अथ चतुर्थसमुल्लासारम्भः

विषय : विवाह और गृहाश्रम का व्यवहार

‘वह पुरुष या स्त्री गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने का अधिकारी है, जो आचार्यनुकूल वर्त्तता है, जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित नहीं हुआ है और जिसने चारों या तीन या दो या कम से कम एक वेद को साङ्गोपाङ्ग पढ़ा है।’

-मनुस्मृति 3//2

—-

जो कन्या माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो, उस कन्या से विवाह करना उचित है।

-मनुस्मृति 3//5

इसका प्रयोजन है कि-

—-

जो कुल सत्क्रिया से हीन, सत्पुरुषों से रहित, वेदाध्ययन से विमुख, शरीर पर बड़े २ लोम अथवा बवासीर, क्षयी, दमा, खांसी, अमाशय, मिरगी, श्वेतकुष्ठ और गलितकुष्ठ युक्त कुलों की कन्या वा वर के साथ विवाह न होना चाहिए, क्योंकि ये सब दुर्गुण और रोग विवाह करने वाले के कुल में भी प्रविष्ट हो जाते हैं।

-मनुस्मृति 3//7

—- 

….जिस देश में ब्रह्मचर्य-विद्याग्रहणरहित बाल्यावस्था और अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुख में डूब जाता है, क्योंकि ब्रह्मचर्य विद्या के ग्रहणपूर्वक विवाह के सुधार ही से सब बातों का सुधार और बिगड़ने से बिगाड़ हो जाता है। 

—-

….सोलहवें वर्ष के पश्चात चौबीसवें वर्ष पर्यन्त विवाह होने से पुरुष का वीर्य परिपक्व, शरीर बलिष्ठ, स्त्री का गर्भाशय पूरा और शरीर भी बलयुक्त होने से सन्तान उत्तम होते हैं।  

—-

चाहे लड़का-लड़की मरण पर्यन्त कुमारे रहें, परन्तु असदृश अर्थात परस्पर विरुद्ध गुण-कर्म-स्वभाव वालों का विवाह कभी न होना चाहिए। इससे सिद्ध हुआ कि न पूर्वोक्त समय से प्रथम वा असदृशों का विवाह न होना योग्य है। 

प्रश्न- विवाह माता-पिता के आधीन होना चाहिए या लड़का लड़की के आधीन रहै?

उत्तर- विवाह लड़का लड़की के आधीन होना उत्तम है। जब माता-पिता अपने बच्चों की शादी करने का विचार करें, तो उन्हें बच्चों की पूर्ण सहमति के बिना ऐसा नहीं करना चाहिए। एक दूसरे की प्रसन्नता से विवाह होने में विरोध बहुत कम होता है और संतान उत्तम होते हैं। अप्रसन्नता के विवाह में नित्य क्लेश ही रहता है। विवाह में मुख्य प्रयोजन वर और कन्या का है, माता पिता का नहीं। क्योंकि जो उनमें परस्पर प्रसन्नता रहे, तो उन्हीं को सुख और विरोध में उन्हीं को दुख होता और- जिस कुल में स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री सदा प्रसन्न रहती है, उसी कुल में आनन्द, लक्ष्मी और कीर्ति निवास करती है।….जब स्त्री-पुरुष विवाह करना चाहें, तब विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीर का परिमानादि यथायोग्य होना चाहिए। जब तक इनका मेल नहीं होता, तब तक विवाह में कुछ भी सुख नहीं होता।

—-

….जब से यह ब्रह्मचर्य से विद्या का न पढ़ना, बाल्यावस्था में पराधीन अर्थात माता-पिता के आधीन विवाह होने लगा, तब से क्रमशः आर्यावर्त्त देश की हानि होती चली आई है।….सो विवाह वर्णानुक्रम से करें और वर्ण व्यवस्था भी गुण, कर्म, स्वभाव के आधीन होनी चाहिए।

प्रश्न- क्या जिसके माता-पिता ब्राह्मणी ब्राह्मण हों, वह ब्राह्मण होता है और जिसके माता-पिता अन्यवर्णस्थ हों, उनका सन्तान कभी ब्राह्मण हो सकता है?

उत्तर- हाँ, बहुत से हो गए, होते हैं और होंगे भी। 

—-

प्रश्न- हमारी उलटी और तुम्हारी सूधी समझ है, इसमें क्या प्रमाण?

