हमें दर्शन क्यों पढ़ने चाहिए?

दर्शनों को पढ़ने का क्रम

वेदों के उपांग कहे जाने वाले छः दर्शन वास्तव एक ही वैदिक-दर्शन के विभिन्न भाग हैं, अर्थात ये छः दर्शन भारतीय दर्शन के विभिन्न भागों को विस्तार से समझाने वाले छः विभिन्न शास्त्र हैं। इनको एक ही दर्शन के अवयव मानने से इनमें कहीं भी विरोध प्रतीत नहीं होता, बल्कि ये सभी दर्शन एक दूसरे के पूरक प्रतीत होने लगते हैं। भागों से उस आकृति तक पहुंचने के लिए जिसके ये भाग हैं, भागों को एक व्यवस्थित क्रम में रखा हुआ होना आवश्यक है। वर्त्तमान में कुछ ही विद्वानों का ध्यान इस क्रम की ओर गया है, जिनमें से दर्शनों को पढ़ने के विशेष क्रम का मौलिक चिन्तन तो केवल महर्षि स्वामी दयानन्द जी का ही है। दर्शनों को पढ़ने का वह विशेष क्रम है- मीमांसा दर्शन अथवा पूर्व मीमांसा, वैशेषिक दर्शन, न्याय दर्शन, योग दर्शन, सांख्य दर्शन और वेदान्त दर्शन अथवा उत्तर मीमांसा। उन्होंने जहां जहां भी अपने लेखों में दर्शनों के विषय में लिखा है, वहां वहां इसी क्रम को उद्धरित किया है।
हालाँकि, यह ठीक है कि भारतीय दर्शन के मूल को समझने के लिए इन छः दर्शनों को ऊपर वर्णित क्रम से ही पढ़ना चाहिए, परन्तु आज जब लोगों में दर्शनों के प्रति श्रद्धा नगण्य है, ऐसी अवस्था में भी दर्शनों को पढ़ने के इसी क्रम पर बल देना बुद्धिमानी नहीं मानी जा सकती। हाँ, जिन लोगों में पूर्व जन्मों के संस्कारों के कारण दर्शनों के प्रति श्रद्धा है, उनको तो अवश्य ही दर्शनों को इसी क्रम से पढ़ना चाहिए। अन्य लोग आकर्षण, रुचि, उपयोगिता आदि को ध्यान में रखते हुए दर्शनों में वर्णित अमूल्य ज्ञान-राशि को इस क्रम से पढ़ सकते हैं- योग दर्शन, सांख्य दर्शन, न्याय दर्शन, वेदान्त दर्शन अथवा उत्तर मीमांसा, वैशेषिक दर्शन, मीमांसा दर्शन अथवा पूर्व मीमांसा।

हमें मीमांसा दर्शन क्यों पढ़ना चाहिए?

-आचार्य सत्यजित आर्य  

संस्कृत व्याकरण मुख्यतः पदों अर्थात शब्दों के अर्थों पर केंद्रित है, परन्तु यह दर्शन हमें बताता है कि पदों के अर्थों को जानते हुए भी हम पदों के समूह से बने वाक्य के पीछे के तात्पर्य को कैसे समझें।

हम बचपन से वाक्य के अर्थों को भली प्रकार से समझते आ रहे हैं। ऐसे में हमें लग सकता है कि वाक्यों के अर्थों को समझने वाले शास्त्र को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं। सामान्य व्यवहार में तो हमें वाक्यों के अर्थों को समझने में कोई कठिनाई नहीं आती, परन्तु असामान्य परिस्थितियों में हमें वाक्यों के अर्थों को समझने वाली कसौटियों को जानना आवश्यक हो जाता है।  उदाहरण के लिए- संविधान के किन्हीं वाक्यों की सही व्याख्या को जानने के लिए वकीलों को कईं घंटों की कड़ी मेहनत करनी पड़ती है।  कईं बार हम यह तो समझ जाते हैं कि किन्हीं वाक्यों के किए गए अर्थ उचित अथवा अनुचित हैं, परन्तु हम यह समझने में असमर्थ होते हैं कि वे अर्थ किन कारणों से उचित अथवा अनुचित हैं। किसी वाक्य को कोई विशिष्ट अर्थ लेने के पीछे कोई आधार होता है। यदि किसी वाक्य के एक से अधिक अर्थ निकल रहे हों, तो हमे पता होना चाहिए कि कौन से अर्थ के पीछे का आधार अधिक बलवान है। यह शास्त्र हमें कसौटियां समझाता है, जिनके अनुसार वाक्यों के अर्थों की उचितता अथवा अनुचितता निर्धारित होती है।

