आखिर उपासना होती क्या है? उपासना में मंत्र उच्चारण करने होते हैं कि नहीं? उपासना, क्या सन्ध्या से भिन्न है?
आंख बंद करके बैठना, प्राणायाम करना आदि क्रियाएँ करना उपासना में सहायक तो हो सकतीं है, परन्तु इनका उपासना से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। उपासना का एक मौलिक लक्षण है- उत्कंठा का होना। जब हम किसी वस्तु को हृदय की गहराइयों से चाहते हैं और उसे पाने के लिए कोई प्रयत्न करते हैं, जिसके फ़लस्वरुप हमें वह चीज प्राप्त हो जाती है, तो उसे उपासना कहा जाता है। महर्षि दयानन्द ने अनुसार जैसे आग के पास जाने से शीत से आतुर व्यक्ति की शीत से निवृति हो जाती है, उसी प्रकार ईश्वर का सान्निध्य पाकर उसके आनन्द को अनुभूत करना ही ईश्वर की उपासना है। आग के पास वही व्यक्ति बैठेगा, जिसे निश्चय होगा कि आग के पास बैठने से उसकी समस्या का निधान हो जाएगा। यदि, व्यक्ति को आग के पास बैठने के लाभों का तो पता है, परन्तु फिर भी उसे को आग के पास बैठने का प्रयत्न तो करना ही होगा। यदि, कोई व्यक्ति आग के बारे में बहुत सी जानकारी तो रखता हो, परन्तु उसकी शीत से निवृति न हो रही हो, तो उसने आग की उपासना नहीं की। इसी प्रकार, यदि कोई व्यक्ति आग के पास भी बैठा हो, परन्तु उसकी शीत से निवृति न हो रही हो, तो या तो उसके और आग के बीच में कोई दीवार है अथवा आग से उसकी समीपता उतनी नहीं है, जितनी की होनी चाहिए। आग का उदाहरण केवल उपासना के स्वरूप को समझाने के लिए दिया गया है, वरना ईश्वर और हम आत्माओं में किसी प्रकार की भौतिक दूरी नहीं है।
जब हम ईश्वर के लाभों को हृदय की गहराइयों से स्वीकार करके उसका स्मरण करते हैं, तो ईश्वर, जो सर्वव्यापक और आनंदस्वरुप है का आनन्द हमें अनुभूत होने लगता है। यहीं उपासना है। ईश्वर को रिझाने के लिए किसी तरह के शब्दों की आवश्यकता नहीं होती। उसके पास बैठने मात्र से हमें सुख की प्राप्ति हो जाती है। किसी बात को विचारने के लिए अथवा विचारों को स्मरण करने के लिए ही शब्दों की आवश्यकता होती है। यदि, ईश्वर के लाभों व उसके सामर्थ्य को जानने के लिए हम किन्हीं शब्दों व मंत्रों का उच्चारण करते हैं, तो ये स्वयं में ईश्वर की उपासना न होते हुए भी ईश्वर की उपासना के लिए आवश्यक तो हैं ही।
अब यदि, हम भजनों, मंत्रों का उच्चारण व अपने मन को अपने सामर्थ्य अनुसार पूरी ईमानदारी से ईश्वर में लगाने के पश्चात भी ईश्वर के आनन्द को अनुभूत नहीं कर पा रहे, तो वह वास्तविक उपासना न होते हुए भी, वे कर्म हमें वास्तविक उपासना की तरफ ले जाने वाले होते हैं।
आग का एक भौतिक वस्तु होने के कारण, उसके पास बैठना समझ आता है, परन्तु ईश्वर, जो अभौतिक है, के पास बैठने का क्या तरीका है? हम जिस भी भौतिक वस्तु की उपासना करना चाहें, हमें उसके लिए अपने मन को उस भौतिक वस्तु में लगाना होता है। इसी प्रकार, ईश्वर के पास बैठने का भी यहीं तरीका है कि हम अपने मन को अथवा अपने विचारों को ईश्वर के साथ संयुक्त कर दें।
इसके लिए आवश्यक है कि हम ईश्वर के सही स्वरूप को जानें। जितने अंशों में हम ईश्वर के सही स्वरूप को नहीं जानते होते, उतने अंशों में हमारा उसके पास बैठना, न बैठने के समान है।
सन्ध्या के मंत्रों का उच्चारण करना अपने आप में उपासना नहीं है, परन्तु इससे हम अपने घर, समाज में हम एक अच्छी परम्परा डालते हैं। एक-दो शब्दों के माध्यम से हम एक बार में उपासना में 15-20 मिनट ही बैठ पाते हैं, यदि, इससे अधिक समय हम उपासना में बैठना चाहें, तो हमें किसी एक मंत्र का सहारा लेना होता है, और यदि हम उससे भी अधिक समय उपासना में बैठना चाहें, तो हम पूरी संध्या के मंत्रों का सहारा लेते हैं।
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