ओ३म

अथ ब्रह्मयज्ञः

यह पुस्तक नित्यकर्म विधि का है। इसमें पन्न्चमहायज्ञ का विधान है, जिनके ये नाम हैं कि-ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ और नृयज्ञ। उनके मन्त्र, मन्त्रों के अर्थ और जो-जो करने का विधान लिखा है, सो-सो यथावत् करना चाहिए। एकान्त देश में आत्मा, मन और शरीर को शुद्ध शान्त करके, उस-उस कर्म में चित्त लगा के, तत्पर होना चाहिए। इन नित्यकर्मों के फल ये हैं कि- ज्ञानप्राप्ति से आत्मा की उन्नति और आरोग्यता होने से, शरीर के सुख से व्यवहार और परमार्थ कार्य्यों की सिद्धि होना। उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये सिद्ध होते हैं। इनको प्राप्त होकर मनुष्यों को सुखी होना उचित है।

अत्र प्रमाणम्

अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति, मनः सत्येन शुध्यति।

विद्यातपोभ्यां भूतात्मा, बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।।

इत्याह मनुः – अ0 ५। श्लो0 १०९।।

भाषार्थ– अब सन्ध्योपासनादि पाँच महायज्ञों की विधि लिखी जाती है। और उसमें के मन्त्रों का अर्थ भी लिखा जाता है। पहले ‘सन्ध्या’ शब्द का अर्थ यह है कि – (सन्ध्यायन्ति0) भली भांति ध्यान करते हैं वा ध्यान किया जाये परमेश्वर का जिसमें, वह ‘सन्ध्या’। सो रात और दिन के संयोग समय दोनों सन्ध्याओं में सब मनुष्यों को परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए पहले बाह्य जलादि से शरीर की शुद्धि और राग द्वेष आदि के त्याग से भीतर की शुद्धि करनी चाहिए। क्योंकि मनु जी ने अध्याय ५ के १०९ श्लोक (अद्भिर्गात्राणि इत्यादि) में यह लिखा है कि शरीर जल से, मन सत्य से, जीवात्मा विद्या और तप से और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है। परन्तु शरीरशुद्धि की अपेक्षा अन्तः करण की शुद्धि सब को अवश्य करनी चाहिए, क्योंकि वही सर्वोत्तम और परमेश्वर प्राप्ति का एक साधन है।

तब कुशा वा हाथ से मार्जन करें, अर्थात् परमेश्वर का ध्यान आदि के समय किसी प्रकार का आलस्य न आवे, इसलिए शिर और नेत्र आदि पर जल प्रक्षेप करे। यदि आलस्य न हो तो न करना।

फिर कम से कम तीन प्राणायाम करें। अर्थात् भीतर के वायु को बल से निकाल कर यथाशक्ति बाहर ही रोक दें। फिर शनैः -शनैः ग्रहण करके कुछ चिर भीतर ही रोक के बाहर निकाल दे, और वहां भी कुछ रोके। इस प्रकार कम से कम तीन बार करें। इससे आत्मा और मन की स्थिति सम्पादन करें।  इसके अनन्तर गायत्री मन्त्र से शिखा को बांध के रक्षा करें। इसका प्रयोजन यह है कि इधर-उधर केश न गिरें, सो यदि केशादि पतन न हो तो न करे। और रक्षा करने का प्रयोजन यह है कि परमेश्वर प्रार्थित होकर सब भले कामों में सदा सब जगह में हमारी रक्षा करें।

अथाचमनमन्त्रः

ओं शन्नो देवीरभिष्टयsआपो भवन्तु पीतये।

शंयोरभिस्रवन्तु नः।।

– यजु० अ० ३६ मं० १२

भाषार्थ– अब आचमन करने का मन्त्र लिखते हैं- (ओं शन्नो देवी इत्यादि)। इसका अर्थ यह है कि – ‘आप्लृ व्याप्तौ’ इस धातु से अप् शब्द सिद्ध होता है। वह सदा स्त्रीलिंग और बहुवचनान्त है। ‘दिवु’ धातु अर्थात् जिसके क्रीड़ा आदि के अर्थ हैं, उससे देवी शब्द सिद्ध होता है। (देवीः आपः) सब का प्रकाशक, सब को आनन्द देने वाला और सर्वव्यापक ईश्वर, (अभिष्टये) मनोवान्न्छित आनन्द के लिए, और (पीतये) पूर्णानन्द की प्राप्ति के लिए, (नः) हम को (शम्) कल्याणकारी (भवन्तु) हो, अर्थात् हमारा कल्याण करे। वही परेश्वर (नः) हम पर (शंयोः) सुख की (अभिस्रवन्तु) सर्वथा वृष्टि करे।

