संध्या के मंत्र व उनके अर्थ

शिखा-बन्धन का मंत्र

ओ३म भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात ।।

अर्थ -हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप प्राणों के प्राण, अर्थात सबको जीवन देने वाले, सब दुखों से छुड़ानेवाले, स्वयं सुखस्वरूप और अपने उपासकों को सुखों की प्राप्ति कराने वाले हैं। आप सकल जगत के उत्पादक, सूर्यादि प्रकाशकों के भी प्रकाशक, समग्र ऐश्वर्य के दाता वरण अथवा कामना करने-योग्य, सब क्लेशों को भस्म करने वाले, पूर्ण शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप सब देवों के देव और सबके आत्माओं के प्रकाशक हैं। हम आपका ध्यान करते हैं। आप हमारी बुद्धियों को उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव में प्रेरित कीजिए, अर्थात आप हमें सद्बुद्धि दीजिए।

विशेष विवरण– शिखा-बन्धन का विधान इसलिए है, ताकि सिर के बड़े-बड़े बाल सन्ध्या के समय बैठने में व्यवधान न डाल सकें। इस मंत्र का उच्चारण ईश्वर की श्रद्धापूर्वक उपासना करने के मानसिक संकल्प के रूप में भी किया जाता है।

आचमन का मंत्र

ओ३म शन्नो देवीरभिष्टयsआपो भवन्तु पीतये।

शंयोरभिस्रवन्तु नः।।

अर्थ– हे सर्वरक्षक, दिव्य गुणों से युक्त सर्वव्यापक परमेश्वर! आप मनोवाञ्छित सुख की प्राप्ति के लिए और पूर्णानन्द अर्थात मोक्ष-सुख की प्राप्ति के लिए तथा पूर्ण रक्षा के लिए हमारे लिए कल्याणकारी होवें, अर्थात आप हमारा कल्याण कीजिए और हम पर सुख की वर्षा कीजिए।

विधि– आचमन में दाएं हाथ की हथेली पर थोड़ा सा जल डालकर, हथेली के मूल से ओष्ठों द्वारा उस जल को पिया जाता है। जल उतना ही हो, जितना गले से ज्यादा नीचे न उतर पाए।    

विशेष विवरण – आचमन करने के दो कारण हैं- प्रथम तो यह कि जब सांसारिक धन्धों में फंसे हम किसी परमार्थ के काम को करने लगते हैं, तो दोनों अवस्थाओं को अलग करने के लिए आचमन के द्वारा ऐसी रेखा खींची जाती है, ताकि, उपासक के मन में यह भाव जगे कि वह अब संसार की कलहों से निकलकर शांति-धाम में प्रवेश करने लगा है। द्वितीय यह कि आचमन के द्वारा कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृति होती है, गला साफ हो जाता है और प्राणायाम आदि क्रियाओं का करना सुगम हो जाता है। आचमन करने से हमारे स्वास्थ्य पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है। महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि यदि जल उपलब्ध न हो तो आचमन न करें, परन्तु सन्ध्या करने में प्रमाद न करें।

इस मंत्र के उच्चरण से संध्या का प्रारम्भ किया जाता है। यह मंत्र मोक्ष-सुख के रूप में हमें अपना लक्ष्य बताता है। यह मंत्र हमें यह भी बताता है कि इस लक्ष्य की ओर बढ़ते हुए हमें केवल अपनी उन मनोकामनाओं को पूरा करना है, जिनमें सबका हित अन्तर्भावित हो।

अंगस्पर्श के मंत्र

विधि- जल के पात्र में से बाईं हथेली में जल लेकर दाएं हाथ की मध्यमा और अनामिका अँगुलियों से मंत्र उच्चारण के पश्चात जल से प्रथम दाएं और पश्चात बाएं भाग में इन्द्रिय-स्पर्श करें।

इस प्रकार इन्द्रियों का स्पर्श करने का अभिप्राय यह है कि हम इन्द्रयों का स्पर्श करने के साथ उनके स्वस्थ रहने की ईश्वर से याचना करते हैं।

ओ३म वाक वाक – इस मंत्र से मुख का दायां और बायां भाग,

ओ३म प्राणः प्राणः -इससे नासिका के दायां और बायां छिद्र,

ओ३म चक्षुः चक्षुः – इससे दायां और बायां नेत्र,

ओ३म श्रोत्रं श्रोत्रं – इससे दायां और बायां श्रोत्र,

ओ३म नाभिः – इससे नाभिः,

ओ३म हृदयम – इससे हृदय,

ओ३म कण्ठः – इससे कण्ठः,

ओ३म शिरः – इससे शिरः,

ओ३म बाहुभ्यां यशोबलम – इससे भुजाओं के मूल-स्कन्ध और

ओ३म करतलकरपृष्ठे – इस मंत्र से दोनों हाथों की हथेलियां एवं उनके पृष्ठ भाग

भावार्थ –हे सर्वरक्षक, परमेश्वर! आपकी कृपा से मेरा सारा शरीर स्वस्थ, यशवान और बलवान रहे।