उत्तर- यही प्रमाण है कि जो तुम पांच-सात पीढ़ियों के वर्त्तमान को सनातन व्यवहार मानते हो और हम वेद तथा सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त को परम्परा मानते हैं।

—-

…जो पिता, पितामह दुष्ट हों, तो उनके मार्ग में कभी न चलें।

—-

जो कोई रजवीर्य के योग से वर्णाश्रम व्यवस्था माने और गुण-कर्मों के योग से न माने, तो उससे पूछना चाहिए कि जो कोई अपने वर्ण को छोड़ नीच, अन्त्यज अथवा क्रिश्चियन, मुसलमान हो गया हो, उसको भी ब्राह्मण क्यों नहीं मानते? यहाँ यही कहोगे कि उसने ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिए, इसलिए वह ब्राह्मण नहीं है। इससे यह भी सिद्ध होता है जो ब्राह्मणादि उत्तम कर्म करते हैं, वे ही ब्राह्मणादि और जो नीच भी उत्तम वर्ण के गुण-कर्म-स्वभाव वाला होवे, तो उसको भी उत्तम वर्ण में और जो उत्तम वर्णस्थ होके नीच काम करे, तो उसको नीच वर्ण में गिनना चाहिए।

—-

…जैसा मुख सब अङ्गों में श्रेष्ठ है, वैसे पूर्ण विद्या और उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव से युक्त होने से मनुष्य जाति में उत्तम ब्राह्मण कहाते हैं। जब परमेश्वर के निराकार होने से मुखादि अंग ही नहीं होते, तो मुख से उत्पन्न होना असम्भव है।….

—-

जो शूद्रकुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण-कर्म-स्वभाव वाला हो, तो वह शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो जाए। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण-कर्म-स्वभाव शूद्र के सदृश हों, तो शूद्र हो जाएं।….

-मनुस्मृति 10//65

धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम २ वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जावे कि जिस वर्ण के वह योग्य होवे। इसी प्रकार, अधर्माचरण से पूर्व अर्थात उत्तम वर्ण वाला मनुष्य अपने से नीचे २ वाले वर्ण को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जावे।

जैसे पुरुष जिस-जिस वर्ण के योग्य होता है, वैसे ही स्त्रियों की भी व्यवस्था समझनी चाहिए। इससे क्या सिद्ध हुआ कि इस प्रकार होने से सब वर्ण अपने-अपने गुण, कर्म, स्वभावयुक्त होकर शुद्धता के साथ रहते हैं, अर्थात ब्राह्मणकुल में कोई क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के सदृश न रहे और क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्ण भी शुद्ध रहते हैं।    

—-

ब्राह्मण के पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, कराना, दान देना, लेना ये छः कर्म हैं। परन्तु, दान लेना नीच कर्म है।

-मनुस्मृति 1//88

मन से बुरे काम की इच्छा भी न करनी और उसको अधर्म में कभी प्रवृत न होने देना, श्रोत्र और चक्षु आदि इन्द्रियों को अन्यायाचरण से रोक कर धर्म में चलाना, सदा ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होके धर्मानुष्ठान करना, भीतर राग द्वेषादि दोष और बाहर के मलों को दूर कर शुद्ध रहना अर्थात सत्यासत्य के विवेक पूर्वक ग्रहण और असत्य के त्याग से निश्चय पवित्र होता है, निन्दा-स्तुति, सुख-दुख, शीतोष्ण, क्षुधा-तृषा, हानि-लाभ,  मान-अपमान आदि में हर्ष-शोक छोड़ के, धर्म में दृढ़ निश्चय रहना, कोमलता, निरभिमान, सरल स्वभाव रखना, कुटिलतादि दोष छोड़ देना, सब वेदादि शास्त्रों को साङ्गोपाङ्ग पढ़ के पढ़ाने का सामर्थ्य, विवेक, सत्य का निर्णय, जो वस्तु जैसा हो अर्थात जड़ को जड़ चेतन को चेतन जानना और मानना, पृथ्वी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों को विशेषता से जानकर उनसे यथायोग्य उपयोग लेना, कभी वेद, ईश्वर, मुक्ति, पूर्व-पर जन्म, धर्म, विद्या, सत्सङ्ग, माता-पिता, आचार्य और अतिथियों की सेवा को न छोड़ना और निन्दा कभी न करना, ये पन्द्रह कर्म और गुण ब्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहिए।

