प्रार्थना के मायने
-‘प्रार्थना’ हमारे जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समाज में, इसके बारे में बहुत सी गलत धारणाएं घर कर गई हुई हैं। इसलिए, यह अति-आवश्यक हो जाता है कि इसके सही प्रारूप को प्रकाशित किया जाए। इसके सही प्रारूप को समझने के लिए कृपया निम्नलिखित बातों को विचारें:
-क्या प्रार्थना की विषय-वस्तु में किसी तरह की सीमाएं होती हैं?
-प्रार्थना किससे करनी चाहिए?
-क्या जब हम दूसरे के सहाय के लिए प्रार्थना करते हैं तो, हमें स्वयं कुछ नहीं करना होता?
-सुनिश्चित करने के लिए कि हमारी प्रार्थना जल्द प्रभावी हो, हमें क्या करना चाहिए?
पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिए परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को प्रार्थना कहते हैं। जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है, उसको स्वयं भी इच्छित वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिये अर्थात जैसे, सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करे, उसके लिये जितना अपने से प्रयत्न हो सके, उतना किया करे। अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त की गई प्रार्थना ही स्वीकार्य होती है। जैसे- दूसरे व्यक्ति उस व्यक्ति की सहायता कभी नहीं करते, जो दूसरों से तो धन की याचना करे पर अपना जमा किया धन न निकाले।
-एक निट्ठले व्यक्ति की सहायता कोई नहीं करता। अपनी क्षमता और सामर्थ्य के अनुसार किसी चीज़ को प्राप्त करने के लिए हर संभव प्रयास करने के पश्चात ही व्यक्ति, उस चीज़ को प्राप्त करने के लिए ईश्वर की कृपा प्राप्त करने का अधिकार अर्जित करता है। यह तथ्य सांसारिक जीवन में भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति दस लाख रुपये की लागत का घर खरीदना चाहता है और उसके लिए अपने सभी संसाधनों जैसे, निवेश, ऋण, सावधि जमा, बचत आदि का उपयोग करके वह आठ लाख रुपये की व्यवस्था कर पाता है। उसके बाद यदि वह शेष दो लाख रुपये के लिए अपने रिश्तेदारों से मदद के लिए संपर्क करता है, तो उसके रिश्तेदार उसकी मेहनत को देखकर अपनी क्षमता के अनुसार स्वेच्छा से मदद करेंगे। लेकिन, अगर, इसके बजाय, वह अपने रिश्तेदारों से उनकी मदद के लिए संपर्क करता है और यह कहता है कि वह अपने निवेश को बेचना नहीं चाहता, सावधि जमा में उसके द्वारा रखी गई राशि को वापस नहीं लेना चाहता, अपनी बचत वगैरह का उपयोग नहीं करना चाहता, तो कोई भी रिश्तेदार मदद नहीं करेगा। इस संबंध में एक अंग्रेजी की कहावत भी है, “ईश्वर उन्हीं की मदद करता है, जो खुद की मदद करते हैं”।
–प्रार्थना किससे करनी चाहिए?- सबसे पहले, हम जिस चीज के लिए प्रार्थना करना चाहते हैं, उसका महत्त्व समझना होता है। उसके पश्चात हमारे विश्वास का पर्याप्त कारण होना चाहिए कि जिससे हम प्रार्थना करने जा रहे हैं, उसमें उस प्रार्थना की पूर्ति का सामर्थ्य है। उदाहरण- यह हमारी बहुत बड़ी भूल होगी यदि, हम किसी व्यक्ति से 1000 /- रुपये के सहाय की आशा कर रहे हैं और वह व्यक्ति केवल 100 /- रुपये देने में ही समर्थ है। ईश्वर जैसा समर्थ ओर कोई नहीं। भौतिक पदार्थों के लिए भी ईश्वर से ही प्रार्थना करनी उचित है।
