ईश्वर का सान्निध्य हमें कैसे अभयता प्रदान कता है?

ईश्वर का सान्निध्य हम दो तरह से प्राप्त कर सकते हैं। पहला, शाब्दिक रूप से अथवा व्यवहार काल में व दूसरा उपासना काल में।
पहले हम व्यवहार काल में प्राप्त ईश्वर के सान्निध्य की बात करते हैं।
व्यवहार काल में हम जितना-जितना ईश्वर के गुणों का चिन्तन कर पाते हैं, उतना-उतना हम ईश्वर की अभयता को अनुभव कर पाते हैं। इस बात को अब हम ईश्वर की कर्मफल व्यवस्था के माध्यम से समझते हैं।
कर्मफल व्यवस्था को समझते हुए आप यह तो जान ही चुके हैं कि कोई भी दूसरा प्राणी कर्म करने में स्वतन्त्र रहते हुए हमें दुख पहुंचा सकता है और यह आवश्यक नहीं है कि हमारा दुख प्राप्त करना हमारे कर्मों का ही फल हो। ऐसे में, यह जानते हुए भी कि दूसरे हमें दुख पहुंचा सकते हैं, हम अभयता कैसे अनुभव कर सकते हैं?

ईश्वरीय कर्मफल व्यवस्था ऐसी है कि ईश्वर हमारे कर्मों का फल देते हुए दूसरों के द्वारा हमें दुख दिए जाने पर, हमारे कर्माशय में से उतने हमारे पाप कर्म, जिनसे उतना ही दुख हमें भविष्य में मिलना था, कम कर देता है। ईश्वर की इस व्यवस्था से हमें उतना ही दुख भोगना पड़ता है, जितने पाप कर्म हमने स्वयं किए होते हैं। इस तरह, दूसरों द्वारा हमें दुख दिए जाने पर भी, वे रहते हमारे पाप-कर्मों के तुल्य ही हैं। हमारे पाप-कर्मों की न्यूनता होने पर ईश्वर दूसरों द्वारा अन्याय से हमें दिए गए दुखों के तुल्य सुख प्रदान कर देता है। ईश्वर की इस न्यायकारिता की समझ ही हमें अभयता प्रदान करती है।

अब हम उपासना काल में प्राप्त ईश्वर के सान्निध्य की बात करते हैं।
जैसे आग का सानिध्य प्राप्त करने पर, उसका स्वाभाविक गुण, गर्मी हमें अपनेआप प्राप्त हो जाती है, उसी तरह उपासना में ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करने पर, उसका स्वाभाविक गुण, अभयता हमें अपनेआप प्राप्त हो जाता है। किसी भी वस्तु व उसके स्वाभाविक गुण अलग-अलग नहीं होते। अभयता प्राप्त करने के लिए हमारा ईश्वर के पास बैठना ही पर्याप्त होता है।