सत्य
‘तर्क सच्चाई को प्रकट करने के लिए है, इसे बनाने के लिए नहीं।‘ – एडवर्ड डी बोनो का एक उद्धरण
‘झूठ अक्सर, जोर से और काफी देर तक बोला जाए तो, लोग आप पर विश्वास करेंगें।‘ – जोसेफ गोबेल्स का एक उद्धरण
–सत्य इस बात से कतई प्रभावित नहीं होता कि कितने लोग उससे सहमत हैं। आइए, इस बात को एक उदाहरण के माध्यम से समझते हैं। भूगोल वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। यह तथ्य हमारे मानने या न मानने से प्रभावित नहीं होता। सत्य को हमारे विश्वास की आवश्यकता नहीं है, बल्कि हमें अपनी प्रगति के लिए सत्य की आवश्यकता है।
– चलना तभी संभव है जब हम अपने पिछले पैर को उठाकर मजबूती से अपने सामने रखें। ठीक इसी तरह, हम प्रगति तभी कर सकते हैं, जब हम अपने झूठे विश्वासों से को छोड़कर सच्चाई को दृढ़ता से अपनाएं। सत्य को जानने के लिए हमें अपने विवेक का सर्वोत्तम उपयोग करना चाहिए। हमें अपने विवेक के स्तर को बढ़ाने के लिए वेदों के कुछ पन्नों को या ऋषियों, जो वेदों के विद्वान थे, के कार्यों को पढ़ना अपनी दिनचर्या में शामिल करना चाहिए।
– हमारे बीच एक आम धारणा है कि असत्य भाषण, अगर किसी दूसरे की भलाई के लिए किया जाता है तो वह सत्य के बराबर ही होता है। सच्चाई यह है कि हमारी असत्य वाणी दूसरे प्राणी को कुछ समय के लिए ही लाभ पहुंचा सकती है। यह समयावधि कुछ दिन या पूरे जीवनकाल तक की हो सकती है। अन्ततः, असत्य शब्द वक्ता के साथ-साथ दूसरे के लिए भी हानिकारक होते हैं। इसलिए, हमें हमेशा सच बोलना चाहिए और अपने असत्य भाषण को यह सोचकर सही नहीं ठहराना चाहिए कि दूसरे के लाभ के लिए बोला गया असत्य सत्य के बराबर ही है।
यदि हमारा बोलना हमारी भावनाओं से मेल खाता है और दोनों मूल प्रमाणों के अनुरूप हैं, तब और केवल तभी हम सच बोल रहे होते हैं।
– यह बात सभी को स्वीकार्य है कि सार्वभौमिक सत्य कभी नहीं बदलते। आध्यात्मिकता और भौतिक संसार दोनों के कुछ सार्वभौमिक सत्य हैं। अध्यात्म का अर्थ केवल ईश्वर से संबंधित मामले नहीं हैं, बल्कि इसके अंतर्गत ईश्वर के स्वामीत्व में रहने वाले अन्य प्राणियों और प्रकृति के साथ व्यवहार करना भी आता है। इसका अर्थ यह निकलता है कि परिवार, समाज, राष्ट्र और दुनिया में दूसरों के साथ कैसे व्यवहार किया जाए, इस बारे में सार्वभौमिक सत्य हैं। हमें सम्बन्धित सच्चाइयों का पता लगाना चाहिए और अपने परिवार, समाज, राष्ट्र और दुनिया की बेहतरी के लिए उन पर टिके रहना चाहिए। परिवार, समाज, राष्ट्र और दुनिया के दूसरे सदस्यों के साथ व्यवहार करने के बारे में सम्बन्धित सार्वभौमिक सत्यों को जानने का एकमात्र विश्वसनीय स्रोत वेद हैं।
-हर संप्रदाय किसी न किसी प्रकार की बुद्धि का परिणाम है और दो व्यक्तियों की बुद्धि हमेशा अलग होती है। इस कारण एक संप्रदाय की मान्यताएं दूसरे संप्रदाय की मान्यताओं से भिन्न होती हैं। सभी संप्रदायों के विश्वास सच्चे विश्वासों और झूठे विश्वासों का एक संयोजन हैं। यहाँ सच्ची मान्यताएँ से हम उन विश्वासों को लेते हैं, जो सभी स्थानों, परिस्थितियों और समय में सत्य रहते हैं। व्यक्ति को अपनी बुद्धि की सहायता से किसी संप्रदाय के सच्चे विश्वासों और झूठे विश्वासों के बीच अंतर करना होता है और किसी संप्रदाय की केवल सच्ची मान्यताओं का पालन करना होता है। जो लोग मानते हैं कि किसी भी विश्वास को पूरे समर्पण के साथ अपनाने से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है, वे गलत हैं, क्योंकि असत्य में पूर्ण समर्पण करके भी सत्य को प्राप्त करना संभव नहीं है। जैसे, यदि कोई व्यक्ति सोना प्राप्त करने की इच्छा से पूरे समर्पण के साथ कोयला-खादान को खोदना शुरू कर दे, तो उसे सोना नहीं मिल सकता, भले ही वह लाखों वर्षों तक खोदता रहे।
-जैसे व्यवसायी अपने उत्पादों के बारे में अच्छा ही बोलते हैं, वैसे ही हर सम्प्रदाय के प्रमुख का यह दावा होता है कि केवल उनके संप्रदाय की मान्यताएं ही सत्य हैं। ऐसी परिस्थितियों में, हर व्यक्ति का यह दायित्व बन जाता है कि वह अपनी बुद्धि के प्रयोग से सच्चे विश्वासों और झूठे विश्वासों के बीच अंतर करे। व्यक्ति की आत्मा उसे सच्चे विश्वासों और झूठे विश्वासों के बीच अंतर करने में मदद करती है, बशर्ते कि उसे ईश्वर की आवाज सुनने की आदत हो। ऐसा व्यक्ति अपने सम्प्रदाय की गलत मान्यताओं को छोड़कर दूसरे सम्प्रदाय की सच्ची मान्यताओं को अपनाने से नहीं हिचकिचाता।
-‘सत्य’ एक है। यह बुद्धि के उच्चतम स्तर को प्राप्त होने पर कहा जाता है। बुद्धियों के विभिन्न स्तरों को प्राप्त व्यक्तियों के लिए किसी चीज़ का सत्य भिन्न भिन्न हो सकता है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि, ‘सत्य’ गणितीय नहीं है, बल्कि यह व्यक्तियों की चेतना के स्तरों से प्रभावित होता है। हमारे ऋषियों द्वारा सुझाई किसी वस्तु की सत्यता को जानने के लिए आठ प्रकार के प्रमाणों की विधि इस समस्या का हल है। यदि कोई चीज आठ प्रमाणों की कसौटी पर खरी नहीं उतरती, तो वह असत्य है, भले ही वह वक्ता की भावनाओं से मेल खाती हो।
-हर सच सही नहीं होता। वह अनुचित भी हो सकता है। मान लीजिए, एक आदमी अपनी पत्नी की पिटाई कर रहा है, यह सच तो है, लेकिन सही नहीं है। हमें उस सत्य को प्राप्त करना है, जो सही भी हो। इसका सबसे अच्छा तरीका है-आधात्मिक्ता के सार्वभौमिक नियमों को जानना व अपने व्यवहार में उनको अपनाना।
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