-भगवद्गीता 18//42        

न्याय से प्रजा की रक्षा अर्थात पक्षपात छोड़ के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना, सब प्रकार से सबका पालन, दान, विद्याधर्म की प्रवृति और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना, अग्निहोत्रादि यज्ञ करना वा कराना, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना तथा पढ़वाना और विषयों में न फस कर जितेन्द्रिय रह के, सदा शरीर और आत्मा से बलवान रहना, सैंकड़ों, सहस्रों से भी युद्ध करने में अकेले को भय न होना, सदा तेजस्वी अर्थात दीनता रहित प्रगल्भ दृढ रहना, धैर्यवान होना, राजा और प्रजा सम्बन्धी व्यवहार और सब शास्त्रों में अति चतुर होना, युद्ध में भी दृढ निःशङ्क रह के, उससे कभी न हटना, न भागना अर्थात इस प्रकार से लड़ना कि जिससे निश्चय विजय होवे, आप बचे। जो भागने से वा शत्रुओं को धोखा देने से जीत होती हो, तो ऐसा ही करना, दानशीलता रखना, पक्षपातरहित होके सबके साथ यथायोग्य वर्त्तना, प्रतिज्ञा पूरी करना व उसको कभी भङ्ग न होने देना। ये ग्यारह क्षत्रिय वर्ण के कर्म और गुण हैं।

-मनुस्मृति 1//89, भगवद्गीता 18//43

गाय आदि पशुओं का पालन, वर्द्धन करना, विद्या, धर्म की वृद्धि करने-कराने के लिए धनादि का व्यय करना, अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, सब प्रकार के व्यापर करना, एक सैंकड़े में चार, छः, आठ, बारह, सोलह वा बीस आनों से अधिक ब्याज और मूल से दूना अर्थात एक रुपया दिया हो तो सौ वर्ष में भी दो रुपये से अधिक न लेना और न देना, खेती करना, ये वैश्य के गुण-कर्म हैं।

-मनुस्मृति 1//90

शूद्र को योग्य है कि निन्दा, ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को छोड़ के, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा यथावत करना और उसी से अपना जीवन चलाना, यहीं एक शूद्र का गुण-कर्म है।

-मनुस्मृति 1//91   

….ऐसी व्यवस्था रखने से सब मनुष्य उन्नतिशील होते हैं। क्योंकि उत्तम वर्णों को भय होगा कि जो हमारे सन्तान मूर्खत्वादि दोषयुक्त होंगे, तो शूद्र हो जाएंगे और सन्तान भी डरते रहेंगे कि जो हम उक्त चाल-चलन और विद्यायुक्त न होंगे, तो शूद्र होना पड़ेगा और नीच वर्णों को उत्तम वर्णस्थ होने के लिए उत्साह बढ़ेगा। 

—-

जब महीने भर में रजस्वला न होने से गर्भस्थिति का निश्चय हो जाय, तब से एक वर्ष पर्य्यन्त स्त्री पुरुष का समागम कभी न होना चाहिये। क्योंकि ऐसे न होने से सन्तान उत्तम और दूसरा सन्तान भी श्रेष्ठ नहीं होता, वीर्य्य व्यर्थ जाता, दोनों का आयु घट जाता और अनेक प्रकार के रोग होते हैं। परन्तु ऊपर से भाषणादि प्रेमयुक्त-व्यवहार अवश्य रखना चाहिये।….कभी गर्भवती स्त्री रेचक, रुक्ष, मादकद्रव्य, बुद्धि और बलनाशक पदार्थों  के भोजनादि का सेवन न करे। किन्तु घी, दूध, उत्तम चावल, गेहूँ, मूंग, उर्द आदि अन्न, पान और देशकाल का भी सेवन युक्तिपूर्वक करे।

—-

जो अपनी ही स्त्री से प्रसन्न और ऋतुगामी होता है, वह गृहस्थ भी ब्रह्मचारी के सदृश है।

-मनुस्मृति 3//45, 50   

जिस कुल में भार्य्या से भर्त्ता और पति से पत्नी अच्छे प्रकार प्रसन्न रहती है, उसी कुल में सब सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं। जहाँ कलह होता है, वहाँ दौर्भाग्य और दारिद्रय स्थिर होता है।