यहां ‘अप्’ शब्द से ईश्वर के ग्रहण करने में प्रमाण- (यत्र लोकांश्च0) जिसमें सब लोक लोकान्तर, कोश अर्थात् सब जगत् का कारण रूप खजाना, जिसमें असत् अदृश्यरूप आकाशादि और सत् स्थूल प्रकृत्यादि सब पदार्थ स्थित हैं, उसी का नाम अप् है। और वह नाम ब्रह्म का है, तथा उसी को स्कम्भ कहते हैं। वह कौन सा देव और कहां है? इसका यह उत्तर है कि जो (अन्तः) सब के भीतर व्यापक होके परिपूर्ण हो रहा है, उसी को तुम उपास्य, पूज्य और इष्टदेव जानो। इस वेदमन्त्र के प्रमाण से अप् नाम ब्रह्म का है।

इस प्रकार इस मन्त्र से परमेश्वर की प्रार्थना करके तीन आचमन करें, यदि जल न हो तो न करें। आचमन से गले के कफादि की निवृत्ति होना प्रयोजन है।

अथेन्द्रियस्पर्श

ओं वाक् वाक् । ओं प्राणः प्राणः ओं चक्षुः चक्षुः । ओं श्रोत्रं श्रोत्रं। ओं नाभिः । ओं हृदयम । ओं कण्ठः । ओं शिरः । ओं बाहुभ्यां यशोबलम । ओं करतलकरपृष्ठे ।।

 

अथेश्वर प्रार्थनापूर्वकमार्जनमन्त्राः

ओं भूः पुनातु शिरसि । ओं भुवः पुनातु नेत्रयोः । ओं स्वः पुनातु कण्ठे । ओं महः पुनातु हृदये । ओं जनः पुनातु नाभ्याम । ओं तपः पुनातु पादयोः । ओं सत्यम पुनातु पुनः शिरसि । ओं खं ब्रह्म पुनातु सर्वत्र ।।

अर्थ प्राणायाममन्त्राः

ओं भूः। ओं भुवः। ओं स्वः। ओं महः। ओं जनः। ओं तपः। ओं सत्यम।।

-तैत्त० प्रपा० १०। अनु० ७१।।

भाषार्थ– अथेन्द्रियस्पर्शः- (ओं वाक् वागित्यादि)। इस प्रकार से ईश्वर की प्रार्थनापूर्वक इन्द्रियों का स्पर्श करें। इसका अभिप्राय यह है कि ईश्वर की प्रार्थना से सब इन्द्रिय बलवान् रहें।

अब ईश्वर की प्रार्थनापूर्वक मार्जन के मन्त्र लिखे जाते हैं- (ओं भूः पुनातु शिरसीत्यादि)। ओंकार, भूः भुवः और स्वः इनके अर्थ गायत्री मन्त्र के अर्थ में देख लेना। (महः) सब से बड़ा और सब का पूज्य होने से परेश्वर को मह कहते हैं। (जनः) सब जगत् के उत्पादक होने से परमेश्वर का जन नाम है। (तपः) दुष्टों को संतापकारी और ज्ञानस्वरूप होने से ईश्वर को तप कहते हैं, क्योंकि ‘यस्येत्यादि’ उपनिषद् का वाक्य इसमें प्रमाण है। (सत्यम्) अविनाशाी होने से परमेश्वर का सत्य नाम है। और व्यापक होने से ब्रह्म नाम परमेश्वर का है। अर्थात् पूर्व मन्त्रोक्त सब नाम परमेश्वर ही के हैं।

इस प्रकार ईश्वर के नामों के अर्थों का स्मरण करते हुए मार्जन करें।

अब प्राणायाम के मन्त्र लिखते हैं- (ओं भूरित्यादि)। इनके उच्चारण और अर्थ विचारपूर्वक पूर्वोक्त प्रकार के अनुसार प्राणायामों को करें।

अथाघमर्षणमन्त्राः

ओं ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात तपसोsध्यजायत।

ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रोsअर्णवः ।। १।।

समुद्रादर्णवादधि संवत्सरोsअजायत।

अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी ।। २ ।।

सूर्यचन्द्र्मसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत।

दिवं च पृथिवीं चान्तरिक्षमथो स्वः ।। ३ ।।

 

भाषार्थ- अब अघमर्षण- अर्थात् हे ईश्वर! तू जगदुत्पादक है, इत्यादि स्तुति करके पाप से दूर रहने के उपदेश के मन्त्र लिखते हैं- (ओं ऋतञ्च   सत्यमित्यादि)। इनका अर्थ यह है कि-

