श्रीमद्भगवद्गीता की कुछ अवधारणाओं का स्पष्टीकरण

मृत्युऔर हत्याशब्दों की विवेचना

क्षत्रिय, समाज के उस वर्ग को कहा जाता है, जिनका कर्तव्य दूसरों के अधिकारों की रक्षा करना होता है। हर क्षत्रिय को युद्ध में धर्म की ओर से भाग लेना ही चाहिए।

धर्मयुद्ध में मरना और मारना बहुत साधारण बात है। केवल उन्हीं व्यक्तियों की हत्या क्षमा योग्य है, जो समझाने पर भी अपना अधर्म का मार्ग नहीं छोड़ते।

भगवान कृष्ण कहते हैं कि ‘हत्या’ शब्द भ्रामक है। शरीर में रहने वाला वास्तविक जीव कभी नहीं मरता। वह शाश्वत है। शरीर आत्मा के कार्य करने का एक साधन मात्र है। शरीर की मृत्यु आत्मा को कोई नुकसान नहीं पहुंचा सकती। मृत्यु के बाद, आत्मा कार्य करने के लिए शरीर का उपयोग नहीं कर सकती। हत्या करके शरीर को आत्मा से छीन लेना, एक उदाहरण के माध्यम से बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। मान लीजिए, एक लड़के के हाथ में एक छड़ी है और वह बिना किसी दोष के दूसरों को उस छड़ी से मारता चला जा रहा है। यदि, वह समझाने के बाद भी निर्दोष व्यक्तियों को पीटने की अपनी हरकत जारी रखता है, तो उस लड़के के पास से लाठी छीन  लेनी चाहिए। इसी प्रकार धर्मयुद्ध में किसी व्यक्ति की हत्या करना शरीर के माध्यम से अन्याय करने पर तुली हुई आत्मा से शरीर छीनने के समान ही है।

जिन लोगों को अन्याय से समाज की रक्षा करने का कर्तव्य सौंपा गया है, वे धर्मयुद्ध में भाग लेने के अपने कर्तव्य को न करके अपनी प्रसिद्धि खो देते हैं और पाप करते हैं।

भगवान कृष्ण ने यह कहकर आत्मा की शाश्वतता पर जोर दिया कि यह सच नहीं है कि अर्जुन या वे योद्धा पहले कभी नहीं थे या भविष्य में कभी नहीं होंगे। वह आगे कहते हैं कि जिसने जन्म लिया है वह अवश्य मरता है और जो मरता है वह अवश्य जन्म लेता है।

भगवान कृष्ण का विचार था कि युद्ध तभी ठीक है, जब वह धर्म के लिए लड़ा जाए।

क्षत्रिय होने के कारण युद्ध करना अर्जुन का कर्तव्य था। अर्जुन को धर्म की ओर से युद्ध करना था। इस कारण, वह युद्ध में हत्याओं के दोष से सर्वदा क्षम्य था।

दरअसल, हत्या करना अपने आप में न तो पाप है और न ही पुण्य। यह एक ऐसा कर्म है, जिसका फल इस बात से तय होता है कि वह कर्म धर्म के लिए किया गया था या अधर्म के लिए। डकैती करते हुए की गई हत्या पाप है, लेकिन डकैती को बचाने के लिए की गई हत्या पुण्य है। इस उदाहरण से एक बात और स्पष्ट हो जाती है कि अन्याय से लड़ने पर क्षत्रियों का कोई एकाधिकार नहीं है। समाज के प्रत्येक सदस्य का नैतिक कर्तव्य है कि वह अपनी क्षमता के अनुसार अन्याय से लड़े। यह अलग बात है कि क्षत्रिय वर्ण के लोगों को समाज के अन्य सदस्यों के अधिकारों की रक्षा करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है।

