मन की प्रसन्नता

मन की प्रसन्नता का सामाजिक व्यवहारों में प्रमुख स्थान है। जो व्यक्ति मन से प्रसन्न नहीं, वह व्यक्ति अपने पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक दायित्वों का निर्वहन अपनी सम्पूर्ण क्षमतानुसार नहीं कर सकता। आध्यात्मिक क्षेत्र में उसकी प्रगति उसके मन की प्रसन्नता के अनुपात में ही होती है। मन की प्रसन्नता का शारीरिक रोगों पर भी बहुत सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मन की प्रसन्नता हमारा लक्ष्य नहीं है, बल्कि यह लक्ष्य की तरफ बढ़ने वाला पहला दृढ़ कदम है।

वस्तुतः सिद्धांत तो यह है कि ज्ञान की वृद्धि के साथ-साथ मन की प्रसन्नता में भी वृद्धि होती जाती है। वैदिक वाङ्ग्मय बहुत विशाल है और उसके उपदेशों को आचरण में लाने में कईं जन्मों का समय आपेक्षित है। बहुत बार जिस ज्ञान की प्राप्ति के लिए हम घंटों का समय लगाते हैं, वास्तव में उस ज्ञान को समझने की हमारी पात्रता ही नहीं होती। इससे इतने अधिक समय में हमारा ज्ञान भी थोड़ा सा ही बढ़ पाता है और हमारे मन की प्रसन्नता में भी थोड़ी सी ही वृद्धि होती है। इस कारण, एक आम मनुष्य को ‘मन की प्रसन्नता’ को इसी जन्म में प्राप्त करना एक स्वप्न की भांति प्रतीत हो सकता है। परन्तु, मन की प्रसन्नता को प्राप्त करने के उद्देश्य से, एक विद्वान ने वैदिक वाङ्ग्मय के कुछ मोतियों को, जिनका सीधा सम्बन्ध मन की प्रसन्नता से है, को एकत्रित कर, नीचे दिया गया निबन्ध तैयार किया है, ताकि हम मन की प्रसन्नता को प्राप्त कर अपने पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और वैश्विक दायित्वों का निर्वहन अपनी सम्पूर्ण क्षमतानुसार कर सकें और शीघ्रता से अपने अन्तिम लक्ष्य की प्राप्ति की ओर बढ़ सकें। इससे हमें अपनी पुरानी ज्ञान-राशि के प्रति गौरव की अनुभूति भी होती है।

चित्त की प्रसन्नता की विधिध्यान हालाँकि, प्रसन्न चित्त से किया ध्यान ही लाभदायक होता है, परन्तु यह भी सत्य है कि सही रीति से किया ध्यान चित्त को स्वयमेव ही प्रसन्न कर देता है। ध्यान के साधन के रूप में चित्त की प्रसन्नता को प्राप्त करने का अर्थ होता है- अपनी प्रकृति में सत्वगुणों की प्रधानता लाना। यहां इस लेख में चित्त से हमारा अभिप्राय मन से ही है। हम यहाँ यह ही बताने जा रहे हैं कि ध्यान क्या है, इसकी सही रीति क्या है व इससे कैसे मन प्रसन्न हो जाता है?

ध्यान क्या है – ध्यान में कोई लक्षित पदार्थ होता है। चुपचाप बैठने को व कुछ भी न करने को ध्यान नहीं कहा जाता। ध्यान में निर्विषय होने का अर्थ है कि हमारा अपनी इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन न करना। ध्यान में हम ईश्वर के अनन्त गुणों को अपने विचारों का केन्द्र बनाते हैं।

ध्यान की सही रीति –  ध्यान के लिए हमें किसी एकान्त स्थान पर ऑंखें बंद करके ऐसी स्थिति में बैठना होता है, जिसमें लम्बे समय तक सुखपूर्वक बैठा जा सके। प्रारम्भ में साधक को लगभग 25 मिनट एक ही स्थिति में ऑंखें बंद करके शान्त बैठना होता है। बाहर कुछ भी हो, साधक को इतने समय के लिए अपनी स्थिति निश्चल रखनी होती है और अपने विचारों को ईश्वर पर केंद्रित कर देना होता है। इसके लिए आवश्यक है कि हमें ईश्वर के मोटे-मोटे गुणों की जानकारी हो।

