अथ नवमसमुल्लासारम्भः

विषय : विद्या, अविद्या, बन्ध और मोक्ष की व्याख्या

जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है, वह ‘अविद्या’ अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तरके ‘विद्या’ अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है।

-यजुर्वेद 40//14

अविद्या का लक्षण

जो ‘अनित्य’ संसार और देहादि में, नित्य- अर्थात् जो कार्य जगत् देखा-सुना जाता है, सदा रहेगा, सदा से है और योगबल से यही देवों का शरीर सदा रहता हैं- वैसी विपरीत बुद्धि होना, अविद्या का प्रथमभाग है। अशुचि अर्थात् मिथ्याभाषण, चोरी आदि अपवित्र में पवित्र बुद्धि- दूसरा। अत्यन्त विषयसेवनरूप ‘दुख’ में सुखबुद्धि आदि तीसरा। ‘अनात्मा’ में आत्मबुद्धि करना अविद्या का चौथा भाग है। इस चार प्रकार के विपरीत ज्ञान को ‘अविद्या’ कहते हैं। इससे विपरीत अर्थात् अनित्य में अनित्य और नित्य में नित्य, अपवित्र में अपवित्र और पवित्र में पवित्र और दुख में दुख, सुख में सुख, अनात्मा में अनात्मा और आत्मा में आत्मा का ज्ञान होना ‘विद्या’ है।….पवित्र कर्म, पवित्रोपसना और पवित्र ज्ञान ही से मुक्ति और अपवित्र मिथ्याभाषणादि कर्म, पाषाणमूर्त्त्यादि की उपासना और मिथ्याज्ञान से बन्ध होता है। कोई भी मनुष्य क्षणमात्र भी कर्म, उपासना और ज्ञान से रहित नहीं होता। इसलिये धर्मयुक्त सत्य-भाषणादि कर्म करना और मिथ्याभाषणादि अधर्म को छोड़ देना मुक्ति का साधन है।

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प्रश्न – बन्ध और मोक्ष स्वभाव से होता हैं, वा निमित्त से?

उत्तर – निमित्त से। क्योंकि जो स्वभाव से होता तो बन्ध और मुक्ति की निवृत्ति कभी नहीं होती।

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देह और अन्तःकरण जड़ हैं, उनको शीतोष्ण की प्राप्ति और भोग नहीं हैं, जैसे पत्थर को शीत और उष्ण का भाव वा भोग नहीं हैं। जो चेतन मनुष्यादि प्राणी उसको स्पर्श करता है, उसी को शीत-उष्ण का भान और भोग होता है। वैसे प्राण भी जड़ हैं, न उनको भूख और न पिपासा, किन्तु प्राणवाले जीव को क्षुधा-तृषा लगती है। वैसे ही मन भी जड़ है, न उसको हर्ष और न शोक हो सकता है, किन्तु मन से हर्ष-शोक, सुख-दुख का भोग जीव करता है। जैसे बहिष्करण क्षोत्रादि इन्द्रियों से अच्छे-बुरे शाब्दादि विषयों का ग्रहण करके जीव सुखी-दुखी होता है, वैसे ही ‘अन्तःकरण’ अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार से सङ्कल्प, विकल्प, निश्चय, स्मरण और अभिमान का करनेवाला जीव है। जैसे तलवार आदि किसी शस्त्र से किसी को मारने वा रक्षा करने वाला दण्ड और मान्य का भागी कर्म का कर्त्ता होता है, तलवार नहीं होती, वैसे ही देहेन्द्रिय, अन्तःकरण और प्राणरूप साधनों से अच्छे-बुरे कर्मों का कर्त्ता जीव सुख-दुख का भोक्ता होता है। जीव कर्मों का साक्षी नहीं, किन्तु कर्त्ता है। कर्मों का साक्षी तो एक परमात्मा है। जो कर्म का करने वाला जीव है, वही कर्मों में लिप्त होता है, वह ईश्वर नहीं।

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…प्रतिबिम्ब साकार का साकार में होता है। जैसे मुख और दप्पर्ण आकारवाले हैं और पृथक भी हैं। जो पृथक् न हो, तो भी प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता। ब्रह्म निराकार, सर्वव्यापक होने से, उसका प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता।

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….आप ब्रह्म न होकर अपने को ब्रह्म और ब्रह्म को जीव मानना यह अविद्या और मिथ्याज्ञान नहीं तो क्या है? जो सर्वव्यापक है वह परिच्छिन्न, अज्ञान और बन्ध में कभी नहीं गिरता, क्योंकि अज्ञान परिच्छिन्न, एकदेशी, अल्प, अल्पज्ञ जीव में होता है, सर्वज्ञ सर्वव्यापी ब्रह्म में नहीं।

प्रश्न – मुक्ति किसको कहते हैं?

