अथ द्वितीयोऽग्निहोत्रो देवयज्ञः प्रोच्यते
उसका आचरण इस प्रकार से करना चाहिए कि सन्ध्योपासन करने के पश्चात् अग्निहोत्र का समय है। उसके लिए सोना, चांदी, तांबा, लोहा वा मिट्टी का कुण्ड बनवा लेना चाहिए। जिसका परिमाण सोलह अंगुल गहरा और तला चार अंगुल का लम्बा चौड़ा रहे। एक चमसा जिसकी डंडी सोलह अंगुल और उसके अग्रभाग में अंगूठा की यवरेखा के प्रमाण से लम्बा चौड़ा आचमनी के समान बनवा लेवें। सो भी सोना चांदी वा पलाशादि लकड़ी का हो। एक आज्यस्थाली अर्थात घृतादि सामग्री रखने का पात्र सोना, चांदी वा पूर्वोंक्त लकड़ी का बनवा लेवें। एक जल का पात्र तथा एक चिमटा और पलाशादि की लकड़ी समिधा के लिए रख लेवें।
पुनः घृत को गर्म कर छान लेवें। और एक सेर घी में एक रत्ती कस्तूरी, एक मासा केसर पीस के मिलाकर उक्त पात्र के तुल्य दूसरे पात्र में रख छोड़ें। जब अग्निहोत्र करें तब शुद्ध स्थान में बैठ के पूर्वोक्त सामग्री पास रख लेवें। जल के पात्र में जल और घी के पात्र में एक छटांक व अधिक जितना सामर्थ्य हो, उतने शोधे हुए घी को निकाल कर अग्नि में तपा के सामने रख लेवें। तथा चमसे को भी रख लेवें। पुनः उन्हीं पलाशादि वा चन्दनादि लकड़ियों को वेदि में रखकर, उनमें अग्नि धरके पंखे से प्रदीप्त कर नीचे लिखे मन्त्रों में से एक-एक मन्त्र से एक-एक आहुति देते जाएं, प्रातः काल व सायंकाल में। अथवा एक समय में करें, तो सब मन्त्रों से सब आहुति किया करें।
अथाग्निहोत्रहोमकरणार्थः मन्त्राः-
[प्रातः कालीन आहुति के मन्त्र]
ओं सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा ।। १ ।।
ओं सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा ।। २ ।।
ओं ज्योतिः सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा ।। ३ ।।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा सजुरुषसेन्द्रवत्या। जुषाणः सुर्योवेतु स्वाहा ।। ४ ।।
भाषार्थ- (सूर्य्योंज्यो.) जो चराचर का आत्मा प्रकाशस्वरूप और सूर्यादिप्रकाशक लोकों का भी प्रकाशक है, उसकी प्रसन्नता लिए हम लोग होम करते हैं।। १।।
(सूर्यों व0) जो सूर्य परमेश्वर हम को सब विद्याओं का देने वाला, और हम लोगों से उनका प्रचार कराने वाला है, उसी के अनुग्रह के लिए हम लोग अग्निहोत्र करते हैं।।२।।
(ज्योतिः सूर्य्यः0) जो आप प्रकाशमान और जगत् का प्रकाश करने वाला, सूर्य्य अर्थात् सब संसार का ईश्वर है, उसकी प्रसन्नता के अर्थ हम लोग होम करते हैं।।३।।
(सजूर्देवेन0) जो परमेश्वर सूर्य्यादि लोकों में व्यापक, वायु और दिन के साथ परिपूर्ण सब पर प्रीति करने वाला, और सब के अङ्ग- अङ्ग में व्याप्त है वह अग्नि परमेश्वर हम को विदित हो। उसके अर्थ हम होम करते हैं।।४।।
इन चार आहुतियों को प्रातः काल अग्निहोत्र में करने चाहिए।
[सायंकालीन आहुति के मन्त्र]
ओं अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा ।। १ ।।
ओं अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा ।। २ ।।
ओं अग्निर्ज्योतिर्ज्योतिरग्निः स्वाहा ।। ३ ।।
ओं सजूर्देवेन सवित्रा स्जुरात्र्येन्द्रवत्या जुषाणो अग्निर्वेतु स्वाहा ।। ४ ।।
