प्रश्न – कर्म की परिभाषा क्या है?

उत्तर- दार्शनिक दृष्टिकोण से सामान्य रूप से कर्म की यह परिभाषा बनाई जा सकती है कि ‘सुख की प्राप्ति व दुख की निवृति’ के लिए जीवात्मा शरीर से, वाणी से और मन से जो चेष्टा विशेष करता है उसको ‘कर्म’ कहते हैं।

शरीर में होने वाली क्रियाओं अर्थात् चेष्टाओं को हम दो विभागों में बाँट सकते हैं- पहली, इच्छापूर्वक चेष्टाएँ, दूसरी, अनिच्छापूर्वक चेष्टाएँ। हँसना, बोलना, खाना, चलना, देखना, विचारना आदि क्रियाएँ इच्छापूर्वक चेष्टाओं में आती हैं। इसके विपरीत श्वास-प्रश्वास का चलना, हृदय का धड़कना, रक्त का संचार, डकार, उबासी, जम्हाई, हिचकी, मल-मूत्र का त्याग आदि क्रियाएँ दूसरी कोटि की चेष्टाओं में आती हैं।

मनुष्य का शरीर एक क्षण के लिए भी क्रिया रहित नहीं होता, क्योंकि यह उसका अपना स्वाभाविक धर्म ही है। शरीर में विद्यमान कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, प्राण, यकृत, प्लीहा आदि असंख्य अवयव अर्थात् यन्त्र प्रतिक्षण कुछ न कुछ चेष्टा करते ही रहते हैं, किन्तु शरीर में होने वाली इन समस्त क्रियाओं को दार्शनिक दृष्टि से ‘कर्म’ के अन्तर्गत नहीं ला सकते।

यद्यपि शरीर में अनैच्छिक क्रियायें जीवात्मा के रहने पर ही होती हैं, निर्जीव शरीर में ये नहीं होती, फिर भी इन क्रियाओं को करने के पीछे जीवात्मा की इच्छामयी प्रेरणा नहीं होती, अपितु स्वतः ही यह क्रियाएँ बिना जीवात्मा की इच्छा के शरीर को जीवित रखने के लिए ईश्वर की व्यवस्था के रूप में घटित होती रहती हैं। इसलिए, इन्हें कर्म की परिभाषा में नहीं रखा गया है।