वास्तविक पूजा क्या है और वास्तविक पूजा करने की विधि क्या है? देवताओं की पूजा और ईश्वर की पूजा में क्या अंतर है?
पूजा से क्या तात्पर्य है?
वास्तविक पूजा को समझने से पहले, बेहतर होगा कि हम आज के व्यक्तियों द्वारा ‘पूजा’ शब्द से लिया जाने वाला अर्थ और पूजा करने के उनके तरीकों पर रोशनी डालें। आम लोग पूजा के नाम पर किसी मूर्ति के सामने झुकते हैं, अगरबत्ती जलाते हैं और अधिक से अधिक शंख आदि की ध्वनि करते हैं। वे सोचते हैं कि देवताओं की पूजा और ईश्वर की पूजा एक ही बात है। आज के पढ़े-लिखे लोग ईश्वर अथवा धर्म शब्द के आगे तर्क का त्याग कर देते हैं। ऐसे लोग घर में एक जगह पर शिव, दुर्गा, विष्णु, हनुमान आदि की मूर्तियाँ रख देते हैं। पूजा के नाम पर वे इन मूर्तियों के सामने झुकते हैं व इन मूर्तियों के आगे धूप जलाते हैं और अपने व अपने परिवार के कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं। पूजा के अंत में वे अपने पापों की क्षमा के लिए अनुरोध करते हैं। आजकल कई लोग यात्रा करते समय सड़क किनारे मंदिरों वगैरह के आगे सर झुका देते हैं।
आइए, अब हम यह समझने का प्रयत्न करते हैं कि पूजा का क्या अर्थ है। हमारे शास्त्रों के अनुसार, अन्य व्यक्तियों के साथ यथायोग्य व्यवहार करना पूजा है। पूजा शब्द का यह अर्थ समाज में बहुत प्रचलित है। उदाहरण के लिए, जब बच्चा भूख से रोता हुआ अपनी माँ के पास आता है तो, उसकी माँ उसकी ‘पेट पूजा’ करती है, यानी उसे खाना खिलाती है। इसी तरह जब चोर घर में आता है तो घर के लोग उसकी ‘पीठ पूजा’ करते हैं, यानी चोर को पीटते हैं। हमारे शास्त्रों में उल्लेख है कि लोगों को महिलाओं की पूजा करनी चाहिए, जिसका अर्थ यह है कि महिलाओं को उचित सम्मान दिया जाना चाहिए और उन्हें सुंदर कपड़े और आभूषण प्रदान किए जाने चाहिए। इसका तात्पर्य यह है कि व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति और समाज के प्रति उनके दायित्वों के निर्वाह के अनुसार उनके साथ व्यवहार करना ही उनकी पूजा है।
हमें पूजा क्यों करनी चाहिए?
हर कोई अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए पूजा करता है। मनोकामनाएँ सांसारिक अथवा गैर-सांसारिक हो सकती हैं। संक्षेप में, पूजा कुछ लाभ या आनंद प्राप्त करने के लिए की जाती है। संसार में ऐसी बहुत सी चीजें हैं, जो हमें सुख या लाभ देती हैं। लेकिन, इस विषय पर गहन चिंतन करने से हमें यह अहसास होगा कि हवा, पानी और भोजन से हमें सबसे अधिक लाभ प्राप्त होता है। क्या हमें इस बात का अहसास नहीं है कि- वायु के बिना मनुष्य ही नहीं, संसार के सभी प्राणी केवल कुछ समय के लिए, बिना जल के, केवल कुछ दिनों के लिए ही रह सकते हैं? कल्पना कीजिए कि कई देशों का राजा मरुभूमि में खो गया है और प्यास से तड़प रहा है, तो वह एक गिलास पानी के लिए अपना पूरा राज्य देने के लिए तैयार होगा। इसी तरह भोजन का महत्व है।
अब विचार करें कि क्या विभिन्न पूजा स्थलों पर की जाने वाली पूजा जल, वायु आदि की शुद्धता को प्रभावित करती है? आज दुनिया का हर देश पर्यावरण अर्थात जल, वायु वगैरह की बिगड़ती स्थिति से चिंतित है। यह सही समय है कि हम समझें कि पूजा करने का हमारा प्रचलित तरीका सही नहीं है। फिर, पूजा करने का सही तरीका क्या है?