वाक्यों के अर्थों की कसौटियां समझाने के लिए यह शास्त्र उस समय बहु-प्रचलित कर्मकाण्ड से सम्बन्धित वाक्यों को उदाहरण के तौर पर लेकर उनकी विवेचना करता है। विवेचना के लिए उन्हीं वाक्यों को लेना सार्थक था, जो उस समय प्रचलित थे। कर्मकाण्ड से सम्बन्धित वाक्यों को विवेचना करने के कारण इस शास्त्र को कर्मकाण्ड-मीमांसा के रूप में भी लिया जाता है, जबकि ऐसा करने वाले लोग इस शास्त्र के मुख्य प्रयोजन को समझ ही नहीं पाते। आज भी इस शास्त्र को पढ़ने का मुख्य कारण कर्मकाण्ड सम्बन्धी क्रियाओं को सही रीति से करना ही है।

बहुत सारे लोगों को यह भी लग सकता है कि उनका मुख्य उद्देश्य मुक्ति प्राप्ति होने पर, वाक्यों के अर्थों को  जानने की कसौटियों समझना निरर्थक है। मुक्ति प्राप्ति ईश्वर के संविधान को समझे बिना नहीं हो सकती। जिस व्यक्ति की अध्यात्म में रुचि है, उसकी रुचि ईश्वर के संविधान- वेद में होगी ही होगी। अध्यात्म की परिशुद्धता शास्त्रीय वाक्यों के सही अर्थों को जाने बिना असम्भव है। बिना वाक्यों के अर्थों को समझने की प्रक्रिया को जाने, भिन्न-भिन्न वाक्यों की विसंगतियों को सुलझाया नहीं जा सकता। इसलिए, वाक्यों के अर्थों को  जानने की कसौटियों को समझना अनिवार्य है।

जब हम मानते हैं कि ऋषियों का प्रत्येक कार्य मानव को उसके अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कराने के लिए ही होता है, तो हम यह मत कैसे बना लेते हैं कि उनके द्वारा रचा कोई ग्रंथ हमें मुक्ति-पथ से दूर ले जाना वाला भी हो सकता है? ऐसा मत बनाना उन ऋषियों के प्रति असम्मान की भावना ही दर्शाता है। मानसिक या शारीरिक अस्वस्थता के कारण ऋषि कृत शास्त्रों को न पढ़ पाना तो समझ आता है, परन्तु हमें किसी भी दशा में उनकी बुराई करने अथवा उनकी व्यर्थता दर्शाने का अधिकार नहीं है।

इस शास्त्र को पढ़ने के पश्चात, हममें किसी बात को समझने का एक विशेष दृष्टिकोण विकसित हो जाता है।    

 

हमें वैशेषिक दर्शन क्यों पढ़ना चाहिए?

-आचार्य सत्यजित आर्य  

वैशेषिक दर्शन में आखिर है क्या? इसको तीन तरह से समझा जा सकता है। पहला- वैशेषिक के आस-पास का प्रचलित शब्द है- विशेष। किसी भी पदार्थ को उसकी विशेषताओं के माध्यम से ही दूसरों को बताया जा सकता है और किसी भी पदार्थ की  विशेषताएं उसके गुण ही होते हैं। क्योंकि इस दर्शन में वस्तुओं के गुणों अथवा अवगुणों को बताया जाता है, इसलिए इसे ‘वैशेषिक दर्शन’ का नाम दिया गया है। दूसरा- इस शास्त्र में छः पदार्थों- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय के बारे में बताया गया है और उनमें से एक पदार्थ ‘विशेष’ भी है, इसलिए भी इस शास्त्र को वैशेषिक दर्शन कहा गया हो सकता है। तीसरा- ‘विशेष’ पंचमहाभूतों का परिभाषिक शब्द है। ‘विशेष’ शब्द पंचमहाभूतों के लिए अनेक शास्त्रों में प्रयोग हुआ है। पंचमहाभूतों को विशेष अनुपात में मिलाने से संसार के अन्य पदार्थों पदार्थ की रचना हुई है, परन्तु पंचमहाभूत अन्तिम वस्तुएं हैं, इनके बाद किसी भी तरह का तत्वान्तर भेद नहीं होता। विशेष के बारे में, जो दर्शन हमें विशेष दृष्टि प्रदान करता है, उसे वैशेषिक दर्शन कहते हैं।