यहां, एक और धारणा पर प्रकाश डालना उचित है। केवल युद्ध का निर्णय करने वालों पर ही उसकी धार्मिकता अथवा अधार्मिकता का उत्तरदायित्व  होता है। एक साधारण सैनिक को युद्ध के इन मुद्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं होती। एक बार युद्ध शुरु होने के बाद, सामान्य सैनिक का कर्तव्य बन जाता है कि वह अधिक से अधिक विरोधियों को मारे। इससे उस सैनिक को पुण्य की प्राप्ति होती है।

जिन व्यक्तियों की युद्ध के आरम्भ किए जाने में निर्णायक की भूमिका होती है, उन्हें अपने  रिश्तेदारों द्वारा चुने गए पक्ष के बावजूद युद्ध में धर्म की ओर से ही लड़ना चाहिए। प्रत्येक क्षत्रिय, चाहे वह युद्ध के शुरु किए जाने में निर्णायक की भूमिका निभाने वाला हो अथवा एक साधारण सैनिक हो, को किसी भी स्थिति में युद्ध से कभी नहीं डरना चाहिए। एक साधारण सैनिक युद्ध में मारे जाने पर पुण्य अर्जित करता है, चाहे वह युद्ध धर्म अथवा अधर्म की जय के लिए हो, जबकि युद्ध शुरु किए जाने में निर्णायक की भूमिका वाला व्यक्ति केवल तभी पुण्य अर्जित करता है, जब वह युद्ध धर्म की जय के लिए हो और युद्ध में विजयी होने पर प्रसिद्धि और गौरव को प्राप्त करता है।

यदि युद्ध में हत्याएं बुरी हैं, तो युद्ध की अधार्मिकता उससे भी ज्यादा बुरी है। अधर्म मनुष्य के लिए जीवित रहते हुए भी और मृत्यु के बाद भी हानिकारक होता है। धार्मिकता को बनाए रखने के लिए की गई हत्याएं मनुष्य की कोई हानि नहीं करतीं। 

गांधीजी के विचार में, केवल इच्छा-शक्ति की कमी वाले व्यक्ति को ही हिंसा करने का अधिकार है, लेकिन भगवान कृष्ण केवल उन लोगों के खिलाफ हिंसा अपनाने की अनुमति देते हैं, जो समझाने के प्रयासों के बावजूद भी नहीं समझते। इन दोनों मतों में बहुत अंतर है।

कुलधर्म और कुलक्षय

अर्जुन की समस्या केवल अपने रिश्तेदारों को मारने की न थी, बल्कि उन्हें उन मूल्यों के विनाश का डर था, जिन्हें उस युद्ध में भाग लेने वाले विभिन्न परिवार परम्परा के रूप में निभाते चले आ रहे थे। (गीता- 1//40)

आगे बढ़ने से पहले, मैं आपको याद दिला दूं कि इस देश के लोग वेदों के अनुयायी होने के कारण आश्रम और वर्ण व्यवस्था में विश्वास करते थे। आश्रम प्रणाली मानव की औसत आयु 100 वर्ष मानते हुए मानव जीवन को 25-25 वर्षों के चार आश्रमों में विभाजित करती है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पहले 25 वर्षों में स्वयं को शिक्षित करना और अगले 25 वर्षों में वैवाहिक जीवन व्यतीत करना होता था। अगले 25 वर्षों में उसे अपने परिवार से दूर एक अनासक्त जीवन व्यतीत करना होता था और अगले 25 वर्षों में उसे समाज की भलाई और ईश्वर की प्राप्ति के लिए अपना जीवन व्यतीत करना होता था। चार आश्रमों की तरह, चार वर्ण हैं। सम्पूर्ण समाज को चार भागों में विभाजित किया गया था। जिन लोगों को समाज को शिक्षित करने का काम सौंपा गया था, उन्हें ब्राह्मण कहा जाता था, जिन्हें दूसरों के अधिकारों की रक्षा करने का कर्तव्य सौंपा जाता था, उन्हें क्षत्रिय कहा जाता था, जिन लोगों को विभिन्न चीजों की आपूर्ति का काम सौंपा जाता था, उन्हें वैश्य कहा जाता था और जो लोग अपने शारीरिक श्रम के माध्यम से उपरोक्त तीन श्रेणियों की सेवा करते थे, उन्हें शूद्र कहा जाता था।