उत्तर – जिसमें छूट जाना हो, उसका नाम मुक्ति है।

प्रश्न – किससे छूट जाना?

उत्तर – जिससे छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं।

प्रश्न – किससे छूटने की इच्छा करते हैं?

उत्तर – जिससे छूटना चाहते हैं।

प्रश्न – किससे छूटना चाहते हैं?

उत्तर – दुख से।

प्रश्न – छूट कर किसको प्राप्त होते और कहां रहते हैं?

उत्तर – सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म में रहते हैं।

प्रश्न – मुक्ति और बन्ध किन-किन बातों से होता है?

उत्तर – परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म्म, अविद्या, कुसङ्ग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय-धर्म की वृद्धि करने, पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और ‘उपासना, अर्थात् योगाभ्यास करने; विद्या पढ़ने-पढ़ाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने; सबसे उत्तम साधनों को करने और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्यायधर्मानुसार ही करे, इत्यादि साधनों से ‘मुक्ति’ और इनसे विपरीत ईश्वराज्ञाभंग करने आदि काम से ‘बन्ध’ होता है।

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ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है, उसी में मुक्त जीव ‘अव्याहतगति’ अर्थात उसको कहीं रुकावट नहीं, विज्ञान आनन्दपूर्वक स्वतन्त्र विचरता है।

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मोक्ष में भौतिक शरीर वा इन्द्रियों के गोलक जीव के साथ नहीं रहते, किन्तु अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के सङ्कल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ रसना, गन्ध के लिये घ्राण, सङ्कल्प विकल्प करने समय मन, निश्चय करने के लिये बुद्धि, स्मरण के लिये चित्त और अहङ्कार करने में अहङ्काररूप अपनी स्वशक्ति से जीवात्मा मुक्ति में हो जाता है …जैसे शरीर के आधार रह कर इन्द्रियों के गोलक के द्वारा जीव स्वकार्य्य करता है, वैसे अपनी शक्ति से मुक्ति में सब आनन्द भोग लेता है।

-छान्दोग्योपनिषद 8//12//4-5

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….जो जीव का लय मानते हैं, वे जीव के नाश ही को मुक्ति समझते हैं, वे तो महामूढ़ हैं। क्योंकि मुक्ति जीव की यह है कि दुखों से छूटकर आनन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अनन्त परमेश्वर में जीव का आनन्द में रहना।

-वेदान्तदर्शन 4//4//10, 11, 12

जब शुद्ध मनयुक्त पाँच ज्ञानेन्द्रिय जीव के साथ रहती हैं और बुद्धि का निश्चय स्थिर होता है, उसको ‘परमगति’ अर्थात् मोक्ष कहते हैं।

-कठोपनिषद      2//6//10

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जो ये ब्रह्मलोक अर्थात् दर्शनीय परमात्मा में स्थित होके मोक्ष सुख को भोगते हैं और इसी परमात्मा का जोकि सब का अन्तर्यामी आत्मा है, उसकी उपासना मुक्ति की प्राप्ति करनेवाले विद्वान् लोग करते हैं, उससे उनको  सब लोक और सब काम प्राप्त होते हैं। अर्थात् जो-जो संकल्प करते हैं, वह-वह लोक और वह-वह काम प्राप्त होता है और वे मुक्त जीव स्थूल शरीर छोड़ कर संकल्पमय शरीर से आकाश में परमेश्वर में विचरते है क्योंकि जो शरीरवाले होते हैं, वे सांसारिक दुख से रहित नहीं हो सकते।

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बन्ध और मुक्ति सदा नहीं रहती।

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जो मुक्ति में से कोई भी लौटकर जीव इस संसार में न आवे, तो संसार का ‘उच्छेद’ अर्थात् जीव निश्शेष हो जाने चाहियें।

