ज्ञानयोग, कर्मयोग व भक्तियोग क्या हैं?
ज्ञान-मार्ग में जीवन के हर पहलू की जानकारी तर्क द्वारा कौन, कब, कैसे, कहां आदि प्रश्नों के माध्यम से बुद्धि द्वारा निर्धारित कर प्राप्त की जाती है। बिना कर्म के ज्ञान का कोई औचित्य नहीं। कर्म में ही, ज्ञान की सार्थकता है। उदाहरणार्थ, यदि कोई व्यक्ति गाड़ी की ब्रेक के बारे में पूरी जानकारी तो रखता हो, परन्तु समय आने पर वह यदि अपने इस ज्ञान के अनुसार ब्रेक नहीं लगाता, तो ऐसे ज्ञान को व्यर्थ ही समझा जाएगा। अपने कर्तव्य को पहचान कर, उसे अपने पूरे सामर्थ्य, प्रेम और सेवा भाव से निभाने को कर्म-मार्ग कहा जाता है। कौन सा कर्म करना चाहिए और कौन सा कर्म नहीं करना चाहिए, कौन सा कर्म कब और कैसे करना चाहिए आदि प्रश्नों का निदान केवल मात्र ज्ञान से ही किया जा सकता है। प्रत्येक कर्म की ज्ञान एक मूलभूत आवश्यकता है। उदाहरण के तौर पर कपड़ा बनाना जुलाहे का कर्म है और यह कतई नहीं सोचा जा सकता कि यह कर्म जुलाहा बिना ज्ञान के कर सकता है। ज्ञान की अधिकता अथवा परिपक्वता का सीधा सम्बन्ध कर्म की गुणवत्ता से है। कर्म मार्ग में कर्म की प्रधानता होती है। और ज्ञान Secondary होता है। जैसे कर्म मार्ग में ज्ञान का पूर्णतः अभाव नहीं होता, उसी तरह ज्ञान मार्ग में भी कर्म का पूर्णतः अभाव नहीं होता। दोनों ज्ञान और कर्म भावों को उत्पन्न करने वाले होते हैं अर्थात ये सुख दुख आदि के संसार को पैदा करते हैं। भावनाओं के संसार को उपासना काण्ड कह दिया जाता है। प्रगति के लिए ज्ञान, कर्म व भावों में सांमजस्य होना नितान्त आवश्यक है। गीता के प्रचलण के पश्चात तीन शब्द- ज्ञानयोग, कर्मयोग व भक्तियोग बहुत सुने व पढ़े जाते हैं। ज्ञानयोग ज्ञान-मार्ग व कर्मयोग कर्म-मार्ग का पर्याय है। भक्तियोग का अर्थ इस रूप में किया जाता है कि यह वह अवस्था है, जहां विवेक का कोई काम नहीं, परन्तु ऐसा अर्थ, यथार्थ से बरगलाने वाला है। भक्ति से अभिप्राय प्रेम और सर्मपण को लेना चाहिए। उचित है कि इस शब्द को भाव काण्ड व उपासना का पर्याय माना जाए।
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