व्यक्तित्व विकास
ऊपर दिए गए व्यक्तित्व विकास के सूत्रों से कुछ बातें अनुत्तरित रह जाती हैं। आजकल के Motivational Speakers द्वारा कही जाने वाली सभी बातें पूर्णतया असत्य नहीं होती। ऐसे में, आजकल Personality Development पर प्रचलित साहित्य और ऊपर दिए गए वीडियो में संगति बैठाना आवश्यक हो जाता है। यह निबंध इसी दिशा में एक प्रयास है। इसमें दिए गए विचार मेरे अपने नहीं, बल्कि बहुत सारे प्रसिद्ध Motivational Speakers के और वेदों के हैं।
वस्तुतः विकास तो वो होता है, जो मृत्यु से पहले एवं मृत्यु के बाद सुख का कारण होता है। आजकल के Motivational Speakers की बातों का केन्द्र मृत्यु से पहले प्राप्त होने वाला सुख ही होता है। वे मृत्यु के बाद के सुख के बारे में सोच ही नहीं पाते। यदि आज के Motivational Speakers की बातें पूर्ण निष्ठा से मानी जाएं, तो वह निश्चित रूप से लाभकारी सिद्ध होती हैं, परन्तु वह लाभ इतना अधिक नहीं होता। यदि व्यक्ति उतनी ही मेहनत अपने चरित्र को सुधारने में लगाए, तो उसके सुख की मात्रा व गुणवत्ता कहीं अधिक हो। यदि व्यक्ति का चरित्र अच्छा हो, तो उसके प्रति लोगों में धारणा कुछ ऐसी बन जाती है कि व्यक्ति को दूसरों से हानि भी कम होती है। प्रारम्भिक स्तर पर व्यक्ति को अपना चरित्र सुधारने के लिए, समय का सदुपयोग करना, बुद्धि की स्वीकृति मिलने के पश्चात ही किसी बात को मानना, अपने शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना, अपने खान-पान में संयम लाना आदि आना चाहिए।
व्यक्तित्व का विकास तब तक सम्भव नहीं, जब तक व्यक्ति मनुष्यत्व को धारण नहीं कर लेता। मनुष्यत्व को धारण करने का अर्थ है, व्यक्ति का योग की महत्ता को समझते हुए योग मार्ग पर अग्रसर होना, ईश्वर के सही स्वरुप को जानना, सत्य बोलना, स्वाध्यायशील बनना, संतोषी होना, अपनी इन्द्रियों पर संयम होना, अपने व्यवहार में दयालुता व करुणा लाना, शिष्ट व सौम्य होना, ईमानदार होना, बड़ों का आदर करना आदि गुणों का अपने में समाविष्ट करना। इन सभी गुणों को पूर्णता से अपने जीवन में धारण करना, तो, एक जन्म में सम्भव नहीं। ऐसे में, अपने इसी जन्म में अपने व्यक्तित्व का विकास करना क्या काल्पनिक है? नहीं। यदि व्यक्ति इस रास्ते पर चलना आरम्भ कर दे, तो उसके व्यक्तित्व का विकास उसके पुरुषार्थ के अनुपात में होता चला जाता है। मृत्यु भी विकास के इस प्रवाह को रोक नहीं सकती अर्थात मृत्यु होने पर व्यक्ति विकास के जिस स्तर को प्राप्त हो चुका होता है, अगले जन्म में उसे उसी स्तर से आगे बढ़ने का अवसर मिलता है।
इन गुणों को धारण करने से व्यक्तित्व का विकास होता है, इस सत्य को कोई भी Motivational Speaker झुठला नहीं सकता। इस तरह का आदर्श व्यवहार करने से, यह सम्भव है कि उसे आज के समाज की ओर से, जिसका आज बहुत अधिक नैतिक पतन हो गया है, कुछ नुकसान उठाना पड़े, लेकिन फिर भी ईश्वर की तरफ से उसे जो लाभ मिलेगा, उसका साधारण व्यक्ति कल्पना भी नहीं कर सकता। इसी नुकसान की सम्भावना को देखते हुए आजकल के Motivational Speakers उसी तरह के व्यवहार को प्रोत्साहित करते हैं, जो आज की समाज की सोच के अनुसार होता है। ऐसा करते हुए, वे उन बिंदुओं को नजर-अंदाज कर देते हैं, जिन पर व्यक्ति का 1-5 वर्ष का भविष्य नहीं, बल्कि 50-100 वर्ष का भविष्य निर्भर करता है। मानव का वास्तविक विकास तो उन्हीं बातों में निहित है, जो मृत्यु से पहले भी एवं मृत्यु के बाद भी सुख देने वाली हैं। इसलिए व्यक्तित्व-विकास के नाम पर चरित्र-निर्माण के अतिरिक्त किसी अन्य बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए।
वास्तव में सभी मनुष्यों के लिए यह सम्भव ही नहीं कि वे चरित्रवान बन सकें। यहां हम यह नहीं कहना चाह रहे कि उनमें चरित्रवान बनने की क्षमता नहीं होती, बल्कि उन्होंने अपने कर्मों को इतना कलुषित कर लिया होता है कि चरित्रवान बनना उनके लिए असम्भव सा होता है। योग दर्शन के अनुसार व्यक्ति के मन की पांच भूमियाँ अथवा स्थितियाँ अथवा अवस्थाएं अथवा दशाएं होती हैं। जब तक व्यक्ति का मन पहली दो अवस्थाओं में होता है, तब तक चरित्रवान बनना उसके लिए असम्भव होता है, मन की तीसरी अवस्था में उसकी इस तरफ कुछ रुचि जगती है और इस तरफ प्रयास करते हुए वह कईं बार सफल हो जाता है व कईं बार असफलता उसके हाथ लगती है। मन की अंतिम दो स्थितियों में उसकी इस ओर सफलता निश्चित होती है। व्यक्ति का मन की पहली दो स्थितियों से बाहर निकलना ईश-कृपा पर ही निर्भर करता है। सभी व्यक्तियों के मनों की भूमियों को एक सा समझना ही आजकल के Motivational Speakers की सबसे बड़ी भूल है।
हालाँकि, व्यक्तित्व-विकास को अच्छी तरह परिभाषित कर दिया गया है, परन्तु ऊपर कही बातों के समर्थनार्थ आजकल के Motivational Speakers के कुछ कथनों / सुझावों की विवेचना की जाती है-
1 विषय- आत्मविश्वास:
आजकल के Motivational Speakers के कुछ कथन
-किसी व्यक्ति का किसी विशेष क्षेत्र में सफल होना, उनके आत्मविश्वास का परिचायक होता है, अर्थात उस विशेष क्षेत्र में उसका आत्मविश्वास उसे दूसरों से अधिक सफल बना देता है।
-वही व्यक्ति आत्मविश्वासी है, जो किसी विशेष क्षेत्र में सफल होने की आकांक्षाओं को अपने जीवन का अंग बना लेता है।
-युद्ध में हथियार नहीं लड़ते, लड़ने वाले के हृदय का आत्मविश्वास लड़ता है।
वैदिक संस्कृति के अनुसार-
-व्यक्ति में आत्मविश्वास का गुण तब तक नहीं आ सकता, जब तक उसे अपने से बड़ी शक्ति अर्थात ईश्वर पर विश्वास न हो। जितना जितना व्यक्ति जानता जाता है कि ईश्वर उसकी हर परिस्थिति में रक्षा करने वाला है, उतना उतना वह अपने अस्तित्व के प्रति श्रद्धावान होता जाता है, इसी को आत्मविश्वास कह दिया जाता है। अपने अस्तित्व के प्रति श्रद्धावान होना, असम्भव सी दिखाई देने वाली परिस्थितियों से निकालने में सक्षम होता है। कुछ लोग श्रद्धा को काल्पनिक अथवा न समझ आ सकने वाली मानते हैं। क्योंकि, हमारा अस्तित्व भी काल्पनिक नहीं, इसलिए हमारा अपने अस्तित्व के प्रति श्रद्धावान होना भी काल्पनिक नहीं। किसी वस्तु के सत्य स्वरूप की अनुभूति ही श्रद्धा कही जाती है। श्रद्धा कोई ऐसा विश्वास नहीं, जो प्रमाणों से पुष्ट नहीं हो सकता, बल्कि कोई विश्वास प्रमाणों से पुष्ट होने के पश्चात ही श्रद्धा कहलाता है।
-आत्मविश्वासी व्यक्ति की सफलता का राज उसके पुट्ठों की मजबूती न होकर उसका दृढ अंतःकरण होता है। ऐसा व्यक्ति जब किसी काम को अपना ध्येय मान लेता है, तो वह उस काम को करने में अपना समय, अपनी सम्पत्ति, अपनी शक्ति और यहां तक कि अपने प्राणों को भी अर्पित करने से नहीं हिचकिचाता। एक आत्मविश्वासी व्यक्ति पहचान जाता है कि कौन सा काम उसके सामर्थ्य के भीतर और कौन सा काम उसके सामर्थ्य से परे है। जो काम उसके सामर्थ्य के भीतर होता है, उसे सफल बनाने में वह कभी भी हार नहीं मानता, चाहे कितनी ही मुश्किलें क्यों न आएं और जो काम उसके सामर्थ्य से परे होता है, उससे वह बचने का प्रयत्न करता है।
-आत्मविश्वास का गुण पूर्ण रूप से हमारे मन की शुद्धता पर निर्भर करता है और जब कोई व्यक्ति मानवता के विभिन्न घटकों के बारे में अपने विचारों को शुद्ध करने में प्रयासरत हो जाता है, तो उसे आस्तिक कह दिया जाता है। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि एक आस्तिक व्यक्ति ही आत्मविश्वासी हो सकता है। संसार के समस्त प्राणियों व जड़ पदार्थों के प्रति मन का प्रेम से लबालब भर जाना मन की शुद्धता की पराकाष्ठा है।
-आस्तिक व्यक्ति को डर, निराशा और सन्देह नहीं घेरते। वह सदा उत्साह और आत्मविश्वास से परिपूर्ण रहता है। उसे अपने सुषुप्त सिंहत्व का अहसास हो जाता है। ऐसा व्यक्ति इस तरह की मानसिकता का हो जाता है, जो सफल होने पर अत्याधिक प्रसन्न नहीं होता व असफल होने पर निराश नहीं होता। असफलता उसके उत्साह और आत्मविश्वास को कमजोर नहीं कर पाती। आस्तिकता का अर्थ ही यह है कि ईश्वर, जो उत्साह, साहस, धीरता, प्रसन्नता, आशा आदि गुणों का परम स्रोत है, से जुड़ना और ईश्वर के इन गुणों को अपनी सामर्थ्य अनुसार धारण करना। ये गुण अपने आप में सफलता की कुंजी हैं।
-एक आस्तिक व्यक्ति और एक नास्तिक व्यक्ति में भिन्नता उनके मुश्किलों का सामना करने की मानसिकता में होती है। एक आस्तिक व्यक्ति को असफलता हरा व डरा नहीं सकती। एक आस्तिक व्यक्ति मुश्किलों में छिपी सम्भावनाओं को देख लेता है और उन्हें अवसर बनाने में सफल हो जाता है।
-व्यक्ति को विचारों का समूह कहा जा सकता है। व्यक्ति के विचारों से ही उसकी व समाज की उन्नति सम्भव है। जो व्यक्ति अपने विचारों को स्वीकार कर पाने में असमर्थ है, वह आस्तिक हो ही नहीं सकता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि व्यक्ति अपने अनुचित विचारों को भी स्वीकार करने वाला हो। एक आस्तिक व्यक्ति का यह भी लक्षण है कि वह उचित और अनुचित विचारों में भेद कर पाने में समर्थ हो जाता है। आस्तिक व्यक्ति को अच्छी तरह से पता चल जाता है कि कौन से विचार उसके उत्थान के लिए आवश्यक हैं और कौन से विचार उसके उत्थान में बाधा हैं। जैसे जैसे वह आवश्यक विचारों को ग्रहण करता जाता है और अनावश्यक विचारों से दूर होता जाता है, वैसे वैसे उसका व्यक्तित्व विकास करता जाता है। अच्छे विचारों को धारण करना और बुरे विचारों को दूर करना, व्यक्तित्व विकास की आधार-शिला है। इस आधार-शिला के बगैर किन्हीं विशेष गुणों को धारण करने का प्रयास करना, व्यक्ति में कुछ समय के लिए तो वांछनीय परिवर्तन ला सकते हैं, परन्तु उन परिवर्तनों को स्थाईत्व के अभाव में व्यक्तित्व विकास नहीं कहा जा सकता। आजकल के motivational speakers सामान्यता व्यक्ति में अस्थाई परिवर्तनों को ही व्यक्तित्व-विकास का नाम देते हैं।
-हमारे मन में प्रतिदिन अनेकों विचार उत्पन्न होते हैं। एक आस्तिक व्यक्ति अपने मन को उन्हीं विचारों को उत्पन्न करने के लिए प्रक्षिशित करता है जो, उसके अंतिम उद्देश्य की पूर्ति में सहायक हों। इस तरह वह अपनी बहुत सी मानसिक शक्ति को व्यर्थ के विचार उत्पन्न करने से बचा लेता है।
-आस्तिकता का गुण धारण करने के लिए शुरुआती स्तर पर हमें जड़ व चेतन वस्तुओं के हमारे अस्तित्व को सार्थक बनाने के प्रति योगदान को स्वीकारना होता है। हमारे अस्तित्व में सबसे बड़ा योगदान ईश्वर का है, जिसने हमें इतना सुन्दर व उपयोगी शरीर दिया, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ आदि दीं, जिनसे हम नए नए अविष्कार व अनेकों जानकारियाँ प्राप्त कर सकते हैं। उसी ईश्वर ने हमारे शरीर के उपयोग के लिए आवश्यक सारी वस्तुएं संसार में बना के दीं हैं। इसीलिए, कृतज्ञता को मनुष्यता का प्रथम लक्षण कहा गया है। जब हम सभी जड़ व अन्य चेतन वस्तुओं में अपना ही रूप देखने लगते हैं, तो हमारे मन में समृद्धि का भाव उत्पन्न होता है और यही समृद्धि का भाव हमारे भीतर अदभुत शक्ति व आत्मविश्वास पैदा करता है।
-आस्तिक होने पर व्यक्ति में आत्मविश्वास के साथ-साथ और भी बहुत से गुण आ जाते हैं, जैसे कि नम्रता, सामाजिक आवश्यकता की पहचान, निन्दा में भी अविचलित रहना, अपने संकल्प पर दृढ़ रहना आदि। इसका कारण यह है कि आस्तिकता की आधार ही यह है कि व्यक्ति को अपना अन्तिम उद्देश्य साफ हो जाता है और उसे पता चल जाता है कि सांसारिक उपलब्धियाँ अथवा कर्तव्य अन्तिम उद्देश्य को प्राप्त करने के साधन मात्र हैं।
-हमारे व्यक्तित्व का विकास किसी बहरी चीज पर निर्भर नहीं, बल्कि हमारा बाह्य सहायता को प्राप्त करना हमारे आन्तरिक विकास पर ही आश्रित है। प्रत्येक आत्मा के अंदर बड़े से बड़े गुण को धारण करने का सामर्थ्य विद्यमान है। दूसरे शब्दों में हमारे व्यक्तित्व का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि हमारे भीतर विद्यमान महान बनने के बीजों को हम कितना अंकुरित कर पाते हैं।
-आत्मविश्वासी व्यक्ति उत्साहहीन नहीं हो सकता। उत्साह हमारी एक मनःस्थिति है, इसमें हमारे अंदर धैर्य, आशावादिता व श्रद्धा के गुण सक्रिय हो उठते हैं। उत्साह का एक प्रबल आधार जिंदादिली है। एक जिंदादिल व्यक्ति का यह मानना होता है कि चिंता करने से समस्याएं हल नहीं होतीं, बल्कि चिंताएं तो समस्यायों के समाधान का रास्ता ही बंद कर देती हैं।
-अपने अंदर आत्मविशास जगाने का एक बहुत उत्तम तरीका है- अपनेआप पर इसलिए, विश्वास करना, क्योंकि ईश्वर ने हमें बनाया है और ईश्वर व्यर्थ की चीजें नहीं बनता।
-आत्म-विश्वास का सम्बन्ध हमारी विचारों को व्यक्त करने की क्षमता से भी है। इसलिए, जब भी अवसर मिले, अपने विचारों को सम्मति या कमेंट या प्रश्न के रूप में व्यक्त करें। शुरु-शुरु में आप इस तरह अपने विचारों को व्यक्त करने का अभ्यास छोटे व पारिवारिक समूहों में करें और शुरु में, आप केवल एक-दो वाक्य ही बोलें। धीरे-धीरे जब आप किसी सभा में 4-5 मिनट लगातार बोलने में सक्षम हो जाएंगे, तो आपका आत्म-विश्वास भी ऊँचे दरजे का हो जाएगा।
-कमतरी की भावना भी आत्म-विश्वास के रास्ते में एक बहुत बड़ी बाधा है। इससे उभरने का एक रास्ता यह है कि हम अपने 9-10 गुणों को रेखांकित कर लें। उदाहरण के लिए- हमारी शिक्षा, हमारी तकनीकी कुशलता, हमारा दृष्टिकोण, हमारे व्यक्तित्व को परिभाषित करने वाले हमारे मानसिक गुण आदि। उसके बाद अपने आस-पास दृष्टि दौड़ाएं और देखें कि कितने ही लोगों के पास यह 9-10 गुण भी नहीं हैं। इससे, आपकी कमतरी की भावना जाती रहेगी।
2 विषय- लक्ष्य प्राप्त करने के सूत्र:
आजकल के Motivational Speakers के कुछ कथन
-किसी ध्येय को प्राप्त करने की सफलता तभी सार्थक है, जब हमें अपने उद्देश्य की निश्चितता के बारे में पूर्ण विश्वास हो।
-हमारी सफलता हमारी स्थिति से नहीं, बल्कि हमारे प्रयासों की दिशा से जानी जाती है।
वैदिक संस्कृति के अनुसार-
हमें अपने जीवन के अन्तिम उद्देश्य के बारे में हमारी वैदिक संस्कृति ही बताती है। हमारे जीवन के सांसारिक लक्ष्य सामयिक ही होते हैं। यदि, हमें अपने जीवन के अन्तिम उद्देश्य की जानकारी हो, तो हम अधिक निष्ठा से अन्य सामयिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास करेंगे। हमारे उद्देश्य की निश्चितता से हमारे जोश और प्रयास करने के जज्बे में मजबूती आती है।
3 विषय- लक्ष्य की प्राप्ति में आने वाली मुश्किलें:
आजकल के Motivational Speakers के कुछ कथन
-सफलता हमारी प्राप्त की गई स्थिति से नहीं, बल्कि रास्ते में आने वाली मुश्किलों के सफल निपटारे से मापी जाती है।
-तूफानों के कारण ही पेड़ों की जड़ें गहरी हो पाती हैं।
-हमें भविष्य में आ सकने वाली मुश्किलों के लिए तैयार रहना चाहिए।
-जब कभी मुश्किलों के कारण हमें हानि उठानी पड़ जाए, उस समय हमारा ध्यान इस बात पर नहीं होना चाहिए कि हमने क्या खो दिया, बल्कि हमारे ध्यान का केंद्र वो चीजें होनी चाहिएं, जो हमने नहीं खोईं।
वैदिक संस्कृति के अनुसार-
-ईश्वर की न्याय व्यवस्था ही कुछ ऐसी है कि हमारे जीवन में आने वाली मुश्किलें हमारी मनःस्थिति पर ऐसा प्रभाव डालती हैं कि हम अपने अन्तिम उद्देश्य के ओर नज़दीक हो जाते हैं। मुश्किलों का सकारात्मक प्रभाव बीमारी, पीड़ा व जबरदस्ती की निष्क्रियता से उभरने के बाद हम अधिक अच्छे से अनुभव कर सकते हैं। बहुत से लोग अपनी क्षमताओं को तब तक जान ही नहीं पाते, जब तक उनका सामना कठिनाईयों और असफलताओं से न हो। बाधाएं और कठिनाइयां हमारे जीवन को सौंदर्य प्रदान करने वाले होते हैं। इसलिए, वैदिक वाङ्गमय के बहुत से स्थलों पर मुश्किलों का स्वागत करना सुझाया गया है। एक आस्तिक व्यक्ति इस बात का निर्णय अधिक अच्छे से कर सकता है कि कौन सी मुश्किलों को आमंत्रित करना है और कौन सी मुश्किलों से बचना है।
-बहुत सा वैदिक वाङ्गमय दुखों से बचने पर केन्द्रित है। हमारे बहुत से दुखों कारण हमारे स्वयं की मानसिकता होती है। अपनी मनःस्थिति को अच्छा करके हम बहुत से दुखों से बच सकते हैं। दुखों से बचने का अन्य मार्ग यह है कि भविष्य के दुखों के लिए अभी से बाह्य व आन्तरिक तैयारी की जाए और अधिक से अधिक सम्भावित हानि को विचारा जाए। कोई भी सांसारिक हानि इतनी बड़ी नहीं होती कि वह हमें ईश्वर का अनन्त सुख पाने से विमुख नहीं कर सके।
-जब हम ईश्वर की शरण में जाते हैं, तो मुसीबतों का प्रतिकूल प्रभाव हम पर नहीं होता। इस कारण, मुसीबतों में भी हमारे उत्साह में कमी नहीं आती। यहां ईश्वर की शरण में जाने का अर्थ अपनी मुश्किलों को ईश्वर की अटूट न्याय व्यवस्था पर छोड़ देना है।
-संघर्ष के बाद प्राप्त सफलता में एक अनोखा आनन्द होता है। वह व्यक्ति इस आनन्द से महरूम रह जाता है, जिसे सफलता बिना संघर्ष के मिल गई हो और ऐसा व्यक्ति उस आनन्द की कल्पना भी नहीं कर सकता।
-एक आस्तिक व्यक्ति सकारात्मक होता है। उसका ध्यान सदा इस बात पर रहता है कि क्या उसके पास है, नाकि इस बात पर कि क्या उसके पास नहीं है।
-एक सकारात्मक मानसिकता वाला व्यक्ति अपनी असफलता के कारणों के बजाए उन कारणों के बारे में विचार करता है, जिनके कारण वह उस कार्य में सफल हो सकता है।