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दुख के अनुभव के बिना, सुख कुछ भी नहीं हो सकता। जैसे कटु न हो, तो मधुर क्या। जो मधुर न हो, तो कटु क्या कहावे? क्योंकि एक स्वाद के एक रस के विरुद्ध होने से दोनों की परीक्षा होती है। जैसे कोई मनुष्य मीठा मधुर ही खाता-पीता जाय, उसको वैसा सुख नहीं होता, जैसा सब प्रकार के रसों के भोगनेवाले को होता है।

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अल्प-सामर्थ्य वाले जीव पर अनन्त सुख का भार धरना, ईश्वर के लिये ठीक नहीं।

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परमेश्वर अनन्त स्वरूप, सामर्थ्य, गुण, कर्म, स्वभाववाला है इसलिये वह कभी अविद्या और दुख बन्धन में नहीं गिर सकता। जीव मुक्त होकर भी शुद्धस्वरूप, अल्पज्ञ और परिमित गुण-कर्म-स्वभाववाला रहता है, परमेश्वर के सदृश कभी नहीं होता।

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मुक्ति जन्म-मरण के सदृश नहीं। क्योंकि जब-तक 36000 (छत्तीस सहस्त्र) बार उत्पत्ति और प्रलय का जितना समय होता है, उतने समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द में रहना, दुख का न होना, क्या छोटी बात है? जब आज खाते-पीते हो, कल भूख लगने वाली है पुनः इसका उपाय क्यों करते हो? जब क्षुधा, तृषा, क्षुद्र धन, राज्य, प्रतिष्ठा, स्त्री, सन्तान आदि के लिये उपाय करना आवश्यक है, तो मुक्ति के लिये क्यों न करना? जैसे मरना अवश्य है, तो भी जीवन का उपाय किया जाता है, वैसे ही मुक्ति से लौट कर जन्म में आना है, तथापि उसका उपाय करना अत्यावश्यक है?

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…जो मुक्ति चाहै वह ‘जीवन्मुक्त’ अर्थात् जिन मिथ्याभाषणादि पाप-कर्मों का फल दुख है, उनको छोड़ सुखरूप फल को देनेवाले सत्यभाषणादि धर्माचरण अवश्य करे। जो कोई दुख को छुड़ाना और सुख को प्राप्त होना चाहै, वह अधर्म को छोड़, धर्म अवश्य करे। क्योंकि दुख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है।

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जो कोई इस शिक्षा के अनुकूल वर्त्तता है, वह मुक्तिजन्य सुखों को प्राप्त होता है। और जो विपरीत वर्त्तता है, वह बन्धजन्य दुख भोगता है।

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चौथा-‘मुमुक्षुत्व अर्थात् जैसे क्षुधा-तृषातुर को सिवाय अन्न-जल के दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता, वैसे बिना मुक्ति के साधन और मुक्ति के दूसरे में प्रीति न होना; ….

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इनमें से ‘अविद्या’ का स्वरूप कह आये। पृथक् वर्त्तमान बुद्धि को आत्मा से भिन्न न समझना ‘अस्मिता’। सुख में प्रीति ‘राग’। दुख में अप्रीति ‘द्वेष’। और सब प्राणिमात्र को यह इच्छा सदा रहती है कि मैं सदा शरीरस्थ रहूं, मरूं नहीं। मृत्यु दुख से त्रास ‘अभिनिवेश’ कहाता है। इन पांच क्लेशों को योगाभ्यास, विज्ञान से छुड़ा देने पर ब्रह्म को प्राप्त होके, मुक्ति के परमानन्द को भोगना चाहिये।

-योग दर्शन 2//3

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….जो अन्य साधारण नास्तिक लोग मरने से तत्वों में तत्व मिल कर मुक्ति मानते हैं, वह तो कुत्ते, गधे आदि को भी प्राप्त है।

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….तुम से कोई पूछे कि बारह वर्ष के पूर्व तेरहवें वर्ष के पांचवे महीने के नवमें दिन दस बजे पर पहिली मिनट में तुमने क्या किया था? तुम्हारा मुख, हाथ, कान, शरीर किस ओर किस प्रकार का था? और मन में क्या विचार था? जब इसी शरीर में ऐसा है तो पूर्व-जन्म की बातों के स्मरण में शङ्का करनी केवल लड़केपन की बात है। और जो स्मरण नहीं होता है, इसी से जीव सुखी है, नहीं तो सब जन्मों के दुखों को देख-देखकर दुःखित होकर मर जाता। जो कोई पूर्व और पीछे जन्म के वर्त्तमान को जानना चाहै, तो भी नहीं जान सकता, क्योंकि जीव का ज्ञान और स्वरूप अल्प है। यह बात ईश्वर के जानने योग्य है, जीव के नहीं।