-मनुस्मृति 3//60   

स्त्री की प्रसन्नता से सब कुल प्रसन्न होता और उसकी अप्रसन्नता से सब अप्रसन्न अर्थात् दुखदायक हो जाता है।

-मनुस्मृति 3//62   

जिस घर में स्त्रियों का सत्कार होता है, उसमें विद्यायुक्त पुरुष होके देवसंज्ञा धरा के, आनन्द से क्रीड़ा करते हैं और जिस घर में स्त्रियों का सत्कार नहीं होता, वहाँ सब क्रिया निष्फल हो जाती है।

-मनुस्मृति 3//56   

—-

….सत्पुरुषों को योग्य है कि मुख के सामने दूसरे का दोष कहना और अपना दोष सुनना, परोक्ष में दूसरे के गुण सदा कहना। और दुष्टों की यही रीति है कि सम्मुख में गुण कहना और परोक्ष में दोषों का प्रकाश करना। जब तक मनुष्य दूसरे से अपने दोष नहीं सुनता वा कहने वाला नहीं कहता, तब तक मनुष्य दोषों से छूटकर, गुणी नहीं होता।

-महाभारत उद्योगपर्व- विदुरनीति 37//14

—-

और जो ये दोनों काम सायं और प्रातःकाल में न करे, उसको सज्जन लोग सब द्विजों के कर्मों से बहार निकाल देवें, अर्थात् उस को शूद्रवत् समझें।

-मनुस्मृति 2//103   

प्रश्न- त्रिकाल सन्ध्या क्यों नहीं करना?

उत्तर- तीन समय में सन्धि नहीं होती, प्रकाश और अन्धकार की सन्धि भी सायं – प्रातः दो ही वेला में होती है। जो इसको न मानकर मध्याह्नकाल में तीसरी संध्या करना माने, वह मध्यरात्रि में भी क्यों न करे? जो मध्यरात्रि में भी करना चाहै, तो प्रहर-प्रहर, घड़ी-घड़ी, पल-पल और क्षण-क्षण की सन्धि में सन्ध्योपासन किया करे। जो ऐसा भी चाहै, तो हो ही नहीं सकता और किसी शास्त्र का मध्याह्न सन्ध्या में प्रमाण भी नहीं, इसलिये दोनों कालों में सन्ध्या और अग्रिहोत्र करना, तीसरे काल में नहीं।….जिस से सत्य का ग्रहण किया जाय, उसको ‘श्रद्धा’और जो-जो श्रद्धा से सेवारूप कर्म किये जायें, उसका नाम ‘श्राद्ध’है। जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान मातादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जायें, उसका नाम ‘तर्पण’ परन्तु यह कर्म जीवितों के लिए है, मृतकों के लिये नहीं।

श्रद्धा से उत्तम अन्न, वस्त्र, सुन्दर यान आदि देकर अच्छे प्रकार जो तृप्त करना अर्थात् जिस-जिस कर्म से उनका आत्मा तृप्त और शरीर स्वास्थ रहै, उस-उस कर्म से प्रीतिपूर्वक उनकी सेवा करनी, वह ‘श्राद्ध’और ‘तर्पण’ कहाता है।

चौथा वैश्वदेव – अर्थात् जब भोजन तैयार हो तब जो कुछ भोजनार्थ बने, उसमें से खट्टा, लवणान्न और क्षार को छोड़के घृत-मिष्टयुक्त अन्न लेकर चूल्हे से अग्नि लेकर अलग धर निम्नलिखित मन्त्रों से आहुति और भाग करे।

—-

वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करनेहारे, जो वेदविरुद्ध कर्म का कर्त्ता, मिथ्याभाषणादियुक्त, जैसे विडाला छिपके, स्थिर रह ताक, कूद, झपटके, मूषे आदि प्रणियों को मार, अपना पेट भरता है, वैसे जनों का नाम ‘वैडालवृत्ति’, अर्थात् हठी, दुराग्रही, अभिमानी, आप जानें नहीं और दूसरे का माने नहीं, कुतर्की व्यर्थ बकने वाले जैसे कि आज-कल के वेदान्ती ‘हम ब्रह्म हैं, जगत् मिथ्या है, वेदादि शास्त्र और ईश्वर भी कल्पित है’ इत्यादि बकवाद करने वाले, जैसे बगुला मच्छी के प्राण लेकर अपने पेट भरने के लिये ध्यानावस्थित होता है, वैसे वर्त्तमान जटाजूट वैरागी आदि हों, उनका वाणीमात्र से भी सत्कार न करें। क्योंकि इनका सत्कार करने से वे बढ़ के सब संसार को अधर्मयुक्त कर देते हैं।