-किसी चीज की कमी महसूस होने पर ही प्रार्थना की जाती है। प्रार्थना उसी से की जाती है, जिसके पास वह चीज़ प्रचुरता में हो और वह उस चीज़ को देने के लिए तैयार हो। ईश्वर सभी जीवित व निर्जीव वस्तुओं का स्वामी है। पूरे ब्रह्माण्ड का नियन्ता होने के कारण, सभी सांसारिक चीजों के अतिरिक्त गैर-सांसारिक चीजों के लिए भी ईश्वर से ही प्रार्थना की जाती है। आज की प्रचलित प्रार्थनाएं एक अरबपति से एक रुपया मांगने के समान है। इस प्रकार की प्रार्थनाएं न केवल मांगने वाले की मूर्खता को दर्शाती हैं, बल्कि देने वाले के प्रति अनादर भी दर्शाती हैं। ईश्वर से केवल विवेक, तेज, दुखों को सहन करने की शक्ति, कर्तव्यों को जानने की बुद्धि, जीवन से सभी बीमारियों को दूर करने की शक्ति, ऋषियों द्वारा दिखाए गए मार्ग से सभी सांसारिक और गैर-सांसारिक चीजों को प्राप्त करने की क्षमता, सभी के कल्याण की चाह, मन से सभी बुरे विचारों को दूर करने की शक्ति, सत्य को जानने की शक्ति और मोक्षानन्द को प्राप्त करने की शक्ति को ही मांगना चाहिए।
-एक चरवाहा ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था, “हे ईश्वर! मैंने अपने पशुओं को चराने के लिए जंगल में छोड़ दिया है। मैं उन पर लगातार नजर रख रहा हूं। जब भी, वे किसी अन्य क्षेत्र में जाने की कोशिश करते हैं या सीमा से बाहर जाने की कोशिश करते हैं, तो मैं उन्हें ऐसा करने से रोकता हूं। इसी प्रकार, हे ईश्वर! हम भी आपके द्वारा बनाई गई प्रकृति का भोग कर रहे हैं। हम आपको देख नहीं पा रहे, लेकिन आप हमें लगातार देख रहे हैं। कृपया, जब भी हम गलत रास्ते पर चलने की कोशिश करें, तो हमें बचाएं।”
-यदि ईश्वर से प्रार्थना में हम किसी ऐसे व्यक्ति के लिए क्षमा मांगते हैं, जिसने गलत किया है, तो वास्तव में हम प्रार्थना नहीं कर रहे होते, बल्कि ईश्वर को सुझाव दे रहे होते हैं। ईश्वर को सुझाव देना वास्तव में उसका अनादर करना है, क्योंकि हम केवल उन्हीं को सुझाव देते हैं, जिन्हें हम अपने से कम जानने वाला समझते हैं। यदि हम ईश्वर से किसी प्रयास को सफल बनाने के लिए अनुरोध करते हैं, तो हम उसे निर्देशित करके उसका अपमान कर रहे होते हैं, क्योंकि निर्देश केवल अपने अधीन कार्य करने वाले व्यक्तियों को ही दिए जाते हैं।
-प्रार्थना से ईश्वर हमें हमारे न्यायोचित कर्मफल से कदापि नहीं बचा सकता। परन्तु, प्रार्थना के आधार पर, हममें न्यायोचित कर्मफल को आसानी से भोगने का सामर्थ्य पैदा हो जाता है।
किसी अन्य द्वारा प्रार्थना करने पर व्यक्ति का मंगल या अमंगल नहीं हो सकता। यह, कर्म-फल सिद्धान्त, जिसके अनुसार फल उसी को मिलता है जिसने कर्म किया हो, के विरुद्ध है।
– अन्यों द्वारा, हमारे मंगल या अमंगल के लिए की गई प्रार्थना हमारे कर्म-फलों को तो नहीं बदल सकती। हाँ, हमारे मन को अच्छा या बुरा सोचने को प्रेरित अवश्य कर सकती है। यह तो सभी मानते हैं कि हमारे कर्म-फल किसी ओर के कर्मों द्वारा बदले नहीं जा सकते, तो इस मान्यता ने कैसे अपना पैर जमा लिया कि दूसरों द्वारा की गई प्रार्थना, हमारे दुखों को कम कर सकती है? दूसरों के भले के लिए की गई प्रार्थना से यह लाभ अवश्य होता है कि प्रार्थना-कर्त्ता का हृदय, ओर अधिक निर्मल हो जाता है। यह हमें हृदयंगम कर लेना चाहिए कि अन्यों द्वारा की गई अमंगल कामनाओं के बावजूद हम अच्छा कर सकते हैं।
-ऐसा क्यों होता है कि हमारे पूरे मनोयोग से ईश्वर से प्रार्थना करने पर भी हमें वांछित फल की प्राप्ति नहीं होती अथवा बहुत समय बाद होती है? वस्तुतः ईश्वर हमारी उन्हीं प्रार्थनाओं को स्वीकार करता है, जिनके अनुरूप हमने पहले कर्म किए होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि ईश्वर हमारी उन प्रार्थनाओं को स्वीकार नहीं कर सकता, जिनके अनुरूप हमने कर्म ही नहीं कर रखे। परन्तु, जैसे ही हम उचित मात्रा में अपनी प्रार्थना के अनुरूप कर्म कर चुकते हैं, वैसे ही हमारी प्रार्थना स्वीकार हो जाती है। इसलिए, उचित है की हमारा कर्माशय पुण्य कर्मों से भरा हुआ हो, ताकि, जब भी हम उचित प्रार्थना करें, वह तुरन्त स्वीकार हो जाए।