-एक आस्तिक व्यक्ति कभी भी घुटने टेकने वाली प्रकृति का नहीं होता।
-कार्य की निष्पन्नता में आने वाली बाधाओं से डरने का तात्पर्य है कि हम उस कार्य की सफलता के योग्य नहीं।
-बाधाओं को भेद्य मानने वाला व्यक्ति यदि दृढ़ इच्छाशक्ति, बुद्धिमत्ता व धैर्य से युक्त हो तो बाधाओं के बीच में से अपना रास्ता खोज ही लेता है।
-हमारे पास मुश्किलों का आना हमारे जीवित होने का प्रबल संकेत होता है। मुर्दों के पास मुश्किलें नहीं जाया करतीं।
इस विषय पर कुछ महत्त्वपूर्ण उद्धरण (लेखक अनजान है।) नीचे दिए जा रहे हैं-
-यह निश्चित जानो कि इस समय के कर्तव्यों को अपनी पूर्ण योग्यता और निष्ठा से निभाना, भविष्य की सर्वोत्तम तैयारी है।
-ज्यादातर मुश्किलें, जिनके बारे में हम सोचते हैं कि आ सकती हैं, कभी आती ही नहीं।
-असम्भव सी प्रतीत होने वाली परिस्थितियों से सफलतापूर्वक बाहर निकलने वाले अधिकतर लोग वो होते हैं, जिन्हें घुटने टेकना नहीं आता होता।
-बिना पुरुषार्थ के सफल होने वाले से वह व्यक्ति अच्छा है, जो पुरुषार्थ करने के बाद असफल हो जाता है।
4 विषय- सफलता और प्रार्थना:
आजकल के Motivational Speakers के कुछ कथन
-सफलता के लिए प्रार्थना एक अनोखा अस्त्र है। यह अस्त्र कैसे अपने कार्य को अंजाम देता है, यह जाना नहीं जा सकता।
-प्रार्थना केवल नियमित रूप से ही नहीं की जानी चाहिए, बल्कि इसका वेग भी तीव्र होना चाहिए।
-प्रार्थना निश्चितरूप से फलीभूत होती है। ऐसा जानकर, हमें धीरता से इसके फलीभूत होने की प्रतीक्षा करनी चाहिए।
वैदिक संस्कृति के अनुसार-
-प्रार्थना का अर्थ होता है- किसी का सहाय प्राप्त करने के लिए याचना करना। किसी कार्य में सफलता के लिए हमें ईश्वर की कृपा भी चाहिए होती है। इसका यह अर्थ नहीं कि ईश्वर चाहे, तो हमें सफल करे और यदि न चाहे, तो हमें सफल न करे। ईश्वर इस संसार का नियन्ता है। इस नाते वह देखता है कि जो जो कारण किसी कार्य को सफल बनाने के लिए आपेक्षित हैं, वो वो कारण उपलब्ध हैं कि नहीं। हमारी स्वयं की मनःस्थिति का कार्य के अनुकूल होना, हमारी सफलता के लिए नितान्त आवश्यक कारण है। इसी को ईश-कृपा भी कह दिया जाता है। यदि हम, ईश्वर से अपनी मनःस्थिति को कार्य की सफलता के अनुकूल बनाने के लिए याचना करते हैं, तो ऐसा अवश्य कहा जा सकता है कि सफलता के लिए प्रार्थना एक अनोखा अस्त्र है। इसकी धार जितनी पैनी होगी और इसका प्रयोग जितना नियमित रूप से किया जाएगा, उतनी ही अच्छी तरह से यह फलीभूत होगी। यह भी सत्य है कि प्रार्थना निश्चितरूप से फलीभूत होती है।
-वैदिक संस्कृति में, जिस चीज़ के लिए प्रार्थना की जाती है, उसे पाने के लिए अपने सामर्थ्य अनुसार पुरुषार्थ करना आवश्यक है। पुरुषार्थ के पश्चात ही ईश्वर की तरफ से उस चीज़ को पाने के लिए सहायता मिलती है। लोगों के अन्दर बहुत गलत धारणा घर कर गई हुई है कि किसी चीज़ के लिए अपने पुरुषार्थ की कोई आवश्यकता नहीं, केवल प्रार्थना करना ही पर्याप्त है। संसार में भी हम देख सकते हैं कि यदि कोई व्यक्ति खाना पाने के लिए केवल प्रार्थना ही करे और उसे पाने के लिए स्वयं कोई प्रयत्न न करे, तो ऐसे व्यक्ति को मूर्ख ही कहा जाता है।
-प्रार्थना अपनी इच्छाओं को ईश्वर को बताने का नाम नहीं है। जैसे ही हमारे मन किसी चीज़ को पाने का विचार आता है, उसी समय ईश्वर को हमारी इच्छा की जानकारी हो जाती है। लेकिन वह चीज़ हमें मिलेगी, पर्याप्त पुरुषार्थ करने के बाद ही ।
-वैदिक कर्मफल व्यवस्था के अनुसार फल कभी भी कर्त्ता से भिन्न प्राणी को नहीं मिलता। प्रार्थना भी एक मानसिक कर्म है और इसका एक तुरन्त मिलने वाला फल है- प्रार्थना-कर्त्ता के चित्त की शुद्धता। ऐसा असम्भव है कि हमारे प्रार्थना करने से दूसरे व्यक्ति को कुछ मिल जाए। हमारी प्रार्थना अथवा शुभकामनाएं देने से दूसरे व्यक्ति को कर्म करने की प्रेरणा तो मिल सकती है, वह भी तभी, जब उसे हमारे द्वारा उसके लिए की गई प्रार्थना की जानकारी हो। यह एक निश्चित सिद्धान्त है कि प्राणी को कोई वस्तु तभी मिलेगी, जब वह उसके लिए पुरुषार्थ करेगा।
5 विषय- साहसी बनना:
खास तौर पर इसी विषय को केंद्रित करके आजकल के motivational speakers द्वारा कुछ नहीं कहा गया है। हालाँकि, अपने दूसरे विषयों की चर्चा करते हुए इस विषय पर भी उनके कुछ कथन मिल जाते हैं, परन्तु वे परोक्ष रूप से कहे गए ही होते हैं।
वैदिक संस्कृति के अनुसार:
-बहुत बार परिस्थिति के परिणाम से डरना हमारा स्वभाव बन जाता है। लेकिन बार बार सोचना कि कैसे ईश्वर हर परिस्थिति में हमारी रक्षा करता है और अपने मन को विश्वास दिलाना कि वह कभी भी हमारा साथ नहीं छोड़ता, हमारे डर को सदा के लिए दूर कर देता है। ईश्वर के प्रति विश्वास में अदभुत शक्ति है। अपने में ईश्वर के प्रति विश्वास जगाने के लिए हमें उस ईश्वर की देनों को याद करना अपनी दिनचर्या में शामिल कर लेना चाहिए। जब हमारे मन में ईश्वर के प्रति कृतज्ञता के भाव उत्पन्न होने लगें, तभी हम मान सकते हैं कि हममें ईश्वर के प्रति विश्वास जागने लगा है। ईश्वर-विश्वासी व्यक्ति की पहचान यह है कि वह सभी जड़ व चेतन वस्तुओं में ईश्वर को देखने लगता है। ईश्वर सृष्टि के कण-कण में है, इस तथ्य की उसे अनुभूति होने लगती है।
-जब हमें ईश्वर की न्यायव्यवस्था पर पूर्ण विश्वास होता है और हम ईश्वर द्वारा निर्देशित कार्य ही कर रहे होते हैं, तो हमारे अंदर ऐसा साहस जागता है कि हम अत्यंत दुष्कर स्थितियों में भी चल पाते हैं।
-यह ठीक है कि डर के न होने को साहस नहीं कहा जाता, परन्तु डर के भाग जाने पर ही साहस का पदार्पण होता है। जब हम ईश्वर द्वारा सुझाई अथवा निर्देशित बातों को करते हैं, तो हमारे मन में अपने आप उत्साह और साहस पैदा हो जाता है।
-साहस को जगाने के लिए उम्मीद की आवश्यकता होती है। आत्मविश्वास और साहस के गुण साथ साथ ही रहते हैं। आत्मविश्वासी व्यक्ति में उम्मीद होती ही है। व्यक्तित्व विकास में आत्मविश्वास के गुण की चर्चा बहुत विस्तार से की जा चुकी है।
-वीरता व साहस के कारनामें सुनकर हमारे रक्त की उष्णता बढ़ जाती है और उन कारनामों का हमारे व्यक्तित्व पर विशेष प्रभाव पड़ता है। यदि हम इन कारनामों के प्रभाव को स्थाई करना चाहते हैं, तो वीर व साहसी पुरुषों की कहानियाँ सुननी अथवा पढ़नी चाहिएं।
6 विषय- समझ:
इस विषय पर तो, आजकल के motivational speakers द्वारा कुछ कहा ही नहीं गया है। बुद्धि तो, सभी लोगों के पास होती है, परन्तु समझ किसी किसी के पास ही होती है। वस्तुतः ‘समझ’ के बिना व्यक्तित्व विकास के बारे में सोचना ही मूर्खतापूर्ण है। वैदिक संस्कृति के महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘योग दर्शन’ में अपने अन्दर ‘समझ’ पैदा करने की एक प्रक्रिया का उल्लेख मिलता है। वह प्रक्रिया है- जितना जितना हम किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप को जानते जाते हैं, उतनी उतनी हमारे अन्दर उस वस्तु के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो जाती है। इस श्रद्धा के अनुपात में हमारे अन्दर उत्साह पैदा होता है। जब हम में किसी वस्तु के प्रति श्रद्धा भी हो और उत्साह भी हो, तो उस वस्तु की स्मृति हमारे अंदर देर तक रहती है। इन तीनों- श्रद्धा, उत्साह और स्मृति के होने से हमारा मन उस वस्तु पर अधिक अच्छे से एकाग्र हो पाता है। मन के किसी वस्तु पर एकाग्र होने पर हमारे अन्दर एक समझ पैदा होती है, जिसकी तुलना संसार की किसी भी वस्तु से नहीं की जा सकती।
7 विषय- जोश अथवा उमंग लाना:
-जोश व उमंग उत्साह शब्द के ही पर्यायवाची हैं। वैसे तो, उत्साह के गुण के बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है, परन्तु यहाँ इसे एक अलग ही दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।
-सुबह उठते ही ईश्वर का हमें उठाने के लिए धन्यवाद करने से, मानो हम उस परम शक्ति से हमारे जीवन में जोश व उमंग पैदा करने की प्रार्थना करते हैं। संसार में बहुत से लोग होते हैं, जिन्हें उस सुबह के दर्शन ही नहीं होते। ईश्वर का धन्यवाद करते समय बहुत अच्छा हो, यदि हम उस सुबह की खूबसूरती को महसूस करने का प्रयत्न करें।
-अपने जीवन में जोश व उमंग पैदा करने के उपाय-
1 उत्साहित होना क्या होता है? इसे हम एक उपमा से समझने का प्रयास करते हैं। एक किशोरावस्था का बच्चा जैसे अपने भोजन, खेल, अपने मित्रों के साथ में जोश की अनुभूति करता है, वैसे ही हम बड़ी उम्र वाले लोगों को भी अपने हर कार्य में जोश की अनुभूति करने का अभ्यास करना चाहिए।
2 अपने जीवन में जोश लाने के लिए प्रतिदिन पाँच मिनट ऑंखें बंद करके ध्यान की मुद्रा में बैठें और अपने मित्रों, सम्बन्धियों, घर के सदस्यों, आस-पास के लोगों आदि के अच्छे गुणों के बारे में सोचें। एक महीने से कम के समय में ही आप अपने जोश में बढ़ोतरी अनुभव करने लगेंगे और उत्साहित रहना आपका स्वभाव बन जाएगा।
3 उत्साह किसी कार्य की निष्पन्नता को बहुत अच्छा तो करता ही है, कर्त्ता के उत्साहित रहने के प्रभाव से दल के अन्य सदस्य भी अपना कार्य अधिक अच्छा कर पाते हैं। इस नियम का लाभ हम वहाँ पर ले सकते हैं, जहाँ कोई कार्य कुछ लोग मिल-जुल कर करते हैं।
4 जब भी किसी की बात को सुनें, तो यह धारणा बना के सुनें कि अब कुछ अच्छा जानने को मिलेगा। इससे हम उस बात को अधिक अच्छे से समझ पाएंगे, जिससे हमारे उत्साह में वृद्धि होगी। जब हम किसी बात को दूसरों को समझाएं, तो यह नियम याद रखें कि वक्ता के उत्साहित होने से श्रोता अधिक अच्छे से वक्ता की बातों को समझ पाते हैं।
इस विषय पर कुछ महत्त्वपूर्ण उद्धरण (लेखक अनजान है।) नीचे दिए जा रहे हैं-
-वह व्यक्ति, जिसका शरीर जर्जर हो गया है, उस व्यक्ति की तुलना में कम बूढ़ा है, जो व्यक्ति आयु में तो कम है, परन्तु जिसमें उत्साह की कमी है।
-सामान्यता आयु के बढ़ने के साथ व्यक्ति के उत्साह में कमी आ जाती है, परन्तु उत्साह को किसी भी आयु में और कितनी भी मुश्किल परिस्थितियों में बढ़ाया जा सकता है।
-जो व्यक्ति उत्साहवान है, वह सफलता की किसी भी सीमा को छू सकता है। इसलिए, आवश्यक है कि हम सीखें कि इस गुण को जीवन पर्यन्त अपने में कैसे बसाया जा सकता है। इसका एक तरीका यह है कि हम अपने लिए छोटे-छोटे लक्ष्य निर्धारित करें। छोटे लक्ष्यों को प्राप्त करना हमारे उत्साह में वृद्धि करता है। उत्साहवान बनने का मौलिक तरीका है- उत्साह का निरन्तर अभ्यास करना। अभ्यास की प्रारम्भिक स्थिति में हमें अपने कार्यों में कृत्रिम उत्साह का समावेश करना चाहिए।
8 विषय- शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य:
दूसरे विषयों की चर्चा करते हुए ही इस विषय पर आजकल के motivational speakers द्वारा कुछ छुटपुट जरूर कहा गया है, परन्तु विशेष रूप से इसी विषय पर उनके द्वारा कुछ नहीं कहा गया है।
वैदिक संस्कृति के अनुसार:
-क्योंकि संसार में आत्मा का पुरुषार्थ बिना शरीर और मन के हो ही नहीं सकता, इसलिए शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता के चलते व्यक्तित्व विकास की बात हो ही नहीं सकती। आयुर्वेद द्वारा हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए अनेक उपाय सुझाए गए हैं। उन उपायों को अपने जीवन में धारण करना व्यक्तित्व विकास की आधारशिला है।
-चिंता करने वाले व्यक्ति का मन आराम करना जानता ही नहीं होता। प्रत्येक दुष्कर परिस्थिति में अपने शरीर व मन को पूर्ण आराम देने का एक ही तरीका है- अपनी सारी मुश्किलों को ईश्वर के हवाले कर देना। केवल ईश्वर ही आपको आपकी मुश्किलों से आसानी से बाहर निकलने का रास्ता सुझा सकता है। इस ईश्वर-समर्पण की कला को सीखने के लिए हमें प्रतिदिन नियमित रूप से इसका अभ्यास करना होता है।
-शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में निम्नलिखित सुझाव, जो वैदिक संस्कृति के अनुकूल हैं, दिए जा रहे हैं-
1 हमारा हर मानसिक, वाचिक और शारीरिक कर्म, जो ईश्वराज्ञा के विरुद्ध जाता है, गलत ही होता है और उसका हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा ही प्रभाव पड़ता है।
2 हमें किसी समस्या के निधान के लिए उस क्षेत्र के विशेषज्ञ की सहायता ही लेनी चाहिए और विशेषज्ञ की सहायता अवश्य लेनी चाहिए। उदाहरणार्थ- सिलाई से सम्बन्धित किसी समस्या के निधान के लिए हमें चिकत्सक के बजाए किसी दर्जी की सहायता ही लेनी चाहिए। हमारी बहुत सी समस्याओं का हल उस क्षेत्र के विशेषज्ञ की सहायता से बड़ी आसानी से हो जाता है।
3 जैसे हमारे शारीरिक स्वास्थ्य का हमारे मन पर प्रभाव पड़ता है, वैसे ही डर, शोक, घृणा, क्रोध, कुंठा, दोषारोपण, अपराधबोध आदि के नकारात्मक विचारों का हमारे शारीरिक स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
4 मानसिक वेदनाएँ शारीरिक वेदनाओं से अधिक पीड़ा देतीं हैं। मानसिक वेदनाओं का बहुत बड़ा कारण मन की संकीर्णता है।
5 मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हम अपनी शारीरिक क्रियाओं में परिवर्तन करके अपनी मानसिकता को बदल सकते हैं। जैसे, यदि हम कृत्रिम तौर पर मुस्कुराने की चेष्टा करें, तो हमारा मन स्वमेव ही प्रसन्न हो जाता है और यदि हम बिल्कुल सीधे होकर तेज-तेज चलें, तो हम स्वमेव ही अधिक आत्म-विश्वास से भर जाते हैं।
6 उल्लास का हमारे शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसका हमारी आंतरिक शक्तियों को सक्रिय करने में बहुत बड़ा योगदान है।
7 संक्षेप में कहा जाए तो, स्वास्थ्य आंतरिक संतुलन है और रोग आंतरिक असंतुलन। और मन का प्रसन्न रहना हमारे आंतरिक संतुलन के लिए नितांत आवश्यक है।
8 बहुत बार व्यक्ति काल्पनिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है। मनगढ़ंत कल्पनाओं से बचने का एक ही उपाय है- मानसिक संतुलन। जिस शरीर में स्वस्थ और संतुलित मस्तिष्क होता है, उसके रोगी होने की सम्भावना बहुत कम होती है।
9 शरीरिक समृद्धि से मानसिक समृद्धि अधिक महत्त्वपूर्ण है। समृद्धि उन्हीं को प्राप्त होती है, जो समृद्धि को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं।
10 दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मन और हृदय की विशालता ही पर्याप्त नहीं, उसके लिए हमारा शरीर भी स्वस्थ होना चाहिए। कोई कितना भी श्रेष्ठ क्यों न हो, यदि उसका शरीर अस्वस्थ है, तो हम उसके पास जाना नहीं चाहेंगे।
11 यदि हमारा शरीर सबल नहीं, मस्तिष्क में संतुलन नहीं, तो हमारा अपने अंतिम ध्येय को प्राप्त करना असम्भव है।
12 हमारी विचारों की सकारात्मकता हमारे मानसिक स्वास्थ्य का एक बहुत बड़ा कारण होती है, जिससे हमें मुश्किलों से जूझने के ताकत मिलती है।
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व्यक्तित्व विकास के लिए ऊपर दिए गुणों के विस्तार से बताने के लिए भिन्न भिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत नीचे कुछ बातें अलग से सुझाई जा रही हैं। ये सभी शीर्षक आपस में एक दूसरे से पूरी तरह गुथे हुएं हैं, इसलिए इनको अलग-अलग देखने का प्रयास वर्जित है। वैसे तो ये सभी बातें ऊपर दिए गुणों में अन्तर्निहित हैं, पर फिर भी सहजता के लिए इन बातों को सुझावों के रूप में अलग से भी दिया जा रहा है-
चिन्ता
-हम केवल कर्म करने में स्वतन्त्र हैं और एक बार हमने कोई कर्म कर दिया, तो उसके फल के बारे में चिन्ता करने की हमें न तो कोई आवश्यकता है और न लाभ, क्योंकि फल प्राप्त करना हमारे अधिकार में है ही नहीं। हाँ, ये बिंदु हमारे द्वारा विचारनीय होते हैं कि हमारे कर्म का अनुचित परिणाम व प्रभाव न हो।
-कहा यह जाता है कि हमें समस्या के समाधान की चिंता न करके अपना सारा ध्यान अपने मन की शान्ति को बनाए रखने में लगाना चाहिए, परन्तु वस्तुतः मन की वास्तविक शान्ति आई हुई समस्या के समाधान के पश्चात ही सम्भव होती है। समस्या के समाधान के बिना आई मन की शान्ति सामयिक ही होती है।
-भविष्य के बारे में चिंतन तो करना चाहिए, परन्तु चिंता कदापि नहीं। चिंता हमारे भविष्य को कभी संवार नहीं सकती। उलटे, चिंता करने से हमारी बुद्धि सही तरीके से काम नहीं कर पाती और हमें हानि उठानी पड़ती है।
-बार बार अपने मन को समझाएं कि केवल वर्त्तमान ही अपना है। भूतकाल में जो हम कर आए, उसको हम बदल नहीं सकते और हम जैसा अपना भविष्य चाहते हैं, उसके अनुरूप कार्य करने के लिए केवल वर्त्तमान ही हमारे पास है।
-चिंता को जन्म देने वाली हमारी सोचने की एक विशेष शैली होती है कि यदि, मैं ऐसा न करता अथवा करता, तो नुकसान से बच जाता। हम अपने सोचने की इस शैली के स्थान पर एक अन्य शैली प्रयोग में ला सकते हैं- वह शैली है, अगली बार…
-हम वहीं काटते हैं, जो हमने बोया होता है। यदि हम स्वर्णिम भविष्य चाहते हैं, तो हमें अपने जीवन में सद्भावना, सद्विचार, शांति, प्रसन्नता और प्रेम के बीज बोने होंगे।
