अथ तृतीयसमुल्लासारम्भः

विषय : ब्रह्मचर्य, पठन-पाठन व्यवस्था

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आठ वर्ष के हों तभी, लड़कों को लड़कों की और लड़कियों को लड़कियों की शाला में भेज देवें। जो अध्यापक पुरुष वा स्त्री दुष्टाचारी हों, उनसे शिक्षा न दिलावें, किन्तु जो पूर्ण विद्यायुक्त धार्मिक हों, वे ही पढ़ाने और शिक्षा देने योग्य हैं। द्विज अपने घर में लड़कों का यज्ञोपवीत और कन्याओं का भी यथायोग्य संस्कार करके, यथोक्त आचार्यकुल अर्थात् अपनी-अपनी पाठशाला में भेज दें। विद्या पढ़ने का स्थान एकान्त देश में होना चाहिए और वे लड़के और लड़कियों की पाठशाला दो कोश एक -दूसरे से दूर होनी चाहिएँ। जो वहाँ अध्यापिका और अध्यापक पुरुष वा नौकर-चाकर हों, वे कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्री और पुरुषों की पाठशाला में पुरुष रहें। स्त्रियों की पाठशाला में पाँच वर्ष का लड़का और लड़कों की पाठशाला में पाँच वर्ष की लड़की भी न जाने पावे अर्थात् जब तक वे ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी रहें, तब तक स्त्री वा पुरुष का दर्शन, स्पर्शन, एकान्तसेवन, भाषण, विषयकथा, परस्परक्रीड़ा, विषय का ध्यान और सङ्ग इन आठ प्रकार के मैथुनों से अलग रहें और अध्यापक लोग उनको इन बातों से बचावें, जिससे उत्तम विद्या, शील स्वभाव, शरीर और आत्मा के बल से युक्त हो के, आनन्द को नित्य बढ़ा सकें।

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आठवें वर्ष से आगे अपने लड़के, लड़कियों को घर में न रखके, पाठशाला में अवश्य भेज देवें। जो न भेजे, वह दण्डनीय हो। प्रथम लड़कों का यज्ञोपवीत घर में हो और दूसरा पाठशाला में आचार्यकुल में हो। पिता, माता वा अध्यापक अपने लड़का-लड़कियों को अर्थसहित गायत्रीमन्त्र का उपदेश कर दें।

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जल से शरीर के बाहर के अवयव, सत्याचरण से मन; विद्या और तप अर्थात् सब प्रकार के कष्ट भी सह के, धर्म ही के अनुष्ठान करने से जीवात्मा; ज्ञान, अर्थात् पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के विवेक से बुद्धि, अर्थात् दृढ़निश्चय पवित्र होता है। इस कारण स्नान भोजन के पूर्व अवश्य करना चाहिये।

जब मनुष्य प्राणायाम करता है, तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति न हो, तब तक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है।

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प्रश्न- होम से क्या उपकार होता है?

उत्तर- सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है।

प्रश्न- चन्दनादि घिस के किसी को लगावे, वा घृतादि खाने को देवें तो बड़ा उपकार हो। अग्नि में डाल के व्यर्थ नष्ट करना, बुद्धिमानों का काम नहीं।

उत्तर- जो तुम पदार्थविद्या जानते, तो कभी ऐसी बात न कहते। क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता। देखो! जहां होम होता है, वहाँ से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है, वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो के फैल के, वायु के साथ दूर देश में जाकर, दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है।

प्रश्न- जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प् और अतर आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा।

उत्तर- उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ वायु को बाहर निकालकर, शुद्ध वायु को प्रवेश करा सके, क्योंकि उसमें भेदक-शक्ति नहीं है। अग्नि ही का सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके, बाहर निकाल कर, पवित्र वायु को प्रवेश करा देता है।

प्रश्न- तो मन्त्र पढ़ के होम करने का क्या प्रयोजन है?

उत्तर- मन्त्रों में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने के लाभ विदित हो जायें और मन्त्रों की आवृत्ति होने से कण्ठस्थ रहें। वेदपुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षा भी होवे।

प्रश्न- क्या इस होम करने के बिना पाप होता है?

