प्रश्न – भाग्य और पुरुषार्थ में क्या भेद है, दोनों में कौन बड़ा है?

उत्तर- दार्शनिक दृष्टि से भूतकाल में किये कर्मों का फल जाति, आयु, भोग के रूप में मिलना ‘भाग्य’ कहलाता है और जो वर्त्तमान में कर्म किये जा रहे हैं, वह ‘पुरुषार्थ’ कहलाता है। उस पूर्व जन्म में किये कर्मों के आधार पर ईश्वर ने हमें किसी देश के प्रान्त विशेष, नगर, गाँव विशेष के किसी परिवार विशेष में मनुष्य का जन्म दिया है, यह भाग्य है। माँ के पेट में बने शरीर, इन्द्रिय- गोलकों के आधार पर, पूर्व जन्मों के कर्मों के संस्कारों के आधार पर, जो जो कार्य करने का सामर्थ्य, बल, साधन आदि मिलते हैं, वे भी भाग्य के अन्तर्गत आते हैं।

भाग्य का दार्शनिक दृष्टि से उपर्युक्त स्वरूप ही है। किन्तु, कुछ व्यक्ति भाग्य शब्द की व्याख्या भिन्न प्रकार से करते हैं। वे ऐसा मानते हैं कि मनुष्य ने पूर्व जन्म में जो कर्म किये, उनका फल इस जन्म में मिलता है, उस फल में इस जन्म के किसी कर्म से कोई घट-बढ़ नहीं होती है। जितना जब जैसा मिलना होता है, उतना अवश्य मिलता है, चाहे कोई उससे बचने के लिये कुछ भी करे। इस जन्म का फल अगले जन्म में मिलता है और पिछले जन्म का इस जन्म में तथा इस जन्म का इसी जन्म में नहीं मिलता। यह मान्यता सर्वांश में ठीक नहीं है। कुछ ऐसा भी कहते हैं कि जो मिलना है, लिखा है, उसे कोई रोक नहीं सकता और जो नहीं मिलना लिखा है, उसे कोई किसी भी तरह प्राप्त नहीं कर सकता।