ईश्वर के बारे में अधिकतर बातों में विभिन्न सम्प्रदाय भिन्न-भिन्न मान्यता वाले हैं। ध्यान में ईश्वर के चिंतन में आसानी के लिए हम वेदों के आधार पर ईश्वर के कुछ ऐसे गुणों को आगे दे रहे हैं, जिनसे एक आम तार्किक व्यक्ति भिन्नता नहीं रख सकता। हम क्लेशों आदि से छूटना चाहते हैं, इसलिए ईश्वर नाम की सत्ता ऐसी होनी चाहिए, जिसको क्लेश, दुख आदि छू भी न पाएं। हमारे सभी कर्म किसी न किसी कामना की पूर्ति के लिए ही होते हैं। इसलिए ईश्वर नाम की सत्ता ऐसी होनी चाहिए, जिसमें कोई भी कामना न हो, परन्तु वह हमारी कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ हो। ईश्वर अपने सभी कर्म निस्वार्थ भाव से करता है, जिस कारण उसके कर्म संस्कारों को पैदा करने वाले नहीं होते। उसका ज्ञान, बल और सामर्थ्य अनन्त है। वह ईश्वर ही हमारे हित को पूर्णता से जानता है, इसलिए केवल वह ही हमें सत्य प्रेरणा दे सकता है। वह हमारा वास्तविक मित्र है और कालातीत होने के कारण,  वह गुरुओं का भी गुरु है। ईश्वर के स्थान पर किसी भी शरीरधारी गुरु की भक्ति करना सर्वथा अनुचित है। यहां शरीरधारी महापुरुषों के प्रति श्रद्धा रखने को गलत नहीं कहा जा रहा।

   

इस बात पर सभी एकमत हैं कि ईश्वर का हम आत्माओं के साथ पिता पुत्र जैसा सम्बन्ध है। जैसे पिता अपने पुत्र की सभी कालों में व सभी स्थितियों में रक्षा व पालन करता है, उसी तरह ईश्वर भी सतत हमारी रक्षा व पालन कर रहा है। हमारे जीवन के आधार कहे जाने वाले प्राणों को देने वाला भी वह ईश्वर ही है। उसकी रक्षा और पालना के बिना हम जीवित नहीं रह सकते। प्रारम्भिक अवस्था में, ध्यान के समय ईश्वर के इन्हीं दो गुणों का चिन्तन करना पर्याप्त है। ध्यान में हमने इसी बात पर चिन्तन करना है कि हम कैसे ईश्वर द्वारा रक्षित व पालित होते हैं?

वैदिक संध्या ध्यान का सर्वोत्तम माध्यम है। ध्यान के समय हमें वैदिक संध्या के मंत्रों के अर्थों पर विचार करते रहना चाहिए। केवल प्रसन्न मन से ध्यान करने पर ही लाभ होता है। इसलिए, ध्यान के समय हमें पूर्ण श्रद्धा, निष्ठा, प्रेम व तन्मयता से ईश्वर का चिंतन करना चाहिए। ध्यान में मन न लगने का अर्थ है कि हमें ध्यान के लाभों के बारे में जानकारी नहीं है अथवा हमारी जानकारी निश्चितता का रूप लेकर हमारी आत्मा में रमी नहीं है। इसलिए, ध्यान के लाभों को लगातार पढ़ते व सुनते रहना चाहिए। 

ध्यान के लाभों को सार रूप में यजुर्वेद के अध्याय ११ के मंत्र संख्या ४ के माध्यम से नीचे कहा जा रहा है-

‘परमेश्वर अपने उपासकों को अत्यंत सुख देता है व उनको अपनी कृपा से युक्त करके ज्ञान और आनन्दादि से परिपूर्ण कर देता है। फिर अंत में उन्हीं उपासकों को परमेश्वर मोक्षसुख देता है।’

ध्यान से कैसे मन प्रसन्न हो जाता है –  ध्यान के दौरान लगातार ईश्वर विषय पर चिंतन करते रहने से हम अनायास ही इस विषय की सूक्ष्मताओं की तरफ अग्रसर होने लग जाते हैं। यह तो प्रायः सभी ने अनुभव किया है कि किसी बात को समझ लेनेपर हमें एक विशेष आनन्द की अनुभूति होती है। ध्यान के समय हमारे अनुभवात्मक ज्ञान में वृद्धि होती है, जिससे हमारे मन की प्रसन्नता में अपने आप वृद्धि होती जाती है।

