योग का चौथा अङ्ग – प्राणायाम

 

         योग का चौथा अङ्ग प्राणायाम है। प्राण किसे कहते हैं? चारों वेद और ब्राह्मणों में प्राण को वायु भी कहा है। इस प्राण-अपान वायु के रोक देने का प्राणायाम कहते हैं। ये चार ही प्रकार के होते हैं। पहले इसके लाभ पर विचार करते हैं।

          प्राणायाम करके दोषों को जला दो या नष्ट कर दो। दोष किसे कहते हैं? योगदर्शन पाँच प्रकार के दोषों का वर्णन करता हैं-

          ‘अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष अभिनिवेश’।

          प्राणायाम से प्रकाश का आवरण नष्ट होता है। प्रकाश अर्थात् ज्ञान, विवेक, वैराग्य। ज्ञान के उत्कृष्टतम स्तर ही से वैराग्य उपजता है। इसी ज्ञान का आवरण जो अज्ञान है, इसको प्राणायाम नष्ट कर देता है।

बहुत लोग बहुत-बहुत देर तक सांस रोके रखते हैं, सरिया आदि मोड़ते हैं, किन्तु ऐसा नहीं कि उन सबका अज्ञान नष्ट होकर उन्हें विवेक-वैराग्य हो जाता हो। शारीरिक चमत्कारों को अभ्यास पूर्वक कोई भी कर सकता है। पतज्जलि जी कहते हैं कि प्राणायाम से सांस रोको तो इससे प्रकाश का आवरण नष्ट हो जाता है। कैसे? इसे समझना है।

प्राणायाम से ज्ञान का आवरण जो अज्ञान है, नष्ट होता है। ज्ञान के उत्कृष्टतम स्तर से वैराग्य उपजता है। कपाल-भाति, अनुलोम-विलोम आदि प्राणायाम नहीं बल्कि श्वसन क्रियाएं हैं। ये क्रियाएं हमें अनेकों रोगों से बचा सकने में सक्ष्म है परन्तु इन्हें अपने आहार-विहार को सूक्ष्मता से जानने-समझने व जटिल रोगों में आयुर्वेद की सहायता लेने का विकल्प समझना हमारी भूल होगी। प्राणायाम सबके लिए महत्त्वपूर्ण व आवश्यक क्रिया है। प्राणायाम में प्राणों को रोका जाता है प्राणायाम चार ही है जो पतंजलि ऋषि ने अपनी अमर कृति योग दर्शन में बताए हैं।

यदि प्राण को या सांस को तो रोक दिया परन्तु मन पर ध्यान नहीं दिया तो अज्ञान इस प्रकार नष्ट नहीं होता। प्राणों के स्थिर होते ही मन स्थिर हो जाता है। स्थिर हुए मन को कहां लगायें? पैसे में मन को लगायें तो पैसा मिलता है। मकान में लगायें तो मकान प्राप्त हो जाता है। अज्ञान के कारण परम्परागत रूप से मन दुनिया के राग-रंग में ही लगा रहा तो हम निरन्तर जन्म-मरण ही को प्राप्त होते रहेंगे। यदि हमें अपने लक्ष्य का ज्ञान हो जाये तो हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लें, किन्तु हमारी आज यह स्थिति बन ही नहीं पा रही है। इसलिये यदि आप वेदवर्णित लक्ष्य ‘मोक्ष’ प्राप्त करना चाहते हैं तो प्रकाशावरण को प्राणायाम के द्वारा नष्ट कर दीजिये। प्राणों को अधिकार में करने पर मन भी वश में आ जायेगा। वश में हुए मन को आत्मा में लगाने से ‘आत्म-साक्षात्कार’हो जायेगा। परमात्मा में लगाने से ईश्वर साक्षात्कार हो जायेगा।

          हमारे शरीर में 600 खरब कोशिकाएं हैं। इन कोशिकाओं को प्राण से ही जीवनी-शक्ति मिलती है। इन समस्त कोशिकाओं को प्राणवायु की पूर्ण पूर्ति प्राणायाम से ही संभव है। यह प्रक्रिया सामान्य रूप से संभव नहीं है।