विशेष विवरण – बीमारी की अवस्था में स्नान, ध्यान आदि क्रियाएं सम्भव नहीं हो पातीं। इस कारण यह कहा जा सकता है कि हमारी सभी मानसिक व पारमार्थिक क्रियाएं स्वस्थ शरीर के आधीन हैं। इसीलिए, इन मंत्रों में हम अपने शरीर के विभिन्न अवयवों के स्वास्थ्य के लिए परम शक्तिशाली परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं। परन्तु, हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यदि हम परमपिता के दरबार में किसी ऐसी प्रार्थना को लेकर जाते हैं, जिस की सिद्धि के लिए हम अपनी ओर से कुछ भी प्रयत्न नहीं करते, तो, हम परमात्मा को धोखा देने की चेष्टा करते हैं और पाप के भागी बनते हैं। इसलिए, अपने शरीर को स्वस्थ रखने की प्रार्थना तभी स्वीकार्य होती है, जब हम भी सच्चे साधक बनकर आयुर्वेद की आज्ञानुसार अपने जीवन को गुजरें और शारीरक व्याधि से बचने का हर भरसक प्रयत्न करें।

मनुष्य विद्युत शक्ति को देख नहीं सकता, परन्तु जब उसके कामों को देखता है, तो चकित रह जाता है। ऐसे ही एक पवित्रात्मा से उत्पन्न दृढ़ मानसिक इच्छा वह परिवर्तन कर सकती है, जो साधरण मनुष्य सोच भी नहीं सकता। इन्द्रिय स्पर्श मन्त्रों के द्वारा हम उस परमशक्तिशाली सूक्ष्म शक्ति को अपने शरीर की पुष्टि के लिए जागृत करते हैं, ताकि हम अपने शरीर का सही प्रयोजन प्राप्त कर सकें।  

मार्जन, अर्थात सफाई के मंत्र

विधि– मध्यमा और अनामिका अँगुलियों के अग्रभाग से नेत्रादि अङ्गों पर उनकी पवित्रता की  प्रार्थना के साथ जल छिड़कें। महर्षि दयानन्द जी ने लिखा है कि ऐसा करने से आलस्य दूर होता है, जो आलस्य और जल प्राप्त न हो, तो इस विधा को अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं।

ओ३म भूः पुनातु शिरसि – इस मंत्र से शिर पर,

ओ३म भुवः पुनातु नेत्रयोः – इससे दोनों नेत्रों पर,

ओ३म स्वः पुनातु कण्ठे – इससे कण्ठ पर,

ओ३म महः पुनातु हृदये – इससे हृदय पर,

ओ३म जनः पुनातु नाभ्याम – इससे नाभि पर,

ओ३म तपः पुनातु पादयोः – इससे दोनों पैरों पर,

ओ३म सत्यम पुनातु पुनः शिरसि – इससे पुनः शिर पर और 

ओ३म खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र -इससे सम्पूर्ण शरीर पर 

अर्थ -हे सत्यस्वरूप, अविनाशी भगवन, आकाश के समान सर्वव्यापक परमात्मा! मेरे सभी अङ्गों को पवित्र कर दो।

विशेष विवरण– दिन को अथवा रात को जो पाप हम करते हैं, उनसे हमारे चित्त पर मलिन संस्कार पड़ जाते हैं। कुछ समय तक तो यह मलिनता प्रतीत नहीं होती, परन्तु कुछ काल पश्चात चित्त पाप से अत्यन्त काला हो जाता है व हम चाहकर भी अच्छा काम नहीं कर सकते। यह ठीक वैसे ही है, जैसे दर्पण पर मिट्टी पड़ने पर कुछ काल तक तो उसकी चमक बनी रहती है, परन्तु उसके पश्चात वह मिट्टी से इतना गंदा हो जाता है कि हम उसमें अपना चेहरा भी नहीं देख पाते। दर्पण में मुख-दर्शन के लिए आवश्यक है कि उसकी मिट्टी को रोज झाड़ा जाए। मार्जन मंत्रों के द्वारा हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि वह हमारे पूरे शरीर को पवित्र करे, क्योंकि परमात्मा की सहायता के बिना पाप की शक्ति से बचना असम्भव है। 

