संध्या के मंत्र व उनके अर्थ

सन्ध्या, हवन और अन्य अवसरों पर बोले जाने वाले मंत्रों का साधारणतया भावार्थ विचारना पर्याप्त माना जाता है, परन्तु मंत्रों के भिन्न भिन्न पदों के अर्थों को बार-बार विचारने अथवा स्मरण करने से एक तो उस कर्म के प्रति, जिनमें उन मंत्रों का विनियोग किया गया है अर्थात जिस कर्म में उन विशेष मंत्रों को बोलने की प्रथा डाली गई है, श्रद्धा में बढ़ोतरी होती है और दूसरे उन मंत्रों के पदों को बोलने के साथ-साथ ही हमें उन मंत्रों के अर्थों का स्मरण हो आता है। उन मंत्रों के अर्थों को समझने के लिए हमें अलग से प्रयास नहीं करना पड़ता। यह ठीक वैसे ही है, जैसे ‘सेब’ शब्द सुनते ही हमें ‘सेब’ नामक फल का ध्यान हो आता है। मंत्रों के अर्थों को समझे बिना बोलने से हमें उस कर्म का औचित्य समझ नहीं आता और हमारा उस कर्म को करना मशीनवत हो जाता है। इस उद्देश्य से कि हमारा संध्या को करना वास्तव में सार्थक हो, हम संध्या के मंत्रों के शब्दार्थ अलग से दे रहे हैं। कहीं कहीं मंत्रों के दो या दो से अधिक पद मिलकर एक अर्थ को समझाने वाले होते हैं, ऐसे में मंत्रों के दो या दो से अधिक पदों को एक शब्द मान लिया गया है। वैसे तो सन्ध्या के मंत्रों के शब्दों की संख्या 350 के करीब है, परन्तु बहुत बार एक ही शब्द अनेकों मंत्रों में आता है और उस एक शब्द के अर्थ को समझने से अन्य स्थलों पर आने वाले उस शब्द का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। इस कारण सन्ध्या के कर्म को भली-भांति करने के लिए हमें मात्र 175 के करीब शब्दों के अर्थों को ही समझना है। हम प्रतिदिन केवल एक शब्द के अर्थ को हृदयंगम करने का संकल्प लें, तो छः महीने में हम पूरी संध्या को श्रेष्ठतम रीति से करने के योग्य हो जाएंगे। इस एक शब्द के अर्थ को दिन के हरेक खाली पल में विचारते रहें। प्रतिदिन एक से अधिक शब्दों के अर्थों को हृदयंगम करने का संकल्प न लें, क्योंकि ऐसा संकल्प अधिक दिनों तक चल नहीं पाता।

शिखा-बन्धन का मंत्र

ओ३म भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात ।।

मंत्र के शब्दों के अर्थ:

ओम यह परमात्मा का निज नाम है। गुणों से ही वस्तु की पहचान होती है। ईश्वर के गुण जानने के लिए हमें आर्य समाज के दूसरे नियम पर मनन करना चाहिए। वस्तुतः जब हम किसी शब्द को उसके समझे हुए अर्थ के साथ बार-बार बोलते हैं, तो उस शब्द का अर्थ हमें ओर अधिक सूक्ष्मता से व स्पष्टता से समझ आने लगता है। ईश्वर में अनन्त गहराई है, इसी तरह ईश्वर के निज नाम ओम में भी अनन्त गहराई है। ओम में ईश्वर के सभी गुण, कर्म और स्वभाव अन्तर्निहित हैं। इस शब्द की अधिक से अधिक गहराई में उतरने के लिए हमें ईश्वर के बारे में अधिक से अधिक पढ़ना व सुनना चाहिए। भूः जैसे प्राण हमारे जीवन का आधार होते हैं, वैसे ही हमारे प्राणों को देने वाले ईश्वर के ‘सबके आधार होने के गुण’ को इस शब्द से कहा जाता है। भुवः ईश्वर के ‘सब दुखों से छुड़ाने’ के गुण को इस शब्द से कहा जाता है। स्वः सब जगत में व्यापक होके सब को नियम में रखने के कारण तथा सुखस्वरूप होने के कारण ईश्वर का नाम ‘स्वः’ है। तत उस अर्थात आप सवितुः सकल जगत के उत्पादक वरेण्यं वरण अथवा कामना करने-योग्य भर्गः निरुपद्रवी अर्थात सभी स्थितियों में अचल, निष्पापी, पवित्र, सब दोषों से रहित व पूर्ण अर्थात परिपक्व देवस्य सब देवों के देव, सब आत्माओं के प्रकाशक धीमहि धारण करते हैं। इस शब्द का अर्थ ‘ध्यान करते हैं’ भी किया जाता है। वस्तुतः धारण करने के लिए ध्यान करना अर्थात अच्छी तरह विचारना तो आवश्यक ही है। धियः बुद्धियों को यः जो अर्थात आप नः हमारी  प्रचोदयात उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव में प्रेरित कीजिए, अर्थात आप हमें सद्बुद्धि दीजिए।

मन्त्रार्थ– हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप प्राणों के प्राण, अर्थात सबको जीवन देने वाले, सब दुखों से छुड़ानेवाले, स्वयं सुखस्वरूप और अपने उपासकों को सुखों की प्राप्ति कराने वाले हैं। आप सकल जगत के उत्पादक, सूर्यादि प्रकाशकों के भी प्रकाशक, वरण अथवा कामना करने-योग्य, निरुपद्रवी अर्थात सभी स्थितियों में अचल, निष्पापी, पवित्र, सब दोषों से रहित व पूर्ण अर्थात परिपक्व हैं। हम आपको धारण करते हैं। आप हमारी बुद्धियों को उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव में प्रेरित कीजिए, अर्थात आप हमें सद्बुद्धि दीजिए।

विशेष विवरण– शिखा-बन्धन का विधान इसलिए है, ताकि सिर के बड़े-बड़े बाल सन्ध्या के समय बैठने में व्यवधान न डाल सकें। इस मंत्र का उच्चारण ईश्वर की श्रद्धापूर्वक उपासना करने के मानसिक संकल्प के रूप में भी किया जाता है।

आचमन का मंत्र

ओं शन्नो देवीरभिष्टयsआपो भवन्तु पीतये।

शंयोरभिस्रवन्तु नः।।

मंत्र के शब्दों के अर्थ:

शंयोः सुख की नः हम पर  देवीः दिव्य गुणों से युक्त अभीष्टये मनोवाञ्छित सुख की प्राप्ति के लिए आपः सर्वव्यापक ईश्वर भवन्तु  होवें पीतये पूर्णानन्द अर्थात मोक्ष-सुख की प्राप्ति के लिए शं कल्याणकारी अभिस्रवन्तु वर्षा कीजिए नः हमारे लिए 

मन्त्रार्थ– हे सर्वरक्षक, सर्वव्यापक परमेश्वर! आप मनोवाञ्छित सुख की प्राप्ति के लिए और पूर्णानन्द (मोक्ष-सुख) की प्राप्ति के लिए तथा पूर्ण रक्षा के लिए हमारे लिए कल्याणकारी होवें, अर्थात आप हमारा कल्याण कीजिए और हम पर सुख की वर्षा कीजिए, अर्थात हम आपके कल्याण को व आप द्वारा निरन्तर की जाने वाली सुख की वर्षा को अनुभव कर पाएं।

विधि– आचमन में दाएं हाथ की हथेली पर थोड़ा सा जल डालकर, हथेली के मूल से ओष्ठों द्वारा उस जल को पिया जाता है। जल उतना ही हो, जितना गले से ज्यादा नीचे न उतर पाए।    

विशेष विवरण – आचमन करने के दो कारण हैं- प्रथम तो यह कि जब सांसारिक धन्धों में फंसे हम किसी परमार्थ के काम को करने लगते हैं, तो दोनों अवस्थाओं को अलग करने के लिए आचमन के द्वारा ऐसी रेखा खींची जाती है, ताकि, उपासक के मन में यह भाव जगे कि वह अब संसार की कलहों से निकलकर शांति-धाम में प्रवेश करने लगा है। द्वितीय यह कि आचमन के द्वारा कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृति होती है, गला साफ हो जाता है और प्राणायाम आदि क्रियाओं का करना सुगम हो जाता है। आचमन करने से हमारे स्वास्थ्य पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है। महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि यदि जल उपलब्ध न हो तो आचमन न करें, परन्तु सन्ध्या करने में प्रमाद न करें।