वैशेषिक दर्शन और न्याय दर्शन समान स्तर पर बात करते हैं। जिन वस्तुओं को हमें जानना है, उन्हें प्रमेय कहा जाता है। और जिससे वस्तु को जाना जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं। इस शास्त्र में प्रमेयों की चर्चा है और न्याय दर्शन में प्रमाणों की विस्तृत विवेचना है।

हमें अपने आस-पास की वस्तुओं को जानना होता है, ताकि हम उनका लाभ ले सकें अथवा उनसे किसी तरह की हानि न उठा लें। आज की शिक्षा प्रणाली में भी विद्यार्थियों को भिन्न भिन्न वस्तुओं से परिचित कराया जाता है कि अमुक वस्तु के गुण-धर्म क्या-क्या हैं?, वह कैसे उत्पन्न होती और कैसे नष्ट होती है?, उसको कैसे प्रयोग में लाया जाता है?, उसका क्या प्रभाव होता है?, उससे क्या क्या और कैसे हानि होती है? आदि आदि। शिक्षा है भी यहीं कि हमारे आस-पास जो भी चीजें हैं, उनका अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कैसे उपयोग किया जा सकता है? इस शास्त्र में पंचमहाभूतों के साधर्म्य वैधर्म्य की विस्तृत चर्चा है। क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु पंचमहाभूतों के संयोग से ही बनी है,  इसलिए उनके बारे में ठीक-ठीक जानकारी, उनके साधर्म्य वैधर्म्य को जानकर ही प्राप्त की जा सकती है।

इस शास्त्र में स्तुति को भी बताया गया है। वस्तुतः, स्तुति वही है, जब हम पदार्थ और उसके गुणों अथवा अवगुणों का एक साथ वर्णन करते हैं अर्थात गुण और गुणी का संयोग कर देना ही स्तुति है।  

हमें न्याय दर्शन क्यों पढ़ना चाहिए?

-आचार्य सत्यजित आर्य

प्रत्येक आत्मा में जानने का स्वाभाविक गुण होता है। इसी कारण जन्म से लेके मृत्यु पर्यन्त हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से अथवा अनुमान से अथवा दूसरों के बताने से या पढ़ाने से या पुस्तकों के माध्यम से जानकारी प्राप्त करते ही रहते हैं। लेकिन हम कैसे जानें कि जो हमने इन्द्रियों द्वारा या अनुमान से या किसी के कहे के अनुसार जाना है, वह ठीक है। जिस प्रक्रिया के माध्यम से हम जानकारी प्राप्त करते हैं, उसे प्रमाण कहते हैं। और यह दर्शन प्रमाणों को ही समझाता है।

बचपन से ही हम जानकारियाँ प्राप्त करते आ रहे हैं। इसका अर्थ हुआ कि बचपन से ही हम प्रमाणों का प्रयोग करते आ रहे हैं, क्योंकि जिससे हम किसी वस्तु को जानते हैं, उसी को प्रमाण कहा जाता है। यह दर्शन प्रमाणों पर ही केंद्रित है। अब प्रश्न उठता है कि जिन प्रमाणों का प्रयोग हम बचपन से करते आ रहे हैं, क्या उसके बारे में जानकारी प्राप्त करने का कोई औचित्य है? यह आम देखने में आता है कि भिन्न-भिन्न लोग इन्द्रियों द्वारा या अनुमान से या किसी के कहे अनुसार प्राप्त जानकारियों का भिन्न-भिन्न अर्थ लगा लेते हैं।