उत्तर- हाँ! क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न हो के वायु और जल को बिगाड़ कर, रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से, प्राणियों को दुख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिए उस पाप के निवारणार्थ, उतना सुगन्ध वा उससे अधिक, वायु वा जल में फैलाना चाहिए। खिलाने-पिलाने से उसी एक व्यक्ति को सुखविशेष होता है। जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है, उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है। परन्तु जो मनुष्य लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खावें, तो उनके शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके। इससे अच्छे पदार्थ खिलाना-पिलाना भी चाहिए, परन्तु उससे होम करना अधिक उचित है, इसलिए होम का करना अत्यावश्यक है।

          कामात्मतासेवैदिकः।                 

-मनुस्मृति २//२

अर्थात् अत्यन्त कामातुरता और निष्कामता किसी के लिए भी श्रेष्ठ नहीं, क्योंकि जो कामना न करे, तो वेदों का ज्ञान और वेदविहित कर्मादि उत्तम कर्म किसी से न हो सकें।

          इन्द्रियाणांसेवाजिनाम्।                    

-मनुस्मृति २//८८

अर्थात् जैसे विद्वान् सारथि घोड़ों को नियम में रखता है, वैसे मन और आत्मा को खोटे कामों में खैंचनेवाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सब प्रकार से करे।

          इन्द्रियाणांसेनियच्छति।                  

-मनुस्मृति २//९३

अर्थात् जीवात्मा इन्द्रियों के वश होके निश्चित बड़े-बड़े दोषों को प्राप्त है, और जब इन्द्रियों को अपने वश में करता है, तभी सिद्धि को प्राप्त होता है।

          अभिवादनशीलस्यसेबलम्।             

-मनुस्मृति २//१२१

अर्थात् जो सदा नम्र, सुशील, विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसका आयु, विद्या, कीर्ति और बल, ये चार सदा बढ़ते रहते हैं। और जो ऐसा नहीं करते, उनके आयु आदि चार नहीं बढ़ते।

          अहिंसयैवसेधर्ममिच्छता।              

-मनुस्मृति २//१५९

अर्थात् विद्वान् और विद्यार्थियों को योग्य है कि वैरबुद्धि छोड़ के सब मनुष्यों को कल्याण के मार्ग का उपदेश करें, और उपदेष्टा सदा मधुर, सुशीलतायुक्त वाणी बोले। जो धर्म की उन्नति चाहै, वह सदा सत्य में चले और सत्य ही का उपदेश करे।

                    यस्यसेफलम्।                  

-मनुस्मृति २//१६०

अर्थात् जिस मनुष्य के वाणी और मन शुद्ध तथा सुरक्षित सदा रहते हैं, वही सब वेदान्त=सब वेदों के सिद्धान्तरूप फल को प्राप्त होता है।

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जो पुरुष अर्थ अर्थात् सुवर्णादि रत्न और काम अर्थात् स्त्री सेवनादि में नहीं फसे हैं, उन्हीं को धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है। जो धर्म के ज्ञान की इच्छा करें, वे वेद द्वारा धर्म का निश्चय करें, क्योंकि धर्माऽधर्म का निश्चय बिना वेद के ठीक-ठीक नहीं होता।

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अब जो-जो पढ़ना-पढाना हो वह-वह अच्छी प्रकार परीक्षा करके होना योग्य है। परीक्षा पाँच प्रकार से होती है-

एक– जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों के अनुकूल हो, वह-वह ‘सत्य’ और उससे विरुद्ध ‘असत्य’ है।

दूसरी– जो-जो सृष्टिक्रम से अनुकूल वह-वह ‘सत्य’ और जो-जो विरुद्ध है, वह सब ‘असत्य’ है। जो कोई कहे- ‘बिना माता-पिता के योग से लड़का उत्पन्न हुआ’, वह सृष्टिक्रम से विरुद्ध होने से असत्य है।

तीसरी– ‘आप्त’ अर्थात् जो धार्मिक, विद्वान, सत्यवादी, निष्कपटियों का संग, उपदेश के अनुकूल है, वह-वह ‘ग्राह्य’ और जो-जो विरुद्ध है, वह-वह ‘अग्राह्य’ है।