(धाता) सब जगत् का धारण और पोषण करने वाला और (वशी) सब को वश करने वाला परमेश्वर, (यथापूर्वम्) जैसा कि उसके सर्वज्ञ विज्ञान में जगत् के रचने का ज्ञान था, और जिस प्रकार पूर्वकल्प की सृष्टि में जगत् की रचना थी, और जैसे जीवों के पुण्य पाप थे, उनके अनुसार ईश्वर ने मनुष्यादि प्राणियों के देह बनाये हैं। (सूर्याचन्द्रमसौ) जैसे पूर्व कल्प में सूर्य चन्द्रलोक रचे थे, वैसे ही इस कल्प में भी रचे हैं। (दिवम्) जैसा पूर्व सृष्टि में सूर्यादि लोकों का प्रकाश रचा था, वैसा ही इस कल्प में भी रचा है। तथा (पृथिवीम्) [भूमि] जैसी प्रत्यक्ष दीखती है, (अन्तरिक्षम्) जैसा पृथिवी और सूर्यलोक के बीच में पोलापन है, (स्वः) जितने आकाश के बीच में लोक हैं, उनको (अकल्पयत्) ईश्वर ने रचा है। जैसे अनादिकाल से लोक लोकान्तर को जगदीश्वर बनाया करता है, जैसे ही अब भी बनाये हैं और आगे भी बनावेगा, क्योंकि ईश्वर का ज्ञान विपरीत कभी नहीं होता, किन्तु पूर्ण और अनन्त होने से सर्वदा एकरस ही रहता है, उसमें वृद्धि, क्षय और उलटापन कभी नहीं होता, इसी कारण से ‘यथापूर्वमकल्पंयत्’ इस पद का ग्रहण किया है।

(विश्वस्य मिषतः) उसी ईश्वर ने सहजस्वभाव से जगत् के रात्रि, दिवस, घटिका, पल और क्षण आदि को जैसे पूर्व थे वैसे ही (विदधत्) रचे हैं। इसमें कोई ऐसी शंका करे कि ईश्वर ने किस वस्तु से जगत् को रचा है? उसका उत्तर यह है कि (अभीद्धात् तपसः) ईश्वर ने अपने अनन्त सामर्थ्य से सब जगत् को रचा है। जो कि ईश्वर के प्रकाश से जगत् का कारण प्रकाशित और सब जगत् के बनाने की सामग्री ईश्वर के आधीन है। (ऋतम्) उसी अनन्त ज्ञानमय सामर्थ्य से सब विद्या का खजाना वेद शास्त्र को प्रकाशित किया, जैसा कि पूर्व सृष्टि में प्रकाशित था। और आगे के कल्पों में भी इसी प्रकार से वेदों का प्रकाश करेगा। (सत्यम्) जो त्रिगुणात्मक अर्थात् सत्त्व, रज और तमोगुण से युक्त है, जिसके नाम अव्यक्त, अव्याकृत, सत्, प्रधान (और) प्रकृति हैं, जो स्थूल और सूक्ष्म जगत् का कारण है, सो भी (अध्यजायत) अर्थात् कार्यरूप होके पूर्व कल्प के समान उत्पन्न हुआ है। (ततो रात्र्यजायत) उसी ईश्वर के सामर्थ्य से जो प्रलय के पीछे हजार चतुर्युगी के प्रमाण से रात्रि कहाती है, सो भी पूर्व प्रलय के तुल्य ही होती है। इसमें ऋग्वेद का प्रमाण है कि- ‘जब-जब विद्यमान सृष्टि होती है, उसके पूर्व सब आकाश अन्धकारकरूप रहता है, और उसी अन्धकार में सब जगत् के पदार्थ और सब जीव ढके हुए रहते हैं, उसी का नाम महारात्रि है।’ (ततः समुद्रो अर्णवः) तदनन्तर उसी सामर्थ्य से पृथिवी और मेघ मण्डल में जो महासमुद्र है, सो भी पूर्व सृष्टि के सदृश ही उत्पन्न हुआ है।

(समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत) उसी समुद्र की उत्पत्ति के पश्चात् संवत्सर अर्थात् क्षण, मुहूर्त्त, प्रहर आदि काल भी पूर्व सृष्टि के समान उत्पन्न हुआ है। वेद से लेके पृथिवी पर्यन्त जो यह जगत् है, सब ईश्वर के नित्य सामर्थ्य से ही प्रकाशित हुआ है, और ईश्वर सब को उत्पन्न करके, सब में व्यापक होके, अन्तर्यामी रूप से सब के पाप पुण्यों को देखता हुआ, पक्षपात छोड़ के सत्य न्याय से सब को यथावत् फल दे रहा है। ।। १-३।।

ऐसा निश्चित जान के ईश्वर से भय करके सब मनुष्य को उचित है कि मन, कर्म और वचन से पापकर्मों को कभी न करें। इसी का नाम अघमर्षण है, अर्थात् ईश्वर सब के अन्तः करण के कर्मों को देख रहा है, इससे पाप कर्मों का आचरण मनुष्य लोग सर्वथा छोड़ देवें।