इस मंत्र के उच्चरण से संध्या का प्रारम्भ किया जाता है। यह मंत्र मोक्ष-सुख के रूप में हमें अपना लक्ष्य बताता है। यह मंत्र हमें यह भी बताता है कि इस लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए हमें केवल अपनी उन मनोकामनाओं को पूरा करना है, जिनमें सबका हित अन्तर्भावित हो।

अंगस्पर्श के मंत्र

विधि– जल के पात्र में से बाईं हथेली में जल लेकर दाएं हाथ की मध्यमा और अनामिका अँगुलियों से मंत्र उच्चारण के पश्चात जल से प्रथम दाएं और पश्चात बाएं भाग में इन्द्रिय-स्पर्श करें।

इस प्रकार इन्द्रियों का स्पर्श करने का अभिप्राय यह है कि हम इन्द्रयों का स्पर्श करने के साथ उनके स्वस्थ रहने की ईश्वर से याचना करते हैं। मंत्र में प्रयुक्त शब्द हिन्दी में भी प्रयोग किए जाते हैं, इसलिए इनके अर्थ अलग से नहीं दिए जा रहे हैं। 

ओं वाक वाक – इस मंत्र से मुख का दायां और बायां भाग,

ओं प्राणः प्राणः – इससे नासिका के दायां और बायां छिद्र,

ओं चक्षुः चक्षुः – इससे दायां और बायां नेत्र,

ओं श्रोत्रं श्रोत्रं – इससे दायां और बायां श्रोत्र,

ओं नाभिः – इससे नाभि,

ओं हृदयम – इससे हृदय,

ओं कण्ठः – इससे कण्ठ,

ओं शिरः – इससे शिर,

ओं बाहुभ्यां यशोबलम – इससे भुजाओं के मूल-स्कन्ध और

ओं करतलकरपृष्ठे – इस मंत्र से दोनों हाथों की हथेलियां एवं उनके पृष्ठ भाग

भावार्थ –हे सर्वरक्षक, परमेश्वर! आपकी कृपा से मेरा सारा शरीर स्वस्थ, यशवान और बलवान रहे।

विशेष विवरण – बीमारी की अवस्था में स्नान, ध्यान आदि क्रियाएं सम्भव नहीं हो पातीं। इस कारण यह कहा जा सकता है कि हमारी सभी मानसिक व पारमार्थिक क्रियाएं स्वस्थ शरीर के आधीन हैं। इसीलिए, इन मंत्रों में हम अपने शरीर के विभिन्न अवयवों के स्वास्थ्य के लिए परम शक्तिशाली परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। परन्तु, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यदि हम परमपिता के दरबार में किसी ऐसी प्रार्थना को लेकर जाते हैं, जिस की सिद्धि के लिए हम अपनी ओर से कुछ भी प्रयत्न नहीं करते, तो, हम परमात्मा को धोखा देने की चेष्टा करते हैं और पाप के भागी बनते हैं। इसलिए, अपने शरीर को स्वस्थ रखने की प्रार्थना तभी स्वीकार्य होती है, जब हम भी सच्चे साधक बनकर आयुर्वेद की आज्ञानुसार अपने जीवन को गुजारें और शारीरक व्याधि से बचने का हर भरसक प्रयत्न करें।

मनुष्य विद्युत शक्ति को देख नहीं सकता, परन्तु जब उसके कामों को देखता है, तो चकित रह जाता है। ऐसे ही एक पवित्रात्मा से उत्पन्न दृढ़ मानसिक इच्छा वह परिवर्तन कर सकती है, जो साधरण मनुष्य सोच भी नहीं सकता। इन्द्रिय स्पर्श मन्त्रों के द्वारा हम उस परमशक्तिशाली सूक्ष्म शक्ति को अपने शरीर की पुष्टि के लिए जागृत करते हैं, ताकि हम अपने शरीर का सही प्रयोजन प्राप्त कर सकें।  

मार्जन, अर्थात सफाई के मंत्र

विधि– मध्यमा और अनामिका अँगुलियों के अग्रभाग से नेत्रादि अङ्गों पर उनकी पवित्रता की  प्रार्थना के साथ जल छिड़कें। महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि ऐसा करने से आलस्य दूर होता है, जो आलस्य और जल प्राप्त न हो, तो इस विधा को अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं।

ओं भूः पुनातु शिरसि – इस मंत्र से शिर पर,

ओं भुवः पुनातु नेत्रयोः – इससे दोनों नेत्रों पर,

ओं स्वः पुनातु कण्ठे – इससे कण्ठ पर,

ओं महः पुनातु हृदये – इससे हृदय पर,

ओं जनः पुनातु नाभ्याम – इससे नाभि पर,

ओं तपः पुनातु पादयोः – इससे दोनों पैरों पर,

ओं सत्यम पुनातु पुनः शिरसि – इससे पुनः शिर पर और 

ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र -इससे सम्पूर्ण शरीर पर 

मंत्र के शब्दों के अर्थ:

पुनातु पवित्र कर दो महः अति महान, सब से श्रेष्ठ, सब के पूज्य व एकमात्र उपासनीय जनः जग के उत्पादक। वैसे तो अन्य प्राणी भी बहुत सी चीजों को रचते हैं, परन्तु जगत के मौलिक पदार्थों के जनक ईश्वर ही हैं। अन्य प्राणी जो कुछ भी रचते हैं, वे सब ईश्वर द्वारा निर्मित पदार्थों के माध्यम से ही होता है। तपः दुष्टों को दण्ड देने वाले सत्यं जड़ वस्तुओं की तरह क्षय को प्राप्त न होने वाले खं ब्रह्म आकाश के समान सर्वव्यापक ईश्वर  

भावार्थ– हे सत्यस्वरूप, अविनाशी भगवन, आकाश के समान सर्वव्यापक परमात्मा! मेरे सभी अङ्गों को पवित्र कर दो।

विशेष विवरण– दिन को अथवा रात को जो पाप हम करते हैं, उनसे हमारे चित्त पर मलिन संस्कार पड़ जाते हैं। कुछ समय तक तो यह मलिनता प्रतीत नहीं होती, परन्तु कुछ काल पश्चात चित्त पाप से अत्यन्त काला हो जाता है व हम चाहकर भी अच्छा काम नहीं कर पाते। यह ठीक वैसे ही है, जैसे दर्पण पर मिट्टी पड़ने पर कुछ काल तक तो उसकी चमक बनी रहती है, परन्तु उसके पश्चात वह मिट्टी से इतना गंदा हो जाता है कि हम उसमें अपना चेहरा भी नहीं देख पाते। दर्पण में मुख-दर्शन के लिए आवश्यक है कि उसकी मिट्टी को रोज झाड़ा जाए। मार्जन मंत्रों के द्वारा हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारे पूरे शरीर को पवित्र करे, क्योंकि परमात्मा की सहायता के बिना पाप की शक्ति से बचना असम्भव है। 

जैसे बुरी सन्तान अपने पिता के लिए दुख का कारण बनती है, वैसे ही दुष्ट चिन्ताएं हमारे लिए दुख के साधन उत्पन्न करती हैं। इसीलिए, उस परमपिता परमात्मा से प्रार्थना की जाती है कि हम आँखों के द्वारा वेदों का पाठ करें, मोक्ष-शास्त्रों को पढ़े, ये आँखें कभी धर्म-विरुद्ध और पाप-जनक पुस्तकों के पाठ अथवा पराई स्त्रियों के दर्शन में न लगें, इन के द्वारा हम किसी पर क्रोध की दृष्टि न डालें, सदा प्रेम का भाव इनसे प्रकाशित हो, इन की सहायता से हम अन्धों और यात्रियों को सीधे रास्ते पर डालें, हमारे कानों में सदा मधुर और पवित्र शब्द पड़ते रहें, गन्दे गीत और दुष्ट वचन कर्णगोचर होकर हमारी आत्मा के संस्कारों को भ्रष्ट न करें, तुच्छता और नीचता के अंकुर हमारी हृदय-भूमि में कभी उत्पन्न न होवें, हमारा हृदय प्रत्येक स्थिति में विशाल रहे, हम आपकी बनाई चीजों के माध्यम से सदैव दूसरों के लिए हितकारक वस्तुओं का ही निर्माण करें, हम हर धर्म-विरुद्ध कार्य का विरोध करने वाले हों और हमारा मन आपके सत्यस्वरूप को जानने वाला हो। 