ऋषियों ने देखा कि आखिर प्रमाणों का प्रयोग करते हुए हमसे गलतियाँ कैसे हो जाती हैं व भिन्न-भिन्न लोग प्रमाणों से भिन्न-भिन्न निर्णय कैसे निकाल लेते हैं। इस समस्या के निधान हेतु उन्होंने प्रमाणों को व्यवस्थित करते हुए उनको परिभाषित किया, ताकि हम जान सकें कि जिनको हम प्रमाण मान रहे हैं वे वास्तव में प्रमाण है भी कि नहीं। प्रमाणों को कसौटियाँ भी कहा जाता है। वस्तुओं के बारे सत्य जानकारी प्राप्त करने के लिए हम जिन कसौटियों का प्रयोग कर रहे हैं, वे वास्तव में ठीक कसौटियाँ हैं भी कि नहीं। प्रमाणों की व्यापकता कितनी होती है?

क्या किसी जानकारी को सत्य मानने के लिए प्रत्यक्ष प्रमाण ही आवश्यक है? जो लोग मानते हैं कि सत्य को जानने का प्रत्यक्ष प्रमाण ही एक मात्र साधन है, क्या ऐसे लोग अन्य प्रमाणों को भी मानते हैं कि नहीं। प्रत्यक्ष प्रमाण से हम बहुत कम वस्तुओं की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। प्रमाणों में सबसे अधिक व्यापकता अनुमान प्रमाण की है अर्थात सबसे अधिक जानकारी हम अनुमान प्रमाण द्वारा ही प्राप्त करते हैं। और यह प्रमाण ही सबसे अधिक जटिल है। इस ग्रंथ में सबसे अधिक अनुमान प्रमाण को ही समझाया गया है। बहुत सारी जानकारी हमें दूसरों द्वारा बताए जाने अथवा पढ़ाए जाने अथवा समझाए जाने पर मिलती है, परन्तु हमें यह जानना होता है कि लेखक वा व्याख्याता सही भी कह रहा कि नहीं।

सामान्यतः यह कहा जाता है कि न्याय दर्शन तर्क का शास्त्र है। क्योकि, हमारी रुचि तो अध्यात्म में है और अध्यात्म, जो हृदय पर निर्भर है, में विज्ञान और बुद्धि, जिनमें तर्क की विशेष भूमिका है, कोई आवश्यकता नहीं है, इसलिए ऐसे शास्त्र को क्यों पढ़ना? (यह ठीक है कि अध्यात्म की पराकाष्ठा में ईश्वरीय आनन्द को भोगने के लिए ज्ञान और तर्क की कोई आवश्यकता नहीं, परन्तु वहाँ तक पहुंचने के लिए तर्क से प्राप्त सही ज्ञान अति आवश्यक है। ) हमारे शास्त्रों में यह कहा गया है कि ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती। बिना कर्म के व बिना उपासना के भी मुक्ति नहीं मिलती, ज्ञान का वर्णन, यहां श्रेष्ठता के आधार पर किया गया है। ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती और बिना प्रमाणों के सही ज्ञान नहीं होता व बिना तर्क के प्रमाणों को नहीं समझा जा सकता। न्याय दर्शन हमें बताता है कि सही तर्क होता क्या है? तर्क और कुतर्क में भिन्नता क्या है? जैसे-जैसे हमारा ज्ञान शुद्ध होता जाता है, वैसे-वैसे हमारा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता जाता है। इसलिए, न्याय दर्शन को पढ़ना मुक्ति के लिए अत्यन्त आवश्यक है।

एक ओर बात जो इस शास्त्र के विरोध में कही जाती है, वो यह है कि इस शास्त्र को पढ़कर हम अपनी बात पर अडिग रहना और दूसरों की बातों को काटना ही सीखते हैं। यह विरोध भी अत्यन्त अतर्कपूर्ण है। दूसरों से बात करने का वास्तविक उद्देश्य किसी सत्य की गहराई तक पहुंचना होता है। यह शास्त्र हमें बताता है कि दूसरों से बात कैसे की जाती है? हर ज्ञान का प्रयोग उचित उद्देश्य के लिए भी और अनुचित उद्देश्य के लिए भी किया जा सकता है। ऐसा मानना कि दूसरों से बात केवल अनुचित उद्देश्य के लिए ही की जाती है, पूर्णतया अप्रगतिशाली है। बहुत सारी हमारी गलतियां दूसरों द्वारा बताए जाने पर ही हमारे ध्यान में आती हैं और ऐसा तबतक सम्भव नहीं, जबतक हम विचारों का आदान-प्रदान न करें। 