भाषार्थ- ‘शन्नो देवीरिति’ इस मन्त्र से (पुनः) तीन आचमन करे। तदनन्तर गायत्र्यादि मन्त्रों के अर्थ विचारपूर्वक परमेश्वर की स्तुति, अर्थात् परमेश्वर के गुण और उपकार का ध्यान कर, पश्चात् प्रार्थना करे। अर्थात् सब उत्तम कामों में ईश्वर का सहाय चाहे, और सदा पश्चात्ताप करे कि मनुष्य शरीर धारण करके हम लोगों से जगत् का उपकार कुछ भी नहीं बनता। जैसा ईश्वर ने सब पदार्थों की उत्पत्ति करके सब जगत् का उपकार किया है वैसे हम लोग भी सब का उपकार करें। इस काम में परमेश्वर हम को सहाय करे कि जिससे हम लोग सब को सदा सुख देते रहें।

तदनन्तर ईश्वर की उपासना करें, सो दो प्रकार की है-एक सगुण और दूसरी निर्गुण। जैसे ईश्वर सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, चेतन, व्यापक, अन्तर्यामी, सब का उत्पादक, धारण करने हारा, मङ्गलमय, शुद्ध, सनातन, ज्ञान और आनन्दस्वरूप है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष पदार्थों का देने वाला, सब का पिता, माता, बन्धु, मित्र, राजा और न्यायाधीश है। इत्यादि ईश्वर के गुण विचारपूर्वक उपासना करने का नाम सगुणोपासना है।

तथा निर्गुणोपासना इस प्रकार से करनी चाहिए कि ईश्वर अनादि अनन्त है, जिसका आदि और अन्त नहीं। अजन्मा, अमृत्यु जिसका जन्म और मरण नहीं। निराकार, निर्विकार जिसका आकार और जिसमें कोई विकार नहीं। जिसमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द, अन्याय, अधर्म, रोग, दोष, अज्ञान और मलीनता नहीं है। जिसका परिमाण, छेदन, बन्धन, इन्द्रियों से दर्शन, ग्रहण और कम्पन नहीं होता। जो हृस्व, दीर्घ और शोकातुर कभी नहीं होता। जिसको भूख, प्यास, शीतोष्ण, हर्ष और शोक कभी नहीं होते। जो उलटा काम, कभी नहीं करता, इत्यादि जो जगत् के गुणों से ईश्वर को अलग जान के ध्यान करना, वह निर्गुणोपासना कहाती है।

इस प्रकार प्राणायम करके, अर्थात् भीतर के वायु को बल से नासिका के द्वारा बाहर फेंक के, यथाशक्ति बाहर ही रोक के पुनः धीरे धीरे भीतर लेके, पुनः बल से बाहर फेंक के रोकने से मन और आत्मा को स्थिर करके, आत्मा के बीच में जो अन्तर्यामीरूप से ज्ञान और आनन्दस्वरूप व्यापक परमेश्वर है, उसमें अपने आप को मग्न करके, अत्यन्त आनन्दित होना चाहिए। जैसा गोताखोर जल में डुबकी मार के शुद्ध होके बाहर आता है, वैसे ही सब जीव लोग अपने आत्माओं को शुद्ध ज्ञान आनन्दस्वरूप व्यापक परमेश्वर में मग्न करके नित्य शुद्ध करें।

अथ मनसापरिक्रमामन्त्राः

ओं प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। १।।

दक्षिणा दिगिन्द्रोsधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। २।।

प्रतीची दिग्वरुणोsधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ३।।

उदीची दिक् सोमोsधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ४ ।।

ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ५।।

ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः। तेभ्यो नमोsधिपतिभ्यो नमो रक्षतृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु। यो३स्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।। ६।।

-अथर्व० का० ३। सू०२७ मं०१-६

भाषार्थ- (प्राची दिगग्निरधिपतिः) जो प्राची दिक् अर्थात् जिस ओर अपना मुख हो (तथा जिस ओर सूर्य उदय हो) उस ओर अग्नि जो ज्ञानस्वरूप अधिपति, जो सब जगत् का स्वामी, (असितः) बन्धनरहित, (रक्षिता) सब प्रकार से रक्षा करने वाला, (आदित्या इषवः) जिसके बाण आदित्य की किरण हैं। उन सब गुणों के अधिपति ईश्वर के गुणों को हम लोग बारम्बार नमस्कार करते हैं। (रक्षितभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु) जो ईश्वर के गुण और ईश्वर के रचे पदार्थ जगत् की रक्षा करने वाले हैं, और पापियों को बाणों के समान पीड़ा देने वाले हैं, उनको हमारा नमस्कार हो। इसलिए कि जो प्राणी अज्ञान से हमारा द्वेष करता है, और जिस अज्ञान से धार्मिक पुरुष का तथा पापी पुरुष का हम लोग द्वेष करते हैं, उन सब की बुराई को उन बाणरूप किरण मुखरूप के बीच में दग्ध कर देते हैं कि जिससे किसी से हम लोग वैर न करें, और कोई भी प्राणी हम से वैर न करे, किन्तु हम सब लोग परस्पर मित्रभाव से वर्तें।। १।।