-हम यह शरीर नहीं हैं। दुख केवल इस शरीर को ही प्रभावित कर सकते हैं, हमारे वास्तविक अस्तित्व को नहीं। वास्तव में तो हमारा अंत कभी होता ही नहीं। जो भी हमारे सगे-सम्बन्धी व मित्र आदि हैं, उन सबकी अपनी अपनी यात्रा है। संसार की कोई वस्तु नहीं, बल्कि हमारे कर्म ही हमारे साथ जाते हैं। इस सिद्धान्त को जानने से हम बहुत से क्लेशों से बच सकते है।
-जीवन में निराशा से बढ़कर यौवन का दूसरा कोई शत्रु नहीं। ऐसे निराशावादी व्यक्ति के लिए प्रसन्नता स्वप्न मात्र होती है। युवा बने रहने के लिए मनुष्य के मन में आशा की ज्योति जलती रहनी चाहिए।
-लम्बे समय से चिंता करते रहने की आदत के कारण हमारा व्यक्तित्व दुर्गन्ध पैदा करने लगता है। इसका प्राथमिक उपाय है- चिंताओं को क्षीण करते जाना। इसके लिए आवश्यक है कि हम छोटी छोटी चिंताओं को मिटा दें और चिंताओं को दर्शाने वाले शब्दों के प्रयोग से परहेज करें।
-यदि, आप लम्बे समय से चिंता नामक बीमारी से जूझ रहें तो, आप स्वयं ही अपनी सृजनात्मक क्षमताओं का गला घोंट रहे हैं।
-यदि, हमारे मन में ईश्वर के विचार भरे हुए हैं, तो उसमें चिंताएं ठहर नहीं सकतीं। इसलिए, प्रतिदिन 10-15 मिनट अपने मन में ईश्वर के विचार भरें।
-सकारात्मक व्यक्ति भी आखिर हैं तो मनुष्य ही, इसलिए वे भी अपनी मनोदशा के उतार-चढ़ाव से गुजरते हुए निराशा की पकड़ में आ जाते हैं। परन्तु, ऐसे सकारात्मक व्यक्ति अपनी निराशजनक मनोदशा से बहुत जल्दी उभर जाते हैं। इसके लिए वे निम्न उपाय अपनाते हैं-
1 उनके अंदर निराशा से उभरने की प्रबल इच्छा होती है। जो व्यक्ति सकारात्मक नहीं होते, वे अपनी असफलताओं के लिए अपनी निराशावादी मनोदशा को ढाल की तरह इस्तेमाल करते हैं और इसीलिए ऐसे व्यक्तियों की अपनी निराशावादी मनोदशा से बाहर निकलने की वास्तविक इच्छा ही नहीं होती।
2 वे निराशजनक विचारों के मूल को समझ कर उस मूल को ही नष्ट कर देते हैं। निराशजनक विचारों के मूल में व्यर्थ की चिंताएं ही होती हैं। वे, जिन समस्यायों के कारण निराशावादी विचार जन्म लेते हैं, उनकी चर्चा किसी भी व्यक्ति से न करके ईश्वर के साथ ही करते हैं। ईश्वर ही सही मायनों में हमारा मित्र होता है। बात करने से निराशावादी विचार आसानी से छूमंतर हो पाते हैं और हमारा मस्तिष्क खुलापन महसूस कर पाता है। निराशजनक विचारों के मूल को नष्ट करने की भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की प्रक्रियाएं भिन्न-भिन्न हो सकती हैं।
3 उन्हें अपनी मनोदशा सुधारने के लिए आशावादी विचारों का सहारा लेना आता होता है व वे इस सहारे का इस्तेमाल करके जल्द से जल्द अपनी मनोदशा को पहले जैसा कर लेते हैं।
-हम सभी के ऊपर जिम्मेदारियों का दबाव व दैनिक जीवन की चिन्ताएं तो होती ही हैं। हमारे पूर्वज प्रकृति की स्थिरता व शान्ति को महसूस कर पाने में सक्षम थे, जिस कारण जिम्मेदारियां व चिन्ताएं उनके जीवन को ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाती थीं। लेकिन, आज के दौर में प्रकृति की लयबद्धता को अनुभूत कर पाना बहुत मुश्किल हो गया है। वास्तव में अपनी जिम्मेदारियों के दबाव से व जीवन की चिन्ताओं से मुक्ति का यहीं, अर्थात प्राकृतिक सौंदर्य को अनुभूत कर पाना ही सर्वश्रेष्ठ रास्ता है।
-चिंताओं की परेशानी से बचने के लिए निम्नलिखित उपाय सुझाए जा रहे हैं-
1 प्रतिदिन ध्यान में कुछ समय बैठें व अपने मन को शान्तिदायक विचारों से भरें। चिंताओं से उभारने के लिए ईश्वर से याचना करें। ईश्वर के सच्चे स्वरूप में विश्वास व श्रद्धा बढ़ने से चिंताओं आदि का स्वमेव नाश हो जाता है।
2 अन्य लोगों को निष्पक्ष भाव से समझने का प्रयास करें। समझें कि आखिर अन्य लोग जो कर रहे हैं, क्यों कर रहे हैं।
3 व्यवहार में व कार्य में अपने पूर्ण सामर्थ्य से प्रयत्न करने के पश्चात फल को ईश्वर पर छोड़ दें। फल का विचार किसी भी तरह से मन में आने न पाए।
डर
-जीवन की समस्यायों से जूझते हुए हमारे अंदर डर की भावना का आना बहुत स्वाभाविक सा है। डरों में सबसे अधिक पीड़ादायक असफलता का डर होता है। ईश्वर की शाश्वत सत्ता को महसूस करने व ईश्वर को अपना परम रक्षक मानने से हर तरह का डर दूर हो जाता है।
-डर से मुक्ति पाने के लिए निम्न बिंदुओं को अपने व्यवहार में लाएं।
1 निश्चयात्मक रूप से यह जानें कि कौन सी बातों के कारण डर आपके अंदर उपजता है अथवा आपको भयभीत करने वाली बातों को चिन्हित करें।
2 एक निश्चित तरह के व्यवहार से डर दूर भाग जाता है। डर लगने पर उसी तरह का व्यवहार करें।
और याद रखें कि किसी कार्य को टालने की आदत व किसी कार्य को करने में हिचकिचाहट की आदत डर को और अधिक मजबूती प्रदान करती है।
-ऐसे काम करने से सदा बचें, जिनको करने के बाद आपके मन में पकड़े जाने के डर अथवा ग्लानि की भावना आती हो। प्रत्येक नैतिक कार्य करने से आपके उत्साह में वृद्धि होती है।
-अपने मन में डर वाली वस्तु की जगह ईश्वर के बारे में अधिक से अधिक सोचें। इससे डर वाले परिणामों में बदलाव दिखाई देने लगेगा।
-अपने डरों को क्षीण व मिटता हुआ देखें व इस तरह का मानसिक दर्शन जल्द ही हमारे डरों को वास्तव में मिटा देगा।
-ईश्वर-विश्वास डर को भगाने में हमेशा सक्षम पाया गया है। वस्तुतः ईश्वर-विश्वास ही है, जिसके आगे डर ठहर नहीं सकता। अपने भीतर ईश्वर-विश्वास को पैदा करने के लिए सही मायनों में आस्तिक बनें।
आपने आपको सबसे श्रैष्ठ समझने व कमतरी की भावना
-आत्म-सम्मान कम होने की बीमारी बहुतों में है। आत्म-सम्मान को कचोटने वाली एक भावना अपराधबोध की है। जो कर्म किया जा चुका है, उसके बारे हम स्वयं या दूसरे कुछ नहीं कर सकते, इस तथ्य को समझने से और वैदिक कर्मफल व्यवस्था को जानने से अपराधबोध से मुक्ति पाई जा सकती है।
-ईश्वर को अपनी ओर करने से कमतरी का भाव जीवन में आ ही नहीं सकता, क्योंकि जिसके साथ ईश्वर है, उसके विरुद्ध कोई अधिक देर खड़ा हो ही नहीं सकता।
-हममें कमतरी और अपने ऊपर अविश्वास की भावना सामान्यतः बचपन की परिस्थितियों के कारण जन्म ले लेती हैं। मनोचिकत्सक आदि की सहायता से ऐसी भावनाओं की जड़ को जानकर इनसे मुक्ति पाई जा सकती है।
-महीने या दो महीने में एक बार हमें श्मशान अवश्य जाना चाहिए। वहाँ जाकर जीवन के सार को समझना बहुत सरल हो जाता है। श्मशान की भूमि गवाह है कि बल, बुद्धि और विद्या में धुरन्धर व्यक्ति भी जीवन के अन्त में इसी मिट्टी में मिल जाते हैं। वहाँ जाने से हममें असहजता का, आगबबूला होने का, जल्दबाजी करने का स्वभाव खत्म हो जाता है। इससे आपने आपको सबसे श्रैष्ठ समझने की बीमारी भी ठीक हो जाती है।
सकारात्मक व उद्देश्यपूर्ण मनःस्थिति
-जब हमें अपने ध्येय की निश्चितता पर भरोसा होता है, तो बाधाओं की हमें झुका देने की क्षमता नष्ट हो जाती है और हम अपने जीवन की अंतिम साँस तक अपने ध्येय को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रह पाते हैं।
-हम सफलता को तभी परिभाषित कर सकते हैं, जब हमारा कोई निश्चित उद्देश्य हो।
-अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए, ये निर्देश देने के लिए कभी भी हमारे पास दूसरा व्यक्ति नहीं होता। हमे खुद ही स्वयं को ये निर्देश देने होते हैं। उसके लिए हमें अपने मन और बुद्धि को सही परीक्षिण देना होता है, ताकि वे सही समय पर सही निर्णय ले सकें।
-हमें सबसे बड़ा वरदान यह है कि हम अपने विचारों को बदल कर अपना जीवन बदल सकते हैं। हम अपने विचारों को बदलकर जैसा चाहें, वैसा बन सकते हैं। इसलिए हमें अपने मन से क्रोध, लोभ, मोह, राग और द्वेष की भावनाओं को निकालकर अपने मन को प्रेम, श्रद्धा और ईश्वर-विश्वास की भावनाओं से भर देना चाहिए। ऐसा करके हम अपने जीवन में बड़ा सकारात्मक परिवर्तन कर सकते हैं।
-कभी भी हम संशय की स्थिति में अधिक देर तक न रहें। यदि हम स्वयं अपने संशय से बाहर नहीं निकल पा रहे है, तो हमें संशय की स्थिति से बाहर निकलने के लिए सम्बन्धित विषय के विशेषज्ञ से परामर्श ले लेना चाहिए।
-ध्यान रखें कि कभी भी आपके मन में असफलता व पतन का विचार न आने पाए।
-कुछ लोगों का स्वभाव ऐसा बन जाता है कि वे कोई कार्य शुरु करने से पहले उस कार्य पर केंद्रित होने के बजाए उस कार्य को करने में सम्भावित बाधाओं पर केंद्रित हो जाते हैं। ऐसे लोगों को इस तरह की नकारात्मकता को जल्द से जल्द छोड़ देना चाहिए।
-सकारात्मकता व नकारात्मकता के पीछे एक सिद्धांत काम करता है कि जिस तरह की सोच के हम होते हैं, उसी तरह के सकारात्मक व नकारात्मक परिणाम हमें मिलते हैं।
-चिंता, तनाव आदि का मूल कारण नकारात्मक कल्पनाएं होती हैं। नकारात्मक कल्पनायों को सकारात्मक विचारों से बदल दिए जाने पर चिंता, तनाव आदि का नाश अपने आप हो जाता है।
-कभी भी नकारात्मक बातों व स्थितियों को याद न करें, बल्कि सुखद घटनाओं को बार-बार याद करें।
-बड़े विचारक सृजनात्मक, सकारात्मक और आशावादी चित्रों को अपने व अपने समूह के मनों में बनाने में सक्षम होते हैं। इसलिए, यह आवश्यक है कि हम उन शब्दों का प्रयोग करें, जिनसे हम अपने मनों में विशाल, सकारात्मक चित्र बनाने में सक्षम हो सकें।
-वस्तुतः हमारी सीमा को हमारी मनःस्थिति तय करती है। हम क्या कर सकते हैं, इस बात पर निर्भर करता है कि हमारी मनःस्थिति ने हमारे लिए क्या सीमा निर्धारित की है। जब हमें विश्वास होता है कि हम ओर अच्छा कर सकते हैं, तो हमारा मन उस काम को ओर अच्छा करने के नए-नए उपाय सुझाने में सक्षम हो जाता है। इसलिए, हमें अपनी मनःस्थिति को ऐसा बनाना होता है कि हमारा मन कभी सोचे ही न कि हम किसी काम को नहीं कर सकते।
-यदि, हमारा उद्देश्य अल्प-कालिक अर्थात जिसे कुछ महीनों अथवा कुछ वर्षों में प्राप्त किया जा सकता है, है, तो उस उद्देश्य के प्राप्त हो जाने पर हमारी सकारात्मकता व सृजनात्मकता समाप्त हो जाएगी और हमारी सफलता की ख़ुशी का भी अंत हो जाएगा। हमारे पास इस स्थिति को प्राप्त न होने के दो विकल्प हैं- पहला, हमारे पास उद्देश्यों की एक ऐसी लड़ी हो कि एक उद्देश्य के प्राप्त होने पर झट से एक नया उद्देश्य, जो पहले वाले से भी अधिक चुनौतीपूर्ण हो, हमारे सामने आ जाए, जिससे हम अपनी सकारात्मकता और सृजनात्मकता ऊर्जा को जीवित रख पाएँ। दूसरा, हमारा उद्देश्य ही कुछ इस तरह का हो, जिसे हम अपने पूरे जीवन भर भी प्राप्त न कर सकें, परन्तु ऐसा उद्देश्य असम्भव कदापि न हो। जैसे, दूसरों को प्रेम करना, अपने से कमतर लोगों के प्रति करुणा की भावना रखना, मीठा बोलना आदि। ऐसे उद्देश्य मुक्ति की प्राप्ति पर ही शान्त होते हैं।
-हमारी मानसिकता का प्रभाव स्वयं हम पर व हमारे प्रति अन्यों के व्यवहार पर बहुत गहरा पड़ता है। इसे समझने के लिए विचार करें कि कैसे बच्चे अपने माता-पिता के खाने-पीने सम्बन्धी, राजनीति से सम्बन्धित, धर्म अथवा नैतिकता सम्बन्धी व्यवहार से सीधे बिना किसी उपदेश के प्रभावित होते हैं। बड़े लोग भी बच्चों की भांति ही दूसरे लोगों, जिन्हें वे अपने से श्रेष्ठ मानते हैं, के व्यवहारों की नकल करके ही सीखते हैं। इसलिए, जहां अपने व्यवहार को दूसरों के सामने श्रेष्ठ रखना आवश्यक हो जाता है, वहां अपने व्यवहार को अपनी नज़रों में भी श्रेष्ठ रखना होता है।
-हमें यह याद रखना चाहिए कि वहीं मस्तिष्क सही तरीके से व अपनी पूरी क्षमतानुसार काम कर सकता है, जिसमें नकारात्मक विचार न हों।
-नकारात्मक विचारों को अलविदा कहने का एक तरीका है कि हमें नकारात्मक शब्दों अथवा वाक्यों से परहेज़ कर लेना चाहिए, जैसे, यह नहीं हो सकता, तुम इस काम को नहीं कर सकते, छिः आदि आदि।
-प्रतिदिन कुछ समय एकान्त में बैठ कर अपने उद्देश्यों, उन उद्देश्यों को प्राप्त करने के साधनों व मार्ग में उपस्थित बाधाओं के बारे चिन्तन करने का नियम बनाएं। इससे हमारे व्रतों की तीव्रता तो बढ़ती ही है, इससे हमारी सोचने समझने की शक्ति भी बहुत बढ़ जाती है।
-अपने नकारात्मक विचारों को बदलने के लिए आशा नाम की औषधि बहुत ही कारगर है। हम जिस भी विचार से निरुत्साहित हो रहे हों, उम्मीद के हमारे मन में पदार्पण करने से हम उत्साह से भरने लगते हैं। उम्मीद के कारण ही हम अपने आप को इच्छित रूप में देख पाते हैं। इसलिए उम्मीद को अपने विचारों में श्रेष्ठ स्थान दें।
-सकारात्मकता को अपने भीतर लाने के लिए सबसे पहली आवश्यकता होती है- इच्छित वस्तु की इच्छा की तीव्रता। यहाँ सकारात्मक व्यक्ति को परिभाषित करना आवश्यक हो जाता है। सकारात्मक व्यक्ति वह होता है, जो किसी भी परिस्थिति अथवा मुश्किल में विचलित होने वाला न हो, जो मजबूत मानसिकता का स्वामी हो, जो अपनी इन्द्रियों का गुलाम न हो और जो ईश्वर व उसके नियमों के प्रति श्रद्धा का भाव रखता हो।
-बहुत बार हमने सुना है कि हमें दिन में कम से कम एक बार अपने मस्तिष्क को डर, घृणा, पछतावे, असुरक्षा आदि भावनाओं से खाली कर देना चाहिए। हम सब ने अनुभव भी किया है कि जब हम अपने मन की भावनाओं को दूसरों को सुनाकर खाली कर देते हैं, तो हम अपनी जकड़न में कमी अनुभव करते हैं। लेकिन, मन का वह खाली स्थान उसी समय उन्हीं भावनाओं से या उसी तरह की दूसरी भावनाओं से भर जाता है। ऐसे में क्या तरीका है कि ऐसी भावनाओं को जन्म देने वाली घटनाओं को हमेशा के लिए अपने मन से निकाला जा सके? वह तरीका है- ईश्वर के सही स्वरूप (ईश्वर हर तरह की नकारात्मक भावनाओं से पूर्णतया अछूता है) को अधिक से अधिक अपने मन में जगह देना। क्योंकि, यह तरीका बहुत परिश्रम साध्य है और इसके लिए प्रयाप्त समय भी वांछित होता है, इसलिए नकारात्मक भावनाओं को जन्म देने वाली घटनाओं को सामयिक तौर पर अपने मन से निकालाने का तरीका है- सृजनात्मक व अच्छे विचारों को अधिक से अधिक सोचना।
-व्यक्तित्व-विकास, सफलता और असफलता की बात करने के तभी मायने हैं, जब हमारा कोई उच्च ध्येय हो। इस बात को समझने के लिए हम एक साधारण सी बात से शुरुआत करते हैं। हमारे मन में एक तस्वीर होनी चाहिए कि हम अपने आपको 10-20 वर्ष बाद कहाँ देखना चाहते हैं। उस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए हमें अपने समय के उपयोग का, समाज में अपने व्यवहार का, अपने सम्मुख आने वाले कार्यों के प्रति हमारी मानसिकता का निर्धारण करना होता है। शुरु-शुरु में हम छोटे छोटे लक्ष्य बना सकते है, परन्तु उनका हमारे 10- 20 वर्ष बाद के उद्देश्य से पूर्ण सामंजस्य होना चाहिए।
-नीचे अपनी मानसिकता को नकारात्मकता से सकारात्मकता में बदलने के लिए कुछ उपाय सुझाए जा रहे हैं-
1 अगले एक दिन के लिए अपने मित्रों के बारे में, अपने कार्य के बारे में व हर उस व्यक्ति के बारे में, जिससे आप प्रतिदिन मिलते हैं, अच्छा-अच्छा ही सोचें। शुरु-शुरु में आपको यह बहुत मुश्किल लग सकता है, क्योंकि अभी तक अपने अपने मन को दूसरों के नकारात्मक पहलुओं को सोचने का आदी बनाया हुआ है। अपनी इच्छा-शक्ति का प्रयोग करके दूसरों के नकारात्मक पहलुओं की बजाए उनके सकारात्मक पहलुओं को ही सोचें।
2 अपने सकारात्मक मित्रों की एक सूची बनाएँ और प्रयासपूर्वक अधिक से अधिक उनका सान्निध्य प्राप्त करें। इस दौरान अपने नकारात्मक मित्रों को छोड़ें नहीं। बस अपने सकारात्मक मित्रों के साथ ज्यादा रहें। अपने सकारात्मक मित्रों की सकारात्मकता को ग्रहण करने का प्रयास करें। जब आपको लगे कि अपने सकारात्मक मित्रों की सकारात्मकता को ग्रहण कर लिया है, तो आप अपने नकारात्मक मित्रों के साथ समय व्यतीत कर सकते हैं। परन्तु, उनके साथ उनकी नकारात्मकता की बात न करके अपनी ग्रहण की हुई सकारात्मकता को ही उनके बीच रखें।
3 किसी भी तरह की बहस से बचें। जब भी कोई नकारात्मक विचारों को रखे, तो उसके विपरीत सकारात्मक व आशावादी विचारों को अवश्य रखें।
4 ईश्वर के प्रति कृतज्ञता को बार-बार अनुभव करें।
शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य
-नींद हमारे हमारे जीवन की आधारभूत आवश्यकता है और इस आवश्यकता की पूर्ति के बिना व्यक्तित्व विकास की बात करनी व्यर्थ है। अपने व दूसरों के हित के बारे में सोचने से नींद न आने की समस्या का समाधान हो जाता है।
-प्रातःकाल कार्य प्रारम्भ करते समय जो व्यक्ति अनावश्यक कागजात देखने, साधरण बातों पर झगड़ने, सामान्य बातें करने की कोशिश करता है, उसके मन और मस्तिष्क का ताजापन व स्वस्थता समाप्त हो जाती है।
-अपने दोष को अथवा अपने अपराध को स्वीकार करना, भविष्य में वैसा न करने का संकल्प लेना, अपने किसी कर्म से दूसरे की हुई हानि की भरपाई का प्रयास करना और दूसरे के हमारे प्रति किए बुरे कर्म को माफ करना हमारे बहुत से मानसिक रोगों को दूर करते हैं। कहा भी जाता है कि हमें मन का उपचार किए बिना शरीर का उपचार कदापि नहीं करना चाहिए।
-दीर्घकालिक स्वास्थ्य के लिए हमें आंतरिक संतुलन की महती आवश्यकता होती है और इस आंतरिक संतुलन का आधार आंतरिक शुद्धता है, जिसके अन्तर्गत हमें अपने दोषों को स्वीकार करना व दूसरों के दोषों को माफ करना आवश्यक होता है।
-किसी दिग्गज डाक्टर का मानना है कि हमारा शारीरिक स्वास्थ्य इस बात पर बहुत अधिक निर्भर करता है कि हम किस प्रकार के विचारों को अपने मन में उठाने के आदी हैं। ग्लानि की भावना एक बीज के रूप में हमारे मन में बैठ जाती है और कुछ अंतराल के बाद यह हमारे मानसिक अस्वस्थता का कारण बन जाती है व अंततः यह हमारे शारीरिक अस्वस्थता के रूप में दृष्टिगोचर होती है।
