प्रश्न ११– हमारे विचार में मित्र व शत्रु सुख दुख के कारण नहीं निमित्त हैं। मित्र हि तचिन्तन कर सकते हैं। हित करने का भरसक यत्न भी कर सकते हैं। इसी प्रकार शत्रु अहित चिन्तन भी कर सकते हैं और अहित करने का भरसक प्रयत्न भी कर सकते हैं, परन्तु ईश्वर की सुव्यवस्था के कारण न तो शत्रु ही अनधिकृत अहित करने में सफल हो सकता है, न मित्र अनधिकृत हित करने में। हम नित्य देखते हैं कि हमारे मित्र और स्वजन हमारा भला चाहते ही रहते हैं, फिर भी हम को दुख मिलता है। और हमारे शत्रु नित्य हमारे दुख के साधन जुटाते रहते हैं फिर भी हम दुःखों से बच जाते हैं। अतएव यही सत्य है कि कोई किसी को सुख या दुःख नहीं दे सकता। क्योंकि यदि कोई किसी को मार या बचा सकता है तो ईश्वर की न्यायवस्था कहां रही? और फिर मरने वाले को अकारण ही दुख भोगना पड़ा, जबकि उसका कोई दोष नहीं था।

उत्तर– कृपया इस शंका के समाधान हेतु “सनातन मौलिक ज्ञान के तीसरे स्तर में ‘धर्म का व्यवहारिक पक्ष’ के अन्तर्गत” दिए ‘कर्मफल सिद्धान्त’ का अध्ययन करें।