 

युद्ध कुल-धर्म के नाश व कुलक्षय का कैसे कारण था? युद्ध में भाग लेने वाले कईं क्षत्रियों की मृत्यु के बाद, क्षत्रियों की विधवाओं को वैश्यों या शूद्रों के साथ विवाह करना पड़ा, जो निश्चित रूप से बौद्धिक रूप से क्षत्रियों से कम थे। युवकों की मृत्यु के बाद, जो बुजुर्ग अगले आश्रम में चले गए थे, उन्हें वापस आकर अपनी जीविका अर्जित करनी पड़ी। इस प्रकार युद्ध आश्रम व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था दोनों को नष्ट करने वाला था। इसके अलावा, प्रत्येक परिवार कुछ विशिष्ट मूल्यों का प्रतीक था, जिनका विनाश निश्चित लग रहा था।

अर्जुन का यह डर यथार्थ में गंभीर था। युद्ध के बाद के इन प्रभावों की मुरम्मत की जा सकती थी, अगर समाज के उच्चतम वर्ग में नैतिक मूल्य होते। ब्राह्मण, जो समाज के सर्वोच्च माने जाते थे, पहले ही नैतिक रूप से गिर चुके थे।

अर्जुन की शंकाओं से यह बहुत स्पष्ट है कि मोक्ष के बारे में वेदों की विचारधारा से भिन्न विचार समाज में फैल रहे थे।  समाज में एक धारणा विकसित हो गई थी कि सांसारिक कर्तव्यों की उपेक्षा करके भी आत्मा की मुक्ति संभव है। भगवान कृष्ण ने इस धारणा का पूरी तरह से खंडन किया और कहा कि कर्तव्यों को छोड़ने से नहीं बल्कि, वैराग्य की भावना के साथ कर्तव्यों को करने से मोक्ष प्राप्त होता है। इस उपदेश की पूरी भावना यह स्थापित करने में है कि युद्ध परिवारों के मूल्यों के विनाश का कारण नहीं बनता, बल्कि वास्तव में समाज में अधर्म के प्रसार को रोकने के लिए युद्ध लड़ा जाता है।

कुलधर्म और कुलक्षय (गीता के अध्याय 1 के श्लोक 38 से 41) के बारे में अर्जुन के विचार सुनकर, भगवान कृष्ण ने धर्म की व्याख्या करना उचित समझा। धर्म उस कर्म को कहा जाता है, जो धार्मिकता को परिभाषित करता है। जो कर्म दूसरों की भलाई के लिए नहीं किया जाता, उसे विकर्म कहते हैं।

कर्मयोग

भगवान कृष्ण द्वारा संबोधित की जाने वाली समस्या थी- युद्ध में की गई हत्याएं पाप हैं या पुण्य। भगवान कृष्ण ने सांख्य दर्शन के दृष्टिकोण से स्थापित किया कि केवल शरीर, न कि आत्मा, जो स्वभाव से शाश्वत है, का वध होता है। हत्या करना अपने आप में न पाप है और न पुण्य। हत्या करना पुण्य है, अगर यह मानवता के लिए की जाती है अन्यथा, यह पाप है। इसी प्रश्न का उत्तर भगवान कृष्ण ने योग की दृष्टि से दिया है। इस संदर्भ में गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 39, 40, 48 और 51 का उल्लेख किया जा सकता है।