-मनुस्मृति 4//30   

—-

जब तक उत्तम अतिथि जगत् में नहीं होते, तब तक उन्नति भी नहीं होती। उनके सब देशों में घूमने, सत्योपदेश करने से, पाखण्ड की वृद्धि नहीं होती और सर्वत्र गृहस्थों को सहज से सत्य विज्ञान की प्राप्ति होती रहती है और मनुष्यमात्र में एक ही धर्म स्थिर रहता है। बिना अतिथियों के सन्देहनिवृत्ति नहीं होती। इसके छूटे बिना, दृढ़ निश्चय भी नहीं होता, निश्चय के बिना सुख कहां! 

—-

जब मनुष्य धर्म की मर्यादा छोड़- जैसे तालाबबन्ध को तोड़ जल चारों ओर फैल जाता है, वैसे अधर्मात्मा भी मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड अर्थात् रक्षा करने वाले वेदों का खण्डन और विश्वासघातादि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर प्रथम बढ़ता है, पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान, पान, वस्त्र, आभूषण, यान, स्थान, मान, प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है, अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है, पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है। जैसे जड़ काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे अधर्मी नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।

-मनुस्मृति 4//174   

—-

एक ब्रह्मचर्य्य, सत्यभाषणादि तपरहित, दूसरा बिना पढ़ा हुआ, तीसरा अत्यन्त धर्मार्थ दूसरों से दान लेनेवाला, ये तीनों जैसे पत्थर की नौका से समुद्र में तरने के समान, अपने दुष्ट कर्मों के साथ ही दुख सागर में डूबते हैं। वे तो डूबते ही हैं, परन्तु दाताओं को भी साथ डुबा लेते हैं-

-मनुस्मृति 4//190   

पाखण्डियों के लक्षण

धर्म कुछ भी न करे, परन्तु धर्म के नाम से लोगों को ठगे, सर्वदा लोभ से युक्त, कपटी, संसारी मनुष्यों के सामने अपनी बड़ाई के गपोड़े मारा करे, प्राणियों का घातक, अन्य से वैरबुद्धि रखनेवाला, सब अच्छे और बुरों से भी मेल रक्खे, उसको वैडालव्रतिक अर्थात् विडाले के समान धूर्त्त, नीच समझो।

-मनुस्मृति 4//195   

कीर्ति के लिये नीचे दृष्टि रक्खे, ईर्ष्यक किसी ने उसका पैसा भर अपराध किया हो, तो उसका बदला प्राण तक लेने को तत्पर रहै, चाहै कपट, अधर्म विश्वासघात क्यों न हो, अपना प्रयोजन साधने में चतुर, चाहै अपनी बात झूठी क्यों न हो, परन्तु हठ कभी न छोड़े, झूठ-मूठ ऊपर से शील, सन्तोष और साधुता दिखलावे, उसको बगुले के समान नीच समझों। ऐसे-ऐसे लक्षण वाले पाखण्डी होते हैं, उनका विश्वास वा सेवा कभी न करें।

-मनुस्मृति 4//196   

—-

यह भी समझ लो कि कुटुम्ब में एक पुरुष पाप करके पदार्थ लाता है, और महाजन अर्थात् सब कुटुम्ब उसको भोगता है, भोगनेवाले दोषभागी नहीं होते, किन्तु अधर्म का कर्त्ता ही दोष का भागी होता है।

-महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर – 1//33//41

उस हेतु से परलोक, अर्थात् परमसुख और परजन्म के सहायार्थ नित्य धर्म का सञ्चय धीरे-धीरे करता जाय, क्योंकि धर्म ही के सहाय से बड़े-बड़े दुस्तर दुखसागर को जीव तर सकता है।

-मनुस्मृति 4//242   

—-

पढ़ानेहारे अध्यापक और अध्यापिका कैसे होने चाहियें

जिसको आत्मज्ञान; सम्यक् आरम्भ अर्थात् जो निकम्मा आलसी कभी न रहे; सुख, दुख, हानि, लाभ, मानापमान, निन्दा, स्तुति में हर्ष, शोक कभी न करें; धर्म ही में नित्य निश्चित रहै; जिसके मन को उत्तम-उत्तम पदार्थ अर्थात् विषय-सम्बन्धी वस्तु आकर्षण न कर सकें, वही पण्डित कहाता है।