इस प्रकार ध्यान को प्रारम्भ करके हमें ‘पांच यमों’ व ‘पांच नियमों’ का पालन भी शुरु कर देना चाहिए। जितना-जितना हम महर्षि पतञ्जलि द्वारा निर्दिष्ट ‘यमों’ व ‘नियमों’ को आत्मसात करते जाएंगे, उतनी-उतनी हमारी ध्यान में प्रगति होती जाएगी। ‘यमों’, ‘नियमों’ का पालन किए बिना हम ध्यान के समय की प्रसन्नता को स्थाई नहीं कर सकते। कुछ लोगों का मानना कि ‘यमों’, ‘नियमों’ को सिद्ध करने के पश्चात ही ध्यान करना सार्थक होता है, पूर्णतया गलत है। 

ध्यान की सही विधि के रूप में कुछ प्रेरणादायक वचन –

‘—-व्यापक परमेश्वर के प्रकाश और आनंद में अत्यन्त विचार और प्रेमभक्ति के साथ, इस प्रकार प्रवेश करना जैसे समुद्र के बीच में नदी प्रवेश करती है। उस समय ईश्वर को छोड़ किसी अन्य पदार्थ का स्मरण नहीं करना, किन्तु उस अन्तर्यामी के स्वरूप और ज्ञान में मग्न हो जाना। इसी का नाम ध्यान है।’

(ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका-उपासना विषय)

‘—-तैल की धारा के समान निरन्तर चिन्तन करने का नाम ध्यान है।’

शंकराचार्य गीता १३//२४

‘जैसे जल के प्रवाह को एक ओर से दृढ़ बांध द्वारा रोक देते हैं, तब वह जिस ओर नीचा होता है, उस ओर चल के कहीं स्थिर हो जाता है, इसी प्रकार मन की वृत्ति भी जब बाहर से रुकती है, तब परमेश्वर में स्थिर हो जाती है।’ 

(ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका-उपासना विषय)

‘— और सब बुरे कामों और दोषों से अलग रहें।’

(ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका-उपासना विषय)

‘जैसे मनुष्य जल में गोता मारकर ऊपर आता है, फिर गोता लगा जाता है। इसी प्रकार अपने आत्मा को परमेश्वर के बीच में बारम्बार मग्न करना चाहिए।’

(ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका-उपासना विषय)

ध्यान के समय की प्रसन्नता को अपने व्यवहार काल में भी लाने के लिए अथवा यूँ कहें कि ध्यान के समय की प्रसन्नता को यथार्थता का रूप देने के लिए व ध्यान की तैयारी के रूप में हमें अपने व्यवहार काल में भी प्रसन्न रहने के कुछ मनोवैज्ञानिक सुझावों पर अमल करना होगा।  

 मन की प्रसन्नता के योग दर्शनपर आधारित कुछ मनोवैज्ञानिक सुझाव यहां मन को प्रसन्न रखने के कुछ मनोविज्ञानिक सुझाव दिए जा रहे हैं, ताकि हम प्रसन्नचित्त होकर ध्यान कर सकें और ध्यान के समय धारण की गई प्रसन्नता को स्थाई बना सकें।  

   दैविक परिस्थितियों को छोड़ कर, हमारे मन के अशान्त व अप्रसन्न रहने का कारण दूसरे व्यक्ति अथवा दूसरे व्यक्तियों द्वारा पैदा की गईं परिस्थितियां होती हैं। हम अपने आस-पास के व्यक्तियों को चार श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं-सुखी, दुखी, अच्छे और बुरे। इन्हीं व्यक्तियों के व्यवहारों के कारण हमारे मन में क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, आघात, खिन्नता व अनेक कुण्ठाएं घर कर लेती हैं। हम प्रत्येक व्यक्ति के बारे में अपने मन में एक छवि बना लेते हैं व उस छवि के अनुसार ही उससे व्यवहार की आकांक्षा करते हैं और जब उसका व्यवहार हमारे द्वारा बनाई उस छवि के अनुरूप नहीं होता, तो हमारा मन अप्रसन्न हो जाता है। प्रत्येक व्यक्ति की छवि प्रत्येक परिस्थिति में समान नहीं होती। एक ही व्यक्ति एक परिस्थिति में दुष्टता का व्यवहार कर सकता है व भिन्न परिस्थिति में परोपकारादि का व्यवहार कर सकता है। 

हमारे दुख भी हमारे मन की अप्रसन्नता का बड़ा कारण हैं। हमारे लगभग 70% दुखों का कारण हमारी मनःस्थिति होती है। अपनी मनःस्थिति को बदलने मात्र से हम अपने लगभग 70% दुखों का निवारण कर सकते हैं। हमारे शेष 30% दुख हमारे कर्मों का फल होते हैं, जिनको सहन करने में हमारी सही मनःस्थिति बहुत लाभकारी होती है। कर्मों के फल के रूप में मिले दुख बहुत हद तक सहनीय बन जाते हैं, यदि हम