चौथी– अपने आत्मा की पवित्रता, विद्या के अनुकूल, अर्थात् जैसा अपने को सुख प्रिय और दुख अप्रिय है, वैसे सर्वत्र समझ लेना कि मैं भी किसी को दुख वा सुख दूँगा, तो वह भी अप्रसन्न वा प्रसन्न होगा।

और पाँचवीं– आठों प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव (से परीक्षित बात सत्य और इन प्रमाणों से असिद्ध बात को असत्य मानना चाहिए)।

प्रत्यक्ष प्रमाण

इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नंसेप्रत्यक्षम्।    

  -न्याय दर्शन १//१//४

अर्थात् जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा और घ्राण का शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध के साथ अव्यवहित अर्थात् आवरणरहित सम्बन्ध होता है, इन्द्रियों के साथ मन का और मन के साथ आत्मा के संयोग से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको ‘प्रत्यक्ष’ कहते हैं। जब तक एक निश्चय न हो, तब तक वह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है। किन्तु जो अव्यपदेश्य, अव्यभिचारि और निश्चयात्मक ज्ञान है, उसी को ‘प्रत्यक्ष’ कहते हैं।

अनुमान प्रमाण

अथसेपूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टञच।   

      -न्याय दर्शन १//१//५

अर्थात् जो प्रत्यक्षपूर्वक अर्थात् जिसका कोई एक देश वा सम्पूर्ण द्रव्य किसी स्थान वा काल में प्रत्यक्ष हुआ हो, उसका दूर देश से सहचारी एक देश के प्रत्यक्ष होने से अदृष्ट अवयवी का ज्ञान होने को ‘अनुमान’ कहते हैं। जैसे पुत्र को देख के पिता, पर्वतादि में धूम को देख के अग्नि, जगत् में सुख-दुख देख के पूर्वजन्म का ज्ञान होता है।

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उपमान प्रमाण

प्रसिद्धसाधर्म्यात्साध्यसाधनमुपमानम्।।    

      -न्याय दर्शन १//१//६

अर्थात् जो प्रसिद्ध प्रत्यक्ष साधर्म्य से साध्य अर्थात् सिद्ध करने योग्य ज्ञान की सिद्धि करने का साधन हो, उसको ‘उपमान’ कहते हैं। ‘उपमीयते येन तदुपमानम्’, जैसे किसी ने किसी भृत्य से कहा कि ‘तू देवदत्त के सदृश विष्णुमित्र को बुला ला’, वह बोला कि ‘मैने उसको कभी नहीं देखा’। उसके स्वामी ने उससे कहा कि- ‘जैसा यह देवदत्त है, वैसा ही विष्णुमित्र है।’

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शब्द प्रमाण

आप्तोपदेशः शब्दः।      

                      -न्याय दर्शन १//१//७

अर्थात् जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान, धर्मात्मा, परोपकारप्रिय, सत्यवादी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय पुरुष, जैसा अपने आत्मा में जानता हो और जिससे सुख पाया हो, उसी के कथन की इच्छा से प्रेरित सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेष्टा हो। अर्थात् जो पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्य्यन्त पदार्थों का ज्ञान प्राप्त होकर उपदेष्टा होता है, जो ऐसे पुरुष और पूर्ण आप्त परमेश्वर के उपदेश वेद हैं, उन्हीं को ‘शब्दप्रमाण’ जानो।

ऐतिह्य प्रमाण

न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात्।।

                              -न्याय दर्शन २//२//१

जो इति ह अर्थात् इस प्रकार का था, उसने इस प्रकार किया। अर्थात् किसी के जीवन-चरित्र का नाम ‘ऐतिह्य’ है।

अर्थापत्ति प्रमाण

जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘बादल के होने से वर्षा और कारण के होने से कार्य उत्पन्न होता है’। इससे, बिना कहे यह दूसरी बात सिद्ध होती है कि ‘बिना बादल वर्षा और बिना कारण कार्य कभी नहीं हो सकता।’

सम्भव प्रमाण

‘सम्भवति यस्मिन् स सम्भवः’ कोई कहे कि ‘माता-पिता के सङ्ग के बिना सन्तानोत्पत्ति, किसी ने मृतक जिलाये, पहाड़ उठाये, समुद्र में पत्थर तराये, चन्द्रमा के टुकड़े किये, परमेश्वर का अवतार हुआ, मनुष्य के सींग देखे और वन्ध्या के पुत्र और पुत्री का विवाह किया’ इत्यादि सब असम्भव हैं। क्योंकि ये सब बात सृष्टिक्रम के विरुद्ध हैं। और जो बात सृष्टिक्रम के अनुकूल हो, वहीं ‘सम्भव’ है।

