प्रश्न – समाज में ऐसा सिद्धान्त प्रचलित है कि जो कुछ सृष्टि में हो रहा है, वह ईश्वर की इच्छा से, ईश्वर की प्रेरणा से, ईश्वर के द्वारा ही हो रहा है। जीवात्मा तो एक साधन मात्र है, क्या यह सिद्धान्त सत्य है?
उत्तर- नहीं, ऐसा मानना ठीक नहीं है। यदि इस सिद्धान्त को ठीक मान लिया जाए, तो संसार में जो कुछ अच्छा-बुरा हो रहा है, उस सब का उत्तरदायी ईश्वर होगा। मनुष्य का तो सारा दायित्व ही समाप्त हो जाएगा, न जीवात्मा कर्त्ता होगा न भोक्ता, फिर तो समाज में न्याय व्यवस्था की भी आवश्यकता नहीं रहेगी।
यथार्थ सिद्धान्त तो यह है कि जीवात्मा इच्छा, राग, द्वेष, प्रयत्न आदि गुणों से युक्त एक स्वतन्त्र चेतन तत्व है और वह स्वतन्त्र कर्त्ता भी है। वह अपनी इच्छा, प्रयत्न से समस्त कर्मों को करता है और उन कर्मों के प्रति स्वयं ही उत्तरदायी है। वेद आदि सत्य शास्त्रों में जीवात्मा को ही द्रष्टा, श्रोता, कर्त्ता तथा फलों का भोक्ता बताया गया है।
यदि मनुष्य को ईश्वर के आदेशानुसार कार्य करने वाला साधन मात्र मान लिया जाये, तो ऐसी स्थिति में बुरे कर्मों का फल दुखादि ईश्वर को ही मिलना चाहिए, क्योंकि ईश्वर ही कर्त्ता है, उसी ने जीव से कर्म कराये हैं, किन्तु ऐसा मानना किसी को भी अभीष्ट नहीं होगा। इसलिए, यह सिद्धान्त ठीक नहीं है कि सब कुछ ईश्वर की इच्छा से होता है।
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