उसके कर्त्तव्याकर्त्तव्य कर्म – सदा धर्मयुक्त कर्मों का सेवन; अधर्मयुक्त कामों का त्याग; ईश्वर, वेद, सत्याचार की निन्दा न करनेहारा; ईश्वर आदि में अत्यन्त श्रद्धालु हो; यही पण्डित का कर्त्तव्याकर्त्तव्य कर्म है।

वह कैसा हो– जो कठिन विषय को भी शीघ्र जान सके; बहुत कालपर्यन्त शास्त्रों को पढ़े, सुने और विचारे; जो कुछ जाने उसको परोपकार में प्रयुक्त करे, अपने स्वार्थ के लिये कोई काम न करे; बिना पूछे वा बिना योग्य समय के, बिना जाने दूसरे के अर्थ में सम्मति न दे; वही प्रथम प्रज्ञान पण्डित को होना चाहिये।

वह कैसा हो– जो प्राप्ति के अयोग्य की इच्छा कभी न करे; नष्ट हुये पदार्थ पर शोक न करे; आपत्काल में मोह को [प्राप्त न हो] अर्थात् व्याकुल न हो, वही बुद्धिमान पण्डित है।

उसकी रीति कैसी होनी चाहिये– जिसकी वाणी सब विद्याओं और प्रश्नोत्तर करने में अतिनिपुण; विचित्र शास्त्रों के प्रकरणों का वक्ता; यथायोग्य तर्क और स्मृतिमान ग्रन्थों के यथार्थ अर्थ का शीघ्र वक्ता हो; वही पण्डित कहाता है।

—-

पढ़ाने में अयोग्य और मूर्ख के लक्षण-

जिसने कोई शास्त्र न पढ़ा, न सुना और अतीव घमण्डी, दरिद्र होकर बड़े-बड़े मनोरथ करनेहार, बिना कर्म से पदार्थ की प्राप्ति की इच्छा करने वाला हो, उसी को बुद्धिमान लोग ‘मूढ’ कहते हैं।

-महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर अध्याय 33

—-

सुख भोगने की इच्छा करने वाले को विद्या कहां? और विद्या पढ़नेवाले को सुख कहां? क्योंकि विषयसुखार्थी विद्या को और विद्यार्थी विषयसुख को छोड़ दें।

-महाभारत उद्योगपर्व विदुरप्रजागर अध्याय 40

शुभलक्षणयुक्त अध्यापक और विद्यार्थियों को होना चाहिये।

—-

….चारों वर्ण परस्पर प्रीति, उपकार, सज्जनता, सुख, दुख, हानि, लाभ में ऐकमत्य रहकर राज्य और प्रजा की उन्नति में तन, मन, धन व्यय करते रहें।

जिस स्त्री वा पुरुष का पाणिग्रहणमात्र संस्कार हुआ हो और संयोग [न हुआ हो] अर्थात् अक्षतयोनि स्त्री और अक्षतवीर्य पुरुष हो, तो उस स्त्री वा पुरुष का अन्य पुरुष वा स्त्री से पुनर्विवाह होना चाहिये। और शूद्रवर्ण में भी चाहे कैसा ही हो, पुनर्विवाह हो सकता है। किन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्णों में क्षतयोनि स्त्री, क्षतवीर्य पुरुष का पुनर्विवाह न होना चाहिये।

-मनुस्मृति 9//176   

प्रश्न- पुनर्विवाह में क्या दोष है?  

उत्तर- (पहिला) स्त्री पुरुष में प्रेम न्यून होना। क्योंकि जब चाहै तब पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष छोड़ कर, दूसरे के साथ सम्बन्ध कर ले।

(दूसरा) जब स्त्री व पुरुष, पति [वा] स्त्री [के] मरने के पश्चात् दूसरा विवाह करना चाहें, तब पूर्व पति वा प्रथम स्त्री के पदार्थों को उड़ा ले जाना अच्छा समझेंगे और उनके कुटुम्ब वाले उससे झगड़ा करेंगे।

(तीसरा) बहुत से भद्रकुल का नाम व चिन्ह भी न रह कर, उसके पदार्थ छिन्न-भिन्न हो जाना।