कईं लोगों का विचार है कि इन्द्रियां पाप का मूल हैं, इसलिए इनको नष्ट करना ही धार्मिक उन्नति का उपाय है। परन्तु, हमारे शरीर का हमारी मुक्ति का आवश्यक साधन होने के कारण इन इन्द्रियों को नष्ट करना गलत है। हमें पापाचरण में प्रवृत हुई इन्द्रियों को नष्ट करने के बजाए उनको धर्म के रास्ते पर चलाना होता है।

प्राणायाम के मंत्र

ओं भूः, ओं भुवः,  ओं स्वः,  ओं महः,  ओं जनः,  ओं तपः,  ओं सत्यम।।

मंत्र के शब्दों के अर्थ: मंत्र में प्रयुक्त सभी शब्दों के अर्थ पहले बताए जा चुके हैं।

मन्त्रार्थ– हे परमेश्वर! आप प्राणों के प्राण हैं, आप सब प्रकार के दुखों को दूर करने वाले हैं, आप सुखस्वरूप हैं और सभी को सुख देने वाले हैं, आप सबसे महान, सबके पूज्य तथा एकमात्र उपासनीय हैं, आप समस्त संसार को उत्पन्न करने वाले हैं, आप दुष्टों को दण्ड देने वाले तथा ज्ञानस्वरूप हैं, आप सत्यस्वरूप और अविनाशी हैं। इन गुणों से युक्त हे परमात्मा! हम आपकी उपासना करते हैं।

विशेष विवरण–  प्राणायाम से कही जाने वाली वास्तविक क्रियाएं तो महर्षि पतञ्जलि प्रणीत ‘योग दर्शन’ पर ही आधारित है। जो क्रियाएं आज प्राणायाम के नाम से प्रचारित हैं, वे वास्तव में प्राणायाम न होकर साँस के व्यायाम हैं। इनका प्रयोजन शारीरिक मलों को ही नष्ट करना होता है। इनका आत्मा के उत्थान में कोई सीधा योगदान नहीं होता।

प्राणायाम नाम की क्रियाओं को दो भागों में बांटा जा सकता है – एक तो प्राण-वायु को अधिक से अधिक फेफड़ों में भरना और फिर उसे यथाशक्ति रोकना। गहरा साँस लेने से हम अधिक से अधिक वायु अपने फेफड़ों में भरते हैं। जो शुद्ध वायु हमारे अंदर जाती है, वह हमारे फेफड़ों की सतह पर एकत्रित हुए मलों को छिन्न-भिन्न कर देती है। गहरा साँस लेने से हमारे फेफड़ों की कार्य-क्षमता भी बढ़ती है। सामान्य साँस लेने में फेफड़ों के कईं भागों में तो वायु पहुंचती ही नहीं। वहां एकत्रित मल की निकासी न होने के कारण, वह मल कईं बिमारियों का कारण बन जाता है। ‘योग दर्शन’ में वर्णित प्राणायाम करने से पहले, तैयारी के रूप में साँस के व्यायामों को करना कोई गलत नहीं।

प्राणायाम का दूसरा भाग प्राणों को यथाशक्ति रोकना होता है। प्राणों को रोकने का प्रयोजन बतलाते हुए हमारे ऋषि कहते हैं कि इससे हमारा मन स्थिर व शान्त हो जाता है। इस तथ्य को हम जाँच सकते हैं। यदि आप प्राणायाम के बाद संध्या करते हैं तो,  आपको ओ३म का जाप करने का कुछ ओर ही आनन्द आता है और यदि आप प्राणायाम के बगैर संध्या करते हैं तो, चित्त एकाग्र नहीं होगा। साँस की गति को सामान्य किए बगैर मन की चंचलता को कम नहीं किया जा सकता। यह ठीक वैसे ही है, जैसे भागते हुए किसी विशेष बात पर विचार कर पाना कठिन होता है। प्राणायाम मन को शान्त करता है और उसे हमारे वश में लाता है। प्राणायाम करने से पहले हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि उसकी कृपा से हम प्राण को अपने वश में कर पाएं।

महर्षि मनु का कथन है कि जैसे आग में तपाने से सोना आदि धातुओं का मल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार प्राणायाम करने से मन आदि इन्द्रियों के दोष नष्ट हो जाते हैं।

प्राणायाम से पूर्व किसी एक प्राणायाम मंत्र का अर्थ विचार कर प्राणायाम के माध्यम से मन और आत्मा को स्थिर करके, आत्मा में जो ज्ञानस्वरूप और आनन्दस्वरूप व्यापक परमेश्वर है, उसमें अपने आप को मग्न करके, अत्यन्त आनन्दित होना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे गोताखोर जल में डुबकी मार के शुद्ध होके बाहर आता है। 

अघमर्षण मंत्रों का सूक्त

जब एक ही बात को वेद में एक से अधिक मंत्रों के माध्यम से कहा जाता है, तो, उन मंत्रों के समुच्चय को सूक्त कहा जाता है। किसी सूक्त के प्रथम मंत्र के साथ ही ओम शब्द का उच्चारण किया जाता है। 

ओं ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोsध्यजायत।

ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोsअर्णवः ।। १।।

समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोsअजायत।

अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ।। २ ।।

सूर्यचन्द्र्मसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ।। ३ ।।

उपरोक्त सूक्त के मंत्रों के शब्दों के अर्थ:

ऋतं सृष्टि रचना व उसके उद्देश्य के सभी आधारभूत नियम। क्योंकि, ये सभी नियम वेद में निहित हैं, इसलिए इस शब्द का अर्थ सत्य-ज्ञान के भण्डार, वेद भी किया जाता है। और सत्यम सत्व-रज-तम-युक्त कार्यरूप प्रकृति अभि इद्धात ज्ञानमय तपसः अनन्त सामर्थ्य से अधि अजायत पूर्व कल्प के समान उत्पन्न हुए ततः उसके पश्चात रात्रीः महाप्रलयरूप रात्रि अजायत उत्पन्न हुए ततः उसके पश्चात उसी ज्ञानमय सामर्थ्य से समुद्रः अर्णवः पृथ्वी और अंतरिक्ष में विद्यमान समुद्र उत्पन्न हुआ, अर्थात पृथ्वी से लेकर अन्तरिक्ष तक समस्त स्थूल पदार्थों की रचना हुई 

समुद्रात अर्णवात अधि अन्तरिक्ष से पृथिवीस्थ समुद्र की रचना करने के पश्चात संवतसरः सवंत्सर, अर्थात क्षण, मुहूर्त, प्रहर, मास, वर्ष आदि काल की अजायत उत्पन्न हुए अहः रात्राणि दिन और रात्रि के विभागों, अर्थात घटिका, पल और क्षण आदि की विदधत रचना की विश्वस्यमिषत अपने सहज स्वभाव से वशी सम्पूर्ण जगत को वश में रखने के कारण ईश्वर को वशी भी कहा जाता है। 

सूर्य-चन्द्रमसौ सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों-उपग्रहों को धाता जगत को उत्पन्न कर- धारण, पोषण और नियमन करने वाले ईश्वर यथापूर्वम पूर्व सृष्टि के अनुसार अकल्पयत बनाया दिवम द्युलोक को पृथिवीम पृथ्वीलोक को,  अन्तरिक्षम अन्तरिक्षलोक को अथ तथा स्वः ब्रह्माण्ड के अन्य लोक-लोकान्तरों, ग्रहों, उपग्रहों को तथा उन लोकों में सुख विशेष के पदार्थों को 

मन्त्रार्थ– हे परमेश्वर! आपके ज्ञानमय अनन्त सामर्थ्य से सत्य-ज्ञान के भण्डार वेद और सत्व-रज-तम-युक्त कार्यरूप प्रकृति पूर्व कल्प के समान उत्पन्न हुए। हे ईश्वर! आपके उसी सामर्थ्य से महाप्रलयरूप रात्रि उत्पन्न हुई। उसके पश्चात उसी ज्ञानमय सामर्थ्य से पृथ्वी और अंतरिक्ष में विद्यमान समुद्र उत्पन्न हुआ, अर्थात पृथ्वी से लेकर अन्तरिक्ष तक समस्त स्थूल पदार्थों की रचना हुई ।। १।।

