उन शब्दों का निरंतर जप करें और मोक्ष-शास्त्रों का अध्ययन करें। यह हमें मुक्ति की ओर ले जाने वाला है।

5. ईश्वर – प्रणिधान

परिभाषा– मन, वाणी व शरीर से करने वाले समस्त कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित करना, उन कर्मों का लौकिक अर्थात् सांसारिक फल न चाहते हुए मुक्ति की इच्छा रखना। प्रत्येक कर्म को करते हुए ‘ईश्वर मुझे देख, सुन व जान रहे हैं, मैं परमेश्वर की उपस्थिति में उपस्थित हो कर कर्म कर रहा हूँ’ ऐसी अनुभूति बनाये रखने को ईश्वर-प्रणिधान कहते हैं।

          इसको प्रारम्भ में बार-बार अभ्यास करके करना चाहिए।

ईश्वर-प्रणिधान के लाभ

  1. ममत्व अर्थात् मैं और मेरे की भावना समाप्त हो जाती है।
  2. प्रत्येक जड़ व चेतन वस्तु में प्रभु का आभास होता है। जिससे सब के साथ समुचित व्यवहार कर पाते हैं।
  3. ईश्वर की आज्ञा के अनुरूप प्रत्येक कार्य को करने के कारण किसी प्रकार का अनुचित -पापकर्म नहीं होता । जिससे ईश्वर-प्रणिधान करने वाला व्यक्ति पूर्ण अहिंसक बनता है।
  4. ईश्वर-प्रणिधान करने वाले व्यक्ति को ईश्वर वरण कर अर्थात् चुन लेता है।
  5. प्रभु अपना दर्शन कराते हैं।

          यदि कोई मनुष्य ईश्वर को प्राप्त करना चाहता है, ईश्वर का दर्शन करना चाहता है तो उसकी विधि क्या होनी चाहिए, उसकी पद्धति क्या होनी चाहिए, किस तरह मनुष्य अपने सांसारिक कार्यों को करते हुए, संसार में रहते हुए, ईश्वर को प्राप्त कर सकता है? योग के आठों अगों को समझाते हुए महर्षि पतञ्जलि जी ने अनेक उपाय ऐसे प्रस्तुत किये जिससे कि आत्मा शीघ्रता से ईश्वर को प्राप्त कर सके। ईश्वर प्रणिधान एक ऐसा उपाय है जिससे जीवात्मा शीघ्रता से ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।

ईश्वर प्रणिधान का अर्थ है – समर्पण करना।

वैसे तो हम लोग समर्पित होने के बारे में बहुत कुछ सुनते हैं और समर्पित करते भी हैं। दूसरों को भी कहते हैं समर्पित हो जाओ। जब अध्ययन की बात आती है, वहाँ पर अध्यापक और विद्यार्थी के बीच में यह समर्पण की भावना आती है। माता-पिता अपने बच्चों को अपने प्रति समर्पित होने के लिए निर्देश करते हैं, हमारे प्रति समर्पित हो जाओ, जैसा हम कहें उसी तरह आपको करना है। अध्यापक अपने विद्यार्थी को कहता है कि समर्पित हो जाओ, जैसा मैं कहूँ वैसा ही करो। हम किसी कार्य को करते हैं, किसी के नीचे काम करते हैं, तो ये कहा जाता है आप हमारे प्रति समर्पित हो जाओ, जैसा हम कहें वैसा करो।

          यानि समर्पण का अर्थ है-आज्ञा का पालन करो, जैसा हम कहें वैसा आप करो। जो कुछ भी हम करते हैं, हर क्रिया को परमगुरावर्पणम्प अर्थात् रम गुरु ईश्वर के प्रति समर्पित कर दो ये ईश्वर-प्रणिधान हो जायेगा।

इसलिए ईश्वर प्रणिधान के लिए यह आवश्यक है कि हम ईश्वरीय आज्ञायों के बारे में जानें। ईश्वर की आज्ञा के अनुसार चलना होगा तो हम हर वक्त ईश्वर को सामने रखेंगे और अपनी वाणी, सोच व कर्मों को अच्छी ओर लगाएंगे। ईश्वरिय आज्ञाओं का पालन करने में उनसे मिलने वाले फल की इच्छा नही करनी चाहिए।

फल को न चाहने का अर्थ क्या है? फल न चाहें ऐसा तो कोई कर नहीं सकता।

जो कुछ भी कार्य करने पर मिलता है-जड़ पदार्थ-उसको ही अंतिम फल समझ कर कार्य करें तो उससे आत्मा को पूर्ण तृप्ति नहीं मिलती।

इसलिये वह फल चाहना, जिस फल को प्राप्त करने से पूर्ण तृप्ति मिले। उस फल को प्राप्त करने की इच्छा रखो जिससे पूर्ण संतोष मिल जाये, पूर्ण संतुष्टि मिल जाये, पूर्ण तृप्ति मिल जाये, पूर्ण प्रसन्नता मिले, पूर्ण निर्भयता की प्राप्ति हो और आनन्द की प्राप्ति हो। फल ऐसा चाहो जिससे आत्मा की अभिलाषा की पूर्ति हो सके। उसकी पूर्ति होती है ईश्वरिय आनन्द को पाने से।

कर्म को ईश्वर के लिए करें, ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त करने के लिए करें। लौकिक पदार्थों को, सांसारिक पदार्थों को, जड़ पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा से यदि हम कर्म कर रहे हैं तो फिर ईश्वरीय आनन्द हमको नहीं मिल पायेगा। कर्मों को जड़ पदार्थों को प्राप्त करने की इच्छा से न करके ईश्वरीय आनन्द को प्राप्त करने के लिए करना चाहिए। श्रीमदभगवद् गीता में वर्णित निष्काम भाव से कर्म करने का भी यहीं अभिप्राय है।