इस शास्त्र को पढ़कर हम जान सकते हैं कि दूसरों के विचारों को माना जाए अथवा नहीं। दूसरों के गलत विचारों को मानकर हम पूर्ण दोष बताने वाले पर नहीं लगा सकते, दूसरों के विचारों को स्वीकार करते हुए हमारा भी दायित्व बनता है कि हम जानें कि उनके विचारों को हमें स्वीकार करना चाहिए अथवा नहीं। बहुत बार हम यह तो समझ जाते हैं कि दूसरे की बात स्वीकार करने योग्य नहीं है, परन्तु यह नहीं समझ पाते कि क्यों दूसरे की बात स्वीकार करने योग्य नहीं है। न्याय दर्शन को पढ़कर हम दूसरों की गलतियों को भी समझ पाते हैं।

इस शास्त्र के अध्य्यन के पश्चात हम भविष्य में सही प्रमाणों के आधार पर ही किसी ज्ञान को स्वीकार करेंगे और अपने पिछले ज्ञानों को भी प्रमाणों पर कसकर संशोधित कर सकेंगे।    

 

हमें योग दर्शन क्यों पढ़ना चाहिए?

‘हमारी चिंतन की परम्परा के मूल में ये प्रश्न रहे हैं कि हमें जन्म क्यों मिला है?, यह सृष्टि क्या है?, इस सृष्टि का प्रयोजन क्या है?, इस संसार में मुझे कैसे रहना चाहिए?, मेरे लिए क्या करना योग्य है, क्या छोड़ना योग्य है? जो व्यक्ति प्रारम्भ में ऐसा नहीं भी सोचता, जीवन जीते समय कुछ अड़चनें, बाधाएं आदि आने पर उसे यह सोचने पर विवश होना पड़ेगा कि आखिर उसके जीवन में बाधाएं क्यों आईं हैं और उन बाधाओं से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है? हमारे ऋषियों ने भी इन विषयों पर वेदों के आधार पर बहुत चिंतन किया और ज्ञान परम्परा के अंतर्गत भिन्न भिन्न विषयों के अनेक ग्रंथ रचे। यह शास्त्र भी उसी चिन्तन का परिणाम है। इसमें मुख्यतः इन प्रश्नों के समाधान हैं कि हमारे जीवन का लक्ष्य क्या है और उसे प्राप्त करने के लिए हमें क्या क्या करना चाहिए?  

आज योग के नाम पर मानव-समाज में जो कुछ भी प्रचलित है, वे सब इस शास्त्र से निकला हुआ नहीं है। आज योग में आसन और प्राणायाम की प्रमुखता है, परन्तु इस शास्त्र में आसन और प्राणायाम का आंशिक रूप में ही वर्णन है। यह शास्त्र मुख्यतः अंदर की अथवा चित्त के स्तर की बातों के बारे में बात करता है। इसका  मुख्य प्रयोजन मन को साधना है, न कि शरीर को स्वस्थ रखना।’

-आचार्य सत्यजित आर्य  

‘योग की चर्चा करते हुए ग्रंथकार ने योग को परिभाषित किया है और यहाँ इस शास्त्र में योग शब्द का अर्थ है- समाधि और समाधि का अर्थ है- चित्त की वृत्तियों अर्थात जानकारी प्राप्त करने के हमारे रास्तों को पूर्णतया रोक देना। हम इस संसार के जाल में फंसे हुए हैं और समाधि हमें इस बन्धन से मुक्त कर देती है। समाधि के रास्ते पर जाने के लिए व्यक्ति में वैराग्य अर्थात संसार की वस्तुओं से मोह छूट जाना अति आवश्यक है। हम अपने पिंजरे से प्यार कर बैठे हैं और पिंजरे के प्रति इस लगाव को छोड़ने का नाम ही वैराग्य है। वैराग्य तब होगा जब हम समझ जाएंगे कि हम संसार रूपी पिंजरे में कैद हैं। योग दर्शन को चार भागों में बांटा गया है। इस शास्त्र का पहला भाग हमें पिंजरे के बारे में समझाता है अर्थात यह बताता है कि वृत्तियां कैसे हमें जकड़े हुए हैं। दूसरे भाग में पिंजरे से छूटने के उपाय बताए गए हैं। जब हम समाधि के बहुत निकट पहुंच जाते हैं, तो हमें कुछ शक्तियां मिलती हैं। उनसे भी बचने के उपाय तीसरे भाग में बताए गए हैं और चौथे भाग में  पिंजरे से छूट जाने पर होने वाली अनुभूतियों का वर्णन है।