-बहुत अच्छा हो, यदि हम उपचार से पहले यह जानने का प्रयत्न करें कि रोगी जो करता है क्यों करता है।
-हम अपनेआप को ठीक तभी कर सकते हैं, जब हमें अपने बारे में पूरी जानकारी हो।
-क्रोध की अवस्था में हमारी मुट्ठियाँ भिंच जाती हैं, हमारी आवाज तीव्र व अस्पष्ट हो जाती है और हमारे शरीर की सभी मांसपेशियाँ अपना लचीलापन खो देती हैं। अपने शरीर को इस अवस्था से गुज़रने से रोकने के लिए हमें चाह कर क्रोध से बचने का व हर परिस्थिति में शांत रहने का अभ्यास करना चाहिए। इसके लिए निम्न तरीके सुझाए जा रहे हैं-
1 बौद्धिक रूप से ईश्वर को न्यायकारी जानने के पश्चात यदि, हम अपने व्यवहार में भी ईश्वर के न्यायकारी स्वरुप को समझ पाएं, तो हम निश्चितरूप से क्रोध से बच सकते हैं।
2 हर बार जब क्रोध आप पर हावी होने लगे, तो अपने आप से पूछें कि क्या शारीरिक असंतुलन को लाने वाला होने के पश्चात भी क्रोध करना वाकई उचित है।
3 प्यार और क्षमा के विचारों को जगाएँ।
4 उस स्थिति से जल्द से जल्द बाहर निकलने का प्रयास करें और उसके बारे में सोचते न रहें।
-वस्तुतः रोग ईश्वरीय नियमों के साथ हमारी सामञ्जस्यता का न होना है।
-यह ठीक है कि बीमारियाँ अचानक से सामने आ जाती हैं, परन्तु ये धीरे-धीरे ही बड़ी होती हैं। इनका कारण गलत खान-पान, नशा आदि, नींद व ब्रह्मचर्य के नियमों का उलंघन और अनैतिक व्यवहार होता है। जब भी हमारा कोई शारीरिक अथवा मानसिक कर्म ईश्वरोक्त नियमों के विरुद्ध होता है, तो हमें अस्वस्थता के रूप में उसका फल भोगना ही पड़ता है।
-प्रसन्न रहना अपने आप में एक बेहतरीन दवा है।
-बहुत से लोग असहज रह कर, सभी कामों में जल्दी कर कर, क्रोध कर कर व अपने आप को सबसे श्रैष्ठ समझ कर अपनी ऊर्जा को व्यर्थ ही गंवाते रहते हैं।
-डर, चिन्ता, निराशा आदि भावों का प्रभाव हमारी कोशिकाओं, उत्तकों से होता हुआ हमारे शरीर के हरेक अंग पर पड़ता है। ये जुकाम, मधुमेह आदि हमारे शारीरिक रोगों का एक बहुत बड़ा कारण है।
-मानसिक स्वास्थ्य के बगैर शारीरिक स्वास्थ्य की चाहना व्यर्थ है।
-यह प्रश्न अपने-आप में अधूरा है कि रोग शारीरिक है या मानसिक, अधिक महत्त्वपूर्ण यह पता लगाना है कि रोग कितना शारीरिक है और कितना मानसिक।
-दूसरों की ख़ुशी में खुश होना मानसिक स्वास्थ्य का बहुत सटीक लक्षण है।
-हमारी बिमारियों के उपचार के लिए ईश्वर ने दो तरह के उपायों की व्यवस्था की हुई है। एक है- प्राकृतिक नियमों के अनुरूप आज के विज्ञान द्वारा उपचार और दूसरा है- आध्यात्मिक नियमों के अनुरूप किसी धार्मिक व्यक्ति द्वारा उपचार।
-शरीरिक व मानसिक रोगों को दूर भगाने का औचित्यपूर्ण व प्रभावी तरीका है- आज के विज्ञान द्वारा अनुमोदित व सम्बन्धित विशेषज्ञों द्वारा सुझाए चिकित्सा के तरीकों और आध्यात्मिक विज्ञान द्वारा सुझाई बातों का समन्वय।
-हमारी भावनात्मक सत्ता का ईश्वर-विश्वास के साथ संयोग हमारी सभी तरह की तकलीफों का सर्वोत्तम समाधान है।
-ईश्वर की उपासना अथवा ध्यान हमारे आत्मिक व शारीरिक रोगों की अचूक औषधि है।
-अपने शरीर के साथ अपनी आत्मा के मन्दिर की भाँति ही वर्तें।
-जहाँ यह सत्य है कि दर्द को ईश्वर-विश्वास से दूर किया जा सकता है, वहाँ यह भी सत्य है कि ईश्वर-विश्वास से दर्द को प्रसन्नता पूर्वक सहा भी जा सकता है।
-आपको अपना दर्द को दूर करने के लिए अथवा कम करने के लिए ईश्वर को बोलने का पूरा अधिकार है।
-इस संसार में रहते हुए हमें जो भी दर्द मिलता है, उसे सहने की शक्ति पहले ही ईश्वर ने हमें दे रखी है।
-आपके शरीर की दशा अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं, अधिक महत्त्वपूर्ण है- आपके मन व आत्मा की दशा।
समय का सदोपयोग
-हमारा जीवन, समय के छोटे-छोटे कणों से मिलकर बना होता है। यदि हम अपने जीवन में कुछ बड़ा करना चाहते हैं, तो हमें समय के इन छोटे-छोटे कणों को निम्न स्तर के उद्देश्यों की पूर्ति में कदापि नष्ट नहीं करना चाहिए।
-समय उनकी कदर करता है, जो समय की कदर करते हैं। इसलिए, आवश्यक है कि हम हर कार्य बिना किसी प्रकार की देरी के करें।
-किसी भी क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण व्यक्ति अपना अधिकतर समय दूसरों को सलाह देने के बजाए, दूसरों की सलाह सुनने में लगाते है। इसलिए, अपने अंदर अधिक से अधिक सुनने की आदत विकसित करनी चाहिए। सलाह देने से पूर्व सौ बार सोचें। ज्ञान भी बोलकर नहीं, बल्कि सुनकर प्राप्त किया जाता है।
-सफल होने के लिए अवसर को बहुत आवश्यक माना जाता है। लेकिन, जो व्यक्ति अपना समय अवसर की प्रतीक्षा करने के बजाए, अपनी योग्यता बढ़ाने में लगाता है, अवसर स्वयं उसके दरवाज़े पर दस्तक देता है और वहीं व्यक्ति अवसर को पहचान पाता है व उसका सफल उपयोग कर पाता है। अधिकांशतः अवसर के निर्माण का अभिप्राय अपनी योग्यता बढ़ाना ही होता है।
दूसरों से व्यवहार के सामान्य सूत्र
-सबसे प्रीतिपूर्वक व्यवहार तभी हो सकता है, जब हम प्यार और मोह के भेद को समझ पाएं।
-हमारे मुख-मण्डल का दूसरों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। हमारे मन में गुणों और योग्यताओं का जैसा भंडार होगा, वैसे ही गुण और योग्यताएं हमारे चेहरे द्वारा दिखाई जाएंगी। इसलिए, दूसरों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए हमारा सात्त्विक होना बेहद आवश्यक है।
-जब भी आप दो या दो से अधिक लोगों के साथ बात करें, तो यह सुनिश्चित करें कि बात सभी के लाभ व रुचि की हो। बोलने के इस नियम को याद रखें- आपका बोलना, आपके न बोलने से अधिक आवश्यक होना चाहिए।
-जब भी कोई आप पर शाब्दिक आक्रमण करे, तो निम्न व्यवहार करें-
1 अपनी प्रतिक्रियात्मक क्रोध की भावना को शान्त रखें।
2 दूसरे को अपना सारा का सारा क्रोध बाहर निकालने दें।
3 इस सारी बात को ही बुला दें।
-हमारे साथ काम करने वालों के प्रति हमारी हित की भावना, बहुत सी काम सम्बन्धी मुश्किलों को हमारे पास आने से रोक देती है।
-हमारा व्यवहार हमारे विचारों अथवा हमारी मानसिकता का दर्पण होता है। दूसरों को हमारे बारे में जानने के लिए केवल हमारा व्यवहार ही देखना होता है।
-अपनी वा अपनी उपलब्धियों की तुलना दूसरों से कदापि न करें। तुलना तो सदा अपने आप से ही होनी चाहिए।
-कभी भी ऐसा न हो कि आपके छोटे से छोटे व्यवहार में ईमानदारी न झलके। यह छोटे से छोटा व्यवहार आपका किसी को अभिवादन करना अथवा मुस्कुराना भी हो सकता है।
-कोई भी व्यक्ति त्रुटिरहित अथवा पूर्ण नहीं होता और हमें दूसरे व्यक्ति के बिल्कुल सही होने की आशा भी नहीं करनी चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति भिन्न होने का अधिकार रखता है। हमें उसके इस अधिकार को स्वीकारना चाहिए और उसे उसके बिना चाहे बदलने का प्रयत्न भी नहीं करना चाहिए। परन्तु, जहाँ कोई व्यक्ति हमारे मन के बहुत करीब हो, वहाँ उसकी इच्छा के बिना भी हमें उसके हित का प्रयास अवश्य करना चाहिए। पर अब प्रश्न उठता है कि क्या कसौटी है कि कोई व्यक्ति हमारे मन के करीब है कि नहीं? उस व्यक्ति को अपने मन के करीब जानना चाहिए, जिसके द्वारा आपको कष्ट पहुंचाने पर आपको दुख नहीं होता, अथवा जिसके लिए कष्ट उठाकर आपको सुख मिलता है।
-हममें से प्रत्येक अपनी इच्छानुसार चलना चाहता है। परन्तु, हम इस तथ्य को स्वीकार नहीं कर पाते और चाहते हैं कि दूसरे हमारी इच्छानुसार चलें। यदि, आप दूसरों से अपनी इच्छा के अनुकूल कुछ कराना चाहते हैं, तो दूसरों के दृष्टिकोण से उस कार्य को देखें या दूसरे शब्दों में कहें, तो दूसरों को आपकी इच्छानुकूल कार्य करने में अपना हित नजर आना चाहिए।
-कभी भी और किसी भी परिस्थिति में ऐसा न हो कि हम दूसरों से व्यवहार करते समय मानवीय दृष्टिकोण को अनदेखा कर दें।
-आपको मुख्यतः दो क्षेत्रों में अन्यों से अधिक समझदारी दिखानी होती है, वो भी उनकी जानकारी में आए बिना।
1 आप दूसरों को ऐसे सिखाएं कि वे समझ ही न पाएं कि आपने उन्हें कुछ सिखाया है।
2 आप अन्यों से अपने प्रस्तावों को ऐसे अनुमोदित करवाएँ कि वे जान ही न पाएं कि उन प्रस्तावों को अनुमोदित करवाना आपकी चाहना थी।
-दूसरों को कोई सामान अथवा विचार बेचने के बजाए, उन्हें प्रेरित करे कि वे आपके सामान अथवा विचार को खरीदें।
-लोगों को अपने नैतिक गुणों के बारे में सुनना बड़ा अच्छा लगता है। आवश्यकता पड़ने पर उनको उनके नैतिक गुणों का वास्ता दें।
-अपने कार्य की सिद्धि के लिए दूसरों का सहयोग लेना ही पड़ता है। उनका यह सहयोग एक कर्मचारी के रूप में हो सकता है। बच्चों से भी हम अपनी इच्छानुसार कुछ न कुछ करवाते रहते हैं। दण्ड आदि का भय दिखा कर हम दूसरों का सहयोग तो प्राप्त कर सकते हैं, परन्तु तभी तक जब तक उन्हें दण्ड आदि का भय दिखे। दूसरों से सहयोग प्राप्त करने के लिए व अपनी इच्छानुकूल कार्य करवाने के लिए ऐसा माहौल तैयार करें कि दूसरों को आपकी इच्छानुकूल कार्य करने में अपना हित नजर आने लगे। इससे उनके मन में आपके प्रति द्वेष भी नहीं उपजेगा और उनका सहयोग भी अधिक स्थाई होगा।
-किसी बात को दूसरे के दृष्टिकोण से देखना आने से हम अपने सम्बन्धों में मधुरता व घनिष्ठता ला पाते हैं। यह मधुरता व घनिष्ठता हर स्थिति में हमें सफलता की ओर ले जाने वाली होती है।
-दूसरों को कोई काम करने के लिए प्रेरित करने के लिए उनमें अन्यों से अच्छा करने के भावना जगाना अच्छा होता है। इसके लिए उनमें प्रतिस्पर्धा की भावना भी पैदा की जा सकती है और चुनौतीपूर्ण माहौल भी तैयार किया जा सकता है।
-सभी अपने सामर्थ्य की अभिव्यक्ति चाहते हैं। अपनी क्षमताओं को प्रदर्शित करके वे दूसरों की नजरों में अपनी महत्ता बढ़ाना चाहते हैं। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को समझकर हम दूसरों को सही दिशा में प्रेरित कर सकते हैं।
-परोक्ष रूप से ही दूसरों को उनकी गलतियों की तरफ ध्यान दिलाएं और उन्हें महसूस कराएं कि गलती को सही करना बहुत आसान है।
-प्रश्न आदि पूछकर ही दूसरे व्यक्ति को आपके द्वारा इच्छित कार्य को करने के लिए प्रेरित करें, नाकि अपने आदेशात्मक रवैये से।
-आलोचना व्यक्ति के अहम पर सीधा प्रहार करती है और इससे व्यक्ति की नाराजगी उभर जाती है। इसलिए, प्रयास करें कि दूसरों की आलोचना कदापि न की जाए। दूसरों के हित के लिए व नैतिकता का उल्लंघन होने पर आलोचना करनी ही होती है, परन्तु यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि दूसरों की आलोचना के पीछे उनके हित व नैतिकता के उल्लंघन का बहाना न हो।
-दूसरों के मनों को अपने अनुकूल बनाने के लिए ईमानदार सराहना व प्रशंसा से उत्तम कुछ नहीं है। सराहना व प्रशंसा दूसरों के उत्साह को भी बढ़ाने वाले होते हैं।
-बच्चों व मित्रों की सराहना में कहे गए शब्द उन्हें जीवन भर सुख पहुँचाते रहते हैं। ध्यान रहे कि आपकी सराहना चापलूसी न हो। सराहना और चापलूसी में भेद करना बहुत आसान है। सराहना दिल से निकलती है और चापलूसी दाँतों से। सराहना में हमारा कोई स्वार्थ नहीं होता, जबकि चापलूसी के पीछे हमेशा कोई न कोई स्वार्थ छिपा होता है।
-उत्साह से, ध्यानपूर्वक व रुचि लेकर किसी को सुनना उसकी वास्तविक प्रशंसा है।
-जब हम किसी से बात करें या कोई हमसे बात करे, तो उसे आपकी आवाज में प्रसन्नता और उत्साह महसूस होना चाहिए, जैसे कि आपको उस व्यक्ति से बात करके बहुत अच्छा लग रहा है। यह दूसरों के दिल में जगह बनाने का सबसे आसान तरीका है।
-एक साधारण सा सिद्धांत है कि दूसरे हममें तभी रुचि रखते हैं, जब हम उनमें रुचि रखें। इसलिए, अपनी पूरी ईमानदारी से दूसरों में रुचि रखें। अन्यों को अधिक से अधिक जानने का प्रयत्न करें व उनकी हर समस्या अथवा मुश्किल के प्रति संवेदनशील बनें।
-दूसरों से उन्हीं विषयों पर बात करें, जिनके बारे में वे बहुत उत्साहित अनुभव करते हों। दूसरे शब्दों में, दूसरों से उन विषयों पर बात न करें, जो उनकी रुचि के अनुरुप न हों।
-दुखी मित्र, असन्तुष्ट ग्राहक आदि दुख अथवा क्रोध की घड़ी में ऐसे व्यक्ति को चाहते हैं, जो उनकी बात को ध्यान से सुने। ऐसे समय में ध्यान से उनको सुनना भी उनकी सहायता करना ही है। ऐसी सहायता को व्यक्ति आसानी से भूल नहीं सकता।
-सभी महत्त्वपूर्ण लगना चाहते हैं। इसलिए, जब भी आप किसी से बात करें तो उसे लगना चाहिए कि वह महत्त्वपूर्ण है। उससे कुछ न कुछ सीखने का प्रयत्न करें। आपकी बातों में सच्चाई हमेशा हो।
-तर्क-वितर्क करने से हम सदा हारते ही हैं। तर्क में हारने से हमें हमारी हार समझ आती है, परन्तु तर्क में जीतने से भी हम हार जाते हैं। कैसे? दूसरे को हरा कर हम उसके सम्मान को ठेस पहुँचा देते हैं और वह इस कड़वाहट को कभी भूल नहीं पाता।
-गलतफहमी को कभी भी तर्क से खत्म नहीं किया जा सकता। इसे सौहार्द से व दूसरे के दृष्टिकोण को समझ कर ही खत्म किया जा सकता है।
-तर्क से सर्वश्रेष्ठ परिणाम पाने का तरीका है- तर्क करने से बचना।
-अपनी गलती मान कर दूसरों के दृष्टिकोण को सम्मान दें। ऐसा करके हम उन्हें अपनी दयालुता दिखाने का अवसर प्रदान करते हैं।
-अपनी गलतियों को ईमानदारी से स्वीकार कर लेना, दूसरों पर बड़ा अच्छा प्रभाव छोड़ता है।
-जब भी आप अपनी बात रखें, तो इस तरह के शब्दों का प्रयोग करें कि जिससे दूसरे को कतई ऐसा न लगे कि आप अपनी बात को उस पर थोपना चाहते हैं।
-यदि, दूसरों की काम में त्रुटि को अनदेखा नहीं किया जा सकता, तो आपकी वाणी में अधिकार अथवा ताकत के स्थान पर सुझाव नजर आना चाहिए।
-किसी एक दिन में हमें मिलने वाले लोगों में से अधिकतर लोग सांत्वना के भूखे होते हैं। यदि, हम उन्हें अपनी ईमानदार सांत्वना दे देते हैं, तो वे सदा के लिए हमारे हो जाते हैं।
-परीक्षण करने पर आप पाएंगे कि जायज गुस्सा करने से कहीं अधिक ख़ुशी आपको उस व्यक्ति को अपना बना लेने पर होती है।
-कोशिश करें कि आपमें दूसरों पर चिल्लाने व दूसरों के अवगुण ढूंढ़ने के दोष न आने पाएं। ऐसी आदत वाले व्यक्ति से दूसरे बहुत जल्दी किनारा कर जाते हैं।
-किसी भी सम्बन्ध में दूसरों के अच्छे होने से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है- खुद का अच्छा होना।
-दूसरों से वैसा ही व्यवहार करें, जैसा आप अपने लिए चाहते हैं।
-दूसरों से अपनी बात मनवाने के लिए आपको दोस्ताना, सौम्यतापूर्ण व बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहार ही अपनाना होता है। गुस्से और ताकत से आप अपनी बात मनवा तो सकते हैं, परन्तु अल्प समय के लिए ही।
-जब हम ऐसा सोचते हैं कि यदि हम दूसरे व्यक्ति के स्थान पर होते, तो कैसी प्रतिक्रिया देते, तो हम दूसरे के दृष्टिकोण को ज्यादा अच्छी तरह से समझ पाते हैं।
व्यक्तित्व विकास के विविध सूत्र
-धन व धन से प्राप्त की जा सकने वाली वस्तुओं को इकट्ठा करते हुए इस बात का निरीक्षण सतत करते रहना चाहिए कि कहीं आपने इस चक्कर में, उन चीजों को तो नहीं खो दिया, जो धन से प्राप्त नहीं की जा सकतीं।
-बुद्धि की शुद्धता से हमारे विचार शुद्ध बनते हैं। जिस व्यक्ति की विचार-शक्ति शुद्ध होती है, वह अंधकार में भी प्रकाश ढूंढ लेता है और जिस व्यक्ति की विचार-शक्ति शुद्ध नहीं होती, वह निराशा रूपी अंधकार में ही अपना सारा जीवन व्यतीत करता है। जहां हमें अपनी विचार-शक्ति को शुद्ध करना होता है, वहीं हमें अशुद्ध विचार-शक्ति वाले लोगों से भी दूर रहना होता है, क्योंकि ऐसे लोगों के सम्पर्क में रहकर हम भी उन्हीं की भांति निराशा और हताशा अनुभव करने लगते हैं। लेकिन ऐसा करने का अर्थ उनसे घृणा करना नहीं होता।
-उत्तरदायित्व का बोझ डालाने पर ही किसी व्यक्ति में सफलता प्राप्त करने वाले तत्वों के अभाव के बारे में पता चल सकता है। वस्तुतः उत्तरदायित्व का बोझ डालाने पर ही किसी व्यक्ति की छिपी हुईं शक्तियां दृष्टिगोचर हो पाती हैं।
-जहां यह सत्य है कि हमारे व्यक्तित्व के विकास की कोई सीमा नहीं, वहाँ यह भी सत्य है कि हमारा वर्त्तमान का व्यक्तित्व कुछ सीमाओं से घिरा होता है, जो हमारे वर्त्तमान के व्यक्तित्व के लिए असम्भव को ‘परिभाषित’ करता है। इसे किसी भी तरह के हमारे पुरुषार्थ अथवा इच्छशक्ति से जीता नहीं जा सकता, जबतक कि हम अपने वर्त्तमान के व्यक्तित्व में बदलाव नहीं करते। स्वयं के बारे में चिंतन करने से हमें अपने वर्त्तमान के व्यक्तित्व की सीमाओं का ज्ञान हो जाता है।
-अनेकों गुणों को धारण करने की बजाए, हमें अपने मन को एक विचार पर केंद्रित करना आना चाहिए।
-शिक्षा तभी सार्थक होती है, जब वह व्यक्ति में किसी काम में दक्षता अथवा एकाग्रता का आदान कर पाती है।
-मानवता के जिन गुणों की बात की जाती है, वे अवसर को पहचानने में सहायक होते हैं, नाकि अवसर के सही उपयोग में। अवसर के सही उपयोग के लिए तो अपने कार्य को दक्षता से करना आना ही परमावश्यक है।
-किसी काम को दक्षता से करने का एक मात्र तरीका है- बुद्धिपूर्वक अभ्यास।