-होने वाली अधिकतम हानि को विचारें और स्वीकार कर लें।

-दूर-दृष्टि से आने वाले कष्टों के बारे में पहले से तैयार हो सकें।

-यह विचार करें कि दुखों के आने से दुख रूपी फलों को देने वाले कर्मों में कुछ कमी हो गई है।    

यदि हम उपरोक्त वर्णित चार श्रेणियों के लोगों के प्रति अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन ले आएं, तो ऐसे व्यक्ति अपने व्यवहार से हमारी मन की प्रसन्नता को छिन्न-भिन्न नहीं कर पाएंगे। यहां सुखी व्यक्ति से तात्पर्य उस व्यक्ति से है, जो हमारी तुलना में सुख के साधनों से अधिक सम्पन्न है। सुखी व्यक्ति से व्यवहार करते समय हममें द्वेष आदि के स्थान पर मैत्री की भावना होनी चाहिए। जिस तरह के व्यवहार की हमें अपने मित्र से आपेक्षा होती है, उसी तरह का व्यवहार हमें सुखी व्यक्ति के साथ करना चाहिए। यहां दुखी व्यक्ति से तात्पर्य उस व्यक्ति से है, जो हमारी तुलना में कष्ट, आपदाओं से अधिक घिरा हुआ है व सुख के साधनों में हमसे कम सम्पन्न है। ऐसे व्यक्ति से व्यवहार करते समय हमारे मन में हीन-भावना के स्थान पर करुणा व दया का भाव आना चाहिए। अच्छा व्यक्ति वह है, जो पुण्य और सर्वहितकारी कार्य करता है। अच्छे व्यक्ति से व्यवहार करते समय हमारे मन में ईर्ष्या आदि के स्थान पर प्रसन्नता का भाव आना चाहिए। ऐसे व्यक्तियों का मिलना दुर्लभ होता है, इसलिए ऐसे व्यक्तियों के मिलने पर मुदिता का भाव आना चाहिए। किसी भी व्यक्ति में परोपकारादि सत्याचरण का उदय होना वास्तविक हर्ष का कारण है। बुरा व्यक्ति वह है, जो पापाचरण करता है। बुरे व्यक्ति से व्यवहार करना सबसे कठिन है। बुरे व्यक्तियों के प्रति हमारे मन में उपेक्षा का भाव होना चाहिए। जब ऐसे व्यक्ति से पूर्णतया सम्बन्ध-विच्छेद नहीं किया जा सकता, तो मन में उसके प्रति उपेक्षा का भाव रखते हुए, हमें उससे यथायोग्य वर्त्तना चाहिए। ठीक जैसे एक मां अपने बच्चे की उपेक्षा करते समय व उसको दंडित करते समय उसका हित चिंतन करती रहती है। यहां, उपेक्षा का अर्थ घृणा कदापि नहीं है। यथायोग्य वर्त्तने के अन्तर्गत दुष्ट व्यक्ति का विरोध करना भी आ जाता है। उपेक्षा एक मानसिक भाव है, जिसके अनुसार हमें किसी व्यक्ति-विशेष की दुष्टता का चिंतन ही नहीं करते रहना चाहिए व उसके प्रति किसी तरह की कुंठा नहीं पालनी चाहिए।

यदि हम सुखी व्यक्तियों के प्रति मित्रता का भाव नहीं रखेंगे, तो निश्चित ही हममें उनके सुख से ईर्ष्या पैदा होगी, जिससे हम भीतर ही भीतर जलते रहेंगे व यह जलन हमारे मन को अप्रसन्न कर देगी। इसी प्रकार, दुखी व्यक्तियों को हीन भावना से देखने से हमारा मन अपवित्र होकर निष्ठुर हो जाता है और अपवित्र मन सदा अप्रसन्न रहता है। किसी उचित कारणवश दुखी व्यक्ति की सहायता न करना हमारे मन की निष्ठुरता को नहीं दर्शाता, बस शर्त यह है कि हमारे मन में ऐसे व्यक्तियों के प्रति करुणा की भावना हो। पुण्यात्मा व श्रेष्ठ महात्माओं का संयोग पाने पर हमें अपने आप को सौभाग्यशाली समझना चाहिए व हमारा मन गदगद हो उठना चाहिए। दुष्ट व्यक्ति से किसी भी तरह का नाता नहीं रखना चाहिए, तभी हमारा मन शान्त रह पाएगा, अन्यथा हम मन ही मन कुढ़ते रहेंगे।  