जैसे बुरी सन्तान अपने पिता के लिए दुख का कारण बनती है, वैसे ही दुष्ट चिन्ताएं हमारे लिए दुख के साधन उत्पन्न करती हैं। इसीलिए, उस परमपिता परमात्मा से प्रार्थना की जाती है कि हम आँखों के द्वारा वेदों का पाठ करें, मोक्ष-शास्त्रों को पढ़े, ये आँखें कभी धर्म-विरुद्ध और पाप-जनक पुस्तकों के पाठ अथवा पराई स्त्रियों के दर्शन में न लगें, इन के द्वारा हम किसी पर क्रोध की दृष्टि न डालें, सदा प्रेम का भाव इनसे प्रकाशित हो, इन की सहायता से हम अन्धों और यात्रियों को सीधे रास्ते पर डालें, हमारे कानों में सदा मधुर और पवित्र शब्द पड़ते रहें, गन्दे गीत और दुष्ट वचन कर्णगोचर होकर हमारी आत्मा के संस्कारों को भ्रष्ट न करें, तुच्छता और नीचता के अंकुर हमारी हृदय-भूमि में कभी उत्पन्न न होवें, हमारा हृदय प्रत्येक स्थिति में विशाल रहे, हम आपकी बनाई चीजों के माध्यम से सदैव दूसरों के लिए हितकारक वस्तुओं का ही निर्माण करें, हम हर धर्म-विरुद्ध कार्य का विरोध करने वाले हों और हमारा मन आपके सत्यस्वरूप को जानने वाला हो। 

कईं लोगों का विचार है कि इन्द्रियां पाप का मूल हैं, इसलिए इनको नष्ट करना ही धार्मिक उन्नति का उपाय है। परन्तु, हमारे शरीर का हमारी मुक्ति का आवश्यक साधन होने के कारण इन इन्द्रियों को नष्ट करना गलत है। हमें पापाचरण में प्रवृत हुई इन्द्रियों को नष्ट करने के बजाए उनको धर्म के रास्ते पर चलाना होता है।

प्राणायाम के मंत्र

ओ३म भूः, ओ३म भुवः,  ओ३म स्वः,  ओ३म महः,  ओ३म जनः,  ओ३म तपः,  ओ३म सत्यम।।

अर्थ -हे परमेश्वर! आप प्राणों के प्राण हैं, आप सब प्रकार के दुखों को दूर करने वाले हैं, आप सुखस्वरूप हैं और सभी को सुख देने वाले हैं, आप सबसे महान, सबके पूज्य तथा एकमात्र उपासनीय हैं, आप समस्त संसार को उत्पन्न करने वाले हैं, आप दुष्टों को दण्ड देने वाले तथा ज्ञानस्वरूप हैं, आप सत्यस्वरूप और अविनाशी हैं। इन गुणों से युक्त हे परमात्मा! हम आपकी उपासना करते हैं।

विशेष विवरण–  प्राणायाम से कही जाने वाली वास्तविक क्रियाएं तो महर्षि पतञ्जलि प्रणीत ‘योग दर्शन’ पर ही आधारित है। जो क्रियाएं आज प्राणायाम के नाम से प्रचारित हैं, वे वास्तव में प्राणायाम न होकर साँस के व्यायाम हैं। इनका प्रयोजन शारीरिक मलों को ही नष्ट करना होता है। इनका आत्मा के उत्थान में कोई सीधा योगदान नहीं होता।

प्राणायाम नाम की क्रियाओं को दो भागों में बांटा जा सकता है – एक तो प्राण-वायु को अधिक से अधिक फेफड़ों में भरना और फिर उसे यथाशक्ति रोकना। गहरा साँस लेने से हम अधिक से अधिक वायु अपने फेफड़ों में भरते हैं। जो शुद्ध वायु हमारे अंदर जाती है, वह हमारे फेफड़ों की सतह पर एकत्रित हुए मलों को छिन्न-भिन्न कर देती है। गहरा साँस लेने से हमारे फेफड़ों की कार्य-क्षमता भी बढ़ती है। सामान्य साँस लेने में फेफड़ों के कईं भागों में तो वायु पहुंचती ही नहीं। वहां एकत्रित मल की निकासी न होने के कारण, वह मल कईं बिमारियों का कारण बन जाता है। ‘योग दर्शन’ में वर्णित प्राणायाम करने से पहले, तैयारी के रूप में साँस के व्यायामों को करना कोई गलत नहीं।

प्राणायाम का दूसरा भाग प्राणों को यथाशक्ति रोकना होता है। प्राणों को रोकने का प्रयोजन बतलाते हुए हमारे ऋषि कहते हैं कि इससे हमारा मन स्थिर व शान्त हो जाता है। इस तथ्य को हम जाँच सकते हैं। यदि आप प्राणायाम के बाद संध्या करते हैं तो,  आपको ओ३म का जाप करने का कुछ ओर ही आनन्द आता है और यदि आप प्राणायाम के बगैर संध्या करते हैं तो, चित्त एकाग्र नहीं होगा। ऋषि कहते हैं कि मन का साँस के साथ गहरा सम्बन्ध है। साँस की गति को सामान्य किए बगैर मन की चंचलता को कम नहीं किया जा सकता। यह ठीक वैसे ही है, जैसे भागते हुए किसी विशेष बात पर विचार कर पाना कठिन होता है। प्राणायाम मन को शान्त करता है और उसे हमारे वश में लाता है। प्राणायाम करने से पहले हमें ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि उसकी कृपा से हम प्राण को अपने वश में कर पाएं।

