योग का आठवां अङ्ग – समाधि
परिभाषा-ध्यान करते-करते जब परोक्ष वस्तु का प्रत्यक्ष अर्थात् दर्शन होता है, उस प्रत्यक्ष को ही समाधि कहते हैं।
वस्तु के जैसे गुण, कर्म, स्वभाव हैं साधक समाधि में वैसा ही साक्षात्कार करता है। प्रभु के जिस गुण का ध्यान करते हैं, समाधि में उसी गुण का दर्शन होता है, सब का नहीं।
समाधि के लाभ
1. पाप कर्म सर्वथा नहीं होते क्योंकि पाप कर्म में प्रवृत्त करने वाले कुसंस्कार समाधि से नष्ट होते हैं।
2. मन के समस्त विकार दूर होते हैं।
3. मूर्खतारूपी अविद्या अर्थात् अज्ञान सर्वथा नष्ट होती है।
4. प्रभु-दर्शन से सुख, शान्ति, तृप्ति, निर्भयता, स्वतन्त्रता की प्राप्ति होती है।
5. ईश्वर का आनन्द मिलता है। जिससे मुक्ति जैसा अनुभव करते हैं।
6. समाधि से भवसागर रूपी संसार चक्र (जन्म व मरण रूपी चक्र) से सर्वथा छूटकर मृत्युञ्जय बन जाते हैं। शरीर में न रहने (मृत्यु होने) पर मुक्ति में जाते हैं अर्थात् जीवन के प्रयोजन को पूर्ण करते हैं।
जीवात्मा को सन्तुष्ट, तृप्त, प्रसन्न, निर्भीक, स्वतंत्र एवं परम आनन्दित करने के उद्देश्य से जगदीश्वर संसार का निर्माण, पालन व विनाश करता है। जीवात्मा का उद्देश्य समाधि से पूर्ण होता है। जीव की समस्त उपलब्ध्यिों में सर्वोत्तम उपलब्धि समाधि है।
समाधि से जड़ वस्तुओं एवं चेतन वस्तुओं का प्रत्यक्ष होता है। मनुष्य को संसार में विभिन्न प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं। इन दुःखों से छुटकारा पाने के लिए समाधि लगाने जैसा महान् उपक्रम करना चाहिए।
मनुष्य ज्ञानेन्द्रियों से अपने जीवन काल में अर्थात् जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जड़ वस्तुओं का प्रत्यक्ष करता रहता है। इस प्रत्यक्ष के गहरे संस्कारों के कारण आत्मा, परमात्मा के विषय में भी उसी प्रकार की परिकल्पना करके चेतन को भी रूपवाली, परिमाण वाली, भार वाली वस्तु मान बैठता है। जैसा कि अनेक योग-साधक अनेकों वर्षों से योग-साधना करते हैं और वे साक्षात् कथन करते हैं कि एक प्रकाश पुंज (बहुत ही सफेद, विभिन्न, विशिष्ट रंगों में विशाल प्रकाश) दिखाई देता है। वे इसे चेतन का प्रकाश मानते हैं। कोई-कोई साधक आत्मतत्व को बिन्दु रूप में, विशिष्ट नाद अर्थात् शब्द रूप में अथवा जलती हुई एक छोटी सी ज्योति रूप में अनुभव करते हैं।
यद्यपि परमेश्वर को समझने के लिए दृश्य संसार मनुष्य का निकटतम साधन है। वेद भी ऐसा ही वर्णन करता है। परन्तु संसार के सभी गुण अर्थात् धर्म परमेश्वर में मान लेना, पदार्थ के वास्तविक स्वरूप को न जानने का परिचालक है। सूर्य के समान परमेश्वर प्रकाश स्वरूप है। जैसे सूर्य में प्रकाश का विशाल भण्डार है, वैसे ही परमेश्वर में ज्ञान का विशाल भण्डार है।
समाधि-प्राप्त योगी की अनुभूतियाँ
1. योगी जो वस्तु जैसी है उसे उसी रूप में आत्मसात् करता है। परिणामस्वरूप योगी हानिकारक वस्तु को जीवन में कभी नहीं अपनाता है। फलतः उनसे मिलने वाले दुखों से सदा दूर ही रहता है।
2. योगी ऋतम्भरा-प्रज्ञा से युक्त होने से वस्तु के यथार्थ रूप को सत्य जान व मानकर सत्याचरण ही करता है। असत्याचरण किसी परिस्थिति में नहीं करता है।