-हे ईश्वर! आपने अन्तरिक्ष से पृथिवीस्थ समुद्र की रचना करने के पश्चात सवंत्सर, अर्थात क्षण, मुहूर्त, प्रहर, मास, वर्ष आदि काल की रचना की। आपने अपने सहज स्वभाव से दिन और रात्रि के विभागों, अर्थात घटिका, पल और क्षण आदि की रचना की ।। २।।

-हे परमेश्वर! आप जगत को उत्पन्न कर- धारण, पोषण और नियमन करने वाले हैं। आपने अपने अनन्त सामर्थ्य से सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों-उपग्रहों को,  द्युलोक को, पृथ्वीलोक को, अन्तरिक्षलोक को तथा ब्रह्माण्ड के अन्य लोक-लोकान्तरों, ग्रहों, उपग्रहों को तथा उन लोकों में सुख विशेष के पदार्थों को पूर्व सृष्टि के अनुसार ही इस सृष्टि में बनाया ।। ३।।

विशेष विवरण–  स्वामी जी ने इनको पाप से बचाने वाले मंत्र कहा है, परन्तु यह नहीं कहा कि ये पाप के दण्ड से बचाने वाले मंत्र हैं। इन मंत्रों में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है। जब हम इन मंत्रों के अर्थों पर विचार करते हैं, तो हमें परमात्मा की अनन्त शक्तियों का ध्यान आता है। अहंकार को पाप का मूल कहा जाता है। इतनी विशाल सृष्टि के सृजनकर्त्ता का चिन्तन करने से हमारा अहंकार नष्ट हो जाता है, जिससे हम पाप करने से बच जाते हैं।

पाप का अर्थ है, परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध चलना। यदि मैं चोरी करने लगूँ और उस समय यदि मेरा अधिकारी मेरे सामने आ जाए, तो क्या चोरी का विचार मेरे दिल से भाग नहीं जाएगा? इसी तरह परमात्मा की महानता को अनुभव करने से हम पाप नहीं कर पाते।

पापी और पुण्यात्मा में एक भेद है। वह यह कि पापी पाप करता जाता है और पाप के संस्कार को दूर करने का प्रयत्न नहीं करता, परन्तु पुण्यात्मा यदि कभी पाप कर बैठे, तो पश्चाताप करता है और आगे के लिए अपने मन को उस पाप के संस्कार से बचाने का प्रयत्न करता है।

हमारे प्रत्येक सांसारिक कर्म की छाप हमारे मन पर पड़ती है, जिन्हें संस्कार कह दिया जाता है। हमारे प्रत्येक कर्म, चाहे वह पाप हो या पुण्य, का फल अवश्य मिलता है। फल मिलने का समय ईश्वर की न्याय-व्यवस्था ही जानती है। पाप करते ही महात्मा जानता है कि उसके द्वारा किए गए पाप का संस्कार मन पर पड़ गया है और वह उसी क्षण से अपने मन की शुद्धि करना आरम्भ कर देता है, परन्तु पापी नहीं करता। ये मंत्र हमें पाप करने से बचाते हैं, जिससे हमारा मन गलत संस्कारों से बच जाता है।

हमारा मोहल्ला, शहर, देश, दुनिया और हमारा सौर-मंडल इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आगे अत्यन्त तुच्छ हैं, तो फिर आप ही बताएं कि इस ब्रह्माण्ड-पति के सामने इस छोटे से मनुष्य की क्या औकात है?

ईश्वर पवित्र है, उसकी पवित्रता का चिन्तन करने से हम पवित्र बनते हैं। वह महान है, उसकी महानता का चिन्तन करने से हम महान बनते हैं। वह पापों से परे है, हमारे पापों को जानने वाला और उनकी सजा देने वाला है। उसका चिन्तन करने से हम अपने पापों की संख्या को न्यून करते जाते हैं।

इन मंत्रों में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य का वर्णन है। ईश्वर ने इस सृष्टि को पहली बार नहीं रचा। सृष्टि की रचना करना ईश्वर का स्वभाव है। क्योंकि जो पदार्थ नित्य होता है, उसका स्वभाव भी नित्य ही होता है, इसलिए ईश्वर अनन्त सृष्टियों को पहले रच चुका है और भविष्य में भी अनन्त सृष्टियों की रचना करेगा। 

ईश्वर सब को उत्पन्न करके, सब में व्यापक होके, अन्तर्यामी रूप से सब के पाप-पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़ के सत्य न्याय से सब को यथावत फल दे रहा है। ऐसा निश्चित जान के, हम पापकर्मों का आचरण सर्वथा छोड़ दें।

मंत्र

ओं शन्नो देवीरभिष्टयsआपो भवन्तु पीतये।

शंयोरभिस्रवन्तु नः।।

मंत्र के शब्दों के अर्थ: मंत्र में प्रयुक्त सभी शब्दों के अर्थ पहले बताए जा चुके हैं।

अर्थ -हे सर्वरक्षक, दिव्य गुणों से युक्त सर्वव्यापक परमेश्वर! आप मनोवाञ्छित सुख की प्राप्ति के लिए और पूर्णानन्द (मोक्ष-सुख) की प्राप्ति के लिए तथा पूर्ण रक्षा के लिए हमारे लिए कल्याणकारी होवें, अर्थात आप हमारा कल्याण कीजिए और हम पर सुख की वर्षा कीजिए।

यहां, इस मंत्र को दूसरी बार उच्चारित करने का विधान है। वह इसलिए कि हम अपने लक्ष्य को और अब तक के मंत्रों के अर्थों को भावों को पुनः स्मरण करें। तत्पश्चात ईश्वर की सगुण अथवा निर्गुण उपासना करें।
विशेष विवरण– साधारणतया हम सन्ध्या के इस महत्त्वपूर्ण भाग की अवहेलना कर अपने आपको संध्या के मंत्रों के उच्चारण पर ही केंद्रित रखते हैं। 

मनसा परिक्रमा के मंत्रों का सूक्त

ओं प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। १।।

दक्षिणा दिगिन्द्रोsधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। २।।

प्रतीची दिग्वरुणोsधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ३।।

उदीची दिक् सोमोsधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ४ ।।

ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ५।।

ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ६।।

मनसा-परिक्रमा के उपरोक्त छः मंत्रों के द्वारा ईश्वर को छहों दिशाओं में अनुभव किया जाता है। इन छहों मंत्रों के तीन-तीन भाग हैं। मंत्रों के पहले भाग में चार चीजों का वर्णन है- दिशा का नाम, उस दिशा के स्वामी ईश्वर का एक विशेष नाम, हमारी रक्षा करने का माध्यम, कोई ईश्वर द्वारा रची विशेष वस्तु अथवा ईश्वर का कोई विशेष गुण और बाणों के तुल्य, अज्ञानान्धकार के नाशक तथा हमारे जीवन की रक्षा करने के साधन, विशेष जड़ व चेतन देवता। मंत्रों के दूसरे भाग में जगत के स्वामी, ईश्वर को नमस्कार किया गया है। मंत्रों के दूसरे भाग की तरह मंत्रों का तीसरा भाग भी समान है, परन्तु तीसरे भाग में उल्लेखित द्वेष को नष्ट करने के लिए मंत्रों के पहले भागों में बताए गए बाणों को समझना आवश्यक है और यहीं कारण है कि मंत्रों के पहले भाग में बताए रक्षा के साधन व बाणों का वर्णन अलग अलग है, जबकि बाणों का प्रयोजन रक्षा करना भी होता है।

उपरोक्त सूक्त के मंत्रों के शब्दों के अर्थ:

प्राचीदिक् पूर्व दिशा। वैसे तो जिस दिशा से सूर्योदय होता है, उसी दिशा को पूर्व दिशा कहा जाता है, परन्तु संध्या के कर्म को सरल करने के लिए महर्षि दयानन्द जी ने संध्या करते समय जिस दिशा में हमारा मुख हो, उसी को पूर्व दिशा माना है। अग्नि ज्ञानस्वरूप अथवा प्रकाशस्वरूप ईश्वर। ईश्वर को अग्नि इसलिए कहा जाता है, क्योंकि उसी के ज्ञान के प्रकाश से हम अन्य वस्तुओं को जान पाते हैं और उनके सही स्वरूप को जानने के पश्चात ही हम आगे बढ़ पाते हैं। अधिपतिः स्वामी असितः बन्धनरहित रक्षिता रक्षा करता है। इस मंत्र में ईश्वर के बन्धनरहितता के गुण को हमारी रक्षा करने वाला कहा है। ईश्वर ने संसार के जो भी पदार्थ बनाएं हैं, उन सब से किसी न किसी भाँति हमारी रक्षा होती है। इसलिए, ईश्वर को सर्वरक्षक नाम से भी पुकारा जाता है। ईश्वर कैसे हमारी रक्षा करता है, इस बात को समझने के लिए हमें इस विषय पर वैदिक विद्वानों के व्याख्यान सुनने चाहिए। तब हम अधिक अच्छे से समझ पाएंगे कि कैसे ईश्वर का बन्धनरहितता का गुण हमारी रक्षा करता है। संक्षेप में कहें, तो ईश्वर का बन्धनरहितता का गुण हमें बन्धनरहितता, जो कि मोक्ष का ही दूसरा नाम है, प्राप्त करने के लिए प्रेरित करता है। आदित्याः सूर्य की किरणें व प्राण ईषवः बाणों के तुल्य, अज्ञानान्धकार के नाशक तथा हमारे जीवन की रक्षा करने के साधन तेभ्यः नमः आपके गुणों को नमस्कार करते हैं। अधिपतिभ्यः नमः हे जगत के स्वामी! हम आपको नमस्कार करते हैं। रक्षितृभ्यः नमः हमारी सब भांति रक्षा करने वाले ईश्वर! हम आपको नमस्कार करते हैं। इषुभ्यः नमः एभ्य अस्तु पापियों को बाण के समान पीड़ा देने वाले परमेश्वर! हम आपको नमस्कार करते हैं। यः जो कोई अज्ञान से अस्मान हमसे द्वेष्टि द्वेष करता है यं जिस किसी से अज्ञानवश वयं हम द्विष्मः द्वेष करते हैं तम उस द्वेषभाव को वः सूर्य की किरणों व प्राणों रूपी बाणों के जम्भः वश में दध्मः रखते हैं

दक्षिणा दिक् हमारे दाईं ओर की दक्षिण  दिशा के इन्द्रः पूर्ण ऐश्वर्य वाला होने से ईश्वर का नाम इन्द्र भी है अधिपतिःतिरश्चिराजीः कीट, पतङ्ग, बिच्छू, वृश्चिक आदि टेढ़े चलने वाले अथवा दुष्ट प्राणियों की पङ्क्ति से रक्षितापितरः माता-पिता और ज्ञानी लोग ईषवः

प्रतीची दिक् हमारे पीछे की ओर जो पश्चिम दिशा है वरुणः वरुण भी परमात्मा का ही नाम है। श्रेष्ठ व्यक्तियों अर्थात धर्मात्माओं व मुमुक्षुओं को प्राप्त होने के कारण ईश्वर को वरुण भी कहा जाता है। अधिपतिःपृदाकू अजगर, सर्प आदि विषधारी व हिंसक प्राणी रक्षिताअन्नम आधारभूत पृथिव्यादि पदार्थ ईषवः

उदीची दिक् हमारे बाईं ओर जो उत्तर दिशा है सोमः शान्ति और आनन्द देने वाले परमेश्वर अधिपतिःस्वजः ईश्वर का अजन्मा होने का गुण रक्षिताअशनिः विद्युत आदि दिव्य शक्तियां ईषवः –

ध्रुवा दिक् हमारे नीचे की ओर जो दिशा है विष्णुः हे सर्वव्यापक परमेश्वर! अधिपतिःकलमाषग्रीवः वन रक्षितावीरुध वृक्षादि, वनस्पतियां और औषधियां ईषवः

ऊर्ध्वा दिक् हमारे ऊपर की ओर जो दिशा है बृहस्पतिः हे वाणी, वेद-शास्त्र और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर! अधिपतिःश्वित्रः ज्ञानमय रक्षितावर्षम वर्षा के बिन्दु ईषवः

मन्त्रार्थ– हे ईश्वर! आप ज्ञानस्वरूप हैं और हमारे सामने की दिशा के स्वामी हैं। आपका बन्धनरहितता का गुण हमारी रक्षा करने वाला है। आदित्य अर्थात प्राण व सूर्य की किरणें आपके बाण हैं। इनसे आप हमारे द्वेषभाव को व अन्यों के हमारे प्रति द्वेषभाव को मिटाकर हमारी रक्षा भी करते हैं और अधार्मिकों को पीड़ा भी देते हैं। हे ईश्वर! हम आपके गुणों को नमस्कार करते हैं। जो ईश्वर के गुण और ईश्वर के रचे पदार्थ जगत की रक्षा करने वाले हैं और जो पापियों अर्थात अधार्मिकों को बाणों के समान पीड़ा देने वाले हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।   

जो कोई अज्ञान से हमसे द्वेष करता है व जिस किसी से अज्ञानवश हम द्वेष करते हैं, उस द्वेषभाव को हम इस बाण अर्थात सूर्य की किरणों व प्राणों के वश में रखते हैं। जैसे सूर्य की किरणें गंदगी पर पड़कर भी उससे प्रभावित हुए बिना उसको स्वच्छ करती हैं व जैसे प्राण किसी भी स्थिति में प्राणियों का साथ नहीं छोड़ते, वैसे ही ऐसे विचार हमारे अन्यों के प्रति द्वेषभाव को दूर करें। सूर्य की किरणों व प्राणों के इस गुण को समझकर अन्य भी हम से द्वेषरहित आचरण करें। सूर्य की किरणों व प्राणों का गलत प्रयोग प्राणियों का अहित करने वाले होते हैं।। १।। 

-हे ईश्वर! आप इन्द्र अर्थात पूर्ण ऐश्वर्य वाले हैं और हमारे दक्षिण  दिशा के स्वामी हैं। कीट, पतङ्ग, बिच्छू आदि के माध्यम से आप हमारी रक्षा करने वाले हैं। ज्ञानी लोग आपके बाण हैं। इनसे आप हमारे द्वेषभाव को व अन्यों के हमारे प्रति द्वेषभाव को मिटाकर हमारी रक्षा भी करते हैं और अधार्मिकों को पीड़ा भी देते हैं। हे ईश्वर! हम आपके इस गुण को नमस्कार करते हैं। जो ईश्वर के गुण और ईश्वर के रचे पदार्थ जगत की रक्षा करने वाले हैं और जो पापियों अर्थात अधार्मिकों को बाणों के समान पीड़ा देने वाले हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।    

जो कोई अज्ञान से हमसे द्वेष करता है व जिस किसी से अज्ञानवश हम द्वेष करते हैं, उस द्वेषभाव को हम ज्ञानी लोगों के व्यवहार के वश में रखते हैं। जैसे ज्ञानी लोग गलत लोगों को दण्ड देते हुए भी किसी से द्वेष नहीं करते, हम भी लोगों के साथ यथायोग्य व्यवहार करते हुए उनसे द्वेष कभी न करें। ज्ञानी लोगों के व्यवहार से सीख न लेने पर अन्यों का अहित निश्चित है।। २।।

-हे सर्वोत्तम परमेश्वर! हमारे पीछे की ओर जो पश्चिम दिशा है, आप उसके स्वामी हैं। अजगर, सर्प आदि विषधारी व हिंसक प्राणियों के माध्यम से आप हमारी रक्षा करते हैं। अन्न अर्थात आधारभूत पृथिव्यादि पदार्थ आपके बाण हैं। इनसे आप हमारे द्वेषभाव को व अन्यों के हमारे प्रति द्वेषभाव को मिटाकर हमारी रक्षा भी करते हैं और अधार्मिकों को पीड़ा भी देते हैं। हे ईश्वर! हम आप द्वारा रचे इन पदार्थों को नमस्कार करते हैं। जो ईश्वर के गुण और ईश्वर के रचे पदार्थ जगत की रक्षा करने वाले हैं और जो पापियों अर्थात अधार्मिकों को बाणों के समान पीड़ा देने वाले हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।    