          सभी रोगों को प्राणायाम द्वारा समाप्त नहीं किया जा सकता। पूर्ण स्वस्थ रहने के लिए तो हमें अपने आहार-विहार को सूक्ष्मता से जानना-समझना तथा जटिल रोगों में आयुर्वेद का आश्रय लेना अति आवश्यक है। यदि हम प्रारम्भ में श्वास-प्रश्वास वैज्ञानिक विधि अर्थात् प्राणायाम द्वारा लेना सीख जायें तो अच्छे स्वास्थ्य की नींव रखी जा सकती है।

हम प्रतिदिन न जाने कितनी बार अपने प्राणों को वश में रखते हैं। इसके साथ ही मन भी उतनी ही बार वश में होता रहता है। इस स्थिर हुए मन को हम संसार में लगाकर संसारिक सुखों को प्राप्त करते हैं।

जो यह कहता है कि मन वश में नहीं आता तो इसका अर्थ यह है कि आत्मा या परमात्मा में उसकी रुचि या श्रद्धा नहीं है। टी.वी. का मनपसन्द सीरियल हम एक-दो घण्टे तक मनोयोग पूर्वक कैसे देख पाते हैं यदि मन हमारे वश में न होता! इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारा मन पर नियन्त्रण का अभ्यास तो परिपक्व है किन्तु यह केवल सांसारिक विषयों में ही है। अत: हमें मनोनियन्त्रण की शक्ति को केवल परिवर्तित विषय पर लगाने की आवश्यकता है अर्थात इसका केन्द्र आत्मा और परमात्मा को ही बनाना है।

शास्त्र कहता है कि प्राणायामों से इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं। सात व्याहृतियों ओम् भूः, ओम् भुवः आदि प्राणायाम मन्त्र को तप पूर्वक अर्थात् थोड़ा-थोड़ा कष्ट सहन करते हुए बढ़ाते रहना चाहिये। कुछ लोग एक बार में ही बहुत बड़ा सामर्थ्य प्राप्त करने की चेष्टा में हानि उठा लेते हैं। इससे योग की कुख्याति भी होती है। इसलिये प्राणों को रोकने की अपनी सामर्थ्य थोड़ी-थोड़ी धैर्यपूर्वक बढ़ानी चाहिये। जब बढ़ा हुआ सामर्थ्य सामान्य प्रतीत होने लगे तो इसे और बढ़ा लेना चाहिये जिससे कि कष्ट की या तप की मात्रा घटे नहीं।

          प्राणायाम करने से पूर्व कुछ महीने व्यायाम करना चाहिये। स्वामी दयानन्द ने कहा है कि जैसे वमन करने से पेट का समस्त भोजन झटके से बाहर निकल जाता है उसी प्रकार श्वास को बलपूर्वक बाहर निकाल कर बाहर ही रोक दो। यदि हम ऐसा करें तो हमें निश्चित रूप से लाभ होगा। श्वास को झटके से बाहर निकालकर रोकने की विधि का उपयोग अपने सामर्थ्यानुसार ही करना चाहिये। हो सकता है कि आपके फेफड़े उस झटके को सहन न कर सकें और फेफड़ों के प्रकोष्ठ फट जायें। फिर तो बड़ी हानि होगी। इसलिये पहले कुछ महीने व्यायाम करके अपने श्वसन-तंत्र को दृढ़ बना लेना चाहिये ताकि वह उस झटके को सहन कर सके।