-जो व्यक्ति यह मानते हैं वे कुछ नहीं कर सकते, यदि कुछ दिनों के लिए अपनी ऑंखें और दिमाग खुला रखकर अपने आस-पास की चीजों को देखना और समझना शुरु कर दें, तो वे स्वयं ही जान जाएंगे कि वे क्या कर सकते हैं। चीजों को ध्यान से देखना और समझना कोई सामान्य गुण नहीं है, बहुत कम लोग ऐसी योग्यता रखते हैं। सफलता ऐसे व्यक्तियों के चरण चूमती है, जो सही देख व समझ पाते हैं और उन जानकारियों के आधार पर निर्मित विचारों को कार्यान्वित कर पाते हैं।
-आत्मविश्वास के गुण के आगे पढ़ाई-लिखाई बौनी सिद्ध होती है। यदि, आत्मविश्वासी पढ़ा-लिखा भी हो तो, सोने पे सुहागा। एक आत्मविश्वासी व्यक्ति पर ही दूसरे विश्वास कर पाते हैं।
-हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि कोई भी चीज़ सदा एक जैसी नहीं रहती। ऐसा समझते हुए हमें अपने कार्य करने के तरीकों में भी परिस्थिति अनुसार परिवर्तन करना चाहिए। हमारी न बदलने की जिद्द के कारण भी कई बार असफलता हमारा दामन नहीं छोड़ती। अपने कार्य की सफलता के लिए पुरुषार्थ करते हुए हमें आपातकालीन स्थितियों का मुकाबला करने के लिए भी तैयार रहना होता है।
-यह ठीक है की समय के साथ -साथ हमें भी अपने आप में कुछ परिवर्तन अवश्य करने चाहिए, लेकिन हमें उन मूल्यों के बारे में भी पता होना चाहिए, जिनमें किसी भी समय में और किसी भी परिस्थिति में परिवर्तन करना अनुचित अथवा अवांछनीय होता है।
-वस्तुतः महत्त्वाकांक्षा सदा एक समान नहीं रहती। अकर्मण्यता और प्रमाद से यह बहुत जल्दी अवनति को प्राप्त होती है और निरन्तर अभ्यास से यह पल्ल्वित और पोषित होकर निखर उठती है। महत्त्वाकांक्षा के अभ्यास का अर्थ है कि जब भी अवसर मिले अपनी महत्त्वाकांक्षा के अनुरूप कार्य में सफल होने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए। यदि, कार्य में असफलता भी हाथ आती है, तो इससे हमारी महत्त्वाकांक्षा ओर दृढ़ हो जाती है और दृढ़ महत्त्वाकांक्षा हमारी सफलता का आधार बनती है।
-महत्त्वाकांक्षा छूत की बिमारी की तरह होती है। यदि हमारी संगत महत्त्वाकांक्षी लोगों के साथ है, तो हम भी उनके जैसे बन जाते हैं। सफल व्यक्तियों की संगत हमें भी सफलता की ओर प्रेरित करती है और हम सफलता के रास्ते में आने वाली कठोरतम बाधाओं से भी नहीं घबराते।
-आपके मन में यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि ईश्वर ने किसी विशिष्ट कार्य को करने के लिए ही आपको इस संसार में भेजा है और वह कार्य केवल आप ही कर सकते हैं, दूसरा कोई नहीं।
-यह ठीक है कि धन की गरीबी एक अभिशाप है और यह हमारी विकास की संभावनाओं को हमसे दूर रखने में सक्षम है परन्तु, गरीबी केवल धन की ही नहीं होती। प्रतिज्ञा कर लें कि आप धन से गरीब होने पर भी मन से कभी गरीब नहीं होंगे। वास्तव में, धन से गरीब होने पर मन से अमीर होने का मार्ग आसान हो जाता है।
-दूसरों के द्वारा कही बातों को ध्यान से सुनें व उस सुने हुए का सही से विश्लेषण करें। यहीं बातें हमारे मन का भोजन सिद्ध होती हैं।
-जब हम कोई व्यवहार अपनी आन्तरिक इच्छा के विरुद्ध करते हैं तो, वह गलत व्यवहार हमें अंदर से तोड़ देता है। अपराध-बोध की यह भावना हमारे आत्म-विश्वास व हमारी बुद्धि को कुंठित करती रहती है। वाणी से कह देने पर अपराध-बोध की इस भावना में बहुत कमी आ जाती है।
-बड़े विचारकों की सोच आज पर सीमित न रहकर भविष्य के समाज पर केंद्रित होती है। उनकी कल्पनाओं की उड़ान का केंद्र बिन्दु भविष्य के समाज को ओर अच्छा करना होता है। अपने व्यक्तित्व विकास के लिए हमें भी अपनी कल्पनाओं को भविष्य के समाज के हित में लगाना होता है।
-हमें दुखदायी आज के बजाए स्वर्णिम कल को देखने का अभ्यास बनाना चाहिए।
-अपने आप से प्रश्न पूछें कि मुझे अपने कल को बेहतर बनाने के लिए आज क्या करना चाहिए। अपनी कल्पना-शक्ति से आप अपने आप को उस रूप में देखें, जैसा कि आप भविष्य में बनना चाहते हैं। तब, वैसा बनने के लिए विशेष रास्ते आपको अपने आप सुझाई दे जाएंगे।
-अपने कार्य के बारे में ही नहीं, बल्कि समूह के अन्य कार्यकर्त्ताओं के कार्य के बारे में भी जानने व सीखने का प्रयत्न करना चाहिए। अपने व अन्यों के कार्यों को सीखते समय जिज्ञासा का होना अत्यंत आवश्यक है। इससे आप कार्यों का नियमन करने वाले व्यक्ति की नज़रों में ऊपर उठ जाते हैं।
-खाली समय उसी के पास होता है, जिसमें कार्यों को टालने की प्रवृति हो या जो कार्य को जल्दी समाप्त करने की आवश्यकता न समझता हो। इसलिए, महत्त्वपूर्ण काम के लिए खाली व्यक्ति के बजाए किसी व्यस्त व्यक्ति को चुनना ही अच्छा रहता है।
-विचार प्रशिक्षण से नहीं आते, बल्कि ये जिस संस्था में हम काम करते हैं, जिन लोगों के साथ हम काम करते हैं और जिन लोगों के लिए हम काम करते हैं, उनके हितचिंतन से आते हैं।
-आपने क्षेत्र से भिन्न क्षेत्र के लोगों के विचार सुनने से भी आपको अपनी समस्यायों का हल मिल सकता है। अन्य क्षेत्र के लोगों के विचार सुनने से आपके सोचने की शक्ति में ओर अधिक विशालता आती है और आप समस्याओं को अलग दृष्टिकोण से देखने में सक्षम हो जाते हैं।
-हमें वह नहीं मिलता, जिसके हम अधिकारी होते हैं, बल्कि हमें वह मिलता है, जिसको पाने का अधिकार हमारी सोच निर्धारित करती है। इसलिए, अपनी विचार शक्ति को सदैव सशक्त और सकारात्मक बनाने का प्रयत्न करें।
-हमारे कार्य करने की शैली हमारे विचारों की सृजनात्मकता और गुणवत्ता पर निर्भर करती है। और हमारे कार्य करने की शैली पर दूसरों का हमारे प्रति व्यवहार निर्भर करता है।
-आपकी काम करने की शैली और आपका काम के प्रति दृष्टिकोण आपके साथ काम करने वालों के साथ-साथ आपके सम्पर्क में आने वालों के मन में भी आपके प्रति अच्छी भावना जागृत करता है। दूसरों के पास हमें जानने के लिए अपने काम के प्रति हमारा दृष्टिकोण ही होता है।
-जहाँ, यह अच्छा होता है कि हम अपने बारे में अच्छा-अच्छा सोचें वहाँ, हमें अपनी कमियों के बारे में भी पता होना चाहिए। इससे हमारे में श्रेष्ठ बनने की भावना दृढ़ होती है और हममें अहंकार भी नहीं आता। हमारे विचारों का केंद्रबिंदु हमारा स्वयं का अस्तित्व होना चाहिए। जितना अधिक हम अपने उत्थान के बारे में सोचेंगे, उतनी तीव्रता से हमारी आंतरिक शक्तियाँ जागृत होंगी।
-जो लोग हमें बताते हैं कि कोई काम नहीं किया जा सकता, वे स्वयं असफल या औसत योग्यता के लोग होते हैं। ऐसे लोगों की राय विष के समान होती है। ऐसे लोगों की राय को एक चुनौती मानकर हमें उस काम को करने का दृढ़ संकल्प करना चाहिए।
-उस समय वा स्थिति का इंतजार मत करें, जब सब कुछ हमारी इच्छा के अनुकूल हो, क्योंकि ऐसा कभी होता ही नहीं। हमें अपने कार्य की सिद्धि के लिए प्रतिकूल लगने वाली स्थतियों को भी अनुकूल बनाने का पुरुषार्थ करना ही होता है। हमें भविष्य में आने वाली बाधाओं व मुश्किलों के प्रति जागरूक रहकर उनपर विजय पाने के लिए योजना भी बनानी होती है, ताकि हम उनके उभरने पर बिना किसी देरी के आवशयक कदम उठा सकें।
-याद रखें कि केवल विचारों व योजनाओं से किसी कार्य में सफलता नहीं मिलती। विचारों व योजनाओं का मूल्य तभी है, जब उनको कार्यान्वित किया जाए।
-हर स्थिति में एक अवसर छुपा होता है। उसे पहचानें व पहल करने की आदत बनाएँ।
-सामान्य लोग हमसे व्यवहार करते हुए हमारे पहरावे आदि और जिन वस्तुओं का प्रयोग हम आम करते हैं, उनको देखकर हमारे बारे में राय बनाते हैं। इसलिए, सांसारिक वस्तुओं को इस्तेमाल करते समय उनकी गुणवत्ता पर विशेष ध्यान दें। चाहे आप कम वस्तुएँ प्रयोग करें, परन्तु उनकी गुणवत्ता ऊँचे स्तर की होनी चाहिए।
-विशेष ध्यान दें कि आपके आस-पास का वातावरण अच्छा हो, जैसे कि आपका शरीर, आपके विचार, आपके मित्रगण आदि।
-सदा अच्छी चीजों के ही संवाहक बनें। जो बातें आपको अच्छी नहीं लगतीं, उनको अन्यों को बताने का प्रयत्न न करें।
-हमसे बातचीत करके दूसरों को अच्छा लगना चाहिए। जब भी हम अपने मित्रों, बंधुओं, परिचितों अथवा परिवारजनों के साथ कोई वार्तालाप करें, तो वार्तालाप के पश्चात अपनेआप से पूछें कि क्या वास्तव में जिस व्यक्ति से आपने अभी बात की है, उसे आपसे बात करके अच्छा लगा? ऐसा निरंतर करने से हमारी वाणी में मिठास आने लगती है और हम दूसरों से उनके हित की बातें ही करते हैं।
-एक सिद्धांत है कि यदि हम दूसरों का हित करते हैं, तो हमारा हित होगा ही होगा। इसलिए दूसरों के हित की बातों को खूब प्रसारित करें। अच्छी बातों के प्रसारण से दूसरों को तो अच्छा लगता ही है, हम भी भीतर से सुख की अनुभूति करते हैं।
-हम अन्यों के द्वारा कहे निति वचनों के माध्यम से अपनेआप को निरंतर याद दिलाए रख सकते हैं कि हमें अपने हर काम में दूसरों के हित को प्राथमिकता देनी है।
-हर काम को अधिक अच्छे से किया जा सकता है। जब आपको इस बात पर विश्वास हो जाएगा, तो उस काम को अधिक अच्छे तरीके से करने के ढ़ंग भी आपको सुझाई देने लगेंगे।
-कल जब आप किसी से कोई काम करवाना चाहें, तो सोचें कि वह कैसे उस काम को करना चाहेगा। ऐसा सोच कर और कर कर आप दूसरों को आपकी इच्छाओं का मज़ाक उड़ाने से रोक सकते हैं। ऐसा करने में कुशलता प्राप्त करने के लिए अभ्यास ही एक माध्यम है।
-आपकी नज़र हमेशा उन्नति व विकास पर ही होनी चाहिए। आपका हर व्यवहार आदर्श की कोटि में आना चाहिए। याद रखें कि जो व्यक्तित्व आदर्श बनाने के योग्य नहीं है, वो विकसित भी नहीं है।
-हर मुश्किल का कोई न कोई कमज़ोर हिस्सा अवश्य होता है, जहाँ प्रहार करने से हम आसानी से उस मुश्किल को सुलझा सकते हैं। मुश्किल के कमज़ोर हिस्से को जानने के लिए हमारा अपनी ‘समझ’ को विकसित करना बहुत आवश्यक है।
-नौकरियाँ बदलने से अच्छा होता है कि हम अपनी वर्त्तमान की नौकरी के प्रति अपनी मानसिकता को बदल दें। इसकी पहली सीढ़ी है कि हम अपनी वर्त्तमान की नौकरी को सम्मान की दृष्टि से देखें।
-शान्ति हमारे मन में स्थिरता लाती है। इससे हम अपनी शक्तियों को जानकर उनका पूरा सदोपयोग कर पाते हैं। नीचे इसको प्राप्त करने के उपाय सुझाए गए हैं-
1 हमारे मन की अशान्ति का एक बहुत बड़ा कारण है- अपराध बोध। इससे निकलने के लिए ईश्वर की शरण में जाने के अतिरिक्त दूसरा कोई रास्ता नहीं है।
2 दिन में कईं बार शांतिदायक विचारों को सोचने का अभ्यास करना चाहिए। इसके लिए हम उन क्षणों को याद कर सकते हैं, जब हमने शांति अनुभव की थी। ये यादें किसी स्थान अथवा व्यक्ति से सम्बन्ध रख सकती हैं।
3 ‘हे ईश्वर! कुछ भी हमारी शान्ति को भंग न कर सके अथवा डरा व परेशान न कर सके। इस संसार में आपके अतिरिक्त सबकुछ परिवर्तनशील है। आप अकेले ही परिपूर्ण हो।‘ इन शाश्वत तथ्यों को भी बार-बार स्मरण करने से हमारे मन में स्थिरता आती है।
4 अपने मन में शान्ति भरने का एक तरीका है कि हम अपने व्यवहार के दौरान प्रयोग किए जाने वाले शब्दों पर और अपने बोलने के लहजे पर विशेष ध्यान दें। हमारी बोलने की शैली हमेशा सौम्य हो। हमारा बोलना हमारे मन के विचारों पर निर्भर करता है। इसलिए, हम अपने बोलने के ढंग को सुधारकर अपने मन के विचारों को सुधार सकते हैं। यह तो सभी ने अनुभव किया है कि जब हम किसी तरह के आवेश में किसी से बोलते हैं, तो हमारी साँस, दिल की धड़कनें आदि सामान्य नहीं रहतीं। शुरु शुरु में हम अपने परिवारजनों व मित्रों से सकारात्मक शब्दों व भावों के साथ बातचीत करें और धीरे धीरे सकारात्मक शब्दों व भावों के साथ बातचीत करने का दायरा बढ़ाते जाएं।
5 मौन रहकर ही हम प्रकृति की सामंजस्यता को अनुभव कर सकते हैं। अपने शरीर व मन की सामंजस्यता को भी मौन का अभ्यास करने से ही अनुभव किया जा सकता है। मौन हमारे स्वास्थ्य की आश्चर्यजनक औषधि है।
6 हमें अपने मन में शांति प्रदान करने वाला एक खजाना तैयार कर लेना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर हम इस खजाने को अपनी शक्ति को तरोताज़ा करने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। इस खजाने को तैयार करने के लिए हमें अपने मन को शांतिदायक विचारों, घटनाओं व अनुभवों से भरना होता है।
7 हमारी अशांति का एक बहुत बड़ा कारण हमारे तंत्रिका तंत्र पर शोर का प्रभाव है। हमारे कर्म-स्थल पर पाया जाने वाला शोर और यातायात का शोर हमारे आराम में बहुत बड़ी बाधा है। आज के जमाने में प्रयोग में लाए जाने वाले यंत्र, जिनको हमारी सुविधा के लिए आजाद किया गया है, शोर का एक बहुत बड़ा स्रोत हैं। हमारे व्यवहार में न्यूनता और हमारा अपनी पूरी क्षमता से कार्य न कर पाना बहुत हद तक इस शोर के कारण है। कोशिश करें कि शोर से यथासम्भव बचा जाए।
-बहुत बार हम अपने आप को कम ऊर्जावान अनुभव करते हैं। इसके कारणों का विश्लेषण करते हुए नीचे हम अपने आपको सदा ऊर्जावान महसूस करने के तरीके सुझा रहे हैं-
1 कुछ ऐसे विचार होते हैं, जो हममें शक्ति का संचार कर देते हैं। ऐसे विचार किसी न किसी रूप में हममें अपने जीवन के अन्तिम उद्देश्य के प्रति तड़प से जुड़े होते हैं।
2 किसी कार्य में दृढ़ रहना हमारी उस कार्य के प्रति रुचि पर बहुत निर्भर करता है। किसी कार्य में रुचि होने पर थकान आदि होने के बावजूद भी हमारा मन हमारे शरीर को उस कार्य को करते रहने के लिए प्रेरित करता है। दूसरे शब्दों में, हमारा किसी कार्य को करते हुए थकान न अनुभव करने के लिए आवश्यक है कि वह कार्य हमारी रुचि के अनुरुप हो।
3 जब हमारा जीवन नीरस होता है, तो हम बहुत अधिक ऊर्जा खोते हैं। इसलिए, अपनी रुचि को खंगालो और अपनी रुचि के कार्यों में अपने आप को खो दो।
4 ऊर्जा का वास्तविक स्रोत ईश्वर है। इस तथ्य को आत्मसात कर लेने पर हमें ऊर्जा की कमी कभी अनुभव नहीं हो सकती।
5 हमारी ऊर्जा के ह्रास का मुख्य कारण हमारा शारीरिक श्रम नहीं, बल्कि, हमारी भावनाओं की चंचलता होता है और भावनाओं की इस चंचलता से निकलने का रास्ता मानवीय गुणों से प्रेरित होकर उनके अनुरूप आचरण करना ही है। मानवीय गुणों को धारण करने के लिए हमारा आध्यात्मिक होना आवश्यक है। जो अध्यात्म हमें मानवीय गुणों को धारण करने के लिए प्रेरित नहीं करता, वह वास्तविक अध्यात्म नहीं है।
6 निद्रा हमारे द्वारा खर्च की गई ऊर्जा को वापिस भरती है। इस तथ्य को समझते हुए हमें प्रयास करना चाहिए कि हमारी निद्रा अधिक से अधिक गहरी हो। दिन में भी जब कभी हम आराम करें, तो हमारा उद्देश्य अपनी भावनाओं को नियंत्रित कर ऊर्जा के स्रोत से ऊर्जा को लेना ही होना चाहिए।
7 हमारा ऊर्जावान अथवा ऊर्जाहीन होना केवल शारीरिक ही नहीं, एक भावनात्मक दशा है और यह हमारी विचार-शैली पर बहुत निर्भर करता है।
8 घृणा हमारी ऊर्जा की गति में बाधा डालती है। अपनी ऊर्जा की गति को बाधारहित करने के लिए घृणा की भावना को छोड़कर दूसरों से मित्रवत व्यवहार करना आवश्यक है। घृणा की भावना को छोड़ना कहना आसान है, परन्तु करना उतना ही मुश्किल। इसका सबसे आसान तरीका यह है कि हम दूसरों से घृणा के कारणों की बजाए, उनके अच्छे गुणों के बारे में सोचें।
9 घृणा की तरह डर और अपराध-बोध की भावनाएं भी हमें ऊर्जारहित करने में मुख्य हैं। डर और अपराध-बोध की भावनाओं से छुटकारा पाने के लिए इसी निबंध में कहीं ओर विस्तार से लिखा गया है।
10 प्राकृतिक नियमों की गति की एक निश्चित दिशा होती है और यदि हमारे क्रिया-कलापों की दिशा उस दिशा से भिन्न होती है, तो हमारी ऊर्जा का अनावश्यक ह्रास होता है। इस अनावश्यक ऊर्जा के ह्रास से बचने के लिए हमें अपने क्रिया-कलापों की दिशा प्राकृतिक नियमों की दिशा के अनुसार ही रखनी चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि कौन से कार्य प्राकृतिक नियमों की दिशा के अनुसार होते हैं? हमारे सभी कर्तव्य-कर्म और सभी नैतिक कार्य प्राकृतिक नियमों की दिशा के अनुरूप होते हैं। उदाहरण- औधोगिक जगत में उसी काम करने वाले को अच्छा माना जाता है, जो अपने यंत्र के साथ काम करने में सामंजस्य व ताल बिठा पाता है।
11 हमारा शरीर एक यंत्र की भांति है। खाना, पीना, खेलना, काम करना आदि सभी कामों में इस यंत्र की ऊर्जा खर्च होती है। इसलिए, ये सभी काम उतने ही करें, जितनी इस यंत्र को चलाने के लिए परम आवश्यक हों।
12 किसी भी काम को अपने पूरे सामर्थ्य से करें और उसके पश्चात उस काम को व उससे मिलने वाले फल को पूर्णतया भूल जाएं।
13 भविष्य की चिंता मत करें। यह अपना ख्याल खुद रख लेगा। बहुत सी भविष्य की चिंताएं वास्तव में कभी घटती ही नहीं।
14 बुढ़ापा व शारीरिक कमजोरी आने पर परेशान होने के बजाए इस तथ्य को बार-बार अपने मन में लाएं कि हम आत्मा हैं और आत्मा उम्र के बंधन से आजाद है।
यदि, कभी हम सामयिक तौर पर अपने आप को ऊर्जाहीन अनुभव करें, तो ऊपर लिखे सुझावों में से कोई एक या कुछ हमें दोबारा से ऊर्जा से भरने का कार्य अवश्य करेंगे।
-उत्साह नामक बलवर्द्धक औषधि का कोई सानी नहीं। किसी काम की सफलता उस काम में प्रयुक्त उत्साह पर निर्भर करती है। इस गुण को विकसित करने के लिए नीचे कुछ उपाय सुझाए जा रहे हैं-
1 प्रयत्न करें कि आपको अपने काम की सामान्य सी दिखने वाली बातों भी रुचिकर लगें।
2 अपने मन को सदा प्रसन्न रखें व अपने सामर्थ्य को प्रसन्नता पूर्वक अनुभूत करें।
