योग का तीसरा अङ्ग – आसन

 

आसन का बाह्य स्थूल रूप शारीरकि है, किन्तु यह आगे की मानसिक साधना धारणा, ध्यान, समाधि का आधार बनता है।

          आज आसन को योग का पर्याय और आसन का मुख्य उद्देश्य शरीर को रोग मुक्त करना माना जाने लगा है। आज योग के क्षेत्र में आसन का जितना व्यापक प्रचार-प्रसार है, उतना अन्य बातों का नहीं है। आजकल आसन के नाम से जो क्रियायें करवाई जाती हैं उन्हें दो भागों में बांटकर देखें तो स्पष्टता रहती है। कुछ आसन शारीरिक -मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद हैं, जबकि कुछ का मुख्य उद्देश्य प्राणायाम, धारणा, ध्यान व समाधि को शारीरिक बाधा रहित करने के लिए शरीर की उपयुक्त स्थिति बनाना है। महर्षि पतञ्जलि ने योग के तीसरे अङ्ग में दूसरे प्रकार के आसनों को समाहित किया है। यह उनकी आसन की परिभाषा से स्पष्ट होता है।

आसन की परिभाषा से शरीर की स्थिरता कही गई है एवं स्थिरता के साथ-साथ बैठना सुखपूर्वक भी होना चाहिए यह कहा गया है।

          ध्यानात्मक आसनों की स्थिति में शरीर को सीधा रखना अर्थात् गर्दन, छाती व कमर को सीधी रेखा में रखना होता है। शरीर को सीधा रखते हुए ढीला- शिथिल छोड़ना होता है। शरीर को अकड़ा कर नहीं रखना होता है।

          यदि कोई व्यक्ति असमर्थ है, चाहे अवस्थाधिक्य के कारण या रोग के कारण, उसके लिए सोपाश्रय, पर्यङ्क जैसे आसनों का भी विधान किया है। चलते-फिरते, उछलते – कूदते, नाचते-गाते हुए ध्यान नहीं हो सकता। ध्यान के लिए बैठना आवश्यक है। मन को अगतिशिल र्इश्वर में लगाना तभी सम्भव है जब हम अपने शरीर को स्थिर अथवा अचल करें। चल-गति अवस्था में हम पूर्ण एकाग्र नहीं हो सकते। अचलता से ही पूर्ण एकाग्रता मिलती है। उछलते, कूदते-नाचते हुए मन को पूरा रोकना, पूर्ण एकाग्र करना सम्भव ही नहीं है। यदि हम शरीर में गति करते रहे तो मन में भी गति होगी ही, गति करते समय जो बोध होगा वह भी मन में रहेगा अर्थात् मन में वृत्तियाँ रहेंगी। मन में अन्य वृत्तियाँ रहेंगी तो ईश्वर का सम्यक् ध्यान नहीं हो पायेगा। सम्यक् ध्यान करने के लिए सम्यक् आसन लगाना ही होता है।

योगी खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, लेटे हुए, बात करते, किसी भी कार्य को करते हुए सतत् ईश्वर की अनुभूति बनाए रखते हैं। ईश्वर की उपस्थिति में ही समस्त कार्यों को करते हैं। किन्तु इसे ईश्वर-प्रणिधान कहते हैं, यह समाधि नहीं है। समाधि व ईश्वर-प्रणिधान अलग-अलग हैं, कोई यह न समझे कि योगी चलते-फिरते समाधि लगा लेता है। समाधि के लिए तो योगियों को भी समस्त वृत्तियों को रोककर मन को पूर्ण रूप से ईश्वर में लगाना होता है, जिससे समाधि लग सके और इसके लिए शरीर की स्थिरता आवश्यक है।

          महर्षि पतंजलि द्वारा प्रतिपादित आसन का मुख्य उद्देश्य समाधि को प्राप्त करना है। आसन करने पर गौण रूप से शारीरिक लाभ होते हैं, परन्तु कोई यह न समझे कि आसन का मुख्य उद्देश्य शरीर को रोग मुक्त करना है। हाँ, बड़े लक्ष्य की पूर्ति के लिए छोटे लक्ष्यों को सामने रखकर चलें, तो कोई बाधा नहीं होगी। छोटे लक्ष्य को ही बड़ा व अंतिम लक्ष्य मान लें तो उचित नहीं होगा। यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाये तो प्रतीत होता है कि मनुष्य जो कोई भी उचित क्रिया करता है, जिस क्रिया को करने से उद्देश्य बाधित नहीं होता है, तो मानो वह क्रिया समाधि के लिए ही की जा रही है।

अष्टांग योग: यम  |  नियम  |  आसन   |   प्राणायाम   |   प्रत्याहार   |   धारणा   |   ध्यान   |   समाधि