शंका १:–
कठोपनिषद (२//२२) का वचन है-
नायमात्मा–से–तनूं स्वाम्।
यह आत्मा न प्रवचन से, न मेधा बुद्धि से, न सत्संग से प्राप्त करने योग्य हैं, जिसको यह आत्मा (परमात्मा) स्वयं स्वीकार करता है, उसी को यह प्राप्त होता है, उसी को यह अपना स्वरूप प्रकट करता हैं।
यहाँ स्वाभाविक रूप से मन में यह भाव बैठ जाता है कि परमात्मा जिसे चाहेगा, उसे अपना स्वरूप प्रकट करेगा, तो हमारे सम्पूर्ण सत्प्रयत्न बेकार होंगे, हमें कोई आवश्यकता नहीं है कि हम प्रतिदिन उस परमेश्वर की स्तुति उपासना करें, यज्ञादि सत्कर्म करें।
समाधान:- इसका समाधान हम अपने व्यवहार से प्राप्त कर सकते हैं। व्यवहार में हम देखें कि एक पिता के तीन-चार पुत्र हैं, तो वे इन पुत्रों में किसे अधिक चाहते हैं या चाहेंगे? इसका उत्तर अत्यन्त स्पष्ट है पिता उस पुत्र को चाहेंगे, जो उनके आदेश का पालन करता है, उनकी सेवा करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो जो सत्पात्र होगा, उस पर ही पिता अपनी कृपा दृष्टि रखेंगे।
इस व्यवहारिक सत्य को कठोपनिषद् के वचन पर परखें तो यही बात समझ में आयेगी कि परमेश्वर अपनी कृपा दृष्टि उसी पर रखेंगे जो सत्पात्र होगा।
हम वेद मार्ग पर चलें, वेद विरुद्ध मार्ग पर नहीं। इस आधार पर वेद मार्ग पर चलना सत्पात्र बनना है। परमेश्वर तो दया का समुद्र है, अपनी कृपा की वर्षा सतत् करता रहता है, वह तो -‘अन्ति सन्तं न पश्यति अन्ति सन्तं जहाति’। अथर्ववेद १०//८//३२
इस वेद वचन के अनुसार कुपात्र या अज्ञानी उस परमात्मा को नहीं देख पाते हैं, किन्तु परमात्मा के नियम से कोई बच नहीं सकता है। बस उसकी कृपा सत्पात्र को ही प्राप्त होगी।
बाहर बहुत वर्षा हो रही थी, रात्रि का समय था। आचार्य ने शिष्य से कहा-जा, एक घड़ा उठाकर बाहर रख दे, वर्षा का जल प्राप्त होगा। शिष्य शीघ्रता में घड़ा रख आया। थोड़ी देर में आचार्य ने घड़ा मंगवाया तो जल उसमें भरा नहीं था, कारण पात्र उल्टा रखा था। आचार्य ने कहा पात्र सीधा रखोगे तो वर्षा का जल उसमें भरेगा, जाओ, पात्र सीधा रखो। शिष्य थोड़ा आवेश में जाकर रख आया। थोड़ी देर में पात्र मंगवाया तो देखा कि वर्षा का जल उसमें नहीं भरा था, कारण कि आवेश में पात्र रखने से पात्र में छिद्र हो गया था। छिद्रयुक्त पात्र में जल कैसे भर सकता था। आचार्य ने दूसरा पात्र पुनः रखने के लिए कहा, कारण कि वर्षा बहुत सुन्दर रूप में बरस रही थी। शिष्य दूसरा पात्र रख आया। आचार्य ने पुनः घड़ा भर गया होगा, इस आशा से मंगवाया, सत्य ही घड़ा भर गया था। आचार्य प्रसन्न हुए, किन्तु प्रकाश में घड़े को देखा तो सारा जल गन्दा था, कारण कि शिष्य गोबर भरे घड़े को बाहर रख आया था। आचार्य बोले-शिष्य वर्षा तो बहुत बरस रही थी, किन्तु पात्र उल्टा हो तो वर्षा का जल न मिलेगा, छिद्र युक्त होगा तो भी नहीं मिलेगा, तथा गन्दगी से भरा पात्र होगा तो जल उपयोगी नहीं होगा। इसी प्रकार परमात्मा की कृपा की वर्षा तो सतत् बरसती रहती है, केवल सत्पात्र ही उस कृपा को प्राप्त कर सकता है। सत्पात्र बनने के लिए ही दैनिक यज्ञ करना आवश्यक है। सत्पात्र वह होता है जो विपरीत मार्ग पर, उल्टे मार्ग पर न चलें, जो छिद्र –दोष युक्त कर्म न करे तथा दूषित अन्तः करण की वृत्तिवाला न हो। दैनिक यज्ञ की सम्पूर्ण विधि व्यक्ति को सत्पात्र बने रहने में पूर्ण सहायक है। सत्पात्र को ही प्रभु की कृपा प्राप्त होती है।
-अर्जुन देव स्नातक
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