3. निद्रा काल को छोड़कर जागरित अवस्था में सदा सात्विक बना रहता है। अपने को सदा सम रखता है।
4. योगी स्वयं को चेतन स्वरूप, परिवर्तनों से रहित अपरिणामी, जड़ वस्तुओं के अति निकट अनुभव करते हुए निजरूप में (आत्मनिष्ठ) स्थित होकर परमेश्वर में स्थित अनुभव करता है।
5. जागरित अवस्था में करने योग्य समस्त कार्यों को करते हुए स्वयं को अलग और मन को अलग अनुभव करता है।
6. योगी कभी भी ऐसा कर्म नहीं करता है, जो कर्म दुःख देने वाला बने अर्थात् जन्म देने वाले कर्माशय को बनने नहीं देता है।
7. योगी प्रत्येक कर्म को प्रमाण पूर्वक ही करता है। ऐसा कोई कर्म नहीं करता है, जो मिथ्या-ज्ञान का कारण बनता हो।
8. सदा आनन्द की अनुभूति कराने वाले उन समस्त उपायों को स्मरण रखता है, जिससे दुखी कभी न बन सके।
9. योगी अपने जीवन काल में सुख अर्थात् आनन्द की अनुभूति को देने वाले कर्मों का ही अभ्यास निरन्तर, लगातार, बिना नागा रखते हुए जीवन पर्यन्त तपस्या पूर्वक, ब्रह्मचर्य पूर्वक, ज्ञानपूर्वक, श्रद्धा पूर्वक करने में ही अपने को धन्य समझता है।
10. योगी दुःखदायी वस्तुओं को सदा त्याग किये हुए और आनन्ददायक वस्तुओं को हमेशा पकड़े हुए रहता है अर्थात् वैराग्य से सदा युक्त रहता है।
11. योगी अपने ऊपर उपकार किये हुए सभी गुरु जनों का उपकार स्वीकार करते हुए सबके प्रति कृतज्ञ बनकर, किसी एक शरीरधारी ही को अपना गुरु न मानकर जिन-जिन से विद्या प्राप्त की उनको न भुलाते हुए भी परमेश्वर को ही अपना मुख्य गुरु स्वीकार करता है। परमेश्वर की ही सर्वाधिक भक्ति करता है।
12. योगी अपने परमानन्द की अनुभूति को रोकने वाले समस्त बाधकों, विघ्नों को सदा अपने से दूर ही रखता है।
13. बाधकों, विघ्नों को दूर करने के लिए सदा परमेश्वर का ही सहारा लेता है।
14. योगी का संपूर्ण जीवन प्राणी मात्र के प्रति मित्र की भावना से, करुणा की भावना से, ईर्ष्या रहित भावना से और समाज को अत्यधिक दुःख पहुँचाने वालों के सम्मुख आने पर उनके प्रति उपेक्षा की भावना से और वे दुष्टजन अपने दुष्ट भावों को त्याग कर सुखी बनें ऐसी भावना से ओत-प्रोत होता है।
15. योगी अपने प्राणों को अपने वश में करके मृत्यु को जीत कर मृत्युञ्जय बन जाता है।
16. योगी अपने मन को सूक्ष्म से सूक्ष्म एवं स्थूल से स्थूल किसी भी पदार्थ में लगाने में समर्थ होता है।
17. योगी अपने आपको इस तरह अनुभव करता है जैसे कि पर्वत शिखर पर खड़े होकर जमीन पर चलने वाले मनुष्यों को कोई देखता है, अर्थात् स्वयं को उच्च शिखर अर्थात् परमेश्वर को प्राप्त किया हुआ और अन्यों को न प्राप्त किया हुआ देखकर उनके शोक अर्थात् दुख, भय परतन्त्रता को दूर करने का ही अपना एक मात्र कर्तव्य मानकर सदा प्रवृत्त रहता है।
18. योगी आँख के समान होता है। जिस प्रकार आँख में बाल या अन्य किसी सूक्ष्म कण के गिरने पर वह अत्यन्त संवेदनशील होता है, वैसे ही योगी अपने कर्तव्यों के प्रति संवेदनशील होते हुए अविद्याजन्य दुख मात्र का स्पर्श नहीं होने देता है।
19. योगी शरीर में रहकर पूर्व में किए हुए कर्मों का फल पूर्ण करने हेतु परोपकार में लीन रहता है। इसी शरीर से भविष्य में आने वाले दुख को पूर्ण रूप से रोक देता है अर्थात् दुखदायी कर्म नहीं करता है।