          संसार में विद्या-प्राप्ति के अनेक केन्द्र दिन पर दिन बढ़ते जा रहे हैं। क्यों? क्योंकि वहां पर योग्य अध्यापकों के द्वारा उन्हें उच्च शिक्षा प्रदान की जा रही है। ज्ञान विद्वान् के अधिकार में होता है। वह विद्वान् ही अपनी पढ़ाने की विशिष्ट शैली में छात्रों को ज्ञान हृदयङ्गम कराता है। फिर पता नहीं क्यों प्राणायाम जैसे सूक्ष्म विज्ञान को हम किसी योग्य व्यक्ति से सीखने का प्रयास न करके, किसी से भी सुनकर स्वयं ही उलटा-सीधा करने लग जाते हैं और लाभ की अपेक्षा हानि उठाने लगते हैं। ज्ञान तो सारा पुस्तकादि साधनों में भरा पड़ा है, किन्तु उसे व्यवस्थित करके हमारे मस्तिष्क में तो अध्यापक ही बिठा सकता है।

इसलिये किसी भी विद्या को सीखने के लिए ‘क्रिया एवं कारणं सिद्धेःʼ को मानना पड़ेगा। क्रिया को वही बता सकता है जिसे उसका अनुभव हो। प्राणायाम के प्रयोग द्वारा हमारा जीवन और अधिक लम्बा होगा। जीवन लम्बा होगा तो मोक्ष प्राप्ति के प्रयत्नों के लिए अधिक समय प्राप्त होगा और हम अपने लक्ष्य के और अधिक निकट होंगे।

          प्राणायाम एक मूल्यवान क्रिया है। इसका प्रभाव बहुत व्यापक है। गंभीर योग-साधक हो या प्रारंभिक योगाभ्यासी, शारीरिक स्वास्थ्य का इच्छुक हो या मानसिक स्वास्थ्य का, बालक हो या वृद्ध, युवा हो या प्रौढ़, स्त्री हो या पुरुष, बुद्धिजीवी हो या श्रमजीवी यह सबके लिए महत्वपूर्ण व आवश्यक क्रिया है।

यदि मात्र प्राणायाम काल को दृष्टिगत रखें तो उस समय अधिक प्राण का ग्रहण नहीं होता। प्राणायाम के समय तो श्वास-प्रश्वास को रोक दिया जाता है, फलत: वायु की पूर्ति कम होती है, किन्तु प्राणायाम से फेफड़ों में वह क्षमता उत्पन्न होती है कि व्यक्ति सम्पूर्ण दिन में अच्छी तरह श्वास-प्रश्वास कर पाता है।

प्राणायाम के शारीरिक लाभ भी बड़े व्यापक हैं। व्यक्ति स्वस्थ तभी कहलाता है जब शरीर की सभी प्रणालियाँ सामंजस्य पूर्वक समुचित रीति से कार्य कर रही हों।

          शरीर की स्वस्थता का सुप्रभाव मन-बुद्धि पर भी बहुत अधिक पड़ता हैं। प्राणायाम हमारे शरीर के सभी तंत्रों अर्थात् SYSTEMS को तो व्यवस्थित रखता ही है इससे हमारी बुद्धि भी अति सूक्ष्म होकर मुश्किल विषयों को भी शीघ्रता से ग्रहण करने में सक्षम हो जाती है।

          आध्यात्मिक प्रगति के एक मुख्य बाधक ‘अज्ञान-अविवेक’का क्षय प्राणायाम से होता है। आध्यात्मिक प्रगति के एक मुख्य साधन ‘धारणा’ लगाने की मानसिक क्षमता प्राणायाम से बढ़ती है। प्राणायाम हमारे शारीरिक और बौधिक विकास के साथ-साथ हमारी अध्यात्मिक उन्नति में भी अत्यन्त सहायक है। प्राणायाम द्वारा हमारे श्वसन तंत्र की कार्य क्षमता बढ़ती है।

महर्षि दयानन्द लिखते हैं कि जैसे धार्मिक न्यायाधीश प्रजा की रक्षा करता है, वैसे ही प्राणायामादि से अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए प्राण योगी की सब दु:खों से रक्षा करते हैं।

          सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में प्राणायाम के लाभ का विस्तार करते हुए लिखा है कि -‘प्राण अपने वश में होने से मन और इन्द्रियाँ भी स्वाधीन होते हैं। बल-पुरुषार्थ बढ़कर बुद्धि तीव्र सूक्ष्मरूप हो जाती है कि जो बहुत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण करती है। इससे मनुष्य शरीर में वीर्य वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर, बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता, सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझकर उपस्थित कर लेगा। स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे’।