महर्षि मनु का कथन है कि जैसे आग में तपाने से सोना आदि धातुओं का मल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार प्राणायाम करने से मन आदि इन्द्रियों के दोष नष्ट हो जाते हैं। 

अघमर्षण मंत्रों का सूक्त

जब एक ही बात को वेद में एक से अधिक मंत्रों के माध्यम से कहा जाता है, तो, उन मंत्रों के समुच्चय को सूक्त कहा जाता है। किसी सूक्त के प्रथम मंत्र के साथ ही ओम शब्द का उच्चारण किया जाता है। 

ओ३म । ऋतं च सत्यं चाभीद्धात्तपसोsध्यजायत।

ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोsअर्णवः ।। १।।

समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोsअजायत।

अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ।। २ ।।

सूर्यचन्द्र्मसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ।। ३ ।।

अर्थ -हे परमेश्वर! आपके ज्ञानमय अनन्त सामर्थ्य से सत्य-ज्ञान के भण्डार वेद और सत्व-रज-तम-युक्त कार्यरूप प्रकृति पूर्व कल्प के समान उत्पन्न हुए। हे ईश्वर! आपके उसी सामर्थ्य से महाप्रलयरूप रात्रि उत्पन्न हुई। उसके पश्चात उसी ज्ञानमय सामर्थ्य से पृथ्वी और अंतरिक्ष में विद्यमान समुद्र उत्पन्न हुआ, अर्थात पृथ्वी से लेकर अन्तरिक्ष तक समस्त स्थूल पदार्थों की रचना हुई ।। १।।

-हे ईश्वर! आपने अन्तरिक्ष से पृथिवीस्थ समुद्र की रचना करने के पश्चात सवंत्सर, अर्थात क्षण, मुहूर्त, प्रहर, मास, वर्ष आदि काल की रचना की। आपने अपने सहज स्वभाव से दिन और रात्रि के विभागों, अर्थात घटिका, पल और क्षण आदि की रचना की ।। २।।

-हे परमेश्वर! आप जगत को उत्पन्न कर- धारण, पोषण और नियमन करने वाले हैं। आपने अपने अनन्त सामर्थ्य से सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रहों-उपग्रहों को,  द्युलोक को, पृथ्वीलोक को, अन्तरिक्षलोक को तथा ब्रह्माण्ड के अन्य लोक-लोकान्तरों, ग्रहों, उपग्रहों को तथा उन लोकों में सुख विशेष के पदार्थों को पूर्व सृष्टि के अनुसार ही इस सृष्टि में बनाया ।। ३।।

विशेष विवरण–  स्वामी जी ने इनको पाप से बचाने वाले मंत्र कहा है, परन्तु यह नहीं कहा कि ये पाप के दण्ड से बचाने वाले मंत्र हैं। इन मंत्रों में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है। जब हम इन मंत्रों के अर्थों पर विचार करते हैं, तो हमें परमात्मा की अनन्त शक्तियों का ध्यान आता है। अहंकार को पाप का मूल कहा जाता है। इतनी विशाल सृष्टि के सृजनकर्त्ता का चिन्तन करने से हमारा अहंकार नष्ट हो जाता है, जिससे हम पाप करने से बच जाते हैं।

पाप का अर्थ है, परमात्मा की आज्ञा के विरुद्ध चलना। यदि मैं चोरी करने लगूँ और उस समय यदि मेरा अधिकारी मेरे सामने आ जाए, तो क्या चोरी का विचार मेरे दिल से भाग नहीं जाएगा? इसी तरह परमात्मा की महानता को अनुभव करने से हम पाप नहीं कर पाते।

पापी और पुण्यात्मा में एक भेद है। वह यह कि पापी पाप करता जाता है और पाप के संस्कार को दूर करने का प्रयत्न नहीं करता, परन्तु पुण्यात्मा यदि कभी पाप कर बैठे, तो पश्चाताप करता है और आगे के लिए अपने मन को उस पाप के संस्कार से बचाने का प्रयत्न करता है।

हमारे प्रत्येक सांसारिक कर्म की छाप हमारे मन पर पड़ती है, जिन्हें संस्कार कह दिया जाता है। हमारे प्रत्येक कर्म, चाहे वह पाप हो या पुण्य, का फल अवश्य मिलता है। फल मिलने का समय ईश्वर की न्याय-व्यवस्था ही जानती है। पाप करते ही महात्मा जानता है कि उसके द्वारा किए गए पाप का संस्कार मन पर पड़ गया है और वह उसी क्षण से अपने मन की शुद्धि करना आरम्भ कर देता है, परन्तु पापी नहीं करता। ये मंत्र हमें पाप करने से बचाते हैं, जिससे हमारा मन गलत संस्कारों से बच जाता है।

हमारा मोहल्ला, शहर, देश, दुनिया और हमारा सौर-मंडल इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के आगे अत्यन्त तुच्छ हैं, तो फिर आप ही बताएं कि इस ब्रह्माण्ड-पति के सामने इस छोटे से मनुष्य की क्या औकात है?