3 अपने समय के हर क्षण को उत्साह से भरने का अभ्यास बनाएं अर्थात अपनी प्रत्येक गतिविधि को उत्साह से करें।
4 प्रतिदिन एकान्त में शिथिल बैठकर अपनी आत्मा व ईश्वर के साथ कुछ समय बिताएँ।
-जब हम दूसरों की आवश्यकताओं को नजरअंदाज करके अपने आप से कुछ ज्यादा ही प्यार करते हैं, तो हम अपने व्यक्तित्व-विकास की ओर नहीं बढ़ रहे होते, बल्कि हम अपने आप को खुद ही मार रहे होते हैं।
-इस पर सब लोग सहमत होंगे कि विचारों को भावनात्मक रूप से नियन्त्रित करने का तरीका विज्ञान-सम्मत ही होना चाहिए। इसका एक मात्र तरीका अध्यात्म ही है। जो अध्यात्म वैज्ञानिक नहीं है, वो किसी भी तरह से हमारी भावनाओं को स्थायीत्व प्रदान नहीं कर सकता। वह तरीका नियमित रूप से और लम्बे समय तक पालन भी किया जाना चाहिए।
-मुश्किलों के पहाड़ पर एक साथ आक्रमण न करें। मुश्किलों को एक एक करके निपटाएँ।
-मुश्किलों का सामना करने के लिए निम्न सुझाव अपनाएँ-
1 मुश्किलों के पहाड़ पर एक साथ आक्रमण न करें। मुश्किलों को एक एक करके निपटाएँ।
2 आपके हृदय में यह पक्का यकीन होना चाहिए कि प्रत्येक मुश्किल का समाधान अवश्य होता है।
3 अपने मस्तिष्क को ठंडा रखें। व्यर्थ की चिंताएं करने से हमारी विचार-शक्ति शिथिल पड़ जाती है और हम उस मुश्किल को नष्ट करने के लिए अपने पूरे सामर्थ्य से सोच नहीं पाते।
4 शान्त स्थान पर बैठकर मस्तिष्क द्वारा सुझाए समाधान को तर्क की कसौटी पर कसें और उस समाधान की उचितता के बारे में ईश्वर से पूछें।
5 ईश्वर द्वारा समाधान की उचितता का अनुमोदन करने पर उसे बिना किसी देरी के कार्यान्वित करें, चाहे उसके लिए किसी भी व्यक्ति अथवा समूह के विरुद्ध जाना पड़े।
6 मुश्किलों पर विजय पाने के लिए प्रतिदिन ईश्वर के सान्निध्य का अभ्यास करें।
-आपका जीवन इस बात पर निर्भर नहीं करता कि आपके जीवन में कौन-कौन सी घटनाएँ घटित हुईं, बल्कि आपका जीवन इस बात पर निर्भर करता है कि आपने अपने जीवन में घटित होने वाली घटनाओं के साथ किया।
-ईश्वर को अपनी शक्ति मानने से बड़ी हिम्मत मिलती है।
-सत्य से हम स्वतन्त्रता अनुभव करते हैं और स्वतन्त्रता हमारे सुख की आधारभूत आवश्यकता है।
-ईश्वर के सच्चे स्वरूप को जानना जीवन में जीवन्तता लाता है।
-यदि आप अपनी समस्याओं का हल नहीं ढूंढ पा रहे हैं, तो आप दूसरों की उन समस्याओं को सुलझाने में सहायता कीजिए, जो आप की समस्याओं से अधिक जटिल हों।
-अपने किसी प्रियजन की मृत्यु के पश्चात हम अपने जीवन में एक सूनापन सा महसूस करते हैं, परन्तु यह सूनापन हमारे जीवन में विकास के नए अवसर लेकर आता है, जैसे- अपनी पुरानी जीवन-शैली से बाहर निकलना, नए लोगों से जान-पहचान बढ़ाना आदि।
-शरीर के किसी अंग का सुचारु रूप से कार्य न कर पाना हमारे जीवन में कुछ सीमाओं को निर्धारित कर देता है लेकिन, हमें यह याद रखना चाहिए कि अच्छी तरह जीने के लिए हमें शारीरिक ताकत की बजाए अपने अंतःकरण की शक्ति की ज्यादा आवश्यकता होती है।
-रोगी का प्रत्येक दिन कुछ समय अपने आप में मस्त रहना आंतरिक समरस्ता के लिए बेहद उपयोगी होता है।
-अपने स्वास्थ्य के बारे में कम से कम बात करें। अपने बुरे स्वास्थ्य के बारे में बात करना अपनी बाधाओं को खाद देने के तुल्य है। किसी एक ही चिकित्सीय-परीक्षण को बार-बार कराने का अर्थ है कि हम अपने स्वास्थ्य सम्बन्धी बुरे विचारों को छोड़ना ही नहीं चाहते। यदि आप अपने रोग से बहुत अधिक बाधित महसूस करें तो, उन लोगों के बारे में सोचें, जिनका स्वास्थ्य आपकी तुलना में बहुत अधिक खराब है। अपने जीवन का मूल्य समझें। आपका स्वास्थ्य जैसा भी हो, अपने जीवन को उत्तम, और उत्तम बनाने का प्रयत्न करें। आपके पास जो है, उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है कि आप अपनी योग्यताओं का उपयोग कैसे करते हैं।
-कभी भी अपनी उम्र को अपनी सकारात्मक मानसिकता पर हावी न होने दें। उम्र की सबसे महत्त्वपूर्ण देन होती है- अनुभव। जितनी अधिक उम्र, उतने अधिक अनुभव। उम्र की इस देन को महसूस करें। इससे आप अपनी उम्र को एक अलग दृष्टिकोण से देख सकेंगे।
सफलता के सूत्र
-जब हम किसी कार्य की सम्पन्नता के लिए अपने को उत्तरदायी बना लेते हैं, तभी हम उस कार्य की सफलता की नींव रख देते हैं।
-यदि हम किसी कार्य में सफल होना चाहते हैं, तो हमारे मन में अपनी सफलता का संकल्प दृढ़ होना चाहिए और वह तभी होगा, जब हमें उस कार्य के सभी कारणों की उपस्थिति का विश्वास होगा।
-जब हमें किसी कार्य में सफलता का विश्वास होता है तो, हमारे अंदर अपने आप उस कार्य को सफलतापूर्वक करने का ढ़ंग विकसित होने लगता है। इसको दूसरे ढ़ंग से कहा जाए तो, जब हम अपनी सफलता को संशय से देखते हैं तो, हमारी असफलता निश्चित हो जाती है। सफलता उसी व्यक्ति का वरण करती है, जो उसकी हृदय की गहराइयों से कामना करता है।
-किसी कार्य की सिद्धि उसके प्रति हमारी इच्छा के वेग पर निर्भर करती है। यदि यह वेग तीव्रतम है, तो हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व हमारी इच्छा की पूर्ति में लग जाता है। स्मरण रहे कि इच्छा का यह वेग किसी अनुचित कार्य की सिद्धि के लिए न हो।
-असफलता का कारण प्रतिभा का अभाव कम और इच्छाशक्ति, पुरुषार्थ और लक्ष्य की निश्चितता का अभाव अधिक होता है।
-भविष्य की हमारी सफलता के पीछे हमारी आदतों व शारीरिक और मानसिक झुकाव का बहुत बड़ा योगदान होता है।
-हमारी सफलता हमारे संकल्प की दृढ़ता पर बहुत अधिक निर्भर करती है। दृढ़ संकल्प करना अवश्य सीखा जा सकता है।
-हमारे जीवन को बदलने में हमारे अनुसंधानकर्त्ताओं और ऋषियों का बहुत बड़ा योगदान है। उन्हें अपनी सफलता के लिए पूंजी से अधिक संकल्प, बुद्धि और ऊर्जा की आवश्यकता पड़ी थी। हमारे कारोबार की सफलता के पीछे भी वहीं आवश्यकताएं हैं।
-अपने व्यवसाय में बार-बार बदलाव करना इच्छाशक्ति की दुर्बलता को दर्शाता है और यह सफलता के लिए अत्यंत घातक है।
-अपने उद्देश्य पर अडिग रहना सफलता के लिए बहुत आवश्यक है। जल्दी-जल्दी काम बदलने से सफलता कभी नहीं मिलती। हमारा उद्देश्य, उसकी प्राप्ति से पहले कभी न बदले। असफलता का एक बहुत बड़ा कारण उद्देश्यहीन होना है।
-बहुत बार हम अपनी असफलता के लिए कुछ अंध-विश्वासों को उत्तरदायी मानने लगते हैं, इससे हमारी सफलता ओर दूर खिसक जाती है।
-हमारी किसी कार्य में सफलता मोटे तौर पर तीन बिंदुओं पर निर्भर करती है- सफल होने की आशा, अपने सामर्थ्य के अनुसार उसके लिए पूर्ण पुरुषार्थ और पुरुषार्थ की दिशा।
-किसी भी कार्य को करने के लिए एक निश्चित पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। समझने के लिए हम पुरुषार्थ को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं। पहला- पुरुषार्थ निरन्तर बिना अनुचित विरामों के करना होता है। दूसरा- पुरुषार्थ को लम्बी अवधि तक करना होता है। यहाँ लम्बी अवधि से तात्पर्य उस समय तक है, जब तक कि कार्य सिद्ध न हो जाए। फल की प्राप्ति में उचित धैर्य का होना इसी बिंदु में आ जाता है। तीसरा व अन्तिम- पुरुषार्थ जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाए, उसमें पूर्ण श्रद्धा हो।
-क्योंकि कोई भी कार्य पहले व्यक्ति के मन में पूरा होता है इसलिए, जब तक हमें अपनी सफलता का विश्वास न हो, तब तक हम उस कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं कर सकते। वास्तव में, हमें किसी कार्य में सफलता उस कार्य को करने में हमारे विश्वास की दृढ़ता के अनुपात में ही मिलती है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे तोप के गोले का सामर्थ्य गोले के वेग पर बहुत निर्भर करता है।
-हमें प्रत्येक क्रिया जैसे कि बाजार जाना, खरीददारी करना आदि करते हुए, हमें हमारा लक्ष्य याद रहना चाहिए। ऐसा करने से हममें धीरे-धीरे अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक अवसरों को पहचान पाने की काबलियत पैदा हो जाती है।
-अपनी कल्पना के इच्छित व्यक्तित्व की बारीकियों को निश्चय पूर्वक जानना चाहिए, ताकि हम अपने इच्छित व्यक्तित्व को पाने के लिए अपना पुरुषार्थ ठीक तरह से कर सकें, क्योंकि हमारी प्रार्थना की पूर्ति हमारे पुरुषार्थ की गुणवत्ता पर ही निर्भर करती है।
-ऊपर बहुत बार सफलता के लिए हमारे संकल्प की दृढ़ता पर बल दिया गया है। प्रश्न उठता है कि अपने संकल्प को दृढ़ कैसे किया जाए। इसके लिए हमें अपने दैनिक कार्य करते हुए अनेकों बार अपने संकल्प के बारे में सोचना होता है।
-अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हमें एक योजना-बद्ध तरीके से आगे बढ़ना होता है।
-असफल होने वाले व्यक्तियों के विचारों की एक विशेष रुपरेखा होती है। वे उत्तरदायित्व लेने में पीछे रहते हैं, इसके लिए उनके कारण होते हैं- अस्वस्थता, कम पढ़ा-लिखा होना, ज्यादा उम्र, कम उम्र, बदकिस्मती आदि। उनके पुरुषार्थ में भी अनमनापन होता है।
-असफल व्यक्तियों की बहाने बनाने की बहुत आदत होती है। बार-बार बहाने बनाने से मन की यह आदत अधिक दृढ़ होती जाती है।
-व्यक्तित्व-विकास के मौलिक गुण- सत्य, प्रेम, श्रद्धा, करुणा आदि के बिना, जो भी साख बनाई जाती है, वह अस्थाई ही होती है।
-सफलता धन की समृद्धि नहीं है। मन से गरीब होने पर धन की समृद्धि के कोई मायने नहीं हैं। धन सफलता का एक बहुत श्रेष्ठ साधन है, इसलिए इसे अपने जीवन का सामयिक अथवा आंशिक उद्देश्य तो अवश्य बनाना चाहिए, परन्तु अन्तिम उद्देश्य कभी नहीं।
-केवल प्रयास मात्र करने से सफलता नहीं मिलती, बल्कि हमे अपनी योग्यता पर, सफलता के अन्य कारणों की उपलब्धता पर और अपनी सफलता का दृढ़ विश्वास होना चाहिए।
-बहुत से बच्चे, जो स्कूल्स आदि में कोई ज्यादा अच्छे अंक नहीं ली पाते थे, अपने यौवन-काल में अपनी परिस्थितियों से बहुत अच्छा सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं। इसका कारण है कि वर्त्तमान की मुश्किलें हमें भविष्य की परिस्थितियों से सफलतापूर्वक झूझना सीखा देती हैं।
-सफल होने के लिए केवल बुद्धिमत्ता नहीं, बल्कि मानवीय गुण जैसे कि दूसरों से प्यार की भावना का होना, दूसरों को समझना, अपने उत्साह को दूसरों में स्थानांतरित कर पाना आदि भी आवश्यक हैं।
-अपनी बुद्धिमत्ता को दूसरों से कम आंकना छोड़ दें। सफल होने के लिए बुद्धिमत्ता की मात्रा अधिक मायने नहीं रखती। अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हम अपनी बुद्धिमत्ता का प्रयोग कैसे करते हैं।
-यह आवश्यक नहीं होता कि हम अपने सभी विचारों को सफलतापूर्वक कार्यान्वित कर पाएं। अपने विचारों को कार्यरूप में परिवर्तित करने के लिए हमें अपने पुरुषार्थ से उनका विकास सुनिश्चित करना होता है। अपने विचारों की तुलना हम बीजों से कर सकते हैं। सारे बीजों में से कुछ ही पेड़ या पौधे बन पाते हैं। अपने विचारों के उचित विकास के लिए निम्नलिखित व्यवहार अपनाएं-
1 अपने विचारों को लिख लें। बहुत से विचार हमारी कमज़ोर स्मरण-शक्ति के कारण नहीं पनप पाते।
2 समय-समय पर उन विचारों की समीक्षा करें और उन्हें निखारें।
3 उन विचारों को आवश्यक खाद-पानी आदि देकर उनका विकास सुनिश्चित करें।
-किसी कार्य में सफलता के चार स्तम्भ होते हैं- निश्चित उद्देश्य का होना, हमारे मन में हमारे उद्देश्य के प्रति सकारात्मक विचार, हमारे अंतःकरण में हमारी सफलता और उससे सम्बन्धित चित्रों का दृढ़ स्थान और हमारा अपनी योग्यता पर व उस योग्यता के मूल ईश्वर पर विश्वास।
-असफलता का कारण हमारे विचार ही होते हैं। जब हम सोचते है कि किसी कार्य को हम नहीं कर सकते, उसी समय हम अपनी असफलता का बीज बो देते हैं। इसके विपरीत सोचकर हम सफलता के बीज भी बो सकते हैं।
-अपने विचारों अथवा अपनी मनःस्थिति को अच्छा बनाने के लिए हमें अपने ईश्वर-विश्वास को सुदृढ़ करना होता है। किसी भी परिस्थिति में हमारा ईश्वर-विश्वास डोलना नहीं चाहिए।
-जब हमारा ईश्वर-विश्वास पूर्ण श्रद्धा से युक्त होता है, तो ईश्वर हमारे मन को इस तरह प्रेरित करता है कि हम अहितकर कार्यों को करने में इच्छा व प्रयत्न नहीं करते, बल्कि हमारा मन ईश्वरीय इच्छा के अनुरूप ही कार्य करता है।
-इसमें कोई शक नहीं कि सफलता के लिए आपका ज्ञान और आपका परिश्रम बहुत अधिक मायने रखता है, परन्तु अधिक महत्त्वपूर्ण है कि आपकी श्रद्धा और विश्वास किस तरह के ईश्वर पर हैं और उस श्रद्धा व विश्वास की तीव्रता क्या है।
-अपने अन्दर अच्छा सोचने की आदत को विकसित करने के लिए ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का चिंतन रात को सोते समय बार-बार करना चाहिए। इससे ईश्वरीय पवित्रता हमारे मन में आसानी से प्रवेश कर पाती है।
-जब हम हर प्रकार के संशय से दूर होके अपना पूरा ज्ञान, बल, योग्यता आदि किसी कार्य में झोंकते हैं, तो हमारी उस कार्य में सफल होने की सम्भावना बहुत बढ़ जाती है।
-यदि, हम इतने स्वार्थी हैं कि हम तब तक दूसरों की ईमानदार प्रशंसा से उनको आंतरिक ख़ुशी भी नहीं दे सकते, जबतक कि उस प्रशंसा से हम खुद लाभान्वित नहीं होते, तो हम सफलता के बजाए असफलता के हकदार हो जाते हैं।
-सफलता के लिए मुश्किलों, बाधाओं और निरुत्साहित करने वाली स्थितियों के प्रति हमारी मानसिकता बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। इन सबके प्रति सही मानसिकता को प्राप्त करने के निम्न सुझाव अपनाएँ-
1 असफलता का विश्लेषण करें और उससे कुछ सीखें व ऐसा सीखकर सफलता के लिए अगली बार फिर प्रयास करें, नाकि टूट कर बिखर जाएँ।
2 अपने आलोचक खुद बनें। अपनी गलतियों व कमजोरियों को खुद पहचाने. और उनको ठीक करें।
3 अपनी असफलता के लिए किस्मत को दोषी ठहराने की आदत को बदलें। हर असफलता के पीछे कोई कारण होता है, उसे जानने का प्रयास करें।
4 सफलता के लिए परीक्षण भी करने होते हैं और नए ढँग भी आजमाने होते हैं। परन्तु, उसके लिए हमें अपने भीतर वह समझ पैदा करनी होती है, जिससे हम जान सके कि कौन सी बातें सम्भव हैं और कौन सी असम्भव।
-ईश्वर-विश्वास की कमी को किसी भी तरह का कौशल, सहायता अथवा परीक्षण पूरा नहीं कर सकता।
-शत्रुओं के बजाए, हमें चापलूस मित्रों से डरना चाहिए।
-हमारे अन्दर दूसरों के गुणों को देखने का स्वभाव इतना दृढ़ हो जाना चाहिए कि सभी हमें अपने से अधिक काबिल लगने लगें। तभी हम दूसरों से कुछ सीख सकते हैं।
-किसी भी पुस्तक को पढ़ने से लाभ हमारी सीखने की इच्छा की तीव्रता व हमारी व्यवहारिकता के सामर्थ्य को बढ़ाने की प्रबल निश्चयात्मकता पर निर्भर करता है।
-वैसे तो हम अपनी किसी भी बात को कभी भी बदल देते है, परन्तु यदि, उसी बात पर अन्य द्वारा आलोचना हो जाए, तो हमारा रवैया रक्षात्मक हो जाता है और हम अपनी उसी बात को छोड़ नहीं पाते। अपनी बात को सही साबित करने के लिए हम हर तरह के कुतर्कों का सहारा लेते हैं। ऐसे में, व्यक्ति को सही रास्ते पर लाने के लिए मनोविज्ञान के अनुरुप समझदारी और सहिष्णुता बर्तनी पड़ती है।
दूसरों से आदर चाहना
-सभी की यह मनोकामना होती है कि दूसरे उनका आदर करें व उनके प्रति प्रीति की भावना रखें। एक लोकोक्ति है कि ‘प्यार बांटो, प्यार मिलेगा’। यह लोकोक्ति इसी सिद्धान्त पर आधारित है कि जिनसे हम आदर व प्यार की इच्छा रखते हैं, पहले हमें उन्हें आदर व प्यार देना होगा। यह ठीक है कि हमें दूसरों का आदर करना चाहिए, परन्तु क्या इसका यह अर्थ लिया जाए कि हमें दूसरों का आदर करना चाहिए, चाहे वे उस आदर के योग्य हों या न हों? नहीं। व्यक्तित्व विकास के लिए यह आवश्यक है कि हम दूसरे लोगों की योग्यता का ठीक-ठीक निर्णय कर सकें। दूसरे लोगों की योग्यता को जांचने के लिए हमारे पास उपयुक्त मापदंड भी होना चाहिए। इसके लिए मापदंड हैं- मानवीय गुण। जिन लोगों के पास ये गुण हों या जो इन गुणों को श्रद्धापूर्वक धारण करने में प्रयासरत हों, हमें केवल उन्हीं लोगों का आदर करना चाहिए। यहां यह बात अपने-आप चरितार्थ हो जाती है कि हमें दूसरों का आदर करने से पहले स्वयं का आदर करना चाहिए। प्यार अथवा हित की भावना तो सभी के प्रति होनी चाहिए, परन्तु जो लोग व्यक्तित्व विकास के लिए आवश्यक गुणों के विपरीत आचरण करने वाले हों, उनके प्रति हमारे मन में उपेक्षा अर्थात उदासीनता की भावना होनी चाहिए। यदि ऐसे लोग किसी शारीरिक व मानसिक कष्ट से गुजर रहें हों, तो ऐसे में उनके प्रति उपेक्षा की भावना पर तटस्थ न रहकर उनकी प्रीतिपूर्वक व यथासम्भव सहायता करनी चाहिए। इस वाक्य में परोपकार का मौलिक सिद्धान्त भी छिपा हुआ है।
-दूसरों के द्वारा अपने को पसंद किया जाने का निश्चित तरीका है- दूसरों को अपने साथ बोलने के लिए उत्साहित करना।
-हम ऐसे व्यक्ति के पास ही जाना पसंद करते हैं, जो प्रसन्नचित्त हो। यदि हम चाहते हैं कि दूसरों को हमारा साथ अच्छा लगे, तो हमें भी प्रसन्नचित्त रहना होगा।
-हर व्यक्ति, चाहे वह किसी भी देश में रहता हो, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, चाहे वह मूर्ख हो या बुद्धिमान अपना सम्मान चाहता है। परन्तु, जब भी हम किसी का सम्मान करें, तो उसके पीछे हमारी ईमानदारी और निस्स्वार्थता अवश्य होनी चाहिए। इससे हम दूसरों का भरोसा बड़ी आसानी से जीत पाते हैं। इससे हमारा अंतर्मन भी खिल जाता है।