प्राणायाम की परिभाषा- प्राण का अर्थ है वायु और आयाम का अर्थ है रोकना। अर्थात् वायु को रोकने का नाम प्राणायाम है। वायु को चार प्रकार से रोका जाता है।

प्राणायाम के लिए आवश्यक निर्देश

1.       प्राणायाम पेट एवं बड़ी आंतें खाली होने पर ही करना चाहिए।

2.       भोजन के न पचने, मल त्याग न होने पर प्राणायाम न करें।

3.       प्राणायाम करने का उपयुक्त काल प्रातः काल है।

4.       यदि आहार पच गया हो व मलशुद्धि हो गई हो तो सायं-काल भी कर सकते हैं।

5.       भोजन करने के कम से कम 4-5 घण्टों के उपरान्त ही प्राणायाम करना चाहिए।

6.       स्नान करने के बाद प्राणायाम करना अधिक उपयुक्त हैं।

7.       वस्त्र ऋतु के अनुरूप एवं ढीले होने चाहिएँ।

8.       प्राणायाम का स्थान शुद्ध, एकान्त, वायु के गमनागमन वाला हो। प्राणायाम जिधर से वायु का आगमन हो रहा हो उधर मुख करके करना चाहिए।

9.       अपनी अवस्था (बालक, किशोर, युवा, प्रौढ़ व वृद्ध) को देखकर प्राणायाम करें।

10.     बालक, किशोर एवं वृद्ध समान अर्थात् अल्प से मध्यम मात्रा में अर्थात् 3 से 10 प्राणायाम कर सकते हैं

11.     युवा व प्रौढ़ एक समान अर्थात् मध्यम से पूर्ण मात्रा में अर्थात् 11 से 21 प्राणायाम कर सकते हैं।

12.     शरीर के सामर्थ्य को देखकर प्राणायाम करें।

13.     कम से कम तीन प्राणायाम हर अवस्था वाले एवं स्त्री-पुरुष सब कर सकते हैं।

14.     इक्कीस प्राणायाम से अधिक न करें।

15.     प्राणायाम की संख्या प्रमुख नहीं है। विधि एवं शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव प्रमुख हैं। अतः विधि व कुशलता पर विशेष ध्यान देवें।

16.     प्राणायाम करते समय शरीर भारी बने, या सिर दर्द होने लगे, चक्कर आने लगे, तो प्राणायाम न करें।

17.     अत्यन्त दुर्बल अवस्था, रोग (ज्वर आदि) अवस्था में प्राणायाम न करें।

18.     प्राणायाम करने वालों के भोजन में सभी तत्व (विटामिन, खनिज, लवण, प्रोटीन, चिकनाई आदि) होने चाहिएँ।

19.     शीत ऋतु में अधिक, ग्रीष्म ऋतु में कम मात्रा में एवं वर्षा ऋतु में बीच की मात्रा में प्राणायाम करना चाहिए।

20.     बुद्धिनाशक, मदकारी व तामसिक पदार्थों (शराब, अफीम, ब्राउन शुगर, ड्रग्स, पेप्सी आदि) का सेवन न करें।

21.     नये व्यक्ति को प्रारम्भ में प्रथम प्रकार का प्राणायाम (बाह्य प्राणायाम) ही करना चाहिए। अभ्यास करते हुए बाद में दूसरे व तीसरे प्रकार के प्राणायाम (आभ्यन्तर व स्तम्भवृत्ति प्राणायाम) कर सकते हैं।

22.     प्राणायाम नथुनों के माध्यम से ही करें। मुख से न करें।

23.     प्राणायाम करते समय हाथ से नथुनों को बन्द करने का प्रयास सर्वथा न करें। हाथ से पकड़े बिना, मात्र संकल्प से करें।

