प्रश्न – परिवार, समाज, राष्ट्र में अनेक बार यह प्रतिदिन देखने में आता है कि लोग चोरी, मिलावट, दुराचार आदि अनैतिक पाप कर्मों को करके झूठ बोलकर बदनामी से बच जाते हैं, हानि, दण्ड से बच जाते हैं, मुकदमा जीत जाते हैं । फिर यह कैसे माना जाय कि झूठ बोलने से लाभ नहीं होता है। यदि झूठ बोलने से लाभ, बचाव नहीं होता तो लोग क्यों झूठ बोलते?
उत्तर- यह बात यहाँ पर पुनः ध्यान देने की है कि कर्मों का फल अन्तिम रूप में ईश्वर ही देता है, मनुष्य नहीं। समाज में अधार्मिक, पापी व्यक्ति छल, कपट, हिंसा आदि बुरे कर्मों को करके उसको स्वीकार करने से होने वाले हानि या दण्ड से बचना चाहता है। इसका सरल उपाय झूठ दीखता है। यह ठीक है कि व्यक्ति झूठ से अपने दोषों को छुपा लेता है, किन्तु उपाय सार्वकालिक नहीं है, अपितु तात्कालिक ही है।
झूठ का उपाय वहीं पर चलता है, जहाँ पर बुद्धिमान्, न्यायकारी, प्रामाणिक विद्वान लोग ठीक प्रकार परिश्रम के साथ सत्यासत्य का निर्णय नहीं करते। प्रमाणों का प्रयोग करने पर झूठ नहीं चल सकता, पकड़ा ही जाता है। झूठ वहीं पर चलता है, जहाँ अज्ञानी लोग निर्णय करते हैं। संसार के न्यायालयों में झूठ चल भी जाता है, किन्तु ईश्वर के न्यायालय में झूठ नहीं चलता। वहाँ तो दोष का दण्ड ब्याज सहित प्राप्त करना पड़ता है। झूठ का प्रयोग लोक में ऐसा ही है, जैसे खाद्यान्न पकाने के लिए काठ की हांडी को प्रयोग करना या गोंद के स्थान पर पानी से कागज चिपकाना। थोड़ी देर में काठ की हाँडी जल जाती है और पानी के सूखने पर कागज दीवार से अलग हो जाता है। वैसे ही थोड़े काल के लिए तो झूठ चल जाता है, अधिकांश तो लोक में ही पकड़ा जाता है। यदि बहुत चालाकी से जीवन पर्यन्त पकड़ने में न भी आवे, तो अन्त में ईश्वर के सामने तो चल नहीं सकता। इसलिए, झूठ का उपयोग दोष से बचने के लिए अधार्मिक, नास्तिक लोग ही करते हैं, धार्मिक, आस्तिक नहीं। धार्मिक, आस्तिक व्यक्ति तो झूठ, दोष, त्रुटि करके स्वतः दण्ड ग्रहण करते हैं, या अन्यों से देने की याचना करते हैं, उससे बचते नहीं।
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