(दक्षिणा दिगिन्द्रोऽधिपतिः) जो हमारे दाहिनी ओर दक्षिण दिशा है, उसका अधिपति इन्द्र अर्थात् जो पूर्ण ऐश्वर्य वाला है। (तिरश्चिराजी रक्षिता) जो जीव कीट पतङ्ग वृश्चिक आदि तिर्य्यक् कहाते हैं, उनकी राजी जो पंक्ति है, उनसे रक्षा करने वाला एक परमेश्वर है। (पितर इषवः) जिसकी सृष्टि में ज्ञानी लोग बाण के समान हैं। (तेभ्यो नमो0) आगे का अर्थ पूर्व के समान जान लेना।। २।।

(प्रतीची दिग् वरुणोऽधिपतिः) जो पश्चिम दिशा अर्थात् अपने पृष्ठ भाग में है, उसमें वरुण जो सब से उत्तम सब का राजा परमेश्वर है, (पृदाकू रक्षितान्नमिषवः) जो बड़े-बड़े अजगर सर्पादि विषधारी प्राणियों से रक्षा करने वाला है। जिसके अन्न अर्थात् पृथिव्यादि पदार्थ बाणों के समान हैं, (जो) श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों की ताड़ना के निमित्त हैं। (तेभ्यो नमो0) इसका अर्थ पूर्व मन्त्र के समान जान लेना। ।।३।।

(उदीची दिकृ सोमोऽधिपतिः) जो अपनी बाई ओर उत्तर दिशा है, उसमें सोम नाम से अर्थात् शान्त्यादि गुणों से आनन्द करने वाले जगदीश्वर का ध्यान करना चाहिए। (स्वजो रक्षिताऽशनिरिषवः) जो अच्छी प्रकार अजन्मा और रक्षा करने वाला है। जिसके बाण विद्युत हैं। (तेभ्यो नमो0) आगे पूर्ववत् जान लेना। ।।४।।

(ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः) ध्रुवा दिशा अर्थात् जो अपने नीचे की ओर है, उसमें विष्णु अर्थात् व्यापक नाम से परमात्मा का ध्यान करना। (कल्माषग्रीवो रक्षिता वीरुध इषवः) जिसके हरित रंगवाले वृक्षादि ग्रीवा के समान हैं। जिसके बाण के समान सब वृक्ष हैं। उनसे अधोदिशा में हमारी रक्षा करे। (तेभ्यो नमो.) आगे पूर्ववत् जान लेना।।। ५।।

(ऊर्द्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः) जो अपने ऊपर दिशा है, उसमें बृहस्पति जोकि वाणी का स्वामी परमेश्वर है, उसको अपना रक्षक जानें। जिसके बाण के समान वर्षा के बिन्दु हैं, उनसे हमारी रक्षा करे। (तेभ्यो0) आगे पूर्ववत् जान लेना।।६।।

अथोपस्थानमन्त्राः

ओम् । उद्वयन्तमसस्परि स्वः पश्यन्तsउत्तरम।

देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम ।। १।।

– यजु० अ० ३५ मं० १४

भाषार्थ- अब उपस्थान के मन्त्रों का अर्थ करते हैं जिनसे परमेश्वर की स्तुति और प्रार्थना की जाती है-

हे परमेश्वर! (तमसस्परि स्वः) सब अन्धकार से अलग प्रकाश स्वरूप, (उत्तरम्) प्रलय के पीछे वर्त्तमान (देवं देवत्रा) देवों में भी देव अर्थात् प्रकाश करने वालों में प्रकाशक, (सूर्यम्) चराचर के आत्मा (ज्योतिरुत्तमम्) ज्ञान स्वरूप और सब से उत्तम आप को जान के (वयम् उदगन्म) हम लोग सत्य से प्राप्त हुए हैं। हमारी रक्षा करनी आपके हाथ है, क्योंकि हम लोग आपके शरण हैं।।१।।

उदु त्यं जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः। दृशे विश्वाय सूर्यम ।। २।।

– यजु० अ० ३३ मं० ३१

भाषार्थ- (उदुत्यं0)। (जातवेदसं) जिससे ऋग्वेदादि चार वेद प्रसिद्ध हुए हैं, और जो प्रकृत्यादि सब भूतों में व्याप्त हो रहा है, जो सब जगत् का उत्पादक है, सो परमेश्वर जातवेदा नाम से प्रसिद्ध है। (देवम्) जो सब देवों का देव, और (सूर्यम्) सब जीवादि जगत् का प्रकाशक है। (त्यम्) उस परमात्मा को (दृशे विश्वाय), विश्वविद्या की प्राप्ति के लिए हम लोग उपासना करते हैं। (उद्वहन्ति केतवः) ‘केतवः- अर्थात् वेद की श्रुति और जगत् के पृथक्-पृथक् रचनादि नियामक गुण उसी परेश्वर को जनाते और प्राप्त कराते हैं। उस विश्व के आत्मा अन्तर्यामी परमेश्वर ही की हम उपासना सदा करें, अन्य किसी की नहीं।।२।।