-यह आम सुनने में आता है कि ईश्वर दिल से निकली हुई प्रार्थना को ही सुनता है। वस्तुतः, अपनी योग्यता के अनुरूप पुरुषार्थ करने के उपरान्त ही प्रार्थना दिल से निकलती है। इस बात को एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए, आप कहीं जाने का रास्ता पूछते फिर रहे हैं। आपने अपने सामर्थ्य के अनुसार बहुत से लोगों से ठीक रास्ता जानने की कोशिश की है, पर आप उनकी गलत-बयानी से थक चुके हैं। अब, जब आप किसी से रास्ता बताने की प्रार्थना करेंगे, तो वो प्रार्थना निश्चित रूप से आपके दिल से निकलेगी।
यहां कही बातों को विश्लेषणात्मक बुद्धि से जांचा जा सकता है।
-प्रार्थना से इच्छित सहाय की प्राप्ति तो होती है, इससे हमारे मन में एक भावना का उदय होता है कि कोई दूसरी सत्ता है, जो मेरे से अधिक शक्तिशाली है और जो मेरी सहायता कर सकती है। ऐसी भावना हमसे अहंकार को दूर कर देती है व हममें नम्रता प्रदान करने के साथ-साथ हममें अच्छे कार्यों को करने में उत्साह का संचार करती है। हम कह सकते हैं कि ईश्वर से प्रार्थना करने पर हमें तीन फलों की प्राप्ति होती है। पहला फल– इच्छित सहाय की प्राप्ति, दूसरा फल– हमारे अहंकार का नाश होके हममें नम्रता आना और तीसरा फल– हममें उत्साह का संचार होना।
-क्या प्रार्थना करने की सीमाएं भी होती हैं? – पहली सीमा– प्रार्थना का उद्देश्य किसी को हानि पहुंचाना नहीं, बल्कि, दूसरों का हित करना होना चाहिए। दूसरी सीमा– हमारी प्रार्थना में सृष्टि-नियमों के विरुद्ध जाने की इच्छा कदापि नहीं होनी चाहिए। उदाहरणार्थ- किसी मृतक को जिलाने की प्रार्थना करना सृष्टि-नियमों के विरुद्ध होने से व्यर्थ है।
–दूसरों की प्रार्थना से हम अपने दुखों से कदापि नहीं छूट सकते।
यदि, दूसरों की प्रार्थना से हम अपने दुखों से छूट सकते होते तो, यह मानने के कोई मायने नहीं होते कि हमें हमारे हर कर्म का फल अवश्य मिलता है। प्रार्थना करने से दूसरों के दुखों का दूर होना, उस संस्कृति की मान्यता है, जो कर्मफल व्यवस्था के सत्य को नहीं समझती। कर्मफल सिद्धांत के अनुसार, जब दूसरे के भले की चाहना, उस दूसरे के किसी कर्म-स्वरूप किसी तरह की संतुष्टि प्राप्त करने पर निकलती है, तब उस दूसरे का पुण्य अर्जन हो जाता है, जिसका सुखद फल उसे भविष्य में मिलेगा।
– क्योंकि, बुद्धि की महत्ता हमारे शरीर से अधिक है, तो, जब प्रार्थना रुपी पुरुषार्थ में हमारा शरीर, बुद्धि व मन जुड़ जाता है, उस स्थिति में की गई प्रार्थना बहुत असरदार हो जाती है।
जब किसी दूसरे के अच्छे के लिए प्रार्थना करते हैं, तो, हमारे खुद का अहंकार नष्ट हो जाता है और हम वास्तविक उन्नति की तरफ बढ़ जाते हैं।
– अगर हमें सबसे उत्कृष्ट सत्ता से कुछ मांगने का अवसर मिलता है, तो हमें उससे कुछ ऐसा मांगना चाहिए, जो हमारे सभी दुखों को दूर कर सके। हमारे सभी दुखों को दूर करने के लिए जरूरी चीज है, विवेक। ईश्वर से विवेक की ही मांग करनी चाहिए। जब हम विवेक से अच्छे कर्म करते हैं, तो हमें सुख प्राप्त होता है। सर्वोत्तम प्रार्थना वही है, जिसमें हम सर्वोत्तम विवेक के लिए अनुरोध करते हैं।
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