ईश्वर पवित्र है, उसकी पवित्रता का चिन्तन करने से हम पवित्र बनते हैं। वह महान है, उसकी महानता का चिन्तन करने से हम महान बनते हैं। वह पापों से परे है, हमारे पापों को जानने वाला और उनकी सजा देने वाला है। उसका चिन्तन करने से हम अपने पापों की संख्या को न्यून करते जाते हैं।

इन मंत्रों में एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य का वर्णन है। ईश्वर ने इस सृष्टि को पहली बार नहीं रचा। सृष्टि की रचना करना ईश्वर का स्वभाव है। क्योंकि जो पदार्थ नित्य होता है, उसका स्वभाव भी नित्य ही होता है, इसलिए ईश्वर अनन्त सृष्टियों को पहले रच चुका है और भविष्य में भी अनन्त सृष्टियों की रचना करेगा। 

मंत्र

ओ३म शन्नो देवीरभिष्टयsआपो भवन्तु पीतये।

शंयोरभिस्रवन्तु नः।।

अर्थ -हे सर्वरक्षक, दिव्य गुणों से युक्त सर्वव्यापक परमेश्वर! आप मनोवाञ्छित सुख की प्राप्ति के लिए और पूर्णानन्द (मोक्ष-सुख) की प्राप्ति के लिए तथा पूर्ण रक्षा के लिए हमारे लिए कल्याणकारी होवें, अर्थात आप हमारा कल्याण कीजिए और हम पर सुख की वर्षा कीजिए।

यहां, इस मंत्र को दूसरी बार उच्चारित करने का विधान है। 

मनसा परिक्रमा के मंत्रों का सूक्त

ओ३म । प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। १।।

दक्षिणा दिगिन्द्रोsधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। २।।

प्रतीची दिग्वरुणोsधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ३।।

उदीची दिक् सोमोsधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ४ ।।

ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ५।।

ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ६।।

अर्थ – हे ज्ञानस्वरूप ईश्वर! हमारे सामने जो पूर्व दिशा है, उसके आप स्वामी हैं। आप बन्धनरहित और सब प्रकार से हमारी रक्षा करनेवाले हैं। सूर्य-किरणें, प्राण, ज्ञान, अथवा आपके नियम बाणों के तुल्य, अज्ञानान्धकार के नाशक तथा हमारे जीवन की रक्षा करने के साधन हैं।

हे ईश्वर! हम आपके इन गुणों को नमस्कार करते  हैं। जगत के स्वामी होने के कारण व हमारी सब भांति रक्षा करने के लिए हम आपको नमस्कार करते हैं। पापियों को पीड़ा देने के लिए हम आपको नमस्कार है।

जो कोई अज्ञान से हमसे द्वेष करता है व जिस किसी से अज्ञानवश हम द्वेष करते हैं, उस द्वेषभाव को हम आपके मुख, अर्थात न्याय-व्यवस्था में रखते हैं ।। १।। 

– हे परमैश्वर्ययुक्त जगदीश्वर! हमारे दाहिनी ओर जो दक्षिण दिशा है, आप उसके स्वामी हैं। तिर्यक योनियों के प्राणियों, अर्थात कीट, पतङ्ग, आदि से आप हमारी रक्षा करनेवाले हैं। माता-पिता और ज्ञानी लोग बाणों के तुल्य हमारे जीवन की रक्षा करने के साधन हैं।

शेष अर्थ पहले मंत्र के समान है ।। २।।

-हे सर्वोत्तम परमेश्वर! हमारे पीछे की ओर जो पश्चिम दिशा है, आप उसके स्वामी हैं। अजगर, सर्प आदि विषधारी व हिंसक प्राणियों से आप हमारी रक्षा करनेवाले हैं। भोज्य-पेय आदि पदार्थ एवं औषधियां बाणों के तुल्य हमारे जीवन की रक्षा करने के साधन हैं।

शेष अर्थ पहले मंत्र के समान है ।। ३।।

-हे जगदुत्पादक शान्ति और आनन्द देने वाले परमेश्वर! हमारे बाईं ओर जो उत्तर दिशा है, आप उसके स्वामी हैं। आप जन्म न लेने वाले और सबके रक्षक हैं। विद्युत आदि दिव्य शक्तियां बाणों के तुल्य हमारे जीवन की रक्षा करने के साधन हैं।