चित्रं देवनामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावापृथ्वी अन्तरिक्ष सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च स्वाहा ।। ३।।

– यजु० अ० ७ मं० ४२

भाषार्थ- (चित्र देवाना0)। (सूर्य्य आत्मा0) प्राणी और जड़ जगत् का जो आत्मा है, उसको सूर्य कहते हैं। (आप्रा द्या0) जो सूर्य और अन्य सब लोकों को बनाके धारण और रक्षण करने वाला है, (चक्षुर्मित्रस्य) जो मित्र अर्थात् रागद्वेषरहित मनुष्य तथा सूर्यलोक और प्राण का चक्षु प्रकाश करने वाला है, (वरुणस्या0) सब उत्तम कामों में जो वर्त्तमान मनुष्य प्राण अपान और अग्नि का प्रकाश करने वाला है, (चित्रं देवानां) जो अद्भुतस्वरूप विद्वानों के हृदय में सदा प्रकाशित रहता हैं, (अनीकम्) जो सकल मनुष्यों के सब दुःख नाश करने के लिए परम उत्तम बल है, वह परमेश्वर (उदगात्) हमारे हृदयों में यथावत् प्रकाशित रहे।। ३।।

तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात ।। ४ ।। 

– यजु० अ० ३६ मं० २४ 

भाषार्थ– (तच्चक्षुर्देवहितम्) जो ब्रह्म सब का द्रष्टा धार्मिक विद्वानों का परम हितकारक, तथा (पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्) सृष्टि के पूर्व, पश्चात् और मध्य में सत्यस्वरूप से वर्त्तमान रहता और सब जगत् का करने वाला है। (पश्येम शरदः शतम्) उसी ब्रह्म को हम लोग सौ वर्ष पर्य्यन्त देखें। (जीवेम शरदः शतम्) जीवें, (शृणुयाम शरदः शतम्) सुनें, (प्रब्रवाम शरदः0) उसी ब्रह्म का उपदेश करें, (अदीनाः स्याम0) और उस की कृपा से किसी के आधीन न रहें। (भूयश्च शरदः शतात्) उसी परमेश्वर की आज्ञापालन और कृपा से सौ वर्षों के उपरान्त भी हम लोग देखें, जीवें, सुनें, सुनावें और स्वतन्त्र रहें।

अर्थात् आरोग्य शरीर, दृढ़ इन्द्रिय, शुद्ध मन और आनन्द सहित हमारा आत्मा सदा रहे। यही एक परमेश्वर सब मनुष्यों का उपास्यदेव है। ‘जो मनुष्य इसको छोड़ के दूसरे की उपासना करता है, वह पशु के समान होके सब दिन दुःख भोगता रहता है’।। ।।

इसलिए प्रेम में अत्यन्त मग्न होके, अपने आत्मा और मन को परमेश्वर में जोड़ के, इन मन्त्रों से स्तुति और प्रार्थना सदा करते रहें।

अथ गुरूमन्त्रः

ओ३म भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।

धियो यो नः प्रचोदयात ।।

भाषार्थ- अथ गुरुमन्त्रः (ओम् भूर्भुवः स्वः)। जो अकार उकार और मकार के योग से ‘ओम्’ यह अक्षर सिद्ध है, सो यह परमेश्वर के सब नामों में उत्तम नाम है, जिसमें सब नामों के अर्थ आ जाते हैं। जैसा पिता पुत्र का प्रेम सम्बन्ध है, वैसे ही ओंकार के साथ परमात्मा का सम्बन्ध है। इस एक नाम से ईश्वर के सब नामों का बोध होता है।

जैसे अकार से- (विराट्) जो विविध जगत् का प्रकाश करने वाला है। (अग्निः) जो ज्ञानस्वरूप और सर्वत्र प्राप्त हो रहा है। (विश्वः) जिसमें सब जगत् प्रवेश कर रहा है, और जो सर्वत्र प्रविष्ट है। इत्यादि नामार्थ अकार से जानना चाहिए।

उकार से- (हिरण्यगर्भः) जिसके गर्भ में प्रकाश करने वाले सूर्य्यादि लोक हैं, जो प्रकाश करने हारे सूर्य्यादिलोकों का अधिष्ठान है। इससे ईश्वर को ‘हिरण्यगर्भ’ कहते हैं। हिरण्य के नाम ज्योति, अमृत और कीर्तिं हैं। (वायुः) जो अनन्त बलवाला और सब जगत् का धारण करने हारा है। (तैजसः) जो प्रकाशस्वरूप और सब जगत् का प्रकाशक है। इत्यादि अर्थ उकारमात्र से जानना चाहिए।