देवताओं की पूजा के बारे में विचार करने से पहले, हमें यह समझना चाहिए कि देवता कौन कहलाते हैं? ‘देवता’ शब्द से हमारा तात्पर्य चेतन वस्तुएं, जैसे माता-पिता, ज्ञानी व्यक्ति आदि व जल, वायु वगैरह जैसी अचेतन वस्तुएं हैं। देवता कही जाने वाली चेतन व अचेतन वस्तुएं देती ही देती हैं और बदले में कुछ नहीं लेतीं। देवता बत्तीस प्रकार के हैं। यहाँ इन सब के बारे में बताना उचित नहीं होगा। ईश्वर उस बुद्धिमान सत्ता को कहा जाता है, जो इन देवताओं को बनाता है। सृष्टि-निर्माण का अर्थ अचेतन देवताओं को उनकी वर्तमान स्थिति में लाना व चेतन देवताओं को उनके कर्मों के अनुसार शरीर प्रदान करना है। माता, पिता, ज्ञानी व्यक्ति आदि जीवित देवता हैं और उनके साथ यथायोग्य व्यवहार करके उनकी पूजा की जाती है। परन्तु, हवा, पानी आदि निर्जीव देवताओं की पूजा कैसे करें?
इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने से पहले कि निर्जीव देवताओं की पूजा कैसे की जाती है, हमारे लिए यह जानना बेहतर होगा कि ये निर्जीव देवता हमारा कल्याण कैसे करते हैं। हम जीवन भर अनुभव करते हैं कि इन निर्जीव देवताओं के बिना हम जीवित नहीं रह सकते। ईश्वर ने इन निर्जीव देवताओं को उनके शुद्धतम रूपों में बनाया था, लेकिन, मनुष्य अपनी सांसारिक जरूरतों को पूरा करने के लिए व अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार के कारखाने, परिवहन के साधन वगैरह बनाकर इन निर्जीव देवताओं को प्रदूषित कर रहा है। यह निश्चित है कि ‘हवन’ को छोड़कर कोई भी पूजा हमारे पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण की समस्या का समाधान नहीं दे सकती।
‘हवन‘ कैसे देवताओं की पूजा है?
हमारे ऋषियों और महर्षियों, जिन्हें आधुनिक शब्दावली में वैज्ञानिक कहा जा सकता है, ने प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए ‘हवन’ प्रणाली की खोज की। हवन द्वारा पानी और हवा शुद्ध होती है। यह पहले देखा जा चुका है कि पानी और हवा की शुद्धता हमारे अस्तित्व के लिए कितनी जरूरी है। लेकिन, हम क्यों मानें कि हवन में अपनाई जाने वाली विधि वास्तव में जल और वायु को शुद्ध करती है?
आइए, विचार करें कि जब कहा जाता है कि हमें अपने माता-पिता को भोजन देकर संतुष्ट करना चाहिए, तो क्या हम उनके शरीर के जिस हिस्से को भोजन की आवश्यकता होती है, उस हिस्से पर भोजन रगड़ते हैं? उनके शरीर के विभिन्न हिस्सों पर भोजन न रगड़ कर भोजन उनके मुंह में डाला जाता है, जहां से वह पेट में जाता है और पचकर ऊर्जा में बदलकर उनके शरीर के जिस अंग को जितनी आवश्यकता होती है, पहुंच जाता है। जैसे, जीवित देवताओं की पूजा उनकी शारीरिक जरूरतों को पूरा करके की जाती है, वैसे ही, निर्जीव देवताओं की पूजा उन्हें शुद्ध और स्वस्थ रखकर की जाती है। परन्तु, वह कौन सी व्यवस्था हो सकती है, जिससे निर्जीव देवताओं को शुद्ध किया जा सके या दूसरे शब्दों में कहें तो वह कौन सी व्यवस्था हो सकती है, जिससे उन्हें ऊर्जा प्राप्त हो? अग्नि को निर्जीव देवताओं का मुख कहा गया है, अर्थात सजीव देवताओं में जो कार्य मुख करता है लगभग वहीं कार्य निर्जीव देवताओं के लिए अग्नि करती है। जो वस्तुएं अग्नि में डाली जातीं हैं, अग्नि उनके गुणों को कईं गुना बढ़ा कर व उन्हें अत्यंत सूक्ष्म कर निर्जीव देवताओं में वितरित कर देती है, जिससे वे शुद्ध हो जाते हैं। हवन में रोगनाशक, सुगन्धिवर्धक, स्वास्थ्य प्रदान करने वाली और बल बढ़ाने वाली वस्तुएं आग में डाली जातीं हैं, जिससे सजीव व निर्जीव देवताओं में सात्विकता बढ़ती है और उन्हें ऊर्जा मिलती है।