जो कोई अज्ञान से हमसे द्वेष करता है व जिस किसी से अज्ञानवश हम द्वेष करते हैं, उस द्वेषभाव को हम इन आधारभूत पदार्थों के वश में रखते हैं। पृथिवी की असीमित सहनशक्ति का विचार कर हम किसी से भी द्वेष कभी न करें। ऐसी समझ पाकर अन्य भी हम से द्वेष न करें। आधारभूत पदार्थों का गलत उपयोग अहित करने वाला होता है, इससे ऐसा करने वालों को पीड़ा पहुँचती है।। ३।।

– हे जगदुत्पादक शान्ति और आनन्द देने वाले परमेश्वर! हमारे बाईं ओर जो उत्तर दिशा है, आप उसके स्वामी हैं। आपका अजन्मा होने का गुण हमें सही दिशा में प्रेरित करके हमारा रक्षक है। विद्युत आदि दिव्य शक्तियां बाणों के तुल्य हैं। इनसे आप हमारे द्वेषभाव को व अन्यों के हमारे प्रति द्वेषभाव को मिटाकर हमारी रक्षा भी करते हैं और अधार्मिकों को पीड़ा भी देते हैं। हे ईश्वर! हम आपके इस गुण को नमस्कार करते हैं। जो ईश्वर के गुण और ईश्वर के रचे पदार्थ जगत की रक्षा करने वाले हैं और जो पापियों अर्थात अधार्मिकों को बाणों के समान पीड़ा देने वाले हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।   

जो कोई अज्ञान से हमसे द्वेष करता है व जिस किसी से अज्ञानवश हम द्वेष करते हैं, उस द्वेषभाव को हम विद्युत आदि दिव्य शक्तियों के वश में रखते हैं। जैसे विद्युत उचित प्रयोग करने पर सबका हित ही साधती है, हम भी अपने द्वेषभाव को मिटाकर सबका हित ही करने वाले हों और अन्य भी ऐसी समझ रखकर हमसे द्वेष न करें। विद्युत आदि दिव्य शक्तियों का गलत उपयोग अहित करने वाला ही होता है, इससे ऐसा करने वालों को पीड़ा पहुँचती है।। ४ ।।

– हे सर्वव्यापक परमेश्वर! हमारे नीचे की ओर जो दिशा है, आप उसके स्वामी हैं। आप हमारे समस्त पापों, दुखों और दोषों को नष्ट करने वाले हैं। वनों के माध्यम से आप सतत हमारे जीवन की रक्षा करते हैं। वृक्षादि, वनस्पतियां और औषधियां बाणों के तुल्य हैं। इनसे आप हमारे द्वेषभाव को व अन्यों के हमारे प्रति द्वेषभाव को मिटाकर हमारी रक्षा भी करते हैं और अधार्मिकों को पीड़ा भी देते हैं। हे ईश्वर! हम आप द्वारा रचे इन पदार्थों को नमस्कार करते हैं। जो ईश्वर के गुण और ईश्वर के रचे पदार्थ जगत की रक्षा करने वाले हैं और जो पापियों अर्थात अधार्मिकों को बाणों के समान पीड़ा देने वाले हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।    

जो कोई अज्ञान से हमसे द्वेष करता है व जिस किसी से अज्ञानवश हम द्वेष करते हैं, उस द्वेषभाव को हम वृक्षादि, वनस्पतियों और औषधियों के वश में रखते हैं। जैसे वृक्षादि पत्थर मारे जाने पर फल ही देते हैं, उसी प्रकार हम भी अपना अहित करने वालों के प्रति मित्र भाव रखें। वृक्षादि के इस गुण को समझकर अन्य भी हम से द्वेषरहित आचरण करें।। ५।।

– हे वाणी, वेद-शास्त्र और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर! हमारे ऊपर की ओर जो दिशा है, आप उसके स्वामी हैं। हे ज्ञानमय परमात्मा! आप हमारे रक्षक हैं। वर्षा के बिन्दु बाण के तुल्य हैं। इनसे आप हमारे द्वेषभाव को व अन्यों के हमारे प्रति द्वेषभाव को मिटाकर हमारी रक्षा भी करते हैं और अधार्मिकों को पीड़ा भी देते हैं। हे ईश्वर! हम आप द्वारा रचे इन पदार्थों को नमस्कार करते हैं। जो ईश्वर के गुण और ईश्वर के रचे पदार्थ जगत की रक्षा करने वाले हैं और जो पापियों अर्थात अधार्मिकों को बाणों के समान पीड़ा देने वाले हैं, उनको हमारा नमस्कार हो।    

जो कोई अज्ञान से हमसे द्वेष करता है व जिस किसी से अज्ञानवश हम द्वेष करते हैं, उस द्वेषभाव को हम वर्षा के बिंदुओं के वश में रखते हैं। जैसे वर्षा के बिन्दु सबको शीतलता प्रदान करने वाले होते हैं, ऐसे ही हमारा आचरण भी द्वेषमुक्त होकर दूसरों को शीतलता प्रदान करने वाला हो। जल के इस गुण को समझकर दूसरे भी हमसे द्वेषरहित आचरण करें व क्योंकि जल का गलत उपयोग अहित करने वाला ही होता है, ऐसा समझ कर भी दूसरे हमसे द्वेष न करें।।। ६।।

विशेष विवरण–  किसी चीज की परिक्रमा करना उसका सम्मान करना समझा जाता है, परन्तु ईश्वर के सर्वव्यापक होने के कारण उसकी परिक्रमा करना असम्भव है। इन मंत्रों के माध्यम से हम ईश्वर की सत्ता का छहों दिशाओं में अनुभव करते हैं। प्रत्येक दिशा के स्वामी के रूप में, ईश्वर के छः अलग-अलग गुणों का वर्णन किया गया है।

जिस समय मनुष्य के हृदय में परमात्मा की सर्वव्यापकता की अनुभूति घर कर जाती है, तब सब पाप भाग जाते हैं और मनुष्य के जीवन में अदभुत परिवर्तन देखने को मिलता है। जिस मनुष्य ने ईश्वर की सर्वव्यापकता के तथ्य को स्वीकार कर लिया कि परमात्मा हर ओर विद्यमान रहकर हमारा रक्षक है, उसने बड़े-बड़े काम कर दिखाए।

संसार में ऐसे कईं लोग हैं, जो कोई कठिनाई आने पर ईश्वर से मुंह मोड़ लेते हैं। धार्मिक मनुष्य की चित्त-वृति ऐसी होनी चाहिए कि कि कठिन समय में परमात्मा से मुंह मोड़ने के बजाए और अधिक सहनशील बन जाए। इसके लिए आवश्यक है कि हम परमात्मा की इच्छा को अनुभव करने वाले बन पाएं और दुख को प्रसन्नता से सहें। हमारी दृष्टि बहुत छोटी होती है, हम यह समझ नहीं पाते कि अमुक दुख कैसे हमारे लिए कल्याणकारी है?

परमात्मा हमारी मां है और हम उस के बालक। पाप हमें खराब करना चाहता है, इससे बचने के लिए हमको अपनी माता की गोद में बैठना होगा। पाप से बचने का ओर कोई रास्ता नहीं है।

साधारणतयः मनसा परिक्रमा के मंत्रों के अंतिम भाग का अर्थ यह किया जाता है कि जिस द्वेष से प्रेरित होकर हमने किसी से व किसी व्यक्ति ने हमारे प्रति अन्याय किया है, उस द्वेषभाव को ईश्वर ही नष्ट करेगा। लेकिन यह अर्थ छोटी-मोटी बातों के लिए तो उपयुक्त है, परन्तु हर अन्याय के विषय में हम ऐसा नहीं सोच सकते कि उस अन्याय के उत्तर में अथवा प्रतिरोध में हमें कुछ भी नहीं करना है, जो कुछ भी करना है वह ईश्वर ही करेगा और ईश्वर की न्याय-व्यवस्था से ही हमारा व अन्यों का द्वेष समाप्त होगा। प्राणियों के द्वेषभाव को मिटाने के लिए इन मन्त्राशों का ऐसा अर्थ करना सर्वथा गलत है। इन मंत्रों में द्वेषभाव को मिटाने के लिए जो सात उपाय दिए गए हैं, (पहले मंत्र में दो उपाय और अन्य पांच मंत्रों में एक-एक उपाय) उनको आचरण में लाने पर द्वेषभाव टिका ही नहीं रह सकता।