हमें ध्यान जैसी निश्चल स्थिति में बैठ कर, ऑंखें बन्द करके उन व्यक्तियों को इंगित कर लेना चाहिए, जिनसे व्यवहार करते समय हमारे मन में द्वेष, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या आदि की भावनाएं जाग जाती हैं। फिर, उनको उपरोक्त श्रेणियों में से उचित श्रेणी में रख कर, अपनी मनःस्थिति में उचित बदलाव लाना चाहिए, जिससे हमें उनसे व्यवहार करते समय सुगमता हो। आरम्भ में, इस स्थिति में प्रतिदिन 5-7 मिनट बैठना चाहिए। परन्तु, कुछ दिनों के पश्चात मात्र 15-20 सैकिण्ड दैनिक का अभ्यास किसी भी समय, किसी भी अवस्था में करना पर्याप्त होगा। ऐसा अभ्यास करते समय सदा हमारी ध्यान जैसी निश्चल स्थिति होनी चाहिए व ऑंखें बन्द होनी चाहिएं। ऐसा करने मात्र से, इंगित व्यक्तियों से व्यवहार करते समय हमारा मन द्वेष, घृणा, क्रोध, ईर्ष्या आदि भावनाओं से रहित हो शान्त व प्रसन्न रह पाएगा। आरम्भ में, हमें कुछ कठिनाई झेलनी पड़ सकती है। परन्तु, कुछ समय के अभ्यास से ही इससे हमारे मन की प्रसन्नता में अत्याधिक वृद्धि हो जाएगी और हम किसी भी परिस्थिति में व किसी भी व्यक्ति से व्यवहार करते हुए अपने मन की प्रसन्नता को स्थिर रख पाएंगे। केवल और केवल अपनी मनःस्थिति में उचित बदलाव लाने से हम अपने जीवन में शांति, हंसी, खुशी और मस्ती ला सकते हैं।

2     प्रथम बिन्दु के अनुसार अपने सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों को उचित श्रेणियों में रखने के पश्चात हम अपने मन को प्रसन्न रखने के लिए अपने प्राणों का सहयोग लेते हैं। हमारे मन का हमारे प्राणों के साथ सीधा सम्बन्ध है। जैसे-जैसे हमारे मनोभाव बदलते हैं, वैसे-वैसे हमारी सांसों की गति में भी परिवर्तन होते जाते हैं। उदाहरण के लिए- क्रोध की दशा में हमारी सांसों की गति सामान्य से अधिक तीव्र हो जाती है। जो प्राणी जितना दीर्घ श्वास लेते हैं, उनकी आयु उतनी ही लम्बी होती है। इसका वैज्ञानिक कारण यह है कि दीर्घ श्वसन शरीर की उच्चतम विश्राम की स्थिति बनाता है। इस अवस्था में नींद की भांति ही शरीर की टूट-फूट शीघ्रता से ठीक होती है। उचित मनोभावों से युक्त होने पर हमारे शरीर में अधिक टूट-फूट भी नहीं होती। 

मन की प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए इस सत्य को इस तरह प्रयोग किया जाता है कि जब भी हम अपने मनोभावों में परिवर्तन चाहते हैं, हम तभी प्राणों की आदर्श स्थिति की ओर बढ़ना आरम्भ कर देते हैं। धीमा और गहरा साँस लेना ही प्राणों की आदर्श स्थिति है। प्राणों की आदर्श स्थिति का अभ्यास कभी भी कहीं भी किया जा सकता है। जब भी हम नकारात्मक चिंतन करें अर्थात जब भी हममें क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा, खिन्नता आदि की भावनाएं जन्म लें, तो हम अपने मन की प्रसन्नता को स्थायी रखने के लिए प्राणों को नियंत्रित करने का अभ्यास कर सकते हैं।

मन की प्रसन्नता के साधन के रूप में प्राणों की कुछ क्रियाओं (व्यायामों), जैसे कि नाड़ी-शोधन, दीर्घ श्वसन, कपालभाति. भ्रामरी, उज्जयी आदि को सभी को जानना आवश्यक है। आज, इन्हीं प्राण के व्यायामों को प्राणायाम माना जाता है। दीर्घ श्वसन के साथ सकारात्मक चिन्तन को जोड़ देना चाहिए। जब श्वास लें तो विचारें कि मेरे भीतर सकारात्मक ऊर्जा, जीवनी शक्ति व सद्गुण प्रवेश कर रहे हैं और जब श्वास छोड़ें तो विचारें कि नकारात्मक ऊर्जा, रोग व अवगुण सब बाहर जा रहे हैं। 