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….ज्वरादि रोग के होने से अवैद्य भी इतना जान सकता है कि मुझ से कोई कुपथ्य हो गया है, जिससे मुझे यह रोग हुआ है। वैसे ही जगत् में विचित्र सुख-दुख आदि की घटती बढ़ती देख के पूर्वजन्म का अनुमान क्यों नहीं जान लेते? और जो पूर्वजन्म को न मानोगे, तो परमेश्वर पक्षपाती हो जाता है। क्योंकि बिना पाप के दारिद्रयादि दुख और बिना पूर्वसञ्चित पुण्य के राज्य, धनाढयता और बुद्धि उसको क्यों दी?….

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परमात्मा अन्याय कभी नहीं करता, इसीलिये वह पूजनीय और बड़ा है।….क्या इस जगत् में बिना योग्यता के, उत्तम काम किये प्रतिष्ठा और दुष्ट काम किये बिना दण्ड देने वाला निन्दनीय अप्रतिष्ठित नहीं होता?

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….किसी साहूकार से कहें कि तू कहार बन जा और कहार से कहें कि तू साहूकार बन जा, तो साहूकार कभी कहार बनता नहीं और कहार साहूकार बनना चाहते हैं। जो सुख-दुख बराबर होता तो अपनी-अपनी अवस्था छोड़ नीच और ऊँच बनना दोनों न चाहते। देखो! एक जीव विद्वान्, पुणयात्मा, श्रीमान् राजा की राणी के गर्भ में आता और दूसरा महादरिद्र घसियारी के गर्भ में आता है। एक को गर्भ से लेकर सर्वथा सुख और दूसरे को सब प्रकार दुख मिलता है। एक जब जन्मता है, तब सुन्दर सुगन्धियुक्त जलादि से स्नान, युक्ति से नाड़ी-छेदन, दुग्धपानादि यथायोग्य प्राप्त होते हैं। जब वह दूध पीना चाहता तो उसके साथ मिश्री आदि मिलाकर यथेष्ट मिलता है। उसको प्रसन्न रखने के लिये नौकर-चाकर, खिलौना, सवारी उत्तम स्थानों में लाड़ से आनन्द होता है। दूसरे का जन्म जङ्गल में होता, स्नान के लिये जल भी नहीं मिलता, जब दूध पीना चाहता, तब दूध के बदले में घुरकाया और घूंसा-थपेड़ा आदि से पीटा जाता है। अत्यन्त आर्तस्वर से रोता है, कोई नहीं पूछता, इत्यादि जीवों को बिना पुण्य-पाप के सुख-दुख होने से परमेश्वर पर दोष आता है।

दूसरा जैसे बिना किये कर्मों के सुख-दुख मिलते हैं, तो आगे नरक-स्वर्ग भी न होना चाहिये। क्योंकि जैसे परमेश्वर ने इस समय बिना कर्मों के सुख-दुख दिया है, वैसे मरे पीछे भी जिसको चाहेगा उसको स्वर्ग में और जिसको चाहे नरक में भेज देगा। पुनः सब जीव अधर्मयुक्त हो जायेंगे, धर्म क्यों करें? क्योंकि धर्म का फल मिलने में सन्देह है। परमेश्वर के हाथ है। जैसी उसकी प्रसन्नता होगी, वैसा करेगा तो पाप-कर्मों में भय न होकर संसार में पाप की वृद्धि और धर्म का क्षय हो जाएगा। इसलिये पूर्वजन्म के पुण्य-पाप के अनुसार वर्त्तमान जन्म और वर्त्तमान तथा पूर्वजन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म होते हैं।

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जब पाप बढ़ जाता, पुण्य न्यून होता है, तब पश्वादि नीच शरीर और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है तब ‘देव’ अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता और जब पुण्य-पाप बराबर होता है, तब साधारण मनुष्य-जन्म होता हैं इसमें भी पुण्य-पाप के उत्तम, मध्यम और निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि सामग्रीवाले होते हैं और जब अधिक पाप का फल पश्वादि शरीर में भोग लेता है, पुनः पाप-पुण्य के तुल्य रहने से मनुष्य शरीर में आता और पुण्य के फल भोग कर फिर भी मध्यस्थ मनुष्य के शरीर में आता है।

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….नाना प्रकार के जन्म-मरण में तब-तक जीव पड़ा रहता है कि जब-तक उत्तम कर्मोपासना-ज्ञान को करके मुक्ति को नहीं पाता।

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प्रश्न – मुक्ति में परमेश्वर में जीव मिल जाता है, वा पृथक् रहता है?