यह अकाट्य सत्य है कि ज्ञान से ही मुक्ति होती है। योग दर्शन हमें बताता है कि कौन सी जानकारियों से हम मुक्ति-पथ पर अग्रसर हो सकते हैं और उन जानकारियों को मुक्ति प्राप्त करने के लिए अपने व्यवहार में कैसे लाया जाता है? हमारे मन के द्वारा हमें दोनों तरह की जानकारियां अर्थात जो जानकारियां हमें चाहिए और जो जानकारियां हमें नहीं चाहिए प्राप्त होती रहती है।  जो जानकारी बिना हमारी इच्छा के आती रहती है, वही मुक्ति प्राप्ति में सबसे अधिक बाधक है। हमें सबसे पहले इस अनचाही जानकारी को रोकना होता है और फिर जो गलत जानकारियां हमने अपने मन में संभाली हुई हैं, उन्हें दूर करना होता है। हम अपने मन की कितनी ही सफाई क्यों न कर लें, यदि हमने गलत जानकारियों को मन में आने से नहीं रोका, तो सारी सफाई व्यर्थ ही होगी। गलत जानकारियों की सफाई ही योग दर्शन में वर्णित चित्त की वृत्तियों को रोकना है। मन की सफाई में ईश्वर के वास्तविक स्वरूप का लाभ कैसे लिया जाता है, यह भी हमें योग दर्शन बताता है।’ 

-आचार्य अंकित प्रभाकर

हमें सांख्य दर्शन क्यों पढ़ना चाहिए?

‘महाभारत में सांख्य और योग को एक समान माना गया है। सांख्य दर्शन सैद्धान्तिक पक्ष की बात करता है, जबकि योग दर्शन प्रयोगिक पक्ष की बात करता है। सांख्य दर्शन एक मोक्ष शास्त्र है। यह शुरु से ही मोक्ष के विषय में भिन्न-भिन्न सिद्धांतों की चर्चा करता है। सांख्य का अर्थ ही है- अच्छी प्रकार से कथन करना। हालाँकि, सांसारिक वस्तुओं के बारे में भी विशेष कथन किया जाता है, परन्तु इस शास्त्र में आत्मा के लिए सर्वाधिक हितकर बातों का उल्लेख है।’

– आचार्य सत्यजित आर्य

‘हम जीवन में दुखों से पूर्णतया छूटना चाहते हैं और उसके लिए हमें जानना होगा कि हमारे जीवन में कहाँ कहाँ दुःख हैं?, हम कैसे दुखी हो रहे हैं?, वे दुःख आ कहाँ से रहे हैं? यह सृष्टि और मेरा शरीर प्रकृति के मूल कणों- सत्व, रजस और तमस से कैसे बना? दुखों के कारण शरीर, अंतःकरण और प्राणों के उपादान कारण, प्रकृति की विस्तृत विवेचना सांख्य दर्शन में मिलती है। शरीर, अंतःकरण और प्राण हमें मुक्ति तक कैसे ले जा सकते हैं? आदि प्रश्नों का उत्तर सांख्य दर्शन देता है।’

-आचार्य अंकित प्रभाकर

सांख्य दर्शन पहले पढ़ना चाहिए या योग दर्शन?