-दूसरों का अपमान करके उनसे अपने सम्मान की आशा करना मूर्खता है।
-दूसरों को उनके नाम से बुलाने का प्रयत्न कीजिए। इससे दूसरे अपनेआप को सम्मानित महसूस करते हैं। परन्तु, ऐसा करते हुए ध्यान रखें कि बड़ों को उनके नाम से न बुलाया जाए। दूसरों को उनके नाम से बुलाने के लिए आवश्यक है कि हम पहली ही मुलाकात में उनके नाम अच्छे से सुन लें व मुलाकात के दौरान जब भी सम्भव हो, उनको उनके नाम से बुलाएं। इससे उनका नाम हमें अधिक अच्छे से स्मरण हो जाता है।
-हमारा दूसरों का नाम न याद रख पाने का सामान्य तर्क है- व्यस्तता। वास्तव में ऐसा नहीं होता। इसके वास्तविक कारण हैं- दूसरों का नाम याद रखने का महत्त्व न समझना या किसी व्यक्ति विशेष में हमारी कोई रुचि न होना या दूसरों के नामों को अपने मन में पर्याप्त बार न दोहराना।
-दूसरों के बीच स्वीकार्यता पाने के लिए बोलने की कला का विशेष स्थान है। परन्तु, खुद न बोलकर, जब हम दूसरों को अपने विचार, दृष्टिकोण आदि रखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, तब भी हम दूसरों के बीच स्वीकार्यता पाने का ही प्रयत्न कर रहे होते हैं। यूँ कहें, तो दूसरों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करके हम उनके मन में अपने प्रति सम्मान जगाते हैं।
-गलती वहीं व्यक्ति करता है, जो काम करता है। निठल्ले व्यक्ति गलती नहीं करते। दूसरों से गलती होने पर उनको दोषी ठहराने का प्रयत्न न करें। दूसरों की गलतियों को नजरअंदाज करने की आदत बनाएं।
-दूसरों से आदर पाने के लिए निम्न सुझाव अपनाएं-
1 दूसरों का नाम याद रखने की कोशिश करें और आवश्यकता पड़ने पर उनको नाम से ही बुलाएँ। एक व्यक्ति के लिए उसका नाम बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। यदि हम दूसरों को उनके नाम से नहीं बुला पाते हैं, तो इसका अर्थ होता है हमारी उस व्यक्ति के प्रति रुचि पर्याप्त नहीं है।
2 आपका व्यक्तित्व ऐसा होना चाहिए कि दूसरों का आपका सान्निध्य और आपसे बात करना अच्छा लगे।
3 दूसरों को लगना चाहिए कि आपसे की बात निश्चितरूप से आप तक ही रहेगी।
4 दूसरों को कतई नहीं लगना चाहिए कि आप समझते हैं कि आपको सबकुछ पता है।
5 दूसरों के प्रति अपनी रुचि दिखाएँ।
6 कभी भी दूसरों को सम्मान देने से न चूकें।
7 दूसरों के अच्छे गुणों को जानने का प्रयत्न करें। ‘हर व्यक्ति में अच्छे गुण होते हैं’- इस वाक्य को आपका मन हृदय से स्वीकार करता हो।
8 दूसरों की छोटी से छोटी सहायता के लिए भी उनके प्रति कृतज्ञता जताना न भूलें।
9 दूसरों के अवगुणों को तभी उनको बताएँ, जब वे ईमानदारी से ऐसा चाहते हों।
-प्रत्येक के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वह स्वयं होता है। यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य को जानना चाहता भी है, तो वह इसलिए, क्योंकि ऐसा करने से उसकी स्वयं की उत्सुकता शान्त होती है। इसलिए, हमें अधिक बल इस बात पर देना चाहिए कि हमारी रुचि दूसरों के बारे में जानने में हो, नाकि इस बात पर कि कैसे दूसरे हमारे में रुचि रखें।
-दूसरों को अपनी तरफ आकृष्ट करने के लिए दूसरे व्यक्ति को अपने बारे में बताने के लिए प्रोत्साहित करें। याद रखें कि दूसरे आपकी समस्याओं से कम और अपनी मुश्किलों व इच्छाओं से अधिक वास्ता रखते हैं। उनके लिए उनके अपने सिर का दर्द, किसी स्थान पर भूकंप से सौ लोगों के मारे जाने से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।
रुचि
-जिस तरह के विचार हमें रुचिकर लगते हैं, उसी तरह की मनःस्थिति के हम बन जाते हैं। रुचिकर लगने वाले विचारों में हमारा धन के प्रति लगाव, ताकत के प्रति लगाव, परोपकार के प्रति लगाव आदि हो सकते हैं।
-हमें कोई विशेष कार्य करते हुए कितना ही समय क्यों न बीत गया हो, परन्तु यदि, अवसर मिले, तो हमें अपना शेष जीवन अपने उस विशेष कार्य को छोड़ कर अपनी रुचि के कार्य में व्यतीत करना चाहिए। इस परिवर्तन में होने वाले नुकसान के मुकाबले होने वाला लाभ बहुत अधिक होगा। रुचि का कार्य करते हुए हम प्रसन्न तो रहते ही हैं, इससे हम अपनी क्षमताओं का सही उपयोग भी कर पाते हैं।
-हर व्यक्ति की एक स्वाभाविक रुचि होती है। हमें चाहिए कि हम उस क्षेत्र को पहचाने और उसमें अधिकाधिक योग्यता प्राप्त करें। हमें अपने पिता, दादा आदि का पेशा तभी अपनाना चाहिए, यदि वह हमारी स्वाभाविक रुचियों के अनुरूप हो।
-हमारी रुचि का क्षेत्र बहुत विस्तृत हो सकता है। इसलिए आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी रुचि के क्षेत्र के किसी एक अंग विशेष पर केंद्रित हो जाएं और उसमें विशेष योग्यता प्राप्त करें। इससे व्यक्तित्व विकास तो होगा ही, सफलता और यश की संभावनाएं भी बहुत बढ़ जाती हैं।
-हमारी सफलता में हमारी बुद्धिमत्ता, तेज़ स्मरण शक्ति आदि से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है- हमारी उस विषय में रुचि होना।
-जब चुनाव का अवसर आपको प्राप्त हो तो, अपनी रुचि के कार्य को ही करें और उस कार्य को करते हुए ऐसा प्रयास करें कि उसकी मात्रात्मक वृद्धि भी हो। अपनी रुचि के कार्य को करने का यह अर्थ नहीं है कि हम हमारे सामने उपस्थित अवसर को व्यर्थ जाने दें।
-कईं चीजों के बारे में हमारी केवल इसलिए रुचि नहीं होती, क्योंकि हम उन चीजों के बारे में न के बराबर जानते होते हैं। हरेक व्यक्ति की एक स्वाभाविक क्षमता होती है। इससे बाहर की चीजों में रुचि जगाई जा सकती है। इसी तरीके का प्रयोग हम किसी व्यक्ति में अपनी रुचि जगाने के लिए भी कर सकते हैं। यदि हम किसी व्यक्ति की शिक्षा, उसके विचार, उसकी भविष्य की योजनाओं आदि के बारे में जान लें, तो बहुत सम्भव है कि हम उसमें अपना मित्र देख लें।
-रुचिकर चीजों को करना हममें उत्साह और उमंग भरता है। और इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि उत्साह के बगैर जीवन, मरण के समान है।
हमारी छोटी-छोटी आदतें
सामान्यतः छोटी-छोटी बातों पर शिकायत करना हमारा स्वभाव बन जाता है। शिकायत करने से पहले विचारें कि क्या शिकायत करना वास्तव में आवश्यक व महत्त्वपूर्ण है? वस्तुतः शिकायत नीति व नैतिकता के विरुद्ध बातों पर ही होनी चाहिए, अन्य गलतियों को सहन करने का स्वभाव बनाना चाहिए।
-आप योग्यता, ईमानदारी, उपयोगिता आदि की दृष्टि से जैसा भी इंसान बनने की चाहना रखते हैं, बिल्कुल वैसा ही आप अपनेआपको अपने मन में देखें। धीरे-धीरे आप वैसा ही बनने लगेंगे।
-आप जो भी कार्य करें, उनमें भावनाओं का संयोग अवश्य हो।
-सफलता हर समय मुस्कुराते रहने वालों के चरण चूमती है। मुस्कुराने का पहला सूत्र है- अपने कठोर स्वभाव, नीच प्रवृति और चिड़चिड़ेपन को तिलांजलि देना।
-यदि, आपकी मुस्कुराहट कहीं खो गई है, तो प्रसन्नचित होने का अभिनय करें। ऐसा करने से कुछ ही दिनों में आपकी मुस्कुराहट लौट आएगी। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हमारी भावनाएं हमारे कर्मों अथवा क्रियाओं के पीछे-पीछे चलती हैं।
-हमें कष्ट झेलना अच्छा नहीं लगता। लेकिन, कष्ट कभी भी मूल्यहीन नहीं होते। जिन कष्टों को झेलने के सिवा हमारे पास कोई चारा न हो, उन्हें स्वीकार कर लेना ही उत्तम है।
-दूसरों की सहायता करना हमारा स्वभाव बन जाना चाहिए और दूसरों की सहायता करने का अवसर ही हमें हमारी प्रसन्नता के लिए पर्याप्त होना चाहिए। प्रसन्न रहने के लिए किसी अन्य फल की कामना हमारे लिए बेमानी होनी चाहिए। हमारे स्वभाव में ऐसा परिवर्तन होने पर ईश-कृपा स्वमेव ही हमारे पर हो जाएगी। हमारा इस तथ्य को स्वीकार करना परम आवश्यक है कि जीवन वहीं है, जो औरों के काम आए।
-अपने अन्दर सदा काम करते रहने की आदत डालें। निठल्ले बैठे रहने अथवा काम से जी चुराने की आदत अपने अन्दर कभी न पनपने दें।
-हमेशा दूसरों के अच्छे गुणों के बारे में ही सोचें व उन्हें अपनाने का प्रयत्न करें। दूसरों के अवगुणों को अपनी सोच में कोई जगह न दें।
-अपनी प्रशंसा को अपने पास न रखकर, उसे अपने समूह के लोगों में वितरित कर दें। इससे आपको समूह के लोगों का सहयोग प्राप्त करने में आसानी होगी।
-छोटे लोग अपनी सोच के कारण छोटे होते हैं। यदि, ऐसे लोग मानसिक रुप से आपको विचलित करने का प्रयास करें, तो उनसे कभी भी भिड़ें नहीं, बल्कि उनकी छोटी सोच पर तरस खाएं। आपकी सोच इतनी बड़ी होनी चाहिए कि छोटे लोगों के आक्रमण से उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।
–तर्क-वितर्क बहुत सोच समझ कर करना चाहिए। अधिकतर तर्क-वितर्क हमारे विकास में बाधा ही खड़ी करते हैं।
-चिंता, तनाव आदि और नकारात्मक विचारों के सृजन व उनको अपने मन में संग्रह करने की आदत हमें अपनी शक्तियों के पूरी तरह उपयोग से रोकती हैं। इसलिए, इन्हें छोड़ने की आदत हमें अपने भीतर विकसित करनी चाहिए।
-मनुष्य माहौल व परिस्थितियों का गुलाम नहीं है। उसमें अपनी आदतों को सुधारने की क्षमता विद्यमान होती है।
-रात को सोते समय मन में उन चीजों व घटनाओं की एक सूची बनाना, जिन चीजों व घटनाओं के कारण आप दिन में मुस्कुरा सकें, एक बहुत ही अच्छी आदत है।
-प्रतिदिन कुछ समय एकांत में ऑंखें बंद करके बैठें व ईश्वर का चिंतन करें। इससे हमारा मन ईश्वरीय सुझावों को समझ पाने में सक्षम बनता है। एकांत में ऑंखें बंद करके बैठना निठ्ठलापन कतई नहीं है।
-हमारे सोचने की शैली बहुत करके हमारी संगति पर निर्भर करती है। इसलिए, हमें विशेष ध्यान देना चाहिए कि हमारी संगति ऐसे लोगों के साथ हो, जो तर्कशील व सकारात्मक हों।
-जब भी कोई हमारे लिए कोई काम करे, उसके प्रति कृतज्ञता जताइए। अपनी कृतज्ञता को हम अपनी मीठी व ईमानदार मुस्कुराहट से जता सकते हैं।
-हम जो कुछ भी संसार में अपनी विद्या, बल आदि से प्राप्त करते हैं, उसे ईश्वर को समर्पित करने का अभ्यास बनाएँ। अपनी योग्यता के अनुसार कार्य करने के बाद परिणामों को ईश्वर की मर्जी पर छोड़ दें।
-कार्य में हमारा प्रदर्शन बहुत हद तक हमारा आफिस से आने के बाद से आफिस जाने तक के समय को व्यतीत करने के ढ़ंग पर निर्भर करता है। कोशिश करें कि इस समय को नीरसता से न बिताएं।
-मुश्किलों को कम करने के लिए व मेहनत को आसानी से कर पाने के लिए निम्न बिंदु सुझाए जा रहे हैं-
1 कभी यह न समझें कि संसार का सारा भार आपके कन्धों पर ही है।
2 अपने काम को पसंद करें।
3 सभी कामों को एक साथ अथवा जल्दी-जल्दी करने का प्रयास मत करें।
4 अपने काम के बारे में ज्यादा से ज्यादा जानने का प्रयास करें।
5 हमेशा याद रखें कि आप सभी को प्रसन्न नहीं कर सकते। इस तथ्य को स्वीकार करने से आपको कुछ की अप्रसन्नता झेलने में आसानी होगी।
6 मुश्किल परिस्थितियों में भी सूकून में रहने का अभ्यास करें।
7 अपने आप को नियमों में रखने का अभ्यास करें।
-हमारा स्वभाव होता है कि जो चीज़ हमें खुशी देती है, उसे हम दिल से करना चाहते हैं।
-हर परिस्थिति में शान्त रहने के लिए हमें नियमित तौर पर प्रकृति की लयबद्धता को अनुभव करने का अभ्यास करना चाहिए।
-संसार, जिसमें हम रहते हैं, हमारी परिस्थितियों व बाह्य वस्तुओं से निर्धारित नहीं होता, यह निर्धारित होता है, हमारे मन के विचारों व हमारी आदतों से। एक बुद्धिमान व्यक्ति ने कहा भी है कि हमारे विचारों से ही हमारे जीवन का निर्माण होता है।
-इस बात में कि हमारी आदतें ही हमारा निर्माण करती हैं, यह बात भी शामिल है कि हम जिस तरह के व्यक्तित्व के होने की कल्पना करने के आदी होते हैं, हममें उस तरह के बनने की प्रवृति भी हो जाती है।
-जब हमारा स्वभाव कामों को आराम से, बगैर किसी तरह की जल्दबाजी के करने का बन जाता है, तो हम अपने शरीर की विभिन्न मांसपेशियों व तंत्रिकाओं में ईश्वर की शक्तियों का समन्वय कर पाते हैं, जिससे हमारा सफल होना निश्चित हो जाता है।
-हमारा संसार में आगे बढ़ना बहुत हद तक हमारे विचारों की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। इसके लिए, हमें अपने विचारों की गुणवत्ता को सुधारने के लिए विशेष प्रयास करना होता है। अपने मन में शान्तिदायक विचारों को उठाना इसी दिशा में एक कदम है। जैसे हमारी दिनचर्या में शरीर से सम्बन्धित कुछ कामों को करना आवश्यक होता है, वैसे ही अपने मन में शान्तिदायक विचारों को उठाना भी हमारी दिनचर्या का ही एक हिस्सा होना चाहिए। शान्तिदायक विचार ओर कुछ नहीं, बल्कि प्रकृति की लयबद्धता को सामने से या स्मृति से अनुभूत करना ही है।
-अपने असहज होने के, आगबबूला होने के और जल्दबाजी करने के स्वभाव को खत्म करने के लिए हमें प्रतिदिन कुछ समय शिथिल बैठने का अभ्यास करना चाहिए।
-जब भी हमारे मन में क्रोध आए, तो हमें अपने मन को क्रोध की परिस्थिति पर केंद्रित न करके अपनी आवाज़ को धीमा रखने का प्रयास करना चाहिए। यह सत्य है कि हम किसी भी बहस को धीमी आवाज़ में नहीं कर पाते।
-क्योंकि, दूसरे प्रसन्नचित व्यक्ति को ही पसंद करते हैं, इसलिए दुखी होने पर भी दूसरों की प्रसन्नता के लिए प्रसन्नचित होने का अभिनय करें।
-आशावान होने का व अपने मन के विचारों को बदलने का अभ्यास करें।
-कईं बार दूसरों की आलोचना करना हमारा स्वभाव बन जाता है। इस आदत से छुटकारा पाने के लिए यह बात याद रखें कि दूसरों को सुधारने का अथवा उनको उनकी कमियाँ बताने का हक हमें तभी मिलता है, जब हममें कोई कमी न हो। इसलिए, दूसरों को उनकी कमियाँ बताने की बजाए, अपनी ऊर्जा को अपनी कमियों को दूर करने के लिए प्रयोग करना अधिक लाभकारी है।
-दूसरों से अपनी बुराई सुनने से अच्छा है कि हम अपनी आलोचना खुद करना सीखें।
-दूसरों की निंदा करने के बजाए हमें उन्हें समझने का प्रयास करना चाहिए। आलोचना करना, निंदा करना व शिकायतें करना बहुत आसान है, क्योंकि ऐसा करने में किसी तरह के आत्म-संयम की आवश्यकता नहीं होती। हम आसान काम न करें।
ईश-कृपा की प्राप्ति
-ईश-कृपा, जो कार्य की सफलता के सभी कारणों की उपलब्धता की पूर्णता की द्यौतक है, की प्राप्ति का सिद्धांत है कि जितनी जितनी हम दूसरों की सहायता करते जाते हैं, उतनी उतनी ईश-कृपा हमें प्राप्त होती जाती है। इस कारण, हमें परोपकार के लिए लालायित रहना चाहिए।
-कृतज्ञता, जो आस्तिकता का मूल है, का हमारे स्वभाव में आने से हमारे व्यक्तित्व में अमूल-चूल परिवर्तन आ जाते हैं। दूसरों के उपकारों को अनुभव करने पर हम अधिक अच्छा सोच सकते हैं व हम अपनी क्षमताओं को अधिक अच्छे से प्रयोग में ला सकते हैं।
-हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक जड़ व चेतन वस्तुओं के योगदान को दिन में अनेकों बार महसूस करने की आदत बनाएं। हमारी मानसिकता पर इसका प्रभाव बहुत जल्दी अनुभव किया जा सकता है।
-ईश्वर को अपना सर्वोत्तम मित्र समझें। उससे अपने मन के द्वारा ऐसे बात करें, जैसे हम अपने मित्रों से करते हैं। क्योंकि, ईश्वर पवित्रतम है, इसलिए, उससे मित्रता करने के लिए हमें भी अपने जीवन में पवित्रता को बढ़ाना होगा।
-ईश्वर एक ऐसा सुरक्षा कपाट है, जिसे खोल देने से तंत्रिका तंत्र की हर तरह की असामान्य स्थिति से बचा जा सकता है।
-हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारे भीतर एक ऐसी शक्ति है, जिसके जाग जाने पर हम प्रत्येक इच्छित वस्तु को प्राप्त कर सकते हैं।
-दैवीय शक्ति एक ऐसी बड़ी लहर की तरह होती है, जिसमें हमारे सभी तरह के डर, चिन्ताएं, कमजोरियाँ, नैतिक असफ़लताएँ आदि पूर्ण रूप से बिखर जाते हैं। जिसके साथ दैवीय शक्ति होती है, उसके सामने संसार की कोई भी मुश्किल टिक नहीं सकती।
-विचारों से व्यक्तित्व का निर्माण होता है। अतः मन को केवल कुविचारों से मुक्त करना ही पर्याप्त नहीं, उनके स्थान पर उत्तम विचार भरना भी आवश्यक है।
-हमारे हृदय में कोई भी ऐसा विचार नहीं आना चाहिए, जिसका उद्देश्य हमारे परम लक्ष्य की ओर न जाता हो।
-जब भी हम बुरे विचारों के स्थान पर अच्छे विचारों को अपने मन में स्थान देते हैं, तो हमारी मानसिक स्थितियों में एक परिवर्तन आता है। यह परिवर्तन शरीर में भी झलकता है।
-हम जो भी कार्य करें, उसमें यह निश्चितता से जानें कि वह कार्य अनैतिक व आध्यात्मिकता के विरुद्ध न हो। अनैतिक व आध्यात्मिकता के विरुद्ध कार्यों का परिणाम कभी भी सुखद नहीं होता। इस तरह के कार्यों से हम ईश-कृपा से दूर हो जाते हैं।
-आप जिन भी गुणों को अपने में धारण करना चाहते हैं, उनका दिन में कईं बार चिंतन-मनन करने से उन गुणों की प्राप्ति निश्चित होती है।
-ईश्वर ही सही मायनों में हमारा मित्र है। वह तब भी हमारा हित चाहता है और हमसे प्यार करता है, जब हम उससे प्यार नहीं करते या उसे नहीं चाहते। हर स्थिति में वह हमारी सहायता को तत्पर रहता है, बशर्ते कि हम उससे सहायता माँगें।
-इस बात को बार-बार याद करते रहना कि ईश्वर हमेशा हमारे साथ है और उसकी छत्र-छाया में हमारा तथाकथित नुकसान तो हो सकता है, परन्तु हमारा अहित होना पूर्णतया असम्भव है, एक अच्छी आदत है। यदि ईश्वर हमारे साथ है, तो हमारे विरोध में कौन टिका रह सकता है?