शेष अर्थ पहले मंत्र के समान है ।। ४ ।।

-हे सर्वव्यापक परमेश्वर! हमारे नीचे की ओर जो दिशा है, आप उसके स्वामी हैं। आप हमारे समस्त पापों, दुखों और दोषों को नष्ट करने वाले हैं। वृक्षादि, वनस्पतियों एवं औषधियों  के माध्यम से बाणों के तुल्य आप सतत हमारे जीवन की रक्षा करते हैं।

शेष अर्थ पहले मंत्र के समान है ।। ५।।

-हे वाणी, वेद-शास्त्र और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के स्वामी परमेश्वर! हमारे ऊपर की ओर जो दिशा है, आप उसके स्वामी हैं। हे ज्ञानमय परमात्मा! आप हमारे रक्षक हैं। वर्षा के बिन्दु बाण के तुल्य हैं, अर्थात जल, ज्ञान, आनन्द आदि के वर्षा-बिन्दु हमारे दुख और अज्ञान का नाश करके हमारे जीवन की रक्षा करते हैं।

शेष अर्थ पहले मंत्र के समान है ।। ६।।

विशेष विवरण–  किसी चीज की परिक्रमा करना उसका सम्मान करना समझा जाता है, परन्तु ईश्वर के सर्वव्यापक होने के कारण उसकी परिक्रमा करना असम्भव है। इन मंत्रों के माध्यम से हम ईश्वर की सत्ता का छहों दिशाओं में अनुभव करते हैं। प्रत्येक दिशा के स्वामी के रूप में, ईश्वर के छः अलग-अलग गुणों का वर्णन किया गया है।

जिस समय मनुष्य के हृदय में परमात्मा की सर्वव्यापकता की अनुभूति घर कर जाती है, तब सब पाप भाग जाते हैं और मनुष्य के जीवन में अदभुत परिवर्तन देखने को मिलता है। जिस मनुष्य ने ईश्वर की सर्वव्यापकता के तथ्य को स्वीकार कर लिया कि परमात्मा हर ओर विद्यमान रहकर हमारा रक्षक है, उसने बड़े-बड़े काम कर दिखाए।

संसार में ऐसे कईं लोग हैं, जो कोई कठिनाई आने पर ईश्वर से मुंह मोड़ लेते हैं। धार्मिक मनुष्य की चित्त-वृति ऐसी होनी चाहिए कि कि कठिन समय में परमात्मा से मुंह मोड़ने के बजाए और अधिक सहनशील बन जाए। इसके लिए आवश्यक है कि हम परमात्मा की इच्छा को अनुभव करने वाले बन पाएं और दुख को प्रसन्नता से सहें। हमारी दृष्टि बहुत छोटी होती है, हम यह समझ नहीं पाते कि अमुक दुख कैसे हमारे लिए कल्याणकारी है?

परमात्मा हमारी मां है और हम उस के बालक। पाप हमें खराब करना चाहता है, इससे बचने के लिए हमको अपनी माता की गोद में बैठना होगा। पाप से बचने का ओर कोई रास्ता नहीं है।

मनसा-परिक्रमा के मंत्रों के अन्तिम भाग का अर्थ करते हुए कहा जाता है- जो कोई अज्ञान से हमसे द्वेष करता है व जिस किसी से अज्ञानवश हम द्वेष करते हैं, उस द्वेषभाव को हम आपके मुख, अर्थात न्याय-व्यवस्था में रखते हैं। वेदों का एक सिद्धान्त है कि हम दूसरे के अपने प्रति द्वेष करने की भावना को अपनी प्रार्थना द्वारा मिटा नहीं सकते। इस सिद्धांत के साथ संगति लगाते हुए हम इन मंत्रों के इस भाग का अर्थ ऐसा कर सकते हैं- हमारे मन में दो तरह के संस्कार होते हैं। एक तो, इस जन्म में दूसरे प्राणियों के कारण दुख उठाए होने के कारण उन प्राणियों के प्रति हमारे मन में द्वेषज संस्कार होते हैं, दूसरे, पिछले जन्मों में अन्य प्राणियों के कारण दुख उठाए होने के कारण हमारे मन में उन प्राणियों के प्रति द्वेषज संस्कार होते हैं, हालाँकि पिछले जन्मों के संस्कारों में हमें प्राणी विशेष के बारे में पता नहीं होता। इन मंत्रों के इस भाग में इन दो तरह के संस्कारों को ईश्वरीय न्याय-व्यवस्था के सुपुर्द करने की बात की गई है। इस मंत्र का अर्थ कुछ विद्वान इस तरह भी करते हैं कि जब कोई हमारे प्रति अन्याय करता है, तो हमें अपने मन की प्रसन्नता यह विचार कर बनाए रखनी होती है कि जिस द्वेष से प्रेरित होकर किसी व्यक्ति ने हमारे प्रति अन्याय किया है, उसका न्याय ईश्वर करेगा।    

