श्रेष्ठ-समाज के निर्माण के आधारभूत सिद्धान्त (आर्य समाज के नियम)
आर्य समाज नामक संस्था पर कुछ कहने से पहले, नीचे कुछ विचारकों के उद्धरण दिए जा रहे हैं-
‘आर्य समाज तो भूमि के गुरुत्व आकर्षण के समान है, जो है तो अदृश्य और अगोचर, परन्तु सब गतियों में ओत-प्रोत है व सब क्रियाकलापों को प्रभावित करता है।’
‘आर्य वह है, जो भीतर व बाहर की प्रत्येक बुराई से लड़ाई करके उसपर विजय पाता है। मानव की उन्नति में बाधक प्रत्येक बाधा से वह जूझता है। सर्वत्र सत्य, औचित्य व स्वतन्त्रता की खोज करता है।’
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि स्वामी दयानन्द जी थे। उनकी दृष्टि में सत्य व न्याय मनुष्यपन की आधारशिला हैं। उनके अनुसार उस धर्म का कोई औचित्य नहीं, जिससे व्यक्ति व समाज का सुधार न हो। धर्म को परिभाषित करने वाला व ईश्वरीय ज्ञान को देने वाला एकमात्र ग्रंथ वेद है। आज ईश्वर प्रदत्त ज्ञान को ग्रंथ के रूप में संजो लिया गया है। इस ईश्वरीय ज्ञान के अनुरूप हमारे श्रेष्ठ पूर्वजों ने सामाजिक स्थितियों के अनुसार व मनुष्य की सुविधा के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की हुई है। इन सभी ग्रंथों का उद्देश्य मनुष्य में मनुष्यता का आधान करना है। आर्य समाज का कार्य इन सभी ग्रंथों को समझ कर उनमें छुपे हुए मोतियों का प्रचार-प्रसार करना है, ताकि मनुष्यों का मनुष्यत्व जागृत हो और मनुष्य दुख-सागर से तर सके।
ईश्वर के स्वरूप, ईशोपासन, जीव व ईश्वर के सम्बन्ध व ईश्वरीय ज्ञान की चर्चा के साथ व्यक्ति का व्यक्ति से कैसा व्यवहार हो और व्यक्ति का समाज से सम्बन्ध कैसा हो, इन बातों को अपने नियमों में महत्त्वपूर्ण स्थान देनेवाला विश्व का सर्वप्रथम धार्मिक संगठन आर्यसमाज ही है। इसे आप इसके संस्थापक का मौलिक चिन्तन कहें या इसे आप आर्यसमाज की विलक्षणता समझें।
धर्म-प्रचार करते हुए आर्यों ने हर क्षेत्र में कईं कीर्तिमान स्थापित किए हैं। यह विडम्बना ही है कि स्वामी दयानन्द को हम आध्यत्मिक गुरु न मानकर केवल एक समाज सुधारक ही मानते हैं। महर्षि दयानन्द जी ने ‘आर्य समाज’ नामक संस्था का स्थापन करने के साथ इस संस्था के सदस्यों के व्यवहारों को धर्म की धुरी के इर्द-गिर्द बांधने के लिए दस नियमों को भी बनाया। इन दस नियमों से ही हम जान सकते हैं कि ‘आर्य समाज’ नामक संस्था की स्थापना क्यों की गई। ये नियम अपने में मानवता के हर पहलू को संजोए हुए हैं। इस संस्था के सभी सदस्यों के लिए यह अनिवार्य है कि वे अपने चरित्र में नीचे दिए गए आर्य समाज के दस नियमों का समावेश करें। इन नियमों की पलना से उनमें मनुष्यत्व के गुण अवितरित होना आरम्भ हो जाएंगे और वे सही मायनों में आर्य अर्थात श्रेष्ठ व्यक्ति बन पाएंगे।
आर्य समाज का पहला नियम-
सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।
व्याख्या–
नियम का पहला भाग- सब सत्य विद्या का आदि मूल परमेश्वर है।
सब सच्चे ज्ञान का भण्डार ईश्वर है। क्योंकि वेद ईश्वर की वाणी है, इसलिए वेद को सच्चे ज्ञान का स्रोत कहा गया है। वेद का अर्थ होता है- ज्ञान। वास्तव में वेद अथवा ज्ञान तो एक ही है, परन्तु विषयों के अनुसार इसके चार वर्गीकरण कर दिए गए हैं- ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इन चार वेदों में परमात्मा ने सभी सत्य उपदेश दिए है, जिन पर आचरण करके संसार के लोगों का कल्याण हो सकता है। इनमें कोई अतर्कसंगत बात नहीं है।