भौतिक विज्ञान के अनुसार पदार्थ कभी नष्ट नहीं होते, केवल रूपांतरित होते हैं। तदनुसार, जो सामग्री आग में डाली जाती है, वह कभी नष्ट नहीं होती, बल्कि, अत्यंत सूक्ष्म हो जाती है और उसके गुणों में बहुत वृद्धि हो जाती है। सूक्ष्म हुए ये पदार्थ हवा द्वारा पूरे वातावरण में फैल जाते हैं और सभी को जीवन-शक्ति प्रदान करते हैं। इस तरह ये पदार्थ वातावरण में शुद्धता लाते हैं। इस तरह के प्रदूषण-रहित वातावरण से होने वाली बारिश वनस्पति को प्रभावित करती है और वनस्पति गुणवत्ता के साथ-साथ मात्रा में भी समृद्ध हो जाती है। हवन एक श्रृंखला को जन्म देता है। हवन से वातावरण शुद्ध होता है, प्रदूषण-रहित वातावरण से होने वाली बारिश से वनस्पति की गुणवत्ता बढ़ती है, बेहतर वनस्पति से सभी प्राणियों को स्वस्थ जीवन जीने में मदद मिलती है। इस तरह, हवन ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हम अपने सभी जीवित देवताओं का सम्मान कर सकते हैं और निर्जीव देवताओं को शुद्ध और स्वस्थ रख सकते हैं। ऐसा किए बिना हम ‘सबका कल्याण’ नहीं कर सकते। इसलिए, हवन ही वास्तविक अर्थों में पूजा है। ‘महाभारत’ के समय तक ‘आर्यावर्त’ के सभी नागरिक किसी मूर्ति की पूजा करने के स्थान पर सुबह-शाम हवन किया करते थे।
अब, हम ईश्वर की पूजा पर आते हैं। ईश्वर की पूजा के तीन चरण हैं-स्तुति, प्रार्थना और उपासना। स्तुति का अर्थ ईश्वर के गुणों का विचार या बखान करना है। नियम है कि जिस सत्ता के गुणों का हम बारम्बार चिंतन करते हैं, उस सत्ता में हमारी प्रीति बढ़ जाती है। ईश्वर की स्तुति करने से अर्थात ईश्वर के गुणों का चिंतन करने से हमारी उसके प्रति प्रीति बढ़ जाती है और हम सात्विकता का चयन करने लगते हैं। प्रार्थना उस व्यक्ति से की जाती है, जिसे हम अपने कष्टों को हल करने में समर्थ समझते हैं। यदि, हम समझ जाएं कि हमसे भी श्रेष्ठ कोई सत्ता है और वह सत्ता हमारे कष्टों के निवारण का सामर्थ्य रखती है, तो हम अपने कष्टों के समाधान के लिए उस सत्ता से प्रार्थना करने से परहेज नहीं कर सकते। ईश्वर की प्रार्थना करने से हममें निरभिमानिता आती है। ईश्वर की पूजा का अंतिम चरण ‘उपासना’ है। उपासना का अर्थ है- अपनी क्षमता के अनुसार ईश्वर के गुणों को आत्मसात करना। एक व्यक्ति को तब तक आस्तिक नहीं कहा जा सकता जब तक कि वह ईश्वर की पूजा में अन्तर्भावित तीनों चरणों का पालन नहीं करता।
यहां, हमने कोशिश की है कि हम पूजा शब्द के वास्तविक अर्थ को जना सकें। हम यह भी समझ गए हैं कि ‘ईश्वर की पूजा’ और ‘देवताओं की पूजा’ का अर्थ एक समान नहीं है। विभिन्न प्रचलित सम्प्रदायों के अनुसार ‘ईश्वर की पूजा’ और ‘देवताओं की पूजा’ अलग-अलग तरीकों से नहीं की जा सकती।
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