परन्तु, यह सभी प्राणों की क्रियाएं ‘योग दर्शन’ में वर्णित वास्तविक प्राणायामों का विकल्प कदापि नहीं हैं। इन प्राण के व्यायामों को ‘योग’ के नाम से प्रचारित करने वालों को ऋषि हन्ता कहना कोई गलत नहीं। इन व्यायामों का उद्देश्य शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य है, जबकि वास्तविक प्राणायामों का उद्देश्य आत्मिक स्वास्थ्य है। इस दृष्टि से प्राण के ये व्यायाम ‘योग दर्शन’ में वर्णित प्राणायामों की प्रारम्भिक स्थिति तो माने ही जा सकते हैं। प्राणायामों में श्वासों को अपने सामर्थ्यानुसार रोकना होता है। अपने प्राणों को नियंत्रित करने के लिए हमें ‘योग दर्शन’ में वर्णित प्राणायामों का अभ्यास अपनी दैनिक दिनचर्या में शामिल कर लेना चाहिए। इससे प्राण शीघ्र ही हमारे वश में आ जाते हैं, जिससे ध्यान में हमारी प्रगति तीव्र गति से हो पाती है।

प्राणायाम – जब हम प्राण को बाहर निकाल कर बाहर ही रोक देते हैं और घबराहट होने पर प्राण को अन्दर भर लेते हैं, तो इसे बाह्य प्राणायाम कहा जाता है। अभ्यन्तर प्राणायाम वह है, जिसमें हम प्राण को अन्दर भर कर अन्दर ही रोक देते हैं और घबराहट होने पर प्राण को बाहर निकाल देते हैं। प्रारम्भ में केवल बाह्य प्राणायाम ही करें। तीन बार से शुरु करके, धीरे-धीरे इस संख्या को दस तक ले जाएं।

3     मन की अप्रसन्नता को प्राप्त करने का अमोघ शस्त्र है- संतुष्टि। संतुष्टि का अर्थ है कि हमें ईश्वर की दया से जो कुछ भी मिला है, उसके लिए हम उस परमेश्वर के प्रति कृत्घ हों। इस भाव को स्थाई बनाने के लिए ध्यान के समय या उस समय के अतिरिक्त हमें उपलब्ध अथवा अपने को प्राप्त वस्तुओं का चिंतन करते हुए यह सोचना चाहिए कि संसार में कितने ही लोगों को वह वस्तुएं भी उपलब्ध नहीं। सन्तुष्ट रहने के लिए हमें अपनी शिकायत करते रहने की आदत छोड़नी होती है। परोक्ष रूप से अन्यों में कमियां ढूंढ़ने की आदत भी संतुष्टि का ऐश्वर्य प्राप्त करने में बाधा है।

4    नकारात्मकता हमारे मन की अप्रसन्नता का एक बहुत बड़ा कारण है। जितना जितना हमारे व्यवहार में दूसरों का हित चिन्तन आता जाता है, उतना उतना हमारे जीवन में सकारात्मकता का प्रवेश होता जाता है।   

5     कईं बार हमारा मन अत्यन्त निराशा से घिर जाता है। ऐसी स्थिति में यदि हमारा मन ऐसे व्यक्तित्व का चिन्तन आरम्भ कर दे, जिसके प्रति हमारे मन में असीम श्रद्धा हो व जिसके रास्ते पर चलने में हमें किसी तरह की कोई भी मानसिक बाधा न हो, तो अति शीघ्र हमारा मन अकर्मण्यता की स्थिति से बाहर निकल आता है। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में ऐसा कोई न कोई महापुरुष अवश्य होता है, जिसके प्रति उसके मन में एक विशेष स्थान होता है। चिन्तनीय महापुरुष का चुनाव अपने लिए किसी गुण विशेष की उपयोगिता को जानकर करना चाहिए। भारत-खण्ड में रहने के कारण, हम श्री राम, श्री कृष्ण व महर्षि दयानन्द का महापुरुष के रूप में चिंतन कर सकते हैं। हमारी परिस्थितियां इन महापुरुषों की परिस्थितियों के सामने अत्यन्त तुच्छ हैं।