आज हम देखते हैं कि लोगों ने अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए अनेकों असत्य तथा झूठी बातों को लोगों में फैला दिया है।
नियम का दूसरा भाग- जो पदार्थ सत्य विद्या से जाने जाते हैं, उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।
आज विज्ञान ने संसार में कार्यरत विभिन्न शक्तियों को जान है और अपने उस ज्ञान के आधार पर रॉकेट, उपग्रह, मिसाइल्स, वायुयान, टेलीविजन, पंखा, घड़ी आदि का निर्माण मानव की सुविधा के लिए कर लिया है। निश्चित ही इस कार्य के लिए सम्बन्धित वैज्ञानिक प्रशंसा के योग्य हैं, लेकिन यह भी तथ्य है कि संसार में कार्यरत विभिन्न सिद्धान्तों के बिना मानव कुछ भी निर्माण नहीं कर सकता था। इन सारे सिद्धांतों को मूल रूप से देने वाला ईश्वर ही है।
पहले नियम से हमें यह ज्ञात होता है कि आर्य समाज ईश्वर को मानने वालों का समाज है और यह भी मानता है कि केवल वेद ही किसी चीज के अन्तिम सत्य को बताने वाले हैं। कुछ सत्य परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनशील होते हैं, जैसे प्राकृतिक वस्तुओं की भिन्न-भिन्न समयों में अवस्था और कुछ सत्य अपरिवर्तनशील होते हैं, जैसे आत्मा व परमात्मा सम्बन्धी सत्य। वेद इन दोनों तरह के सत्यों की बात करते हैं।
वेदों को सच्चा विज्ञान मानते हुए अमेरिकन लेडी व्हीलर विलोक्स लिखती हैं-
‘हम सभी ने भारत के प्राचीन धर्म के बारे में सुना और पढ़ा है। यह महान वेदों की भूमि है। इन वेदों के द्रष्टाओं ने अर्थपूर्ण जीवन जीने के लिए धार्मिक विचार ही नहीं दिए हैं, बल्कि ऐसे तथ्य भी घोषित किए हैं, जो विज्ञान की सभी शाखाओं के द्वारा सत्य साबित हुए हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि बिजली, रेडियम, इलेक्टोरन, हवाई जहाज आदि सभी चीजों के बारे में वेदों के द्रष्टाओं को जानकारी थी।’
आर्य समाज का दूसरा नियम-
ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टि-कर्त्ता है। उसीकी उपासना करनी योग्य है।
व्याख्या– इस नियम द्वारा ईश्वर क्या है, हमें पूर्णतः ज्ञात हो जाता है। प्रत्येक वस्तु में दो तरह की विशेषताएं होती हैं- कुछ गुणों से वह वस्तु युक्त होती है व कुछ अन्य गुणों वह अयुक्त होती है। जो-जो गुण उस वस्तु में विद्यमान होते हैं, उनके संदर्भ में उस वस्तु को सगुण कहा जाता है और जिन गुणों का उस वस्तु में अभाव होता है, उनके संदर्भ में उस वस्तु को निर्गुण कह दिया जाता है। वास्तव में, वस्तु की सगुणता वा निर्गुणता का वस्तु का उसके आकार के साथ कोई सम्बन्ध नहीं। सच्चिदानन्द स्वरूप, न्यायकारी, सृष्टिकर्त्ता आदि ईश्वर की सगुण विशेषताएं हैं और निराकार अर्थात उसका कोई रंग-रूप नहीं, अजन्मा अर्थात वह कभी जन्म नहीं लेता, अभय अर्थात वह सब भयों से परे है आदि उसकी निर्गुण विशेषताएं हैं।
क्योंकि आजकल ईश्वर-विषयक बहुत सी गलत धारणाएँ समाज में प्रचलित हो गईं हैं, इसलिए ईश्वर शब्द के साथ प्रयुक्त हुए अधिकतर विशेषणों का स्पष्टीकरण ईश्वर विषय के बारे में बताते हुए कर दिया गया है। शेष विशेषणों की व्याख्या नीचे दी जा रही है-