24.     अच्छे प्रशिक्षक से सीख कर ही प्राणायाम करें।

25.     एक बार प्राणायाम को करके तत्काल दूसरी व तीसरी बार करना नये व्यक्ति के लिए कठिन होता है। अतः एक बार करके 3-4 सामान्य श्वास-प्रश्वास ले लेवें। पुनः अगला प्राणायाम करें।

26.     निरन्तर अभ्यास व कुशलता की स्थिति में प्राणायाम लगातार कर सकते हैं।

27.     प्राणायाम करते समय मन को खाली न रखें। मन को प्राण के साथ जोड़कर, प्राणों को अपने अधिकार में करने हेतु भावना एवं प्रभु से यह प्रार्थना करें कि हे प्राण प्रदाता! मेरे प्राण मेरे अधिकार में हों। प्राण के अनुसार चलने वाला मेरा मन मेरे अधिकार में हो।

28.     प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य मन को रोक कर आत्मा व परमात्मा में लगाना एवं उनका साक्षात्कार करना है, ऐसा मन में रख कर प्राणायाम करें।

29.     प्राणायाम के काल में परमेश्वर का जप व ध्यान सतत् करते रहें।

प्राणायाम करते समय प्रभु का ध्यान

          मन को अपने शरीर के किसी एक स्थान-मस्तक, भ्रूमध्य, नासाग्र, जिह्वाग्र, कण्ठ, हृदय अथवा नाभि में लगा कर वहाँ पर स्थित परमेश्वर के साथ आबद्ध होना है। वहीं पर पवित्र ओम् आदि शब्द अथवा गायत्री आदि मन्त्रों अथवा असतो मा सदगमय आदि वाक्यों से जप करना है। उच्चारण के साथ अर्थ को समझते हुए प्रभु को अपने समक्ष सतत् उपस्थित स्वीकार करना है। प्रभु में ही एकाग्र होना है। साथ में ईश्वर से सतत् प्रार्थना करनी है कि हे दुःख हर्ता! मेरे त्रिविध दुःखों को दूर कर मुझे मोक्ष-सुख की ओर ले चलो। मेरे समस्त विकारों (राग, द्वेष आदि) को दूर करके मुझे प्रेम, दया, उपकार, आत्मीयता आदि शुभ गुणों की प्राप्ति करा दो। मुझ को मृत्यु से छुड़ा दो, अपने अमृत का पान करा दो।

प्राणायाम करने की विधि

1.       बाह्य प्राणायाम

विधि-किसी एक आसन (सिद्धासन, पद्मासन, स्वस्तिकासन या सामान्य पालथी) में बैठ जावें। कमर, छाती, गर्दन व सिर को सीधी रेखा में रखें। दोनों हाथों को एक मुद्रा (ज्ञान-मुद्रा अर्थात् अंगूठे तथा तर्जनी को गोल बनाते हुए दोनों के अग्रभाग को मिलाके रखें। स्पर्श कोमल रखें कठोर बनाकर न रखें। बाकी अंगुलियों को मिला के सीधा करके रखें। मुद्रा बनाकर हथेलियों को ऊपर आकाश की दिशा में करके हाथ को घुटनों के ऊपर रखें वा द्रोण-मुद्रा अर्थात् हाथों की अंगुलियों को परस्पर मिलाएँ। हथेली के बीच में गड्ढ़ा-सा बनायें। हथेली कटोरा- सी लगे। अब हथेलियों को भूमि की ओर मोड़कर घुटनों के ऊपर रखें।) बना कर घुटनों के ऊपर रखें। शरीर को अच्छी प्रकार स्थिर व एकाग्र करें। धैर्य एवं उत्साह से श्वसन-तन्त्र के नियम के अनुसार अन्दर के प्राण को धीरे-धीरे बाहर निकालें। पूरा प्राण बाहर निकाल कर, प्राण को बाहर ही रोके रखें। जालन्धर-बन्ध, (ठोड़ी को छाती के साथ), उड्डीयान-बन्ध,  (पेट को अन्दर ले जावें) और मूल-बन्ध (गुदा इन्द्रिय को ऊपर खींच कर रखें) लगाकर  यथासामर्थ्य प्राण को बाहर रोके रखें। सामर्थ्य पूरा हो (थोड़ी घबराहट-बेचैनी होने तक) जाये तो तीनों बन्धों को (पहले मूलबन्ध को फिर उड्डीयान-बन्ध  को तथा फिर जालन्धर बन्ध को) छोड़े। धीरे-धीरे बाहर के प्राण को श्वसन-तन्त्र के नियम के अनुसार ही अन्दर लेवें। सामन्य स्थिति में आ जावें। तीन-चार बार श्वास-प्रश्वास ले कर पुनः ऐसा ही करें। इस प्रकार कम से कम तीन बार अवश्य करें। लम्बे अभ्यास के द्वारा संख्या को बढ़ा सकते हैं।

