दर्शन के मायने क्या होते हैं?

‘जीवन जीते हुए बहुत से विषयों पर हमारा चिन्तन करना आवश्यक हो जाता है। चिन्तन की परम्परा को ही दर्शन कहते हैं। विभिन्न विषयों में हमारी क्या दृष्टि हो, उसी को छः दर्शन शास्त्रों में बताया गया है।’

-आचार्य सत्यजित आर्य 

‘वैसे तो दर्शन का अर्थ देखना होता है, परन्तु जब पुस्तकों रूपी दर्शन की बात की जाती है, तो उसका अर्थ होता है- विभिन्न दृष्टिकोणों से इस सृष्टि को समझना। इस दुनिया को और अपने को समझने के लिए जितने भी विषय हो सकते हैं, उनको हमारे ऋषियों ने छः भागों में बाँट दिया है। मान लीजिए, हमने किसी  पुस्तक के बारे में जानना है, तो हमें अलग-अलग दृष्टिकोणों से उसे देखना होगा। ऊपर-ऊपर से तो किताब कुछ पृष्ठों का समूह प्रतीत होती है। पुस्तक बनाने वाला व्यक्ति किताब में लगे कागज की गुणवत्ता को देखता है। देखता है कि उन पृष्ठों का भार क्या है? पुस्तक पर लगा गत्ता किस गुणवत्ता का है और उसका भार कितना है? आदि आदि। पुस्तक की छपाई से सम्बन्धित व्यक्ति प्रयोग की गई स्याही की गुणवत्ता के बारे में देखेगा। वह देखेगा कि छपाई साफ है कि नहीं, स्याही रंग तो नहीं छोड़ रही है? आदि। पुस्तक डिजाइन करने वाला व्यक्ति देखेगा कि पुस्तक का शीर्षक ठीक जगह पर है की नहीं, भूमिका आदि ठीक जगह पर हैं कि नहीं, कौन सी पंक्तियाँ ‘बोल्ड’ अथवा ‘इटैलिक्स’ में होनी चाहिए थीं आदि आदि। वह व्यक्ति पुस्तक में लगे कागज अथवा उसकी छपाई के बारे में नहीं देखेगा। पुस्तक बेचने वाला व्यक्ति न पुस्तक में लगे कागजों के बारे में, न उसकी छपाई व डिजानिंग के बारे में सोचेगा, बल्कि पुस्तक का शीर्षक देखेगा, देखेगा कि पहले इस पुस्तक की कितनी प्रतियां बिक चुकी हैं, बाजार में इस पुस्तक की मांग क्या है? आदि आदि। पुस्तक को बांधने वाला व्यक्ति देखेगा कि पुस्तक को बांधा कितनी अच्छी तरह गया है। एक विद्वान को पुस्तक की छपाई, डिजाइनिंग, बाइंडिंग आदि से कोई सरोकार नहीं, बल्कि वह उस पुस्तक में जो लिखा गया है, उसकी गुणवत्ता को देखेगा। मतलब यह कि यदि पुस्तक को भिन्न भिन्न दृष्टिकोणों वाले चार पांच व्यक्ति देखेंगे, तो वे उसके भिन्न भिन्न पहलुओं को ही जान पाएंगे। इसी तरह इस संसार को जानने के भी भिन्न भिन्न दृष्टिकोण हैं, जैसे यह संसार क्यों बनाया गया है?, यह संसार किस मैटीरियल से बना है? इस संसार को बनाने वाले का स्वरुप क्या है?, मैं इस दुनिया में क्यों आया?, मुझे यह जीवन क्यों मिला है?, मेरी मृत्यु होने के पश्चात मेरा क्या होगा? मैं आनन्द को कैसे प्राप्त कर सकता हूँ आदि आदि। सभी छः दर्शन इस दुनिया को विभिन्न दृष्टिकोणों से समझाते हैं और हमें अपने अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करने में हमारा मार्ग प्रशस्त करते हैं।’

-आचार्य अंकित प्रभाकर

‘समग्रता को देखने का सम्यक दृष्टिकोण ही दर्शन है। वैदिक विचारधारा के अनुसार तो दर्शन एक ही होता है, अनेक नहीं हो सकते।’

-आचार्य प्रशान्त