20. योगी सार्वभौम रूप से यम, नियम का पूर्ण पालन करता है। आसन को पूर्ण सिद्ध कर लेता है। इन्द्रियों को अपने वश में कर लेता है।
21. योगी समाधि से सर्वोत्कृष्ट सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है।
22. संसार में दुख किस-किस से मिलता है, उन सब को जान लेता है। योगी के लिए और जानने योग्य कुछ शेष नहीं रहता है।
23. दुख देने वाले सम्पूर्ण कारणों को नष्ट कर देता है। नष्ट करने योग्य और कुछ शेष नहीं रहता है।
24. शरीर में रहते हुए ही मुक्ति का अनुभव कर लेता है।
25. शरीर छूटने पर मुक्ति में जाने के उपायों को शरीर रहते पूर्ण रूप से संरक्षित कर लेता है। अपने को पूर्ण सुरक्षित अनुभव करता है।
26. अपने जड़ मन को इस प्रकार प्रयोग में लाता है, जिस प्रकार एक मदारी अपने बन्दर को प्रयोग में लाता है। इसके परिणामस्वरूप योगी का मन सांसारिक सर्वोत्कृष्ट सुख को एवं मुक्ति -सुख को दिलाकर अपने कर्तव्य को पूरा करता है। वास्तव में मन का यह ही प्रयोजन है।
27. मन के समान, महत्तत्व रूपी बुद्धि, अहंकार, दसों इन्द्रियाँ व पञ्च तन्मात्राएँ भी योगी को मुक्ति मिलने तक प्रतीक्षा करते हैं, नष्ट नहीं होते।
28. योगी शरीर में रहते हुए भी स्वयं को निर्लिप्त, मलों से रहित, शुद्ध, मुक्त, केवल अनुभव करता है।
29. योगी यह कह उठता है कि इस संसार में आकर जो पाना था, सो पा लिया, और पाने योग्य मेरे लिए कुछ भी शेष नहीं है।
योगी पापकर्म कभी नहीं करता क्योंकि पापकर्म में प्रवृत्त करने वाले संस्कार व अविद्या समाधि से नष्ट हो जाते हैं।
जिस प्रकार आग में पड़ा कोयला अग्निरूप हो जाता है और उसमें अग्नि के सभी गुण आ जाते हैं। उसी प्रकार समाधि में जीवात्मा में ईश्वर के सभी गुण प्रतिबिंम्बित होने लगते हैं।
जीवात्मा का मात्र एक प्रयोजन मुक्ति प्राप्ति है और योगी इस प्रयोजन को समाधि से पूर्ण करता है।
उपसंहार-अब एक उदाहरण से यह समझाने का प्रयत्न करते हैं कि उस ईश्वर को प्राप्त करने में योगविद्या की क्या महानता है। आत्मा में ज्ञान की क्षमता को असीम मानते हुए (ईश्वर के मुकाबले आत्मा में ज्ञान की क्षमता सीमित ही है) एक कुषाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति भी 100 वर्षों में अध्ययन आदि के माध्यम से केवल कुछ विषयों में ही परांगत हो सकता है जबकि इस सृष्टि में अनगणित और अन्तहीन विषय हैं। सब विषयों को पूर्णतया जानना जीवात्मा के लिए वैसे ही असम्भव है जैसे समुद्र का सारा पानी एक कुंए में नहीं समा सकता परन्तु कुंआ समुद्र के पानी से लबालब भरा तो जा सकता है। इसी तरह समाधि के माध्यम से आत्मा को ज्ञान से लबालब भर दिया जाता है। जिस भी विषय के लिए समाधि लगाई जाती है। उस विषय का ज्ञान आत्मा में आ जाता है। इस तरह समाधि के माध्यम से आत्मा अनगणित विषयों में परांगत हो सकता है।
यह कथन कि सारा ज्ञान अथवा सारे वेद हमारी आत्मा में हैं का तात्पर्य यह है कि ज्ञान स्वरूप परमात्मा हमारी आत्मा में पूर्णत्या व्याप्त है परन्तु परमात्मा, जो ज्ञान का अथाह भण्डार है, को पाने के लिए हमें उचित ज्ञान चाहिए जो हमें योग्य गुरुओं द्वारा ही प्राप्त हो सकता है।
अष्टांग योग: यम | नियम | आसन | प्राणायाम | प्रत्याहार | धारणा | ध्यान | समाधि