उपस्थान के मंत्रों का सूक्त

ओम । उद्वयन्तमसस्परि स्वः पश्यन्तsउत्तरम।

देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम ।। १।।

उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम ।। २।।

चित्रं देवनामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावापृथ्वी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ।। ३।।

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात ।। ४ ।। 

उपस्थान के इन मंत्रों में हम ईश्वर के पास बैठकर उसकी अनुभूति करते हैं। ईश्वर की अनुभूति के लिए संध्या के अब तक के मंत्रों में से गुजरना आवश्यक है।

अर्थ– हे परमेश्वर! आप सब अविद्या-अन्धकार से दूर वा पृथक रहने वाले, आनन्द एवं प्रकाशस्वरूप प्रलय के अनन्तर भी सदैव वर्त्तमान रहने वाले हैं। श्रद्धापूर्वक हम आपको देखते हैं, अर्थात आपका ध्यान करते हैं।

हे ईश्वर! आप देवों के भी देव, आनन्द और प्रकाश देने वालों को भी आनन्द और प्रकाश देने वाले, सम्पूर्ण जगत के उत्पादक, प्रकाशक और संचालन करने वाले, ज्ञान स्वप्रकाशस्वरूप और सर्वोत्तम हैं। हम आपकी ही शरण में है, इसलिए आप ही हमारे रक्षक हैं ।। १।।

विशेष विवरण– परमात्मा ज्ञान का भंडार है। उस पाप के अंधकार को दूर करने वाली ज्योति की अनुभूति हमें धीरे-धीरे ही होती है।

अर्थ– हे जगदुत्पादक व वेद-ज्ञान के जनक परमेश्वर! वेद की श्रुतियाँ तथा संसार की विभिन्न वस्तुएं व उनके नियम आपका ही ज्ञान कराते हैं ।। २।।  

विशेष विवरण– ईश्वर के वेद रूपी काव्य और उसके द्वारा रची इस सृष्टि में किसी तरह का विरोधाभास हो ही नहीं सकता। उसके द्वारा रची यह सृष्टि उसके वेद रूपी ज्ञान से अत्यन्त स्थूल है। ज्ञान प्राप्ति का एक तरीका यह है कि हम स्थूल वस्तुओं को समझते हुए सूक्ष्म वस्तुओं को समझने की योग्यता प्राप्त कर लें। इस तरीके को अपनाते हुए, हमें सृष्टि की स्थूल वस्तुओं को माध्यम बनाकर वेद की सूक्ष्मताओं को समझने का प्रयास करना चाहिए। ईश्वर की अनुभूति हृदय को शुद्ध करके ही की जा सकती है। स्वाध्याय और अच्छे लोगों का संग ईश्वर की अनुभूति के वास्तविक केतु हैं।

अर्थ– हे परमात्मा! आप पूज्य, कामना करने के योग्य तथा अद्भुत बल एवं प्रकाशस्वरूप, दिव्य स्वभाव वाले विद्वानों के सर्वोत्तम बल तथा अच्छी प्रकार आगे ले जाने वाले हैं। आप राग-द्वेष रहित, मित्रभाववाले उपासक के, सूर्यलोक और प्राण के, श्रेष्ठ वरणीय उपासक के उत्कृष्ट मार्गदर्शक और प्रकाशक हैं।

हे ईश्वर! आप सभी लोक-लोकान्तरों को बनाकर उनमें व्याप्त होकर धारण और रक्षण करनेवाले हैं। आप चेतन और स्थावर जगत के आत्मा, अर्थात उनका संचालन करने वाले हैं ।। ३।।

विशेष विवरण– हमारा शरीर हमारे प्राणों के आश्रित है। यदि यह हमारे अन्दर न हो, तो हम कुछ भी नहीं, ठीक ऐसे ही निस्स्वार्थी व्यक्ति का हाल होता है।

जिस तरह पत्थर पर मिट्टी का ढेला फैंकने से ढेला स्वयं टूट जाता है और पत्थर का कुछ बिगाड़ नहीं होता, ठीक ऐसे ही निस्स्वार्थी व्यक्ति का हाल होता है। 

लोहे के खींचे जाने के लिए आकर्षण-शक्ति का होना आवश्यक होता है। यदि लोहा और चुम्बक दूर-दूर हों, तो कोई असर प्रतीत नहीं होता, परन्तु यदि उन्हें नजदीक लाते जाएं, तो एक सीमा के पश्चात लोहा चुम्बक की तरफ आकृष्ट होना शुरु कर देता है। यदि इन दोनों  की दूरी ओर कम कर दें, तो  दोनों झट से मिल जाते हैं। यहीं स्थिति हमारी और परमात्मा की है। अपनी और परमात्मा की दूरी कम करने का तरीका है- अपनी शुद्धता को बढ़ाते जाना।  