कर्म व उनके फलों का एक चक्र होता है। पहले किए कर्मों के फल भोगते हुए, हम कुछ अन्य कर्म करते हैं, जो फिर से फल देने वाले होते हैं। कुछ विशेष प्रकार के कर्म इस चक्र का हिस्सा नहीं बनते। ये निष्काम कर्म कहलाते हैं। निष्काम कर्मों से तात्पर्य उन कर्मों से है, जो बिना किसी सांसारिक लाभ की अपेक्षा के किए जाते हैं। निष्काम कर्म अनजाने में और बिना किसी उद्देश्य के किए गए कर्म नहीं होते। मान लीजिए, एक कार चालक अनजाने में अथवा बिना किसी उद्देश्य के वाहन चला रहा है और सड़क पर कुछ लोगों को कुचल देता है। इस तरह की हत्याएं बिल्कुल भी क्षमा योग्य नहीं हैं, भले ही यह कृत्य परिणाम के प्रति उदासीन होकर किया गया हो। तथ्य यह है कि हमारे प्रत्येक कर्म का एक उद्देश्य होता है और हमें हमारे कर्मों को निष्काम बनाने के लिए, केवल उन कर्मों के उद्देश्यों को सांसारिक अपेक्षाओं से गैर-सांसारिक अपेक्षाओं में परिवर्तित करना होता है। परन्तु, केवल स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति ही निष्काम कर्म कर सकता है। जब हत्याएं निष्काम कर्मों का परिणाम होती हैं, तो ऐसे कर्मों का कोई फल नहीं होता। निष्काम कर्मों का उल्लेख यजुर्वेद या ईशोपनिषद में मिलता है।

 

स्थिर बुद्धि

कर्मयोग से तात्पर्य स्थिर बुद्धि से किए गए कर्मों से है, अर्थात वे कर्म जिनको करने में गैर-सांसारिक लाभ की चाहना होती है और जिनका उद्देश्य धर्म होता है। किसी कर्म की धार्मिकता का निर्धारण स्थिर बुद्धि से ही किया जा सकता है। गीता में ‘स्थिर बुद्धि’ की विस्तृत व्याख्या है- इसकी परिभाषा, प्रकार, बुद्धि की अस्थिरता के कारण, संस्कारों और मन के साथ बुद्धि की स्थिरता व अस्थिरता का संबंध, अस्थिर बुद्धि के लक्षण, बुद्धि को स्थिर करने के तरीके, अस्थिर बुद्धि की हानियां आदि।

अस्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति इस शरीर और शारीरिक सुखों को सब कुछ मानता है और मृत्यु के बाद आत्मा के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता। शारीरिक सुख के विषय असीमित हैं, जबकि व्यक्ति का समय और क्षमताएं सीमित हैं। इससे बुद्धि को जल्दी-जल्दी एक विषय से दूसरे विषय पर जाना पड़ता है। बुद्धि के इस प्रकार के व्यवहार के कारण, व्यक्ति उस वस्तु के परम सत्य को समझने के लिए उस पर एकाग्र नहीं हो पाता।

बुद्धि को स्थिर करने की विधि के रूप में व्यक्ति को हानि-लाभ, मान-अपमान, दुख-सुख आदि में समान रहने का निरंतर अभ्यास करना चाहिए। इसके अलावा, उसे ईश्वर की विद्यमानता हर जगह महसूस करते हुए, आत्मा की अनंतता पर लगातार चिंतन करते रहना चाहिए। जब व्यक्ति की बुद्धि स्थिर हो जाती है, तब वह स्वयं को ज्ञान के विशाल सागर के किनारे खड़ा पाता है और आज के बुद्धिजीवियों को छोटे-छोटे तलाबों के रूप में देखता है।

गीता में कहीं भी सांसारिक कर्मों को छोड़ने की बात नहीं कही गई है। गीता में यह विशेष बल देकर कहा गया है कि मनुष्य को किसी न किसी प्रकार के कर्म करने ही पड़ते हैं व कर्म किए बिना कोई भी व्यक्ति क्षण भर भी नहीं रह सकता। इस कारण, हमें निष्काम कर्म ही करने चाहिएं और बुद्धि की स्थिरता निष्काम कर्म कर पाने की शर्तों में से एक है।

भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि जब तक वह सांसारिक मोह की कीचड़ से बाहर नहीं आ जाता, तब तक वह सुनने योग्य बातें और सुनी हुई बातों को नहीं समझ पाएगा।

इन्द्रियों के विषय इन्