नोट- ये विचार स्वामी विष्वङ्ग जी की पुस्तक ‘योग’ से लिए गए हैं। इस पुस्तक में उन्होंने लिखा हुआ है कि ये बन्ध ‘योग दर्शन’ या उसके ऋषि-कृत भाष्य में उल्लेखित नहीं हैं। परन्तु, क्योंकि ऋषि दयानन्द जी ने बाह्य प्राणायाम में मूलबन्ध से होने वाले लाभ का उल्लेख किया है, इसलिए उन्होंने दूसरे दो बन्धों को भी बाह्य प्राणयाम के दौरान करने की बात लिखी है। हालाँकि, स्वामी विष्वङ्ग जी स्वयं बहुत उच्च कोटि के विद्वान हैं परन्तु फिर भी अन्य विद्वानों की मान्यता है कि क्योंकि ‘योग दर्शन’ में महर्षि पतंजलि ने किसी बन्ध का विधान नहीं किया व ऋषि दयानन्द जी ने बाह्य प्राणायाम के दौरान केवल मूलबन्ध का ही विधान किया है, इसलिए उड्डयान बन्ध व जालंधर बंध को बाह्य प्राणायाम करते समय नहीं लगाना चाहिए। 

सावधनियाँ

1.       जब प्राण अन्दर लेना चाहते हैं, तो पेट को कुछ बाहर की ओर करें, इस समय तनुपट (डायाफ्राम) नीचे की ओर खिसकेगा। तब प्राण को भरते जाएँ एवं छाती को फुलाते जाएँ। छाती को फुलाते समय पेट की ओर ध्यान न दें अर्थात् उस समय पेट बाहर की ओर न निकालें। छाती को फुलाते ही हंसली ऊपर उठेगी। इसी स्थिति में प्राण को अच्छी तरह व अधिक अन्दर भर सकते हैं। यदि ऐसा न करें तो प्राण अन्दर कम ही जा पायेगा। इसी प्रकार अन्दर स्थित प्राण को बाहर निकालना हो, तो ठीक उससे विपरीत स्थिति होगी कि पहले छाती को ढ़ीला छोड़ देवें। हंसली अपने स्थान पर आ जाएगी तथा पेट को अन्दर कर लेवें, जिससे तनुपट अपने स्थान पर आ जाएगा। इस स्थिति में अन्दर के अशुद्ध प्राण को अधिक से अधिक बाहर निकाल पाएंगे।

2.       नथुनों से ही प्राण को बाहर निकालें व अन्दर भरें, मुख से नहीं।

3.       त्रिविध बन्ध लगाने के प्रयास में प्राणायाम विधि का त्याग न करें।

4.       जो व्यक्ति 1 मिनट में 15 से 18 बार तक श्वास-प्रश्वास लेते हैं, वे कुछ तीव्रता से प्राण को बाहर निकाल सकते हैं। जो व्यक्ति 1 मिनट में 18 से अधिक बार श्वास-प्रश्वास लेते हैं, वे धीरे-धीरे ही प्राण को बाहर निकालें।

5.       प्राण को अन्दर लेते समय सभी को धीरे-धीरे ही लेना चाहिए।

6.       प्राण अन्दर लेते समय प्रायः धैर्य छूट जाता है। तेजी के साथ प्राण को अन्दर खींचते हैं। ऐसा बिल्कुल न करें।