-ईश्वर से प्रार्थना करने पर हमारे अन्दर एक अकल्पनीय शक्ति जागृत हो जाती है, जिससे हम असम्भव प्रतीत होने वाले कार्यों को भी कर बैठते हैं। जैसे किसी भौतिक शक्ति के प्रकटीकरण के तरीके होते हैं, वैसे ही प्रार्थना की शक्ति के प्रकटीकरण के लिए भी निश्चित तरीके हैं। इस सम्बन्ध में नीचे कुछ बिन्दु सुझाए जा रहे हैं-
1 ईश्वर के सहाय की प्रार्थना करें, परन्तु उस जगत-नियन्ता की कृपा से हमें जो कुछ भी प्राप्त होता है, उसे स्वीकारने की मानसिकता बनाएँ। उसकी मर्जी हमारी मर्जी से हमेशा ज्यादा हितकर होती है।
2 प्रार्थना हम तभी कर पाते हैं, जब हममें अपने से बड़ी शक्ति की विद्यमानता की स्वीकार्यता की भावना जागृत होती है। स्वीकार्यता की इस भावना से हमारे शरीर व आत्मा का सामंजस्य पुनर्स्थापित हो जाता है।
3 प्रार्थना के माध्यम से हम ईश्वरीय सहाय की याचना करते हैं और इससे हम दैवीय शक्तियों को अपना सामर्थ्य बढ़ाने के लिए आह्वाहन करते हैं।
4 जब हम अपने से बड़ी सत्ता की विद्यमानता व उस द्वारा सतत हमारी रक्षा किए जाने के सत्य को स्वीकार लेते हैं, तो हममें अपनी मुश्किलों के सामने आसानी से खड़े रह पाने का समर्थ्य आ जाता है। इससे हमारा मानसिक स्वास्थ्य तो अच्छा होता ही है, हम धर्म को एक नए दृष्टिकोण से देखने में भी समर्थ हो जाते हैं। विज्ञान के अनुसार सिद्धांतों का व्यवहार में उतरना आवश्यक है। धर्म के इन अनुभूत व्यवहारिक तथ्यों से हमारा धर्म के सैद्धांतिक पक्ष की ओर झुकाव विज्ञान-सम्मत प्रतीत होने लगता है।
5 जब हम प्रार्थना के माध्यम से ईश्वर के सहाय की याचना करते हैं, तो हमारे अंदर चीजों को समझने का एक नया दृष्टिकोण पैदा होता है।
6 ईश्वर से प्रार्थना करने वाले सभी लोगों ने यह अनुभूत किया है कि प्रार्थना करने से वे अच्छा महसूस करते हैं, वे अपने कार्यों को अधिक अच्छी तरह से कर पाते हैं और अच्छी तरह से सो पाते हैं। कहने का तात्पर्य यह कि प्रार्थना से वे सब कुछ अच्छा कर पाने में समर्थ हो जाते हैं।
7 प्रार्थना करने से ये सब संसारिक लाभ तो होते ही हैं, हमारा मन भी निर्मल होता है। और यह भी सत्य है कि निर्मल मन से की गई प्रार्थना का असर शीघ्र और अधिक सटीक होता है। मन की निर्मलता के लिए हमारा सबसे प्राथमिक प्रयास यह होना चाहिए कि हम घृणा के विचारों को प्रेम के विचारों से बदल दें।
8 प्रार्थना करते समय ईश्वर से कुछ मांगने के बजाए, उसने हमें जो कुछ दिया है, उन सब के लिए उसे धन्यवाद दें।
मन की प्रसन्नता
-हम सभी अपने जीवन में प्रसन्न रहना चाहते हैं। प्रसन्नता मन का स्वभाव बन जाना चाहिए। यह तभी सम्भव है, जब हम भूत और भविष्य की चिंताओं को छोड़ वर्त्तमान में जीने का अभ्यास करते हैं। यहाँ मन की प्रसन्नता के कुछ उपाय सुझाए जा रहे हैं।
यदि हमने संसार में जन्म लिया है, तो हमें दुख, पीड़ा आदि आएंगे ही आएंगे। कोई भी व्यक्ति, कितना भी महान क्यों न बन जाए, भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, रोग आदि से नहीं बच सकता। अब प्रश्न उठता है कि ऐसे में व्यक्ति प्रसन्न कैसे रह सकता है। इन दुखों से बचने के लिए हमारा परम आनन्द के क्षेत्र में पहुंचने के लिए प्रयासरत होना ही पर्याप्त है। दूसरे शब्दों में, यदि हम ऐसी स्थिति पाने के लिए प्रयासरत हैं, जहां सुख ही सुख है और दुखों का लेश-मात्र भी नहीं है, तो हम जीवनभर प्रसन्न व उत्साहित रह सकते हैं।
प्रसन्न रहने के इस मौलिक सिद्धांत को जानने के पश्चात हम आम जीवन में प्रसन्न रहने के लिए निम्नलिखित सूत्रों को भी अपनाएं-
1 प्रसन्न रह पाने की पहली शर्त यह है कि हम कभी भी चिंता और तनाव को अपने ऊपर हावी न होने दें।
2 प्रसन्न-चित्त रहने की दिशा में प्राथमिक स्तर पर हमें सुबह उठते ही दो कदम उठाने होते हैं- पहला, यह सोचना कि मुझे रुचिकर चीजें अच्छी क्यों लगती हैं? दूसरा, यह सोचना कि मेरी आस-पास की चीजों में अच्छा व प्रशंसनीय क्या है?
3 सदा ध्यान रखें कि हमारी प्रसन्नता केवल दूसरों को दिखाने के लिए न हो।
4 पता लगाएं कि हमारी रुचियाँ क्या हैं। प्रसन्न रहने के लिए वो करें, जो हमें रुचिकर लगता हो।
5 विज्ञान, राजनीति, दर्शन आदि में अपनी रुचि बढ़ाएं। इन विषयों की सामयिक जानकारियां सामाजिक व्यवहार में बहुत काम आती हैं और हमारे आत्मविश्वास को जगाने में सहायक होती हैं।
6 बगैर अनुशासित हुए हम प्रसन्नता नहीं प्राप्त कर सकते।
7 अपने जीवन में चिड़चिड़ापन और गुस्से की भावना के स्थान पर शांति, प्यार, प्रशंसा और क्षमा जैसी भावनाओं को स्थापित करें। इससे प्रसन्नता बहुत जल्दी बढ़ती है।
8 प्रसन्नता हमारी कृतज्ञता की भावना पर आधारित है। कृतज्ञता की भावना को अपने अंदर जगाने के लिए अपने से निम्न स्तर के लोगों को देखें और अनुभव करें कि धन, शैक्षणिक योग्यता और शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से हम कितनों से अच्छे हैं। ऐसा अनुभव करने से हमारे पास पर्याप्त सामग्री हो जाती है, जिसके आधार पर हम परम पिता के प्रति कृतज्ञ हो सकें।
9 अपने शत्रुओं से घृणा करके हम उनको अपने ऊपर हावी होने का अवसर देते हैं। इससे हमारी भूख, निद्रा, रक्तचाप आदि पर ही नहीं, हमारी प्रसन्नता पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
10 हम दूसरों को प्रसन्न करके ही स्वयं प्रसन्न रह सकते हैं। इसलिए, अपने प्रत्येक कार्य में दूसरों के हित को प्रथम स्थान पर रखें और उसके अनुरूप ही अपने कार्य को अंजाम दें।
11 दूसरों की सेवा या सहायता का कार्य, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, हमारे मन को प्रसन्न रखता है। इसलिए, हमें ऐसे किसी भी कार्य में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना चाहिए। सेवा या सहायता के कार्यों में उस समय तो हमें प्रसन्नता मिलती ही है, उन कार्यों को याद करके हम कभी भी प्रसन्नता अनुभव कर सकते हैं।
12 अपना हर कार्य उचित और अनुचित को विचार कर ही करें। दूसरे शब्दों में, आपका प्रत्येक कार्य मानवता के लिए ही होना चाहिए। मानवता को बताने वाले अनेक बिन्दु हो सकते हैं, परन्तु संक्षेप में कहें, तो हर वह कार्य, जिससे दूसरों का हित होता हो और दूसरों की प्रसन्नता में वृद्धि होती हो, मानवता का पर्याय है।
13 प्रसन्नता के लिए, जो चीज जैसी है, उसको वैसा ही जानना व किसी तरह की कल्पना में न रहना और उसके अनुरूप ही कार्य करना आवश्यक है।
14 बीमारी आदि बदक़िस्मतियों से त्रस्त होने पर भी आप अपने मन की प्रसन्नता को स्थिर रख सकते हैं, यदि आप अपने मन को उन परिस्थितियों से प्रभावित न होने दें।
15 किसी कार्य में सफलता मन की संकल्प-शक्ति की दृढ़ता पर निर्भर करती है। मन की संकल्पों की शक्ति को दृढ़ करने के लिए आवश्यक है कि हमारा मन आनन्दित हो। यदि हमारा मन आनन्दित है, तो हम निर्बल शरीर के साथ भी दुष्कर कार्यों को करने में समर्थ हो जाते हैं।
-कुछ लोग सदा हँसते रहते हैं। ऐसा नहीं कि उनके जीवन में विपत्तियाँ नहीं होतीं, परन्तु वे विपत्तियों का सामना अपनी सकारात्मक सोच से करने में दक्ष होते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने शत्रुओं को क्षमा कर देने और दुखों को भूल जाने की कला में निपुण होते हैं।
-मुश्किल की घड़ी आने पर हमारे पास दो विकल्प होते हैं- मुश्किल को कोसना या मुश्किल को हँसते-हँसते झेलना। इनमें से दूसरा विकल्प यानि मुश्किल को हँसते-हँसते झेलना ही लाभकारी है।
-सामान्यतः प्राकृतिक सौन्दर्य को महसूस करने की हमारी आदत नहीं होती। यदि, हम आकाश में उड़ते पक्षी, सफेद, गहरे, अधिक गहरे बादल, झरने, नदी आदि का शोर, चाँद की भिन्न-भिन्न छटाएँ आदि प्राकृतिक घटनाओं के सौन्दर्य के प्रति आकर्षण अनुभव करें, तो हमारा प्रसन्न रह पाना बड़ा आसान हो जाता है।
-दूसरों के बारे में गलत विचारों को अपने मन में लाके और दूसरों का अहित-चिंतन करके हम अपनी अप्रसन्नता को खुद घड़ते हैं। क्योंकि हम अपनी आदतें बनाने में स्वतंत्र हैं, इसलिए अपनी प्रसन्नता को भी हम खुद ही घड़ सकते हैं।
-प्रसन्न रहने की आदत को विकसित करने के लिए मन को प्रसन्न करने वाली वस्तुओं की एक सूची बनाएँ और उसे दिन में कईं बार पढ़ें।
-मन की प्रसन्नता के लिए-
अपने मन को घृणा और दूसरों के अहित-चिंतन से दूर रखें। अपनी इच्छाओं को कम कर दें, दूसरों से पाने की आशाओँ को कम कर दें, दूसरों के प्रति प्यार की भावना को जगाएं, अपने मन में परिवार, समाज आदि को देने की भावना को सर्वोच्चता दें। दूसरे शब्दों में, दूसरों के लिए वे सब करें, जो आप अपने लिए चाहते हैं।
-हमारे मन की प्रसन्नता निश्चित रूप से हमारे विचारों पर निर्भर करती है। यदि, ऐसा ही है, तो डर, अवसाद, चिंता, निराशा आदि से सम्बन्धित विचारों को अपने मन से दूर करते ही हम प्रसन्नता अनुभव करने लगेंगे। परन्तु, ऐसा तभी हो सकता है, जब हम ऐसा करने की ठान लें।
-हम जब प्रसन्नता को अपने तक ही सिमित रखने का प्रयत्न करते हैं, तो हम दुख उठाते हैं। खुद प्रसन्न रहने के लिए आवश्यक है कि हम प्रयत्न करें कि दूसरे अधिक से अधिक प्रसन्न रहें।
-संसार का प्रत्येक व्यक्ति खुश रहना चाहता है और वह ख़ुशी को संसार की वस्तुओं में ढूंढ़ता है। ख़ुशी बाह्य वस्तुओं ने न होकर, हमारी आंतरिक स्थिति पर निर्भर करती है। खुश रहने के लिए हमें अपने विचारों को अच्छा और अच्छा बनाना होता है। खुश रहने का दूसरा कोई तरीका नहीं है।
-सामान्यतः सभी लोग अपनी गलतियों के बचाव की कोशिश करते हैं, परन्तु अपनी गलती मानना स्वयं में एक ख़ुशी का कारण है।
जीवन के गलत निर्णय
-हम कितने भी अधिक पतन को क्यों न प्राप्त हो जाएं, हमारे अन्दर उभरने की शक्ति विद्यमान रहती है। हमें केवल उस शक्ति को सक्रिय करना होता है। निश्चित तौर पर पतन से उभरने की इच्छा के लिए साहस और श्रेष्ठ व्यक्तित्व की आवश्यकता होती है, परन्तु सबसे परम आवश्यक है- ईश्वर पर विश्वास। यदि, हम ईश्वर के प्रति श्रद्धा जगा पाए, तो आवश्यक साहस आदि तो स्वमेव आ जाते हैं।
-गलतियां करके नुकसान उठाने से हमें जो सबक मिलता है, वो स्थाई होता है। उस सबक से हमें जो समझ मिलती है, उससे हम हमेशा के लिए उस तरह की गलतियों को दोहराने से बच जाते हैं।
-व्यक्तित्व-विकास की बात करते हुए हमें दो कार्य करने होते हैं- एक, अपनी गलतियों को अथवा गलत कार्यों को सुधारना और दूसरा, सुधार के लिए आवश्यक कदम अभी उठाना।
-इस संसार की परम सत्ता हमारी गलतियों के बावजूद हमारी सच्ची हितैषी है, अथवा हमसे सदा प्यार करने वाली है।
-जब भी कोई मुश्किल हमें घूरे, तो सबसे पहले तो अपने मन से डर को दूर भगा दो और यह स्मरण रखो कि ईश्वर प्रत्येक परिस्थिति में हमारे साथ खड़ा होता है। अपनी मुश्किलों की शिकायत करने के बजाए उन मुश्किलों पर अपने पूरे सामर्थ्य से आक्रमण करो।
-मुश्किल आने पर निराशावादी व नकारात्मक विचारों को दूर भगा दें।
-कोई भी मुश्किल ऐसी नहीं होती, जिसको पार न किया जा सके। इसके लिए आवश्यकता है, तो केवल ईश्वर-विश्वास की।
-मुश्किल परिस्थिति आने पर पहले तो उससे बचने का प्रयास करें। यदि वह न बन पाए, तो उसे टालने का प्रयास करें। यदि वह भी न बन पाए, तो उसे नियंत्रित करने का प्रयास करें। यदि वह भी न बन पाए, तो उसे ईश्वर की सहायता से बीच से चीर दें।
अपनी गलतियों को कम करने के लिए नम्नलिखित उपाए सुझाए जा रहे हैं-
1 कभी भी अपने मन में ऐसे निराशवादी विचार को पल्ल्वित न होने दें कि गलती करने के पश्चात कोई उम्मीद ही नहीं बची है।
2 शांतिपूर्ण मन से अपनी गलती का विश्लेषण करें व तत्पश्चात उससे मिले सबक के साथ आगे बढ़ें।
3 अपनी गलती के कारणों को समझने का प्रयास करें।
4 आपकी गलती आपके मन पर छाई न रहे। ऐसा संकल्प करें।
5 अपने आपको बेहतर बनाने का प्रयत्न जारी रखें।
सहायता-प्राप्ति
-हर व्यक्ति चाहता है कि समय आने पर उसे आवश्यक सहायता प्राप्त हो जाए। इस चाहना में व्यक्ति की आत्म-निर्भरता आड़े नहीं आती। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस तरह की सहायता हर समय ईश्वर की ओर से उपलब्ध है। आवश्यकता केवल इतनी है कि हम ईश्वर के सहायता प्रदान करने के तरीकों को समझें।
-सहायता उन्हें ही मिलती है, जो सहायता के लिए मुंह नहीं ताकते रहते और पुरुषार्थ करते ही रहते हैं।
***
ऊपर अनेक स्थानों पर प्रतिदिन एकान्त में ध्यान में बैठने के लिए व एकान्त में बैठकर कुछ विशेष क्रियाओं को करने के लिए कहा गया है। वैसे तो, यदि हमारी ध्यान की प्रक्रिया सही हो, तो उस प्रक्रिया में ऊपर कहे गए भिन्न-भिन्न उद्देश्य स्वमेव समाविष्ट हो जाते हैं, परन्तु पाठकों की सहूलियत के लिए प्रतिदिन एकान्त में बैठ कर की जाने वाली सारी प्रक्रियाओं को यहाँ अलग से लिखा जा रहा है, ताकि व्यक्तित्व-विकास के इच्छुक व्यक्ति एक साथ बिना किसी भूल के व्यक्तित्व-विकास के भिन्न-भिन्न आयामों को ग्रहण कर सकें। इस प्रक्रिया को करते हुए हमारे चेहरे पर मुस्कुराहट रहनी चाहिए।
-हमने जो कुछ भी प्राप्त किया होता है, वे सब ईश्वर द्वारा प्रदत्त बुद्धि, इन्द्रियों आदि के सहयोग से ही प्राप्त किया होता है, इसलिए उस सर्वोच्च सत्ता के प्रति कृतज्ञता अनुभव करें।
-अपनी बुद्धि से स्वीकार करें कि केवल ईश्वर ही इतनी बड़ी सृष्टि को बनाने का सामर्थ्य रखता है। ऐसा स्वीकार करने के पश्चात उसके अनन्त गुणों की विशालता के प्रति हमारी श्रद्धा बढ़ेगी।
-सही मायनों में मानव बनने की आवश्यकता को महसूस करें। उसके लिए कल्पना करें कि मुख्य-मुख्य 8-10 गुण, जो हर मानव में होने ही चाहिए, ईश्वर, जो उन गुणों का अनन्त स्रोत है, से आपमें आ रहे हैं। इन गुणों को धारण करके आप अपने अन्तिम ध्येय मोक्ष को प्राप्त करने के लिए संकल्पित हों।
-हर जगह ईश्वर की व्यापकता को अनुभूत करने का प्र्यत्न करें। ईश्वर की मौजूदगी हर जगह महसूस कर पाने पर हम पाप कर्मों को करने से बच जाते हैं और हमारे लिए अन्य प्राणियों का हित चाहना व करना सुगम हो जाता है।
-ईश्वर को अपना सर्वोत्तम मित्र स्वीकार करें और अधिक से अधिक उस जैसा बनने का प्रयास करें।
-संकल्पित हों कि आप दिन भर क्रोध नहीं करेंगे और सभी से मीठा बोलेंगे।
-ईश्वर से प्रार्थना करें कि हमारी बुराइयाँ दूर हों और कल्याणकारक गुण व पदार्थ हमें प्राप्त हों।
-जब आप कल्पना करें कि मानवीय गुण, प्रेम आदि आपमें प्रविष्ट हो रहे हैं, तो आपका मन प्रसन्नता से खिलना चाहिए।
-अपनी ऊर्जा में बढ़ोतरी अनुभव करें।
-आप भविष्य में जैसा होना चाहते हैं, वैसा ही अपने आप को देखें।
-उन क्षणों को याद कर करें, जब आपने शांति व प्रसन्नता अनुभव की थी।
-संकल्पित हों कि आप दिन भर दूसरों के कारण अपनी शान्ति व संतुलन भंग नहीं होने देंगे।
-संकल्प लें कि आप हर परिस्थिति में प्रसन्नचित्त रहेंगे।
-संकल्प लें कि आपको अच्छी निद्रा आए और गाड़ निद्रा की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहें।
-अपने आस-पास के प्राकृतिक सौंदर्य, जैसे, आसमान की छटाएं, हवा का चलना, पेड़ों का झूमना आदि को महसूस करें। इसके लिए अपनी स्मृति का भी प्रयोग करें।
-मानसिक स्तर पर किसी व्यक्ति विशेष के लिए आपके मन में बैठी घृणा को प्रेम में बदलें।
-दूसरों के अच्छे गुणों को विचारें।
-अपनी मुश्किलों पर विजय पाने के लिए अथवा किसी भी नैतिक कार्य में सहयोग के लिए ईश्वर से मित्रवत बात करें।
ऊपर कहे अनुसार आपने जो-जो भी सङ्कल्प लिया है, उसे पूरा करने के लिए दिनभर प्रयासरत रहें। यह निश्चित जानें कि अपनी तरफ से संकल्पों को पूरा करने के पूर्ण प्रयास के पश्चात ईश्वर हमारे संकल्पों को पूरा करने के लिए सहायता करेगा ही करेगा।
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