सर्वाधार- संसार के सभी पदार्थों का सहारा परमात्मा है। सूर्य का प्रकाश, चन्द्र की शीतलता, औषधियों का रस आदि सभी कुछ परमात्मा पर आधारित है। सर्वेश्वर- सबके ऊपर शासन करने वाला होने से उसे सर्वेश्वर कहा जाता है। संसार के सभी ग्रह, उपग्रह, पंचतत्व उसके नियम से ही काम करते हैं। सभी ऋतुएं समय पर आती हैं, समय पर रात और दिन आते हैं। नित्य-पवित्र- परमात्मा में किसी भी प्रकार की कभी भी अपवित्रता नहीं आती। वह अपवित्र वस्तुएं में विद्यमान रहता हुआ भी पवित्र ही रहता है। संसार में विद्युत ऐसा ही प्राकृतिक पदार्थ है। यह सत्ता सर्वदा व सर्वत्र शुद्ध रहती है। निराकार- वास्तव में निराकार का अर्थ आकर रहित होना है। प्रकृति से बनी कोई भी वस्तु सूक्ष्म होने पर नेत्रों से दिखाई नहीं देती, परन्तु उस सूक्ष्म वस्तु को उपकरणों आदि के माध्यम से देखा तो जा ही सकता है। क्योंकि ईश्वर प्रकृति से भिन्न सत्ता है, इसलिए इसका देखा जा सकना असम्भव है। अजन्मा- परमात्मा कभी भी जन्म धारण नहीं करता। जन्म धारण करने वाला कभी भी भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि कष्टों से छूट नहीं सकता। जन्म धारण करने वाले को मृत्यु को प्राप्त भी होना पड़ता है। आज बहुत से महापुरुषों को हम ईश्वर मानते हैं। वे भगवान तो थे, परन्तु ईश्वर नहीं। ईश्वर हमेशा एक ही होता है। ईश्वर और भगवान के भेद को अन्यत्र स्पष्ट किया गया है। अनन्त- हमारा आत्मा शरीर वाला है, परन्तु परमात्मा की कोई सीमा नहीं। हमारी बुद्धि, हमारा ज्ञान, हमारा बल आदि सभी कुछ सीमित है, परन्तु परमात्मा की शक्तियों का कोई अन्त नहीं। निर्विकार- ईश्वर सदा एकरस रहता है। प्रकृति की भांति वह परिवर्तनशील नहीं है। अनादि- परमात्मा आरम्भ से परे है, अर्थात कोई भी ऐसा समय नहीं था, जब परमात्मा नहीं था। वह सृष्टि से पहले भी विद्यमान था, सृष्टि के पश्चात, अर्थात प्रलय अवस्था में भी विद्यमान रहता है और प्रलय के बाद फिर सृष्टि होगी, तो उसमें भी रहेगा। अनुपम- उपमा से रहित। परमात्मा से बढ़कर तो क्या, उसके तुल्य भी कोई नहीं। इन गुणों वाली केवल एक ही सत्ता वर्त्तमान है। अजर- ज़रा अवस्था में प्राणी की शक्तियां, तो कम होने लगती है, परन्तु परमात्मा की शक्तियां सदा एक जैसी रहती हैं। अमर- प्रत्येक वस्तु, जो जन्म लेती है, कालान्तर में मृत्यु को भी अवश्य प्राप्त होती है। इसके विपरीत परमात्मा न कभी जन्म लेता है, न मृत्यु को प्राप्त होता है। मरने वाले, चाहे कितने भी बलशाली, क्रांतिकारी, विद्यायों के भण्डार क्यों न हों, वे महापुरुष, महामानव अथवा महात्मा तो कहे जा सकते हैं, परन्तु परमात्मा नहीं। अभय- क्योंकि परमात्मा से बड़ा व तुल्य भी कोई नहीं, इसलिए परमात्मा सब प्रकार के भयों से परे है।
आर्य समाज का तीसरा नियम-
वेद सब सत्य विद्यायों का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