अभाव प्रमाण

‘न भवति यस्मिन् सोऽभावः’, जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘हाथी ले आ’, उसने वहाँ हाथी का अभाव देखकर, जहाँ हाथी था, वहाँ से ले आया।

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सब प्रकर की हस्तक्रिया, यन्त्रकला आदि को सीखें, परन्तु जितने ग्रह, नक्षत्र, जन्मपत्र, राशि, मुहूर्त आदि के फल के विधायक ग्रन्थ हैं, उनको झूठ समझ के कभी न पढ़ें और न पढ़ावें।

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जितनी विद्या इस रीति से बीस वा इक्कीस वर्षों में हो सकती है, उतनी अन्य प्रकार से शतवर्ष में भी नहीं हो सकती।

ऋषिप्रणीत ग्रन्थों को इसलिए पढ़ना चाहिए कि वे बड़े विद्वान, सर्वशास्त्रवित् और धर्मात्मा थे और अनृषि अर्थात् जो अल्प शास्त्र पढ़े हैं और जिनका आत्मा पक्षपातसहित है, उनके बनाये हुए ग्रन्थ भी वैसे ही हैं।

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प्रश्न- क्या इन ग्रन्थों में कुछ भी सत्य नहीं?

उत्तर- थोड़ा सत्य तो है, परन्तु इसके साथ बहुत-सा असत्य भी है। इससे ‘विषसम्पृक्तान्नवत् त्याज्याः’ जैसे अत्युत्तम अन्न विष से युक्त होने से, छोड़ने योग्य होता है, वैसे ये ग्रन्थ हैं।

प्रश्न – क्या आप पुराण, इतिहास को नहीं मानते?

उत्तर- हाँ मानते हैं, परन्तु सत्य को मानते हैं, मिथ्या को नहीं।

प्रश्न- कौन सत्य और कौन मिथ्या है?

उत्तर-

ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीरिति।।

                                       -गृह्यसूत्रादि

जो ऐतरेय, शतपथादि ब्राह्मण लिख आये, उन्हीं के इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी पाँच नाम हैं, श्रीमद्भागवतादि का नाम पुराण नहीं।

प्रश्न- जो त्याज्य ग्रन्थों में सत्य है, उसका ग्रहण क्यों नहीं करते?

उत्तर- जो-जो उनमें सत्य है, सो-सो वेदादि सत्य शास्त्रों का है और मिथ्या उनके घर का है। वेदादि सत्य शास्त्रों के स्वीकार में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है। जो कोई इन मिथ्या ग्रन्थों से सत्य का ग्रहण करना चाहे, तो मिथ्या भी उनके गले लिपट जाए। इसलिए ‘असत्यमिश्रं सत्यं दूरतस्त्याज्यमिति’ असत्य से युक्त ग्रन्थस्थ सत्य को भी वैसे छोड़ देना चाहिए जैसे विषयुक्त अन्न को।

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प्रश्न- जैसा सत्यासत्य और एक-दूसरे ग्रन्थों का परस्पर विरोध है, वैसे अन्य शास्त्रों में भी है। जैसा सृष्टिविषय में छः शास्त्रों का विरोध है- मीमांसा कर्म, वैशेषिक काल, न्याय परमाणु, योग पुरुषार्थ, सांख्य प्रकृति और वेदान्तशास्त्र ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है, क्या यह विरोध नहीं है?

उत्तर- नहीं, प्रथम तो बिना सांख्य और वेदान्त के, दूसरे चार शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी और इनमें विरोध भी नहीं, क्योंकि तुमको विरोधाविरोध का ज्ञान नहीं। मैं तुमसे पूछता हूँ कि विरोध किस स्थल में होता है? क्या एक विषय में अथवा भिन्न-भिन्न विषयों में?