(चौथा) पतिव्रत्य और स्त्रीव्रत धर्म नष्ट होना, इत्यादि दोषों के अर्थ द्विजों में पुनर्विवाह वा अनेक विवाह कभी न होना चाहिये।

प्रश्न- जब वंशच्छेदन हो जाये, तब भी उसका कुल नष्ट हो जाएगा और स्त्री पुरुष व्याभिचारादि कर्म करके गर्भपातनादि बहुत से दुष्ट कर्म करेंगे, इसलिये पुनर्विवाह का होना अच्छा है।

उत्तर- नहीं। क्योंकि जो स्त्री पुरुष ब्रह्मचर्य में स्थिर रहना चाहैं, तो कोई भी उपद्रव न होगा। और जो कुल की परम्परा रखने के लिये किसी अपने स्वजाति का लड़का गोद ले लेंगे, उससे कुल चलेगा और व्यभिचार भी न होगा। और जो ब्रह्मचर्य न रख सकें तो नियोग करके सन्तानोत्पति कर लें।

प्रश्न- पुनर्विवाह और नियोग में क्या भेद है?

उत्तर – (पहिला) जैसे विवाह करने में कन्या अपने पिता का घर छोड़ पति के घर को प्राप्त होती है और पिता से विशेष सम्बन्ध नहीं रहता, विधवा स्त्री उसी विवाहित पति के घर में रहती है।

(दूसरा) उसी विवाहित स्त्री के लड़के उसी विवाहित पति के दायभागी होते हैं। और विधवा स्त्री के लड़के वीर्यदाता के न पुत्र कहलाते, न उसका गोत्र होता और [न] उसका स्वत्व उन लड़कों पर रहता, किन्तु वे मृतपति के पुत्र बजते, उसी का गोत्र रहता और उसी के पदार्थों के दायभागी होकर उसी घर में रहते हैं।

(तीसरा) विवाहित स्त्री-पुरुष को परस्पर सेवा और पालन करना अवश्य है, और नियुक्त स्त्री-पुरुष का कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता।

(चौथा) विवाहित स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध मरणपर्यन्त रहता है और नियुक्त स्त्री-पुरुष का कार्यसिद्धि के पश्चात् छूट जाता है।

(पांचवां) विवाहित स्त्री-पुरुष आपस में गृह कार्यों की सिद्धि करने में यत्न किया करते हैं और नियुक्त स्त्री-पुरुष अपने-अपने घर के काम किया करते हैं।

—-

प्रश्न- यह नियोग की बात व्यभिचार के समान दीखती है।

उत्तर – जैसे बिना विवाहितों का व्यभिचार होता है, वैसे बिना नियुक्तों का व्यभिचार कहाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जैसे नियम से विवाह होने पर व्यभिचार नहीं कहाता, तो नियमपूर्वक नियोग होने से व्यभिचार न कहावेगा। जैसे दूसरे की लड़की और दूसरे के लड़के का शास्त्रोक्त विधि से विवाहपूर्वक समागम में व्यभिचार वा पाप, लज्जा नहीं होता, वैसे ही वेदशास्त्रोक्त नियोग में व्यभिचार, पाप, लज्जा न मानना चाहिये।

प्रश्न- है तो ठीक, परन्तु यह वेश्या के सदृश कर्म दीखता है।

उत्तर- नहीं, क्योंकि वेश्या के समागम में किसी निश्चित पुरुष वा कोई नियम नहीं है और नियोग में विवाह के समान नियम हैं। जैसे दूसरे को लड़की देने, दूसरे के साथ समागम करने में विवाहपूर्वक लज्जा नहीं होती, वैसे ही नियोग में भी न होनी चाहिये। क्या जो व्यभिचारी पुरुष वा स्त्री होती हैं, वह विवाह होने पर भी कुकर्म से बचते हैं?