उपस्थान के मंत्रों का सूक्त

ओम् उद्वयन्तमसस्परि स्वः पश्यन्तsउत्तरम।

देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम ।। १।।

उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम ।। २।।

चित्रं देवनामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावापृथ्वी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ।। ३।।

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात ।। ४ ।। 

उपरोक्त सूक्त के मंत्रों के शब्दों के अर्थ:

उत ऊपर वयम हम तमसः अविद्या-अन्धकार परि से अलग स्वः प्रकाशस्वरूप पश्यन्त आपको देखते हैं, अर्थात आपको अनुभूत करते हैं। उत्तरम अधिक ऊपर  देवं देवत्रा देवों के भी देव, अर्थात आनन्द और प्रकाश देनेवालों को भी आनन्द और प्रकाश देनेवाले सूर्यम सम्पूर्ण चेतन व जड़ वस्तुओं के आत्मा अगन्म प्राप्त होवें ज्योतिः स्वप्रकाशस्वरूप अथवा ज्ञानमय उत्तमम अत्यधिक ऊपर 

ही उत अच्छी प्रकार से त्यम उक्त गुणयुक्त आपको जातवेदसम वेद रूपी काव्य और इस सृष्टि के जनक देवम दिव्य गुणयुक्त देवों के भी देव वहन्ति प्राप्त कराते हैं, अर्थात आपका ही ज्ञान कराते हैं। केतवः वेद के मंत्र तथा सृष्टि-रचनादि के नियम दृशे आपको देखने वा आपका ज्ञान प्राप्त करने के लिए हम आपकी उपासना करते हैं। विश्वाय पूर्णरूप से सूर्यम चराचर जगत के उत्पादक, प्रकाशक और सञ्चालक 

चित्रं आप जो अद्भुतस्वरूप हैं देवनाम दिव्य स्वभाव वाले विद्वानों के उत अगात अच्छी प्रकार आगे ले जानेवाले अनीकं सर्वोत्तम बल चक्षु दर्शक, मार्गदर्शक और प्रकाशक मित्रस्य रागद्वेषरहित मनुष्यों के वरुणस्य श्रेष्ठ मनुष्यों के अग्नेः उत्कृष्ट ज्ञानवाले मनुष्यों के आ अप्राः बनाकर उनमें व्याप्त होकर धारण और रक्षण करनेवाले द्यावा पृथिवी अन्तरिक्ष द्युलोक, पृथिवीलोक और अन्तरिक्षलोक आदि सभी लोक-लोकान्तरों को सूर्यः सकल जगत के उत्पादक और प्रकाशक आत्मा आत्मा अर्थात उसमें व्याप्त होकर उसका संचालन करनेवाले हैं। जगतः च तस्थुषः चेतन और स्थावर जगत के  स्वाहा यह वचन सत्य है अथवा मैं इस सत्य को स्वीकार करता हूँ।

तत हे परमेश्वर! आप चक्षुः सबके द्रष्टा देवहितं दिव्यगुण-कर्म-स्वभाव वाले विद्वानों के हितकारी पुरस्तात सृष्टि से पूर्व, मध्य तथा पश्चात विद्यमान रहने वाले शुक्रम शुद्धस्वरूप उत चरत उत्कृष्टता के साथ सबके ज्ञाता और सर्वत्र व्याप्त हैं। पश्येम शरदः शतं आपकी कृपा से हम सौ वर्षों तक आपको व जगत को देखें जीवेम शरदः शतं सौ वर्षों तक प्राणों को धारण कर जीवित रहें शृणुयाम शरदः शतं सौ वर्षों तक शास्त्रों और मङ्गल-वचनों को सुनें प्रब्रवाम शरदः शतं सौ वर्षों तक स्वयं द्वारा समझी वास्तविकताओं का उपदेश करें अदीनाः अदीन अर्थात स्वतंत्र, स्वस्थ, समृद्ध और सम्मानित स्याम रहें शरदः शतं सौ वर्षों तक   और आपकी कृपा से ही भूयः शरदः शतात सौ वर्षों के उपरान्त भी हम लोग देखें, जीवें, सुने, वेद-उपदेश करें और स्वाधीन रहें।   

उपस्थान के इन मंत्रों में हम ईश्वर के पास बैठकर उसकी अनुभूति करते हैं। ईश्वर की अनुभूति के लिए संध्या के अब तक के मंत्रों में से गुजरना आवश्यक है।

मन्त्रार्थ– हे परमेश्वर! आप सब अविद्या-अन्धकार से अलग प्रकाशस्वरूप, प्रलय के अनन्तर भी सदैव वर्त्तमान, देवों के भी देव, सम्पूर्ण चेतन व जड़ वस्तुओं के आत्मा और सबसे उत्तम हैं। हम इस सत्य को समझने वाले हों।

हमारी रक्षा करनी आपके हाथ है, क्योंकि हम लोग आपकी शरण में हैं।। १।।

भावार्थ– हे परमेश्वर! आप जो सब अविद्या-अन्धकार से अलग प्रकाशस्वरूप हैं, आपके इस स्वरूप की अनुभूति करते हुए हम स्वयं अन्धकार से उत = ऊपर उठते हैं। आपके प्रकाशमय स्वरूप को अनुभूत करते हुए हम उत्तर = ओर अधिक ऊपर उठते हैं। आप जो देवों के भी देव, सम्पूर्ण चेतन व जड़ वस्तुओं के आत्मा हैं, आपके इस अनन्त स्वरूप को अनुभूत करते हुए हम उत्तमम = अत्यधिक ऊपर उठते हैं।

विशेष विवरण– परमात्मा ज्ञान का भंडार है। उस पाप के अंधकार को दूर करने वाली ज्योति की अनुभूति हमें धीरे-धीरे ही होती है। इसी बात को बताने के लिए यहाँ इस मंत्र में ‘उत’, ‘उत्तर’ और ‘उत्तम’ शब्दों का प्रयोग हुआ है। प्रथम स्थिति वह है- जब उपासक के हृदय में छिपा अविद्या-अन्धकार नष्ट हो जाता है। दूसरी स्थिति वह है- जब उपासक का हृदय विद्यारूपी सूर्य के प्रकाश से परिपूर्ण हो जाता है। तीसरी स्थिति वह होती है- जब उपासक उपास्य के गुणों को अपने भीतर पूर्णतया धारण कर लेता है।

मन्त्रार्थ– हे परमेश्वर! आप सब जगत के उत्पादक, प्रकाशक, सञ्चालक, पालनकर्त्ता और सब देवों के देव हैं। आप द्वारा रचित संसार की सभी वस्तुएं व उनके नियम और वेद के मंत्र आप की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करने वाली झंडियां हैं। हम पूर्णरूप से आपको जानने व समझने के लिए आपकी उपासना करते हैं।। २।।

विशेष विवरण– ईश्वर के वेद रूपी काव्य और उसके द्वारा रची इस सृष्टि में किसी तरह का विरोधाभास हो ही नहीं सकता। उसके द्वारा रची यह सृष्टि उसके वेद रूपी ज्ञान से अत्यन्त स्थूल है। ज्ञान प्राप्ति का एक तरीका यह है कि हम स्थूल वस्तुओं को समझते हुए सूक्ष्म वस्तुओं को समझने की योग्यता प्राप्त कर लें। इस तरीके को अपनाते हुए, हमें सृष्टि की स्थूल वस्तुओं को माध्यम बनाकर वेद की सूक्ष्मताओं को समझने का प्रयास करना चाहिए। ईश्वर की अनुभूति हृदय को शुद्ध करके ही की जा सकती है। स्वाध्याय और अच्छे लोगों का संग ईश्वर की अनुभूति के वास्तविक केतु हैं।

मन्त्रार्थ– हे परमात्मा! आप जो सभी लोक-लोकान्तरों को बनाकर उनमें व्याप्त होकर धारण और रक्षण करनेवाले हैं। आप जो चेतन और स्थावर जगत के आत्मा हैं, आप जो रागद्वेषरहित मनुष्यों के, श्रेष्ठ मनुष्यों के, उत्कृष्ट ज्ञानवाले मनुष्यों के प्रकाशक हैं, आप जो सूर्यलोक और प्राणों को बनाने वाले हैं, आप जो अद्भुतस्वरूप हैं, आप जो सकल मनुष्यों के सब दुख नाश करने वाले सर्वोत्तम बल हैं, वह आप हमारे हृदयों में यथावत प्रकाशित रहें और हम आपके गुणों को स्वीकार करनेवाले बनें।। ३।।