भाषार्थ- (अग्निर्ज्यों0) अग्नि जो परमेश्वर ज्योतिःस्वरूप है, उसकी आज्ञा से हम परोपकार के लिए होम करते हैं। और उसका रचा हुआ जो यह भौतिकाग्नि है, जिसमें द्रव्य डालते हैं सो इसलिए है कि उन द्रव्यों को परमाणु करके जल और वायु, वृष्टि के साथ मिला के उनको शुद्ध कर दे। जिससे सब संसार सुखी होके पुरुषार्थी हो।।१।।
(अग्निर्वर्चों0) अग्नि जो परमेश्वर वर्च्च अर्थात् सब विद्याओं को देने वाला, तथा भौतिक अग्नि आरोग्य और बुद्धि बढ़ाने का हेतु है। इसलिए हम लोग होम करके परमेश्वर की प्रार्थना करते हैं। यह दूसरी आहुति हुई।।२।।
तीसरी आहुति प्रथम मन्त्र से मौन करके करनी चाहिए।।३।।
और चौथी (सजूर्देवेन0) जो परमेश्वर प्राणादि में व्यापक वायु और रात्रि के साथ पूर्ण, सब पर प्रीति करने वाला और सब के अङ्ग- अङ्ग में व्याप्त है, वह अग्नि परमेश्वर हम को प्राप्त हो। जिसके लिए हम होम करते हैं।।४।।
जिन मन्त्रों से दोनों समय में होम किया जाता है, लिखते हैं-
ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा।। १ ।।
ओं भुवर्वायवेsपानाय स्वाहा।। २ ।।
ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा।। ३ ।।
ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्यवादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा।। ४ ।।
ओम् आपो ज्योती रसोsमृतं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरों स्वाहा ।। ५ ।।
ओं सर्वं वै पूर्णं स्वाहा।। ६ ।।
भाषार्थ- (ओं भू0) इन मन्त्रों में जो-जो नाम हैं, वे ईश्वर के ही जानो। उनके अर्थ गायत्री मन्त्र के अर्थ में देखने योग्य हैं।। १-४।।
और (आपो0) ‘आप’ जो प्राण परमेश्वर प्रकाश को प्राप्त होके रस अर्थात् नित्यानन्द मोक्षस्वरूप है, उस ब्रह्म को प्राप्त होकर तीनों लोकों में हम लोग आनन्द से विचरें।। ५।।
(सर्वं वै) हे जगदीश्वर! हम परोपकार के लिए जिस कर्म को करते हैं, वह कर्म आपकी कृपा से परोपकार के लिए समर्थ हो। इसलिए यह कर्म आप के समर्पण है।।६।।
इस प्रकार प्रातः और सांयकाल सन्ध्योपासन के पीछे इन पूवोक्त मन्त्रों से होम करके अधिक होम करने की जहां तक इच्छा हो वहां तक ‘स्वाहा’ अन्त में पढ़कर गायत्री मन्त्र से होम करें।
अग्नि वा परमेश्वर के लिए, जल और पवन की शुद्धि, वा ईश्वर की आज्ञा पालन के अर्थ होत्र जो हवन अर्थात् दान करते हैं, उसे ‘अग्निहोत्र’ कहते हैं। केशर, कस्तूरी आदि सुगन्ध; घृत, दुग्ध आदि पुष्ट; गुड़, शर्करा आदि मिष्ट तथा सोमलतादि औषधि रोगनाशक, जो ये चार प्रकार के बुद्धि वृद्धि, शूरता, धीरता, बल और आरोग्य करने वाले गुणों से युक्त पदार्थ हैं। उनका होम करने से पवन और वर्षा जल की शुद्धि करके शुद्ध पवन और जल के योग से पृथिवी के सब पदार्थों की जो अत्यन्त उत्तमता होती है, उससे सब जीवों को परमसुख होता है। इस कारण उस अग्निहोत्र कर्म करने वाले मनुष्यों को भी जीवों के उपकार करने से अत्यन्त सुख का लाभ होता है। तथा ईश्वर भी उन मनुष्यों पर प्रसन्न होता है। ऐसे-ऐसे प्रयोजनों के अर्थ अग्निहोत्रादि का करना अत्यन्त उचित है।
इत्यग्निहोत्रविधिः समाप्तः।।
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