वेद में धर्म का स्वरूप
मन्त्र
ओम् सं गच्छध्वं -से- उपासते।
-ऋग्वेद 10//191//2
अर्थ– हे मनुष्य लोगो! जो पक्षपातरहित न्याय सत्याचरण से युक्त धर्म है, तुम लोग उसी को ग्रहण करो, उससे विपरीत कभी मत चलो, किन्तु उसी की प्राप्ति के लिए विरोध को छोड़ के परस्पर सम्मति में रहो, जिससे तुम्हारा उत्तम सुख सब दिन बढ़ता जाए और किसी प्रकार का दुख न हो। तुम लोग विरुद्ध वाद को छोड़ के परस्पर प्रीति से प्रश्न उत्तर सहित संवाद करो, जिससे तुम्हारी सत्यविद्या नित्य बढ़ती रहे। तुमलोग अपने यथार्थ ज्ञान को नित्य बढ़ाते रहो, जिससे तुम्हारा मन प्रकाशयुक्त होकर पुरुषार्थ को नित्य बढ़ावे। जैसे पक्षपातरहित धर्मात्मा विद्वान् लोग वेदरीति से सत्यधर्म का आचरण करते हैं, उसी प्रकार से तुम भी करो।
विशेष विवरण– यहां इस मंत्र का यह भाव नहीं है कि सभी लोगों की सोच और व्यवहार बिल्कुल एक जैसे होने चाहिए। कर्मो की भिन्नता व कर्मफलों की भिन्नता के कारण यह सम्भव ही नहीं है कि सभी की सोच और व्यवहार एक जैसा हो। सोच और व्यवहार में समानता का अर्थ यहां केवल इतना है कि वह दूसरों की सोच व व्यवहार को काटने वाला अर्थात अहित करने वाला न हो। जब बात सत्य सिद्धांतों की हो, तो सबको एकमत होना ही चाहिए, अन्यथा हमारे सुखों में कमी होकर दुखों में वृद्धि होना निश्चित होता है।
मन्त्र
ओम् समानो -से- जुहोमि।
-ऋग्वेद 10//191//3
अर्थ– हे मनुष्य लोगो! जो तुम्हारा मन्त्र अर्थात सत्य असत्य का विचार है, वह समान हो, उसमें किसी तरह का विरोध न हो और जब-जब तुम लोग मिलके विचार करो, तब-तब सबके वचनों को अलग-अलग सुन के, जो-जो धर्मयुक्त और जिसमें सबका हित हो सो-सो सबमें से अलग करके (छांट करके), उसी का प्रचार करो, जिससे तुम सभी का सुख बराबर बढ़ता जाए। और जिसमें सब मनुष्यों का मान, ज्ञान, विद्याभ्यास, ब्रह्मचर्य आदि आश्रम, अच्छे-अच्छे काम, उत्तम मनुष्यों की सभा से राज्य का प्रबन्ध का यथावत करना और जिससे बुद्धि, शरीर, बल,पराक्रम आदि गुण बढ़ें तथा परमार्थ और व्यवहार शुद्ध हों, ऐसी जो उत्तम मर्यादा है, सो भी तुम लोगों की एक ही प्रकार की हो, जिससे तम्हारे सब श्रेष्ठ काम सिद्ध होते जाएं। हे मनुष्य लोगो! तुम्हारा मन भी आपस में विरोधरहित, अर्थात सब प्राणियों के दुख का नाश और सुख की वृद्धि के लिए अपने आत्मा के समतुल्य पुरुषार्थ वाला हो। जो तुम्हारा मन और चित्त हैं, ये दोनों सब मनुष्यों के सुख ही के लिए प्रयत्न में रहें। इस प्रकार से जो मनुष्य सबका उपकार करने और सुख देने वाले हैं, मैं उन्हीं पर सदा कृपा करता हूँ। सब मनुष्य मेरी इस आज्ञा के अनुकूल चलें, जिससे उनका सत्य धर्म बढ़े और असत्य का नाश हो। हे मनुष्य लोगो! जब-जब कोई पदार्थ किसी को देना चाहो, तब-तब धर्म से युक्त ही करो और उससे विरुद्ध व्यवहार को मत करो। यह बात निश्चय करके जान लो कि मैं सत्य के साथ तुम्हारा और तुम्हारे साथ सत्य का संयोग करता हूँ। इसलिए, तुम लोग इसी को धर्म मान के सदा करते रहो और इससे भिन्न को धर्म कभी मत मानो।