7.       जबरदस्ती न करें। अधिक देर तक रोकने में शक्ति न लगा कर विधि में शक्ति लगावें, कुशलता के प्रति ध्यान देवें।

8.       प्राणायाम के काल में निरन्तर मन्त्र ओम् भू: (ईश्वर प्राणाधार है), ओम् भूव: (ईश्वर दुखों को हरने वाला है), ओम् स्व: (ईश्वर सुख देने वाला है) ओम् मह: (ईश्वर महान है), ओम् जन: (ईश्वर सृष्टि कर्त्ता है व जीवों को उनके कर्मों के अनुसार उचित शरीरों के साथ संयोग करता है।), ओम् तप: (ईश्वर दुष्टों को दुख देने वाला है), ओम् सत्यम् (ईश्वर अविनाशी सत्य है) का अर्थ सहित जप करें।

9.       मन को पूर्ण अधिकार में रखने का सतत् प्रयास करें।

10.     अधिकृत मन को आत्मा व परमात्मा में लगावें।

11.     अपने जीवन के उद्देश्य को सामने रखें।

12.     निरन्तर अभ्यास करते हुए ही समय की अवधि को बढ़ावें।

13.     किसी भी ऋतु में कर सकते हैं।

2. आभ्यन्तर प्राणायाम

विधि- बाह्य प्राणायाम के समान आसन की स्थिति बना लेवें। बाहर के प्राण को धीरे-धीरे लयबद्ध क्रम से अन्दर लेते जावें। जितना भर सकते हैं, उतना पूरा भर कर अन्दर ही रोके रखें। सामर्थ्य पूरा हो (थोड़ी घबराहट -बेचैनी होने तक) जाये, तो धीरे-धीरे लयबद्ध क्रम से प्राण को बाहर निकालें। तीन-चार बार सामान्य श्वास-प्रश्वास लेवें। पुनः ऐसे ही प्राणायाम करें। कम से कम तीन बार करें।

नोट- अन्य विद्वानों की मान्यता है कि  किसी भी प्राणायाम के दौरान कोई भी बन्ध नहीं लगाना चाहिए। 

सावधानियाँ

1.       बाह्य-प्राणायाम की सावधनियाँ आभ्यन्तर-प्राणायाम में भी समझ लेवें।

2.       इसमें प्राण को लेते समय व निकालते समय धीरे-धीरे ही लेना व निकालना है।

3.       इस प्राणायाम में एक ही बन्ध (जालन्धर बन्ध) लगा सकते हैं।

4.       ग्रीष्म ऋतु में अधिक न करें।

5.       बाह्य प्राणायाम की अपेक्षा इस प्राणायाम में प्राण को अधिक काल तक अन्दर रोक सकते हैं।

3. स्तम्भवृत्ति प्राणायाम

विधि- बाह्य प्राणायाम के समान आसन की स्थिति बना लेवें। अपने मन को दोनों नथुनों के मध्य में लगावें। निरन्तर चलने वाले श्वास-प्रश्वास  की अनुभूति करें। अनुभूति होगी कि श्वास के द्वारा प्राण अन्दर जा रहा है व प्रश्वास के माध्यम से बाहर निकल रहा है। अन्दर जाता हुआ प्राण अपेक्षाकृत ठण्डा लगेगा, बाहर निकलता हुआ प्राण अपेक्षाकृत गरम लगेगा। श्वास-प्रश्वास की गति का अनुभव अच्छी तरह हो जावे, तो अन्दर का अन्दर व बाहर का बाहर ही रोके रखें। अन्दर से बाहर निकलने वाले प्राण को बाहर न निकलने देवें। बाहर से अंदर आने वाले प्राण को अंदर न लेवें। यथासामर्थ्य रोक कर छोड़ देवें। कुछ क्षण सामान्य श्वसन करते रहें, पुनः द्वितीय बार इसी प्राणायाम को करें। इस प्रकार कम से कम तीन बार प्राणायाम करें।