व्याख्या– वेद में सब सच्ची विद्याएँ भरी पड़ी हैं। महर्षि दयानन्द जी ने उपनिषद, ब्रह्मणग्रन्थ, रामायण, महाभारत, भगवद्गीता आदि ग्रंथों को छोड़कर वेद को ही सच्ची विद्यायों की पुस्तक कहा, क्योंकि ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में ज्ञान वेदों के रूप में ही दिया। वेदों के अतिरिक्त सम्पूर्ण वाङ्गमय मनुष्य ने रचा है। उनमें भूलवश भी कुछ लिखा हो सकता है। वेद-ज्ञान ऋषियों को समाधि अवस्था में प्राप्त हुआ था, इसलिए इनमें भूल होना असम्भव है। इस ज्ञान को कुछ हजार वर्ष पहले ही लिपिबद्ध किया गया है। अन्य ग्रंथों में लिखी बातें वेदों के अनुरूप होने से ही प्रमाणिक हैं, अन्यथा नहीं। इसलिए, आर्य समाज वेदों को सबसे ऊँचा ग्रंथ मानता है तथा उनके पढ़ने-पढ़ाने और सुनने-सुनाने को परम धर्म कहता है।
आर्य समाज का चौथा नियम-
सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
व्याख्या– इस नियम में संकेत किया गया है कि प्रत्येक को सत्य का आग्रही होना चाहिए। कोई व्यक्ति किसी भी समाज व परिवार से सम्बन्धित हो, जब भी वह जान ले कि अन्यों द्वारा मानी जाने वाली बात सत्य है, तो उसे तुरन्त उस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए और जब भी उसे पता चले कि उस द्वारा मानी जाने वाली कोई बात गलत है, तो तुरन्त उसे उस बात को छोड़ देना चाहिए। यदि उसे यह तो पता चल जाए कि उस द्वारा मानी जाने वाली कोई विशेष बात गलत है, परन्तु उस विशेष बात के सत्य-विकल्प का पता न चले, तो उसे गलत बात को तो तुरन्त छोड़ ही देना चाहिए और साथ ही साथ सत्य-विकल्प जानने का प्रयत्न करना चाहिए।
आर्य समाज का पाँचवाँ नियम-
सब काम धर्मानुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचार कर करने चाहिए।
व्याख्या– अब प्रश्न उठता है कि हम कैसे जानें कि हमारे कर्म धर्म के अनुसार हैं कि नहीं? धर्म को जानने का बहुत सरल सा तरीका है। वेद के अनुसार कर्म करना धर्म है और वेद के विपरीत कर्म करना अधर्म है। हमें किसी भी कार्य को धर्म को विचारे बिना नहीं करना चाहिए।
आर्य समाज का छटा नियम-
संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है- अर्थात शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
व्याख्या– इस समाज का उद्देश्य किसी एक जाति अथवा एक सम्प्रदाय का उपकार नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य तो पूरे प्राणिमात्र का कल्याण करना है। प्राणिमात्र शब्द से मनुष्य व मनुष्य से भिन्न सभी योनियों का ग्रहण होता है। क्योंकि मनुष्य से भिन्न योनियों की आत्मिक व सामाजिक उन्नति का कोई अर्थ नहीं, इसलिए इस नियम में यह स्पष्ट किया गया है कि संसार के उपकार के साधन मनुष्यों की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति ही हैं। जितनी-जितनी मनुष्यों की शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति होती जाती है, उतना-उतना संसार का उपकार निश्चित होता जाता है।
इस नियम को बनाने के पीछे एक और गहरी बात छुपी हुई है। वह है- व्यक्ति किसी बात के मूल को नहीं समझ सकता और वह उपासना के समय ईश्वरीय आनन्द को अनुभूत भी नहीं कर सकता, जब तक उस पर ईश्वरीय कृपा न हो (ईश्वर की कृपा और ईश्वर की दया में भिन्नता है)। ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने का एक सिद्धान्त है कि व्यक्ति जितना-जितना समाज का उपकार करता जाता है, उतनी-उतनी ईश्वर की कृपा उस पर बरस जाती है। इस कारण परोपकार की भावना को इस समाज के नियमों में विशेष स्थान दिया गया है।