इस बात को समझाने के लिए ऋषियों ने ‘भक्ति-विशेष’ शब्द का प्रयोग किया है।

भक्ति अर्थात् समर्पण अर्थात् आज्ञा पालन

ईश्वर-प्रणिधान के अन्तर्गत अपना सब कुछ-बल, धन, योग्यता, ज्ञान आदि ईश्वर को समर्पित कर दें। व्यक्ति जब ऐसा करने लगता है तो उसको डर लगता है । यदि मैं सब कुछ समर्पित कर दूँ, तो मेरे लिए कुछ बचेगा ही नहीं। मैं और मेरा, ये जो भावना होती है, इसके ऊपर चोट आती है और उसको व्यक्ति छोड़ना नहीं चाहता। इसलिये ऊपर से तो बोल देता है कि ये सब आपका है, लेकिन मानता है अपना। जब अपना मानता है तो अपने लिए बचा कर रखता है। उद्देश्य जड़ पदार्थ रहता है। हम अपने सामने जड़ पदार्थ को रखते हैं, क्योंकि जड़ वस्तु दिखाई भी देती है कि ये मेरे पास है, मकान मेरे पास है, सम्पत्ति मेरे पास है, इतना मेरे पास है। वह सब उसको दिखाई देता है। और जब कहता है कि ये सब आपका है तो सामने वाला यही कहेगा इसको वहाँ दे दो, वहाँ लगा दो, इसका ऐसा कर दो। ईश्वर भी तो यही कहता है, मैं जैसा कहूँगा, वैसा आपको करना है, किन्तु वैसा हम करने के लिए तत्पर नहीं हो पाते।

ईश्वर-प्रणिधान करने पर भी समस्त धन रहेगा तो आपके पास ही, लेकिन उसे ईश्वर की आज्ञा के अनुरूप प्रयोग करना होगा। जैसे उदाहरण के लिए एक मकान में एक किराएदार रहता है। वह किराएदार उस मकान का अधिक से अधिक प्रयोग करता है और उसका अधिक से अधिक सुख लेने का प्रयत्न करता है, लेकिन अपना नहीं मानता। मकान उसी के पास है, वह ही प्रयोग करता है परन्तु उसे अपना नहीं मानता, उसके बारे में उसको कोई चिन्ता नहीं रहती। किसी कारण से बिगड़ भी जाए तो उसको दुख बिलकुल भी नहीं होता। क्योंकि उसने उसे अपना तो कुछ माना ही नहीं था।

अपने जीवन में यह भाव लाने से कि मेरा सब कुछ प्रभु का है एक बहुत बड़ा लाभ होगा कि वो जैसा हमको कहेगा हम वैसा अपने साधनों का प्रयोग करेंगे। जिम्मेदारी अपनी नहीं रहेगी। वो कहेगा कि दान दो तो दान देना पड़ेगा क्योंकि उसकी आज्ञा है। जितना खाने के लिए कहता है उतना खाओ, जिसे न खाने के लिए कहता है उसे मत खाओ। समर्पण का अर्थ हमने किया ‘भक्ति-विशेष’ अर्थात ईश्वर की आज्ञा-पालन।

उसकी आज्ञा के अनुसार चलना होगा तो पूछना पड़ेगा और पूछना हो तो पूछे जाने वाले को सामने रखना होगा। तो ईश्वर-प्रणिधान का दूसरा विभाग है ईश्वर को हर समय सामने रखना। हम ईश्वर को सामने रखते हैं तो एकाग्र बने रहेंगे। मन ईश्वर में रहेगा तो ईश्वर के आदेश को देख-देख के क्रियाओं को करेंगे।

          जैसे छोटा सा बच्चा होता है, उसको जब हम काम कहते हैं, काम कराते हैं तो वो बार-बार हमें देखता रहता है। ठीक करता हूँ? बताओं, ऐसे करूँ? बताओं, ऐसा न करूँ? बताओ, ये ठीक है? बताइए, यहाँ रखना ठीक है? उसको हर बात बतायी जाती है, और वो ऐसे ही करता हुआ अपना कुछ मानता ही नहीं, और उसको कोई परेशानी भी नहीं होती, कोई तनाव नहीं होता, सारी जिम्मेदारी कराने वाले की होती है।

          सब कुछ समर्पण कर दिया, स्वयं का कुछ नहीं रखा। मैं -मैं नहीं रहा मैं आप हो गया, अब आप जो कहेंगे मुझे वैसा ही करना है। मेरा अस्तित्व होते हुए भी नहीं रहा, मैंने आपको ही समर्पित कर दिया। अब आपकी भक्ति अर्थात् आज्ञापालन में ही तत्पर रहूँगा। बतायें मुझे क्या करना है? यह है समर्पण। इस तरह यदि हम ईश्वर-समर्पण करेंगे तो निश्चित रूप से ईश्वर का दर्शन होगा, यही हमको करना है।

जब हम ईश्वर – समर्पण करेंगे अथवा उसकी आज्ञा पालन करने में तत्पर रहेंगे तो मुक्ति-पथ पर हमारी प्रगति बड़ी तेज़ होगी।

अष्टांग योग: यम नियम  आसन  प्राणायाम  प्रत्याहार  धारणा  ध्यान  समाधि