प्रश्न – कर्म करते समय फल की आशा क्यों न करें? इससे क्या हानि है?
उत्तर- कर्म को करते समय मन में फल की आशा इसलिए नहीं रखनी चाहिये, क्योंकि फल हमारी इच्छा के अनुकूल भी होता है और कभी प्रतिकूल भी होता है। यह आवश्यक नहीं कि फल के विषय में हम जैसी इच्छा मन में रखते हैं फल प्राप्ति हमारे अनुकूल ही हो। फल की अनुकूलता से मनुष्य सुख की अनुभूति करता है ओर प्रतिकूलता से दुख की अनुभूति करता है। फल का प्राप्त करना मनुष्य के हाथ में नहीं है। फल इच्छा के अनुरूप होना या इच्छा के प्रतिकूल होना अनेक कारणों के आधार पर निर्भर करता है। मनुष्य को इन सभी कारणों का विशेष ज्ञान नहीं होता है। हमारे हाथ में मात्र कर्म करना ही है, फल का प्राप्त होना काफी अंशों में हमारे हाथ में नहीं है। इसलिए दार्शनिक दृष्टि से हम कर्म करते रहें और ‘इदं न मम’ भावना बनाते हुए फल को परमात्मा के हाथ में छोड़ दें। वह जब, जैसा, जितना चाहे तब, वैसा उतना फल देगा। गीता में भी कहा है-
श्री कृष्ण जी कहते हैं- हे अर्जुन ! कर्म करने में ही तेरा अधिकार अर्थात स्वातन्त्र्य है, कर्म के फल पाने में नहीं, तू कर्मफल का प्रयोजक मत बन। निकम्मेपन में तेरी रुचि कभी न हो। कई बार हम निर्धारण कर लेते हैं कि यदि मैंने अमुक कार्य कर लिया, तो अमुक दण्ड लूँगा। और यदि उस कार्य के करने पर हम वह दण्ड ले लेते हैं, तो हमारी दृष्टि में निर्धारित फल से न्यूनाधिक की पूर्ति ईश्वर करता है। किन्तु फल पर हमारा बिल्कुल भी अधिकार नहीं है, यह संशयित सा हो जाता है। इसलिए, फल का अर्थ यहाँ परिणाम लेना होगा।
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