—-

प्रश्न- पुरुष को नियोग करने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि वह दूसरा विवाह करेगा।

उत्तर- हम लिख आए हैं, द्विजों में स्त्री और पुरुष का एक बार ही विवाह होना वेदादि शास्त्रों में लिखा है, द्वितीयवार नहीं। कुमार और कुमारी का ही विवाह होने में न्याय और विधवा स्त्री के साथ कुमार पुरुष और कुमारी स्त्री के साथ मृतस्त्री [के ] पुरुष का विवाह होने में अन्याय अर्थात् अधर्म है। जैसे विधवा स्त्री के साथ पुरुष विवाह नहीं [करना] चाहता, वैसे ही विवाह और स्त्री से समागम किये हुए पुरुष के साथ विवाह करने की इच्छा कुमारी भी न करेगी। जब विवाह किये हुए पुरुष को कोई कुमारी कन्या, और विधवा स्त्री का ग्रहण कोई कुमार पुरुष न करेगा, तब पुरुष और स्त्री को नियोग करने की आवश्यकता होगी। और यही धर्म है कि जैसे के साथ वैसे का ही सम्बन्ध होना चाहिये।

—-

प्रश्न- नियोग मरे पीछे ही होता है वा जीते पति के भी?

उत्तर- जीते भी होता है- 

-ऋग्वेद 10//10//-

जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे, तब अपनी स्त्री को आज्ञा देवे कि हे सुभगे! सौभाग्य की इच्छा करनेहारी स्त्री तू मुझ से दूसरे पति की इच्छा कर, क्योंकि अब मुझे से सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी। तब स्त्री दूसरे से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति करे, परन्तु उस विवाहित महाशय पति की सेवा में तत्पर रहै। वैसे ही स्त्री भी, जब रोगादि दोषों से ग्रस्त होकर सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे, तब अपने पति को आज्ञा देवे कि हे स्वामी! आप मुझसे सन्तानोत्पत्ति की इच्छा छोड़ के, किसी दूसरी विधवा स्त्री से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कीजिये। जैसा कि पाण्डु राजा की स्त्री कुन्ती और माद्री आदि ने किया। और जैसा व्यासजी ने चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य के मर जाने पश्चात् उन अपने भाइयों की स्त्रियों से नियोग करके अम्बिका में धृतराष्ट्र और अम्बालिका में पाण्डु और दासी में विदुर की उत्पत्ति की, इत्यादि इतिहास भी इस बात में प्रमाण हैं।

—-

वैसे ही, जो पुरुष अत्यन्त दुखदायक हो, तो स्त्री को उचित है कि तुरन्त उसको छोड़ के दूसरे पुरुष से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति करके, उसी विवाहित पति के दायभागी सन्तान कर लेवे।

अब इस पर स्त्री और पुरुष को ध्यान रखना चाहिये कि वीर्य और रज को अमूल्य समझें। जो कोई इस अमूल्य पदार्थ को परस्त्री, वेश्या वा दुष्ट पुरुषों के सङ्ग में खोते हैं, वे महामूर्ख कहाते हैं। क्योंकि किसान वा माली मूर्ख होकर भी, अपने खेत वा वाटिका के बिना, अन्यत्र बीज नहीं बोते। जो कि साधारण बीज का और मूर्ख का यह वर्त्तमान है, तो जो सर्वोत्तम मनुष्यशरीररूप वृक्ष के बीज को कुक्षेत्र में खोता है, वह महामूर्ख कहाता है, क्योंकि उसका फल उसको नहीं मिलता।

—-

प्रश्न- विवाह क्यों करना? क्योंकि इससे स्त्री और पुरुष को बन्धन में पड़के बहुत संकोच करना और दुख भोगना पड़ता है, इसलिये जिसके साथ जिसकी प्रीति हो तब तक वे मिले रहैं, जब प्रीति छूट जाय तो छोड़ देवें।

उत्तर- यह पशु-पक्षियों का व्यवहार है, मनुष्यों का नहीं। जो मनुष्यों में विवाह का नियम न रहै, तो गृहाश्रम के अच्छे व्यवहार सब नष्ट-भ्रष्ट हो जायें। कोई किसी से भय वा लज्जा न करे। वृद्धावस्था में कोई किसी की सेवा भी नहीं करे और महाव्याभिचार बढ़कर सब रोगी, निर्बल और अल्पायु होकर शीघ्र-शीघ्र मर जायें। कोई किसी के पदार्थ का स्वामी वा दायभागी न हो सके और न किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकाल पर्यन्त स्वत्व रहे। इत्यादि दोषों के निवारणार्थ विवाह अवश्य होना चाहिये।

—-

जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं, जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ ही के आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं, बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता।

-मनुस्मृति 6//90   

—-

…गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने अयोग्य है।

-मनुस्मृति 3//79