मन्त्र
अग्ने व्रतपते -से- सत्यमुपैमी
-यजुर्वेद 1/5
भाषार्थ– इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि सब मनुष्य लोग ईश्वर के सहाय की इच्छा करें, क्योंकि उसके सहाय के बिना धर्म का पूर्ण ज्ञान और उसका अनुष्ठान पूरा कभी नहीं हो सकता।
हे सत्यपते परमेश्वर! मैं जिस सत्यधर्म का अनुष्ठान किया चाहता हूँ, उसकी सिद्धि आपकी कृपा से ही हो सकती है। मुझ पर ऐसी कृपा कीजिए कि जिससे मैं सत्यधर्म का अनुष्ठान पूरा कर सकूँ। उस अनुष्ठान की सिद्धि करनेवाले एक आप ही हो। सो कृपा से सत्यरूप धर्म के अनुष्ठान को सदा के लिए सिद्ध कीजिए। सो यह व्रत है कि जिसको मैं निश्चय से चाहता हूँ। मैं सब असत्य कामों से छूट के सत्य के आचरण करने में सदा दृढ़ रहूँ।
परन्तु मनुष्य को यह करना उचित है कि ईश्वर ने मनुष्यों में जितना सामर्थ्य रखा है, उतना पुरुषार्थ अवश्य करें। उसके उपरान्त ईश्वर के सहाय की इच्छा करनी चाहिए। मनुष्यों में सामर्थ्य रखने का ईश्वर का यही प्रयोजन है कि मनुष्यों को अपने पुरुषार्थ से ही सत्य का आचरण अवश्य करना चाहिए। जैसे कोई मनुष्य आंख वाले पुरुष को ही किसी चीज को दिखला सकता है, अंधे को नहीं, इसी रीति से जो मनुष्य सत्यभाव पुरुषार्थ से धर्म को किया चाहता है, उस पर ईश्वर भी कृपा करता है, अन्य पर नहीं। ईश्वर ने धर्म करने के लिए बुद्धि आदि साधन जीव के साथ रखे हैं। जब जीव पूर्ण पुरुषार्थ करता है, तब परमेश्वर भी अपने सब सामर्थ्य से उस पर कृपा करता है, अन्य पर नहीं।
मन्त्र
ओम् सहृदयं -से- वाध्न्या।
-अथर्ववेद 3//30//1
अर्थ– सभी मनुष्य एक हृदय वाले तथा एक मन वाले हों। कोई भी किसी से द्वेष न करे। सभी एक दूसरे को ऐसे चाहें, जैसे गौ अपने नये उत्पन्न हुए बछड़े को चाहती है।
वेदों में बताए गए धर्म की चर्चा करते हुए महर्षि दयानन्द ने अपनी पुस्तक ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेदों के व वेदों के अनुरूप ऋषियों के ग्रंथों के अनेकों उद्धरण दिए हैं, परन्तु किसी भी उद्धरण में वर्ग विशेष, रंग, मत विशेष की चर्चा नहीं है, बल्कि मनुष्य मात्र की उन्नति के लिए आवश्यक गुणों, स्थितियों व वस्तुओं की ही चर्चा है। इससे यह बात प्रमाणित हो जाती है कि वैदिक धर्म मानवता का पर्याय है।
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