‘सांख्य दर्शन थ्योरी भाग है और योग दर्शन प्रैक्टिकल भाग है। थ्योरी प्रैक्टिकल से पहले होती है अर्थात प्रैक्टिकल में हम टेस्ट कर के देखते हैं कि जो हमने थ्योरी में पढ़ा है, वह ठीक है कि नहीं। उदाहरण के लिए- यदि हम कभी ऐसे घर में फंस जाएं, जहां सर्दी के मौसम में कहीं से ठंडी-ठंडी हवाएं आ रही हों, तो उन हवाओं को रोकने के लिए हमे जानना पड़ेगा कि घर में दरवाजे, खिड़कियां, झरोखे आदि कहां-कहाँ हैं, उनकी बनावट किस तरह की है आदि आदि, ताकि हम ठंडी हवाओं को अच्छी तरह से रोक पाने के उचित उपाय कर सकें।’

-आचार्य अंकित प्रभाकर

‘यह ठीक है कि सांख्य दर्शन के कुछ सिद्धांत योग दर्शन का आधार हैं और बिना उनके ज्ञान के योग दर्शन पढ़ा व पढ़ाया नहीं जा सकता, परन्तु स्वयं योग दर्शन में भी बहुत से सिद्धांतों की विवेचना करने के पश्चात उनके प्रयोग वर्णित हैं। योग दर्शन को सांख्य दर्शन से पहले पढ़ने का विधान ऋषि दयानन्द ने इसलिए भी किया हो सकता है कि लोक में यह दर्शन सांख्य दर्शन से अधिक प्रसिद्धि को प्राप्त है।’

-स्वामी विवेकानंद परिव्राजक

हमें वेदान्त दर्शन अथवा ब्रह्म सूत्र अथवा उत्तर मीमांसा क्यों पढ़ना चाहिए?

-आचार्य सत्यजित आर्य  

उपनिषदों में ब्रह्म के लिए बहुत से शब्दों का प्रयोग हुआ है और वो शब्द परमात्मा से भिन्न वस्तुओं के भी हैं, जो शंका उत्पन्न करते है कि उक्त शब्द परमात्मा के लिए है या आत्मा के लिए है या जड़ वस्तुओं के लिए है। प्रारम्भ में तो, इस शास्त्र में अनेक शब्दों के वास्तविक अर्थ की विवेचना है। तर्कपूर्ण ढंग से यह विवेचना करना कि किसी शब्द का कोई विशेष अर्थ ही क्यों लेना चाहिए, इसका अन्य अर्थ क्यों नहीं हो सकता आदि ऊहापोह करके किसी एक निर्णय पर पहुंचना ही मीमांसा कहलाती है। बाद में यह दर्शन ईश्वर, मुक्ति के उपाय आदि की भी विवेचना करता है। आत्मा और परमात्मा के बारे में अनेक सिद्धांतों की चर्चा इस दर्शन में की गई है। एक अध्यात्मिक व्यक्ति के मन में जो प्रश्न व शंकाएं उठती हैं, उनके बारे में विस्तृत विवेचना इस दर्शन में मिलती है। इस दर्शन में उदाहरणार्थ उपनिषदों के अनेक प्रसंगों, वचनों व शब्दों को सांकेतिक करके विवेचना की गई है, इसलिए यदि व्यक्ति ने उपनिषदों को पहले पढ़ रखा हो, तो वह अधिक अच्छे से इस दर्शन को समझ सकता है।

वेदान्त शब्द का अर्थ है- वेदों का सार अथवा ज्ञान की पराकाष्ठा। वेदान्त दर्शन का भाष्य आचार्य शंकर ने अपने मतानुसार अद्वैतवाद परक किया है। वह इतना प्रसिद्धि को पा गया कि आज वेदान्त दर्शन को अद्वैतवाद का ही ग्रंथ माना जाने लगा है। बहुत से लोग मानते हैं कि इस शास्त्र में वेदों के अन्तिम भाग के कुछ मंत्र हैं। वास्तव में, वेदान्त दर्शन दर्शनों की शृंखला में एक अलग शास्त्र है। क्योंकि, वेदों में मुख्यता ईश्वर को ही समझाया गया है और यह शास्त्र भी ईश्वर की विशेष रूप से चर्चा करता है, इसलिए इस शास्त्र का ‘ब्रह्म सूत्र’ नाम बिलकुल ठीक है। इस शास्त्र में इस बात की भी चर्चा है कि किन प्रारम्भिक स्थितियों से गुजरने के बाद ही व्यक्ति को ब्रह्म के बारे में चर्चा समझ में आती है। जो व्यक्ति बताई गईं स्थितियों से नहीं गुजरे हैं, उनके लिए ब्रह्म के बारे में चर्चा बौद्धिक व्यायाम से पार जाकर अनुभूति का विषय कभी नहीं बन सकती।