प्रश्न- एक विषय में अनेकों का परस्पर विरुद्ध कथन हो, उसको विरोध कहते हैं। यहाँ भी सृष्टि एक ही विषय है।

उत्तर- क्या विद्या एक है वा दो? एक है। जो एक है, तो व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष आदि का भिन्न-भिन्न विषय क्यों है? जैसा एक विद्या में अनेक विद्या के अवयवों का, एक-दूसरे से भिन्न प्रतिपादन होता है, वैसे ही सृष्टिविद्या के भिन्न-भिन्न छः अवयवों का छः शास्त्रों में प्रतिपादन करने से इनमें कुछ भी विरोध नहीं।

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जो विद्या पढ़ने-पढाने के विघ्न हैं, उनको छोड़ देवें। जैसा कुसङ्ग अर्थात् दुष्ट विषयी जनों का संग, दुष्टव्यसन जैसा मद्यादि सेवन और वेश्यागमनादि, बाल्यावस्था में विवाह अर्थात् पच्चीस वर्षों से पूर्व पुरुष और सोहलवें वर्ष से पूर्व स्त्री का विवाह हो जाना, पूर्ण ब्रह्मचर्य न होना, राजा, माता, पिता और विद्वानों का प्रेम वेदादि शास्त्रों के प्रचार में न होना, अतिभोजन, अति जागरण करना, पढ़ने-पढ़ाने, परीक्षा लेने वा देने में आलस्य वा कपट करना, सर्वोपरि विद्या का लाभ न समझना, ब्रह्मचर्य से वीर्य, बल, बुद्धि, पराक्रम, आरोग्य, राज्य, धन की वृद्धि न मानना, ईश्वर का ध्यान छोड़ अन्य पाषाणादि जड़ मूर्ति के दर्शन-पूजन में व्यर्थ काल खोना, माता, पिता, अतिथि और आचार्य, विद्वान् इन सत्यमूर्तिमानों की सेवा और सत्संग न करना, वर्णाश्रम के धर्म को छोड़ तिलक, कंठी, मालाधारण, एकादशी, त्रयोदशी आदि व्रत करना, काश्यादि तीर्थ और राम, कृष्ण, नारायण, शिव, भगवती, गणेशादि के नामस्मरण से पाप दूर होने का विश्वास, पाखण्डियों के उपदेश से विद्या पढ़ने में अश्रद्धा का होना, विद्या, धर्म, योग, परमेश्वर की उपासना के बिना, मिथ्या पुराणनामक भागवतादि की कथादि से मुक्ति का मानना, लोभ से धनादि में प्रवृत्ति होकर विद्या में प्रीति न रखना, इधर-उधर व्यर्थ घूमते रहना इत्यादि मिथ्या व्यवहारों में फसके ब्रह्मचर्य और विद्या के लाभ से रहित होकर रोगी और मूर्ख बने रहते हैं।

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प्रश्न- क्या स्त्री और शूद्र भी वेद पढ़े? जो ये पढेंगे तो हम फिर क्या करेंगे? और इनके पढ़ने में प्रमाण भी नहीं है, जैसा यह निषेध है-

स्त्रीशूद्रौ नाधीयातामिति श्रुतेः।        

    -वेदान्त दर्शन भाष्य २//३//४

उत्तर- सब स्त्री और पुरुष अर्थात् मनुष्यमात्र को पढ़ने का अधिकार है। और तुम कुआं में पड़ो। और यह श्रुति तुम्हारी कपोल कल्पना से हुई है। किसी प्रामाणिक ग्रन्थ की नहीं। और सब मनुष्यों के वेदादि पढ़ने-सुनने के अधिकार का प्रमाण यजुर्वेद के छब्बीसवें अध्याय में दूसरा मन्त्र है।

वेदों का निन्दक और न माननेवाला नास्तिक कहाता है। क्या परमेश्वर शूद्रों का भला करना नहीं चाहता? क्या ईश्वर पक्षपाती है कि वेदों के पढ़ने-सुनने का शूद्रों के लिए निषेध और द्विजों के लिए विधि करे? जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्रादि के पढ़ाने-सुनाने का न होता, तो इनके शरीर में वाक् और श्रोत्र-इन्द्रिय क्यों रचता? जैसे परमात्मा ने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्नादि पदार्थ सबके लिए बनाये हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिए प्रकाशित किये हैं।