तथा मकार से- (ईश्वरः) जो सब जगत् का उत्पादक, सर्वशक्तिमान् स्वामी और न्यायकारी है। (आदित्यः) जो नाशरहित है। (प्राज्ञः) जो ज्ञानस्वरूप और सर्वज्ञ है। इत्यादि अर्थ मकार से समझ लेना। यह संक्षेप से ओंकार का अर्थ किया गया।

अब संक्षेप से महाव्याहृतियों का अर्थ लिखते हैं‘ (भूरिति वै प्राणः) जो सब जगत् के जीने का हेतु, और प्राण से भी प्रिय है, इससे परमेश्वर का नाम ‘भूः’ है। (भुवरित्यपानः) जो मुक्ति की इच्छा करने वालों, मुक्तों और अपने सेवक धर्मात्माओं को सब दुःखों से अलग करके सर्वदा सुख में रखता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है। (स्वरिति व्यानः) जो सब जगत् में व्यापक होके सब को नियम में रखता, और सब का ठहरने का स्थान तथा सुखस्वरूप है, इससे परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है। यह व्याहृतियों का संक्षेप से अर्थ लिख दिया।

अब गायत्री मन्त्र का अर्थ लिखते हैं- (सवितुः) जो सब जगत् का उत्पन्न करने हारा और ऐश्वर्य्य का देने वाला है, (देवस्य) जो सब के आत्माओं का प्रकाश करने वाला और सब सुखों का दाता है, उसका (वरेण्यम्) जो अत्यन्त ग्रहण करने के योग्य, (भर्गः) शुद्ध विज्ञान स्वरूप है, (तत्) उसको (धीमहि) हम लोग सदा प्रेम भक्ति से निश्चय करके अपने आत्मा में धारण करें। किस प्रयोजन के लिए? कि (यः) जो पूर्वक्त सविता देव परमेश्वर है, वह (नः) हमारी (धियः) बुद्धियों को (प्रचोदयात्) कृपा करके सब बुरे कामों से अलग करके सदा उत्तम कामों में प्रवृत्त करे।

इसलिए सब लोगों को चाहिए कि सत् चित् आनन्दस्वरूप, नित्यज्ञानी, नित्यमुक्त, अजन्मा, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, व्यापक, कृपालु, सब जगत् के जनक और धारण करने हारे परमेश्वर ही की सदा उपासना करें, कि जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जो मनुष्यदेह रूप वृक्ष के चार फल हैं, वे उसकी भक्ति और कृपा से सर्वथा सब मनुष्यों को प्राप्त हों। यह गायत्री मन्त्र का अर्थ संक्षेप से हो चुका।

अथ समर्पणम्

                हे ईश्वर दयानिधे! भवत्कृप्याऽनेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।

भाषार्थ- इस प्रकार से सब मन्त्रों के अर्थों से परमेश्वर की सम्यक उपासना करके आगे समर्पण करें- कि हे ईश्वर दयानिधे! आपकी कृपा से जो-जो उत्तम काम हम लोग करते हैं, वे सब आपके अर्पण हैं। जिससे हम लोग आपको प्राप्त होके धर्म- जो सत्य, न्याय का आचरण करना है, अर्थ- जो धर्म से पदार्थों की प्राप्ति करना है, काम- जो धर्म और अर्थ से इष्ट भोगों का सेवन करना है, और मोक्ष- जो सब दुःखों से छूटकर सदा आनन्द में रहना है, इन चार पदार्थों की सिद्धि हम को शीघ्र प्राप्त हो।

इसके पीछे ईश्वर को नमस्कार करें-

ओं नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय शिवतराय च।।

– यजु० अ० १६ मं० ४१

भाषार्थ- (नमः शम्भवाय च) जो सुखस्वरूप (मयोभवाय च) संसार के उत्तम सुखों का देने वाला, (नमः शंकराय च) कल्याण का कर्त्ता, मोक्षस्वरूप, धर्मयुक्त कामों को ही करने वाला, (मयस्कराय च) अपने भक्तों को सुख का देने वाला और धर्म कामों में युक्त करने वाला, (नमः शिवाय च शिवतराय च) अत्यन्त मङ्गलस्वरूप और धार्मिंक मनुष्यों को मोक्ष सुख देने हारा है, उसको हमारा बारम्बार नमस्कार हो।।

इति सन्ध्योपासनविधिः।।

अथाग्निहोत्रसन्ध्योपासनयोः प्रमाणानि

सायंसायं गृहपतिर्नो अग्निः प्रातःप्रातः सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधि वयं त्वेन्धानास्तन्वं

पुषेम।।१।।

प्रातः प्रातर्गृहपतिर्नो अग्निः सायंसायं सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधीन्धानास्त्वा शतहिमा ऋधेम।। २ ।।