परन्तु, इन तीन महापुरुषों का जीवन हमें किस तरह अवसाद की दशा से निकलने में प्रेरित कर सकता है? श्री राम के जीवन से प्रेरणा– यदि आपने अपना कर्त्तव्य अपने पूर्ण सामर्थ्य से निभाया है, तो किसी भी चीज की चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं।  श्री कृष्ण के जीवन से प्रेरणा– श्री कृष्ण हर कठिन स्थिति में भी समाधान के साथ होते हैं। महर्षि दयानन्द के जीवन से प्रेरणा– सत्य को स्थापित करने के लिए वह अपने विरोधियों की विशाल संख्या के विरुद्ध अचल डटे रहे। 

यह आवश्यक नहीं कि ऐसा महापुरुष जीवित ही हो। हाँ, यह आवश्यक है कि ऐसा महापुरुष निर्लेप भाव से कर्म करने वाला हो व वह सांसारिक मनुष्यों की तरह अवगुणों से युक्त न हो। ऐसा आम देखा गया है कि कला विशेष में प्रवीणता की इच्छा रखने वाले उस कला के शीर्ष पुरुषों को अपना आदर्श बनाकर उनके जीवन से सदा प्रेरणा प्राप्त करते रहते हैं।

यदि, हमारे द्वारा चुने गए महापुरुष के प्रति हमारी श्रद्धा उनके गुणों के कारण नहीं है, तो ऐसी श्रद्धा वास्तव में हमारा उस महापुरुष के प्रति मोह होता है। ऐसे महापुरुष का स्मरण करने से हमारी निराशा में कुछ कमी तो आ जाती है, परन्तु हमारे उत्साह में कोई वृद्धि नहीं होती। इसलिए, हमें महापुरुष के गुणों का ही चिन्तन करना चाहिए। इससे हमारी निराशा बड़ी जल्दी आशा में बदल जाती है व हमारा मन उल्लासित हो उठता है। भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न महापुरुष चिन्तनीय हो सकते हैं।

6     निद्रा में हम सब पीड़ा, क्लेश, झगड़े और रोगों से होने वाले कष्टों को भूल जाते हैं। गहरी निद्रा से हम केवल नवीन ऊर्जा ही प्राप्त नहीं करते, बल्कि इससे हमारा मन भी प्रसन्न रह पाता है व हम अपने अंदर एक विशेष उत्साह प्रतीत करते हैं। निद्रा के समय हमारे दिन भर के शारीरिक व मानसिक घिसाव की मुरम्मत होती है। निद्रा-वृत्ति का अभ्यास हमें गहरी निद्रा को प्राप्त करना सिखाता है। वास्तव में, नींद आने की प्रक्रिया में जागरूक रहकर उतरने को योग-निद्रा नाम से कह दिया जाता है। निद्रा-वृत्ति का अभ्यास – सीधे लेटकर शवासन में शरीर को ढीला छोड़ दें। आने वाले पलों में अपने मन को प्रसन्न रखने व अपने लक्ष्य की और बढ़ने के लिए संकल्पित हों। ऐसी वृत्ति बनाएं कि कुछ विचार नहीं करना है व मन को किसी भी विषय के चिंतन में प्रवृत नहीं करना है। ऐसी वृत्ति बनाए रखें। शीघ्र ही आप सो जाएंगे। निद्रा-वृत्ति के अभ्यास से प्राप्त मन की प्रसन्नता को मोक्षानन्द समझकर हमें अपने अन्तिम लक्ष्य के प्रति अकर्मण्य कदापि नहीं होना चाहिए।

7     मन के व्यथित होने पर जब हम ऊपर बताए गए सुझावों से लाभ प्राप्त करने में समर्थ न हों, तो मन को उसके रुचिकर कार्यों में लगा देना चाहिए, इससे मन की व्याकुलता शान्त हो जाती है और मन स्थिर व प्रसादित हो जाता है। यह ठीक वैसे ही है, जैसे छोटा बच्चा खिलौना मिलने पर अपने कष्टों को भूलकर रोना बन्द कर देता है। मनोरंजन के सभी साधन, विविध खेल क्रियाएं और मन को hobbies में लगाना इसीके अंतर्गत आते हैं।

8     जैसे कि पहले भी कहा जा चुका है कि किसी चीज के तत्व को समझने पर मन अपने आप प्रसन्न हो जाता है। मन के शोकातुर होने पर यदि, उसे बहलाकर किसी ज्ञान के अर्जन में लगाया जा सके, तो इससे मन स्वयमेव शोकरहित अवस्था में पहुँच जाता है।