आर्य समाज का सातवाँ नियम-
सबसे प्रतिपूर्वक, धर्मानुसार और यथायोग्य बर्तना चाहिए।
व्याख्या– प्रत्येक मनुष्य दूसरों के साथ प्रेमपूर्वक व नम्रता से वार्तालाप और बर्ताव करे, धर्मपूर्वक-सत्य और न्याय के साथ वार्ता और व्यवहार करे। तीसरी बात यथायोग्य व्यवहार की है। यह बड़ी महत्त्वपूर्ण है। ‘यथायोग्य’ शब्द परस्पर सम्बन्ध का सूचक है। राजा-प्रजा, स्वामी-सेवक, पिता-पुत्र, गुरु-शिष्य, बन्धु-बान्धव, इष्ट-मित्र, छोटा-बड़ा, वृद्ध-बालक इत्यादि सम्बन्धों के अनुसार ही दूसरों के साथ बर्तना चाहिए। यदि इस नियम का पालन सभी लोग करें, तो न कभी अनुशासन भंग हो और न कभी कटुता उत्पन्न हो।
आर्य समाज का आठवां नियम-
अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
व्याख्या– मूर्ख और अशिक्षित लोगों को ज्ञान देना विद्या का विस्तार कहलाता है। विद्या का विस्तार करने से पहले हमें स्वयं को अधिक से अधिक ज्ञानवान करना आवश्यक है। जो विद्या व्यवहार में नहीं लाई जाती, उसका कोई औचित्य नहीं। इसलिए यहां, विद्या की वृद्धि करने से तात्पर्य उसे व्यवहार में लाना भी है। यदि हम किसी को कुछ बताना चाहते हैं, तो हमारी वाक-शक्ति के पीछे हमारे तदानुसार व्यवहार का समर्थन आवश्यक है। यदि हम कहते तो कुछ हैं और व्यवहार में उससे भिन्न बर्तते हैं, तो हम कभी भी अपने ज्ञान का विस्तार नहीं कर पाते। कहा भी जाता है कि कर्म की तीव्रता ध्वनि की तीव्रता से कहीं अधिक होती है।
आर्य समाज का नौवाँ नियम-
प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट न रहना चाहिए, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
व्याख्या– प्रत्येक की उन्नति का रास्ता मोक्ष-पथ ही है। यदि कोई व्यक्ति अपने अन्तिम ध्येय- मोक्ष की ओर अग्रसर हो गया है, तो उसका अन्यों के साथ, जो अपने अन्तिम ध्येय को अभी नहीं समझे मानसिक विरोध होना स्वाभाविक है। इस नियम का तात्पर्य इस बारे में बात करना नहीं है। यह नियम इस तरफ इशारा कर रहा है कि कोई व्यक्ति मनुष्य तभी है, जब वह केवल अपना ही हित नहीं साधता, बल्कि सबका हित करने में अपना हित समझता है। आजकल पूंजीवाद और साम्यवाद का जो झगड़ा चल रहा है, उसका स्थायी हल इस नियम में बता दिया गया है। पूंजीपति को केवल अपना ही खजाना नहीं बढ़ाना है, किन्तु सब मजदूरों और गरीबों की भी सहायता कर उन्हें भी ऊँचा उठाना चाहिए।
आर्य समाज का दसवाँ नियम-
सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।
व्याख्या– इस नियम में अनुशासन-पालन का बहुत ऊँचा आदर्श उपस्थित किया गया है। ‘हम सब कर्म करने में स्वतन्त्र हैं’, इस बात की आड़ लेकर हमें उन कार्यों को कदापि नहीं करना है, जिनसे सम्पूर्ण समाज के हित में बनाए गए नियमों की अवमानना हो, अर्थात सार्वजनिक हित के नियमों को मानने से किसी भी मनुष्य को इन्कार नहीं करना चाहिए। हमारे जिन कार्यों से किसी अन्य व्यक्ति को कोई हानि या कष्ट न पहुंचे, ऐसे कामों को करने में हम सब स्वतन्त्र हैं।
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