सुख की वृद्धि के व्यवहारिक मंत्र
‘एक शांत और विनम्र जीवन, सफलता की भागदौड़ और उसके साथ आने वाली निरंतर बेचैनी से अधिक खुशी लाता है’ – आइंस्टीन
हमें दुखी करने वाली बातें दो तरह की होती हैं। एक तरह की बातें वे होती हैं, जिनको नियंत्रित करने की क्षमता आम आदमी के पास नहीं होती। उसे उन बातों को सहना ही होता है। उदाहरण के लिए, वित्तीय अन्याय को बढ़ावा देने वालीं मौद्रिक नीतियाँ अथवा सरकार द्वारा गलत शिक्षा निति का प्रचार। एक आम आदमी इन्हें सुधारने के लिए कुछ नहीं कर सकता। हम इस तरह की खबरों को पढ़कर और बेकार की चर्चाओं में शामिल होकर अपनी बहुत सारी ऊर्जा व्यर्थ खर्च करते हैं। दूसरी तरह की बातें वे होती हैं, जिनके प्रति हम अपने दृष्टिकोण में कुछ बदलाव लाकर, स्वयं व अन्यों की ख़ुशी में वृद्धि कर सकते हैं। इस दिशा में चार प्रकार के व्यवहारों की बात हमारे ऋषियों ने की है। इनका उल्लेख नीचे किया गया है:
-जो लोग हमसे आगे होते हैं, उनको देखते ही हमारे अंदर ईर्ष्या का भाव आ जाता है और ईर्ष्या की यह भावना ही हमारे दुख का कारण बनती है। हमें ईर्ष्या की इस भावना को बदल कर अपने मन में ऐसी भावना उपजानी चाहिए, जिससे हम उन जैसा बनने का प्रयास करें। ऐसा करने से हमारा सुख बढ़ेगा।
-जो लोग दौड़ में हमारे बराबर होते हैं, उनको देखकर हमारे अंदर प्रतिस्पर्धा की भावना आती है और प्रतिस्पर्धा की यह भावना ही हमारे दुख का कारण बनती है। प्रयास से, प्रतिस्पर्धा की इस भावना को सहयोग की भावना से बदलें और सुख को आमंत्रित करें।
-जो लोग दौड़ में हमसे पीछे होते हैं, उनको देखकर हमारे मन में घृणा का भाव आता है और यही घृणा का भाव दुख का कारण होता है। प्रयास से, घृणा की इस भावना को दया और प्रेम की भावना से बदल दें और खुशी लाएं।
-जो लोग हमारे मार्ग में बाधा उत्पन्न करते हैं, उनको देखकर हमारा मन क्रोध से उद्विग्न हो उठता है। ऐसे लोगों के प्रति क्रोध न करें, बल्कि, ऐसे लोगों की उपेक्षा (इग्नोर) करें, लेकिन साथ ही सावधान रहें कि ऐसे लोग आपको शारीरिक या मानसिक रूप से नुकसान न पहुंचाएं।
-आचार्य वागीश
हमारे दुखी रहने का एक बड़ा कारण यह होता है किहमें ज्ञात नहीं होता कि हमें अपने आस-पास के व्यक्तियों के साथ किस तरह का व्यवहार करना चाहिए। इस दिशा में उपरोक्त वर्णित चार तरह के व्यवहारों के इलावा हमें सुखी रहने के लिए निम्नलिखित व्यक्तियों से विवाद नहीं करना चाहिए। विवाद न करने का अर्थ यह नहीं है कि हमें उनके अधार्मिक कार्यों में भी, चाहे वे कितने भी गम्भीर क्यों न हों, मौन रहना चाहिए। इसका इतना ही अर्थ है कि हमें सामान्य बातों में उनसे उलझना नहीं चाहिए। महर्षि मनु के अनुसार वे व्यक्ति हैं- यज्ञ कराने वाला, पुरोहित अर्थात वह व्यक्ति जो आपका पथ-प्रदर्शक है, आचार्य, मामा, अतिथि अर्थात विद्वान् व्यक्ति, जिसके आने-जाने की कोई तिथि निश्चित न हो, आश्रित, बालक, वृद्ध, पीड़ित अथवा दुखी, वैद्य, साथ काम करने वाले लोग, सम्बन्धी, मित्र, माता, पिता, बहिन, भाई, पुत्र, पत्नी, कन्या और सेवक गण।
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