भावार्थ- प्रभु की कृपा से ब्रह्म के उपासकों को उन्नति की ओर बढ़ानेवाला अदभुत बल प्राप्त होता है। वहीं आत्मबल मित्र, वरुण, अग्नि श्रेणी वाले उपासकों का मार्गदर्शक होता है। मित्र वह है, जो सर्वदा हितकर होता है, अग्नि वह है जो विद्वान् हो, वेदों का ज्ञाता हो। वरुण श्रेष्ठ को कहते हैं। आत्मबल से लबालब उपासक अनुभव करता है कि सारे लोक-लोकान्तर जगदुत्पादक प्रभु से परिपूर्ण हैं। कण-कण में वह व्यापक है और वहीं इस चराचर जगत का आत्मा है।

विशेष विवरणलोहे के खींचे जाने के लिए आकर्षण-शक्ति का होना आवश्यक होता है। यदि लोहा और चुम्बक दूर-दूर हों, तो कोई असर प्रतीत नहीं होता, परन्तु यदि उन्हें नजदीक लाते जाएं, तो एक सीमा के पश्चात लोहा चुम्बक की तरफ आकृष्ट होना शुरु कर देता है। यदि इन दोनों  की दूरी ओर कम कर दें, तो  दोनों झट से मिल जाते हैं। यहीं स्थिति हमारी और परमात्मा की है। अपनी और परमात्मा की दूरी कम करने का तरीका है- अपनी शुद्धता को बढ़ाते जाना।  

मन्त्रार्थ– हे सबके द्रष्टा व दिव्यगुण-कर्म-स्वभाव वाले विद्वानों के हितकारी परमेश्वर! आप सृष्टि से पूर्व, मध्य तथा पश्चात विद्यमान रहने वाले, शुद्धस्वरूप हैं। हे परमेश्वर! आपकी कृपा से हम सौ वर्षों तक आपको व जगत को देखें अर्थात आपकी व जगत की वास्तविकता को समझें, सौ वर्षों तक प्राणों को धारण कर जीवित रहें अर्थात जीवन के वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करें, सौ वर्षों तक शास्त्रों और मङ्गल-वचनों को सुनें व उनके अनुरूप आचरण करें, सौ वर्षों तक स्वयं द्वारा समझी वास्तविकताओं का उपदेश करें, सौ वर्षों तक अदीन अर्थात स्वतंत्र, स्वस्थ, समृद्ध और सम्मानित रहें और आपकी कृपा से ही सौ वर्षों के उपरान्त भी हम लोग देखें, जीवें, सुने, वेद-उपदेश करें और स्वाधीन रहें।। ४ ।।

विशेष विवरण– यहाँ सौ वर्षों तक जीवित रहने की कामना करने का अर्थ है, हमारा अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में अपने अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करते रहना। हमें सौ वर्षों तक शास्त्रों और मङ्गल-वचनों को सुनना ही नहीं, बल्कि उनके अनुरूप आचरण भी करना है। जिन चीजों के तत्वज्ञान को हमने जान लिया है, उनको हम दूसरों को भी बताएं।

इस मंत्र में कहा गया है कि वह परमात्मा हमारा सच्चा मार्गदर्शक व हमारे कर्मों का द्रष्टा ही नहीं, बल्कि वह अपने भक्तों का सहायक भी है। यह मंत्र हमें विश्वास दिलाता है कि यदि कभी हम मुसीबत में पड़ जाएं, तो हमें यह कदापि नहीं सोचना चाहिए कि कोई हमारी सहायता करने वाला नहीं है। हाँ! थोड़ी देर के लिए पाप की शक्ति प्रबल हो सकती है, परन्तु अन्त में जीत तो उसी की होती है, जो उसके रास्ते पर चलता है। उसके विरुद्ध चलने वाले की हमेशा पराजय ही होती है। यह मंत्र हमें यह भी बताता है कि इस पूरे विश्व की पवित्रतम वस्तु ईश्वर ही है और जब सांसारिक कार्य हमारे मन को दूषित कर देते हैं, तो उस समय परमात्मा ही हमारे मन को पवित्रता देने वाले होते हैं। यदि हम सौ साल तक जीवित नहीं रह पाते, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारा जीवन वेदमय नहीं है और हमने वैदिक नियमों का पालन नहीं किया। यदि हम सौ वर्ष की आयु तो प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु सांसारिक इच्छाओं के गुलाम, एन्द्रिक सुखों के दास और विषयों में फंसे हुए हैं, तो एक असभ्य व्यक्ति अथवा पशु से बढ़कर नहीं हैं।

मंत्र

ओ३म भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात ।।

मंत्र के शब्दों के अर्थ: मंत्र में प्रयुक्त सभी शब्दों के अर्थ पहले बताए जा चुके हैं।

अर्थ– हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप प्राणों के प्राण, अर्थात सबको जीवन देने वाले, सब दुखों से छुड़ानेवाले, सब जगत में व्यापक होके सब को नियम में रखने वाले व स्वयं सुखस्वरूप होके अपने उपासकों को सुखों की प्राप्ति कराने वाले हैं। आप सकल जगत के उत्पादक, सूर्यादि प्रकाशकों के भी प्रकाशक, वरण अथवा कामना करने-योग्य, निरुपद्रवी अर्थात अचल, निष्पापी, पवित्र, सब दोषों से रहित व पूर्ण अर्थात परिपक्व हैं। हम आपका ध्यान करते हैं। आप हमारी बुद्धियों को उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव में प्रेरित कीजिए, अर्थात आप हमें सद्बुद्धि दीजिए।

विशेष विवरण– उपरोक्त मंत्र को गुरु-मंत्र भी कहा जाता है, वह इसलिए क्योंकि इस मंत्र के उपदेश से शरीरधारी गुरु अपने शिष्यों को गुरुओं के भी गुरु को अनुभूत कराने की प्रक्रिया का आरम्भ करता है। वर्त्तमान में इस मंत्र की प्रसिद्धि सद्बुद्धि की प्रार्थना के रूप में हो गई है, जबकि इसका वास्तविक सार तो मन्त्रांश- ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ में निहित है। ईश्वर के भर्गः स्वरूप, जिसका अर्थ निरुपद्रवी अर्थात सभी स्थितियों में अचल, निष्पापी, पवित्र, सब दोषों से रहित व पूर्ण अर्थात परिपक्व है, को धारण करना ही इस मंत्र का सार है। ईश्वर के शुद्ध स्वरूप को समझने व धारण करने के पश्चात ही मंत्र के अंतिम पद में की गई प्रार्थना सफल अथवा पूर्ण होती है।

यहां, इस मंत्र को दूसरी बार उच्चारित करने का विधान है। 

समर्पण वाक्य

हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृपयानेन

जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः ।।

समर्पण वाक्य के शब्दों के अर्थ: भवत्कृपया आपकी कृपा से अनेन हम द्वारा किए गए इस कर्म नः सद्य भवेत हमें अतिशीघ्र प्राप्त होवे।

अर्थ– हे ईश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से हम जो-जो उत्तम काम करते हैं, उनके बदले में कोई सांसारिक कामना न करते हुए हम आपकी प्राप्ति की ही चाहना करें, जिससे हम सदा सत्य, न्याय और परोपकार का आचरण करें, धर्मयुक्त कर्मों से ही सांसारिक सुख-प्राप्ति के पदार्थों को प्राप्त करें, धर्म और अर्थ से इष्ट भोगों का सेवन करें और सब दुखों, से मुक्त होकर सर्वदा आनन्द में रहें। इन सभी बातों को सिद्धि हमें अतिशीघ्र प्राप्त होवे।

मंत्र

ओं नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।।

मंत्र के शब्दों के अर्थ: शम्भवाय, शङ्कराय, शिवाय हे सुखस्वरूप, कल्याणकारी और मङ्गलस्वरूप परमेश्वर! मयोभवाय, मयस्कराय, शिवतराय सुख, कल्याण और मङ्गल प्रदान करो नमः च आपको हमारा बारम्बार नमस्कार हो।

अर्थ -हे सुखस्वरूप, कल्याणकारी और मङ्गलस्वरूप परमेश्वर! हम आपके इन गुणों को अनुभव करने वाले हों। इस कारण आपको हमारा बारम्बार नमस्कार हो।