9     हमारे मन की अप्रसन्नता का एक बड़ा कारण- दूसरों का अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं, बल्कि हमारी दृष्टि में उनका गलत होना होता है। हम बहुत बार इस बात से खिन्न होते है कि दूसरे को ऐसा करना चाहिए था, ऐसा नहीं किया, वैसा करना चाहिए था, वैसा नहीं किया। इस खिन्नता को इस सोच से मिटाया जा सकता है कि दूसरे ने जो भी किया, उसकी बुद्धि उतनी ही थी। जब हम उसकी बुद्धि के कमतर होने को स्वीकार कर लेते हैं, तो हम उसके किसी भी कार्य के कमतर होने पर खिन्न नहीं होते।

10     जब मन किसी समस्या से अत्यंत व्याकुल हो, तो द्रष्टा-भाव अपना कर उस समस्या को देखने से हमें उसकी तुच्छता व नगण्यता की अनुभूति हो जाती है। हम, हमारी समस्या, हमारा समाज, हमारा राष्ट्र आदि इस पृथ्वी, इस सौर मण्डल, इस गैलक्सी व सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की अपेक्षा से वास्तव में नगण्य ही हैं।

11    बहुत बार हम दूसरों द्वारा हमारे प्रति किए अन्याय से व्यथित हो जाते हैं। इसका सरलतम उपाय ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण है। जब हम ईश्वर के न्याय पर पूर्ण निश्चितता रखते हैं और यह जानते हैं कि ईश्वर दूसरों द्वारा हमें दुख पहुंचाने पर हमारी क्षति की पूर्ति करता है, तो हम दूसरों द्वारा हमारे प्रति किए अन्याय से दुखी नहीं होते और सहजता से उनके अन्याय को ईश्वर की न्याय व्यवस्था के हवाले कर पाते हैं। इससे हम बहुत से मानसिक क्लेशों से छूट जाते हैं।

12     यमों नियमों का पालन करने से हम व्यर्थ के मनोभावों को छोड़ पाते हैं। उदाहरण के लिए यदि हम दूसरे यम- ‘सत्य’ बोलने के आग्रही बन जाएं तो, हमें चिंता नहीं करनी पड़ती कि हमने पहले अमुक व्यक्ति से क्या बोला था आदि आदि। यह बात अन्य यमों और नियमों पर भी लागू होती है। हालाँकि,  जो ऊपर के बिन्दु में ईश्वर-समर्पण की बात की गई है, वह पांचवां नियम- ईश्वर-प्रणिधान ही है। यहां, ईश्वर-प्रणिधान को अलग से वर्णित करने का तात्पर्य उसकी महत्ता का अधिक होना है।

13     यदि हमारा मन किसी कारणवश उद्विग्न हो जाए और हम ऊपर वर्णित सुझावों को अपनाने में मानसिक रूप से असमर्थ हों, तो कम से कम हमें इतना तो अवश्य करना चाहिए कि हम एकांत में चले जाएं और कुछ समय के लिए मौनव्रत धारण कर लें। इससे हमारे मन की उद्विग्नता बढ़ेगी नहीं।

14     अब प्रश्न उठता है कि मन की प्रसन्नता के लिए योग के शेष अंगों की क्या महत्ता है?

हम यमों नियमों का पालन करने से ध्यान की साधन रूप प्रसन्नता को प्राप्त करते हैं। योग के शेष अंगों को सिद्ध करने से हम ध्यान के फल रूपी प्रसन्नता को प्राप्त करते हैं। परन्तु, योग के शेष अंगों का आधार तो यम नियम ही हैं।

15     यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि हमारा जीवन उतारों चढ़ावों का एक गुच्छा होता है। शुरु से ही हमने अपने मन को इस तरह का बना दिया होता है कि हम केवल ‘चढ़ावों’ के समय ही प्रसन्न रह पाते हैं और जब भी हमें अपने जीवन में ‘उतारों’ का सामना करना पड़ता है, हमारे मन की प्रसन्नता बिखर जाती है। क्योंकि हमारी इच्छा ‘उतारों’ के समय भी प्रसन्न रहने की है, इसलिए हमें अपने मन की ऐसा संकल्पित करना होता है कि वह ‘उतारों’ के समय भी प्रसन्न रह पाए। मन की ऐसा संकल्पित करने के लिए ध्यान का समय बहुत अच्छा होता है, फिर भी ऐसा संकल्प हमें दिन में अनेकों बार दोहराना चाहिए। हमारी आत्मा की स्वाभाविक इच्छा प्रसन्न रहने की होने के कारण, हम मन को प्रसन्न रहने के लिए संकल्पित करते हुए किसी कष्ट का अनुभव नहीं करते।