अर्थ– हे सबके द्रष्टा व दिव्यगुण-कर्म-स्वभाव वाले विद्वानों के हितकारी परमेश्वर! आप सृष्टि से पूर्व, मध्य तथा पश्चात विद्यमान रहने वाले, शुद्धस्वरूप हैं। आपकी कृपा से हम सौ वर्षों तक आपको व जगत को देखें, सौ वर्षों तक प्राणों को धारण कर जीवित रहें, सौ वर्षों तक शास्त्रों और मङ्गल-वचनों को सुनें, सौ वर्षों तक आपके गुणों का उपदेश करें, सौ वर्षों तक अदीन अर्थात स्वतंत्र, स्वस्थ, समृद्ध और सम्मानित रहें व आपकी कृपा से ही सौ वर्षों के उपरान्त भी हम लोग देखें, जीवें, सुने, वेद-उपदेश करें और स्वाधीन रहें। हमारा मन सदैव पवित्र रहे ।। ४ ।।

विशेष विवरण– यहाँ सौ वर्षों तक जीवित रहने की कामना करने का अर्थ है, हमारा अपने सम्पूर्ण जीवनकाल में अपने अन्तिम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करते रहना। हमें सौ वर्षों तक शास्त्रों और मङ्गल-वचनों को सुनना ही नहीं, बल्कि उनके अनुरूप आचरण भी करना है। जिन चीजों के तत्वज्ञान को हमने जान लिया है, उनको हम दूसरों को भी बताएं।

इस मंत्र में कहा गया है कि वह परमात्मा हमारा सच्चा मार्गदर्शक व हमारे कर्मों का द्रष्टा ही नहीं, बल्कि वह अपने भक्तों का सहायक भी है। यह मंत्र हमें विश्वास दिलाता है कि यदि कभी हम मुसीबत में पड़ जाएं, तो हमें यह कदापि नहीं सोचना चाहिए कि कोई हमारी सहायता करने वाला नहीं है। हाँ! थोड़ी देर के लिए पाप की शक्ति प्रबल हो सकती है, परन्तु अन्त में जीत तो उसी की होती है, जो उसके रास्ते पर चलता है। उसके विरुद्ध चलने वाले की हमेशा पराजय ही होती है। यह मंत्र हमें यह भी बताता है कि इस पूरे विश्व की पवित्रतम वस्तु ईश्वर ही है और जब सांसारिक कार्य हमारे मन को दूषित कर देते हैं, तो उस समय परमात्मा ही हमारे मन को पवित्रता देने वाले होते हैं। यदि हम सौ साल तक जीवित नहीं रह पाते, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि हमारा जीवन वेदमय नहीं है और हमने वैदिक नियमों का पालन नहीं किया। यदि हम सौ वर्ष की आयु तो प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु सांसारिक इच्छाओं के गुलाम, एन्द्रिक सुखों के दास और विषयों में फंसे हुए हैं, तो एक असभ्य व्यक्ति अथवा पशु से बढ़कर नहीं हैं।

मंत्र

ओ३म भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात ।।

अर्थ -हे सर्वरक्षक परमेश्वर! आप प्राणों के प्राण, अर्थात सबको जीवन देने वाले, सब दुखों से छुड़ानेवाले, स्वयं सुखस्वरूप और अपने उपासकों को सुखों की प्राप्ति कराने वाले हैं। आप सकल जगत के उत्पादक, सूर्यादि प्रकाशकों के भी प्रकाशक, समग्र ऐश्वर्य के दाता वरण अथवा कामना करने-योग्य, सब क्लेशों को भस्म करने वाले, पूर्ण शुद्ध एवं प्रकाशस्वरूप सब देवों के देव और सबके आत्माओं के प्रकाशक हैं। हम आपका ध्यान करते हैं। आप हमारी बुद्धियों को उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव में प्रेरित कीजिए, अर्थात आप हमें सद्बुद्धि दीजिए।

यहां, इस मंत्र को दूसरी बार उच्चारित करने का विधान है। 

समर्पण वाक्य

हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृपयानेन

जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः ।।

अर्थ – हे ईश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से हम द्वारा किए गए इस कर्म से हम सदा सत्य-न्याय और परोपकार का आचरण करें, धर्मयुक्त कर्मों से सांसारिक सुख-प्राप्ति के पदार्थों को प्राप्त करें, धर्म और अर्थ से इष्ट भोगों  का सेवन करें, समस्त दुखों, दुष्कर्मों और दुर्जनों से मुक्त होकर सर्वदा आनन्द में रहें। इन सभी बातों को हम अतिशीघ्र व्यवहार में ला पावें।

मंत्र

ओम नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च ।।

अर्थ -हे मोक्ष-सुखस्वरूप तथा मोक्ष-सुख देनेवाले और अपने भक्तों के हितार्थ सभी सुखों को देने वाले परमेश्वर! हम आपको बारम्बार नमस्कार करते हैं।