                                                                                -अथर्व. कां. १९। सू0 ५५। मं. ३, ४।।

तस्माद् ब्रह्मणोऽहोरात्रस्य संयोगे सन्ध्यामुपास्ते। स ज्योतिष्या ज्योतिषो दर्शनात् सोऽस्याः कालः, सा

सन्ध्या। तत् सन्ध्यायाः सन्ध्यात्वम् ।। ३।।

                                                                                -षड्विंश ब्रा0 प्रपा0 ४। खं. ५।।

उद्यन्तमस्तं यन्तमादित्यमभिध्यययन् कुर्वन् ब्राह्मणो विद्वान् सकलं भद्रमश्नुते।। ४।।

                                -तैत्तिरीय आ0 २। प्रपा0 २। अनु. २।।

(पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत् सावित्रीमार्कदर्शनात्। पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्षविभावनात् ।। ५।।)

न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यश्च पश्चिमाम्। स शूद्रवद् बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः।। ६।।

                                                -मनु0 अ0 २। श्लो0 [१0१], १0३।।

भाषार्थ- (सायं-सायं0) यह हमारा गृहपति अर्थात् घर और आत्मा का रक्षक भौतिक अग्नि और परमेश्वर प्रतिदिन प्रातःकाल और सायंकाल श्रेष्ठ उपासना को प्राप्त होके (सौमनसस्य दाता) जैसे आरोग्य और आनन्द का देने वाला है उसी प्रकार उत्तम से उत्तम वस्तु का देने वाला है। इसी से परमेश्वर (वसुदानः) वसु अर्थात् धन का देने वाला प्रसिद्ध है। हे परमेश्वर! इस प्रकार आप मेरे राज्य आदि व्यवहार और चित्त में प्रकाशित रहिये। तथा इस मन्त्र में अग्निहोत्र आदि करने के लिए भौतिक अग्नि भी ग्रहण करने योग्य है। (वयं त्वे0) हे परमेश्वर! पूर्वोक्त प्रकार से हम आपको प्रकाश करते हुए अपने शरीर को (पुषेम) पुष्ट करें। इसी प्रकार भौतिक अग्नि को प्रज्वलित करते हुए सब संसार की पुष्टि करके पुष्ट हों।।१।।

(प्रातः प्रातर्गृहपतिर्नो0) इस मन्त्र का अर्थ पूर्व मन्त्र के तुल्य जानो। परन्तु यह विशेष है कि- अग्निहोत्र और ईश्वर की उपासना करते हुए हम लोग (शतहिमाः) सौ हेमन्त ऋतु बीत जायें जिन वर्षों में, अर्थात् सौ वर्ष पर्यन्त (ऋधेम) धनादि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त होते रहें। और पूर्वोंक्त प्रकार से अग्निहोत्रादि कर्म करके हमारी हानि कभी न हो, ऐसी इच्छा करते हैं।।२।।

(तस्माद् ब्रह्मणो0) ब्रह्म का उपासक मनुष्य रात्रि और दिवस के सन्धि समय में नित्य उपासना करे। जो प्रकाश और अप्रकाश का संयोग है, वहीं सन्ध्या का काल जानना। और उस समय में जो सन्ध्योपासन की ध्यान क्रिया करनी होती है, वही सन्ध्या है। और जो एक ईश्वर को छोड़ के दूसरे की उपासना न करनी तथा सन्ध्योपासन कभी न छोड़ देना, इसी को सन्ध्योपासन कहते हैं।।३।।

(उद्यन्तमस्तं यन्त0) जब सूर्य्य के उदय और अस्त का समय आवे, उसमें नित्य प्रकाशस्वरूप आदित्य परमेश्वर की उपासना करता हुआ, ब्रह्मोपासक ही मनुष्य सम्पूर्ण सुख को प्राप्त होता है। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि दो समय में परमेश्वर की नित्य उपासना किया करें।।४।।

इसमें मनुस्मृति की भी साक्षी है कि दो घड़ी रात्रि से लेके सूर्य्योदय पर्य्यन्त प्रातः सन्ध्या और सूर्य्यास्त से लेकर तारों के दर्शन पर्य्यन्त सायंकाल में सविता अर्थात् सब जगत् की उत्पत्ति करने वाले परमेश्वर की उपासना गायत्र्यादि मन्त्रों के अर्थ विचारपूर्वक नित्य करें।। ५।।

(न तिष्ठति तु0) जो मनुष्य नित्य प्रातः और सायं सन्ध्योपासन को नहीं करता, उसको शूद्र के समान समझ कर द्विजकुल से अलग करके शूद्रकुल में रख देना चाहिए। वह सेवाकर्म किया करे, और उसके विद्या का चिन्ह् यज्ञोपवीत भी न रहना चाहिए। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि सब कामों से इस काम को मुख्य जानकर पूर्वोक्त दो समयों में जगदीश्वर की उपासना नित्य करते रहें।।६।।

इत्यग्निहोत्रसन्ध्योपासनप्रमाणानि।।