सावधानियाँ

1.       बाह्य-प्राणायाम के समान जप आदि मन में चलता रहे।

2.       जबरदस्ती न करें।

3.       किसी भी ऋतु में कर सकते हैं।

4.       मार्ग में आते-जाते हुए दुर्गन्ध आदि की स्थिति में भी इस प्राणायाम को करके अशुद्ध वायु से बचा जा सकता है।

4. बाह्याभ्यन्तर विषयाक्षेपी प्राणायाम

विधि- बाह्य-प्राणायाम के समान आसन की स्थिति बना लेवें। बाह्य-प्राणायाम की विधि के अनुसार प्राण को बाहर निकाल कर बाहर ही रोके रखें। त्रिविध-बन्ध न लगावें। सामर्थ्य पूरा हो जावे, तो बाहर से प्राण को अन्दर न लेवें। बल्कि धक्का दे कर अन्दर बचे हुए प्राण को बाहर निकाल कर बाहर रोके रखें। कुछ देर बाद पुनः अन्दर लेने की इच्छा हो तो अन्दर न ले कर पुनः बाहर धक्का दे कर बाहर ही रोके रखें। इस प्रकार एक, दो, तीन बार करने के उपरान्त प्राण को धीरे-धीरे लायबद्ध क्रम से अन्दर लेवें। पूरा भर कर फिर अन्दर ही रोके रखें। सामर्थ्य के अनुसार रोक कर बाहर निकालने की इच्छा हो, तो बाहर न निकालें। बल्कि बाहर से प्राण को और अन्दर भर कर अन्दर ही रोके रखें। कुछ देर बार पुनः बाहर निकालने की इच्छा हो जाये तो बाहर से प्राण को और भर लेवें। इस प्रकार एक, दो, तीन बार करके धीरे-धीरे प्राण को बाहर निकालें। सामान्य स्थिति में आ जावें। अपने सामर्थ्य के अनुसार इस प्राणायाम को एक बार, दो बार या तीन बार तक करें।

सावधानियाँ

1.       यह प्राणायाम अत्यन्त कठिन व परिश्रम साध्य है।

2.       वर्षों के अभ्यास से सम्भव है।

3.       पहले क्रम से प्रथम तीन प्राणायामों (बाह्य, आभ्यन्तर, स्तम्भवृत्ति) का अभ्यास वर्षों तक कर कुशलता को प्राप्त करके चौथा प्राणायाम करना चाहिए।

चारों प्राणायामों के लाभ

1.       प्राणायामों का प्रमुख लाभ मन की पूर्ण एकाग्रता है, मनोनियन्त्रण है।

2.       एकाग्र हुए मन को आत्मा व परमात्मा में लगा कर आत्म-दर्शन एवं प्रभु-दर्शन कर पा सकना।

3.       मन को एकाग्र व अपने अधिकार में करने से नाड़ी -तंत्र अर्थात् नर्वस् सिस्टम सुव्यवस्थित होता है।

4.       श्वसन-तन्त्र अर्थात् रेस्पिरेटरी सिस्टम सुव्यवस्थित होता है।

5.       शरीर के मुख्य तंत्र अर्थात् नर्वस् सिस्टम के व्यवस्थित होने से अन्य तन्त्र (पाचन तन्त्र, रक्त परिसंचरण तंत्र आदि) भी प्रभावित होते हैं, वहाँ के विकार दूर होते हैं।

6.       बुद्धि, स्मृति, बल, पराक्रम, ओज, आत्मविश्वास, उत्साह बढ़ते हैं।

7.       इन्द्रियों का संयम बढ़ता है।

8.       ज्ञान का विकास होता है, ज्ञान की सूक्ष्मता बढ़ती है, अज्ञान दूर होता है।

9.       सूक्ष्म तत्वों को समझने का सामर्थ्य बढ़ता है।

10.     ब्रह्मचर्य का पालन होता है।

11.     शारीरिक कार्य क्षमता बढ़ती है।

12.     शरीर में स्फूर्ति रहती है।

13.     आलस्य-प्रमाद दूर होता है।

 

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