उत्तर- पृथक् रहता है। क्योंकि जो मिल जाय तो मुक्ति का सुख कौन भोगे और मुक्ति के जितने साधन हैं, वे सब निष्फल हो जावें। वह मुक्ति तो नहीं, किन्तु जीव का प्रलय जानना चाहिये। जब जीव परमेश्वर की आज्ञापालन, उत्तम कर्म, सत्सङ्ग, योगाभ्यास, पूर्वोक्त सब साधन करता है, वही मुक्ति को पाता है।

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…जैसे सांसारिक सुख शरीर के आधार से भोगता है, वैसे परमेश्वर के आधार मुक्ति के आनन्द को जीवात्मा भोगता है। वह मुक्त जीव अनन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द घूमता, शूद्ध ज्ञान से सब सृष्टि को देखता, अन्य मुक्तों के साथ मिलता, सृष्टिविद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोक-लोकान्तरों में अर्थात् जितने ये लोक दीखते हैं और नहीं दीखते, उन सबमें घूमता है। वह सब पदार्थों को – जो कि उसके ज्ञान के सामने हैं – सबको देखता है। जितना ज्ञान अधिक होता है, उसको उतना ही आनन्द अधिक होता है। मुक्ति में जीवात्मा निर्मल होने से पूर्ण ज्ञानी होकर उसको सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है। यही सुखविशेष स्वर्ग और विषय-तृष्णा में फस कर दुखविशेष भोग करना नरक कहाता है। ….सब जीव स्वभाव से सुखप्राप्ति की इच्छा और दुख का वियोग होना चाहते हैं, परन्तु जब-तक धर्म नहीं करते और पाप नहीं छोड़ते, तब-तक उनको सुख का मिलना और दुख का छूटना न होगा। क्योंकि जिसका ‘कारण’ अर्थात् मूल होता है, वह नष्ट कभी नहीं होता।

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जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है, उसको वृक्षादि स्थावर का जन्म, वाणी से किये पाप कर्मों से पक्षी और मृगादि, तथा मन से किये दुष्ट कर्मों से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है।

-मनु-स्मृति 12//9

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जब सत्त्वगुण का उदय होता है, तब वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि, पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह, धर्म-क्रिया और आत्मा का चिन्तन होता है, यही सत्त्वगुण का लक्षण है।

-मनु-स्मृति 12//31

जब रजोगुण का उदय, सत्त्व और तमोगुण का अस्तभाव होता है, तब आरम्भ में रुचिता, धैर्यत्याग, असत् कर्मों का ग्रहण, निरन्तर विषयों की सेवा में प्रीति होती है, तभी समझना कि रजोगुण प्रधानता से मुझमें वर्त्त रहा है।

-मनु-स्मृति 12//32

जब तमोगुण का उदय, और दोनों का आन्तर्भाव होता है, तब अत्यन्त ‘लोभ’ अर्थात् सब पापों का मूल बढ़ता, अत्यन्त आलस्य और निद्रा, धैर्य्य का नाश, क्रूरता का होना, ‘नास्तिक्य’ अर्थात् वेद और ईश्वर में श्रद्धा का न रहना, भिन्न-भिन्न अन्तःकरण की वृत्ति और एकाग्रता का अभाव, जिस किसी से ‘याचना’ अर्थात् मांगना, ‘प्रमाद’ अर्थात मद्यपानादि दुष्ट व्यसनों में फसना होवे, तब समझना कि तमोगुण मुझ में बढ़ कर वर्त्तता है।

-मनु-स्मृति 12//33

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तमोगुण का लक्षण काम, रजोगुण का अर्थ-संग्रह की इच्छा और सत्त्वगुण का लक्षण धर्मसेवा करना है, परन्तु तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्त्वगुण श्रेष्ठ है।

-मनु-स्मृति 12//38

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