प्रश्न – क्या ईश्वर मनुष्यों को अपनी इच्छा से, जैसा चाहता है, वैसा फल देता है? किसी को अच्छा तो किसी को बुरा, किसी को धनिक तो किसी को गरीब, किसी को रूपवान तो किसी को कुरूप, किसी को बुद्धिमान तो किसी को मूर्ख बना देता हैं?
उत्तर- ईश्वर अपनी इच्छा से किसी मनुष्य को बिना कर्म किये सुख या दुख रूप में फल नहीं देता है। यदि ईश्वर अपनी इच्छा से मनुष्यों को सुख-दुख देता तो कर्मों का कोई महत्व ही नहीं रहता। जबकि, वेदादि शास्त्रों में अच्छे कर्तव्य कर्मों को करने का निर्देष दिया गया है तथा बुरे कर्मों को न करने का आदेश दिया गया है।
तुम कभी जुआ मत खेलो, खेती का कार्य करो। परिश्रम से प्राप्त धन को पर्याप्त मानकर उसी से सन्तुष्ट रहो।
-ऋग्वेद १0//३४//१३
किसी के धन का लालच मत करो।
-यजुर्वेद ४०//१
अच्छे कर्मों को करने तथा बुरे कर्मों को न करने का विधान दिया जाने से यह स्पष्ट है कि जीवात्मा कर्म करने में स्वतंत्र है। अपनी स्वतंत्रता से किये गये कर्मों का फल ही वह ईश्वर की व्यवस्था से प्राप्त करता है। इसके अतिरिक्त ईश्वर यदि अपनी इच्छा से बिना जीव के कर्मों की अपेक्षा रखते हुए, किसी को सुख व किसी को दुख देता, तो वह अन्यायी सिद्ध हो जाता। ऐसा ईश्वर नहीं है, वह तो न्यायकारी है। न्यायकारी उसी को कहते हैं जो कि जीवों के कर्मानुसार फल देता हो। ईश्वर के न्यायकारी होने, जीवों के लिए अच्छे-बुरे कर्मों को करने, न करने का विधान होने से अर्थात् जीवात्मा के कर्म करने में स्वतंत्र होने से सिद्ध है कि ईश्वर अपनी इच्छा से बिना कर्मों की अपेक्षा से किसी को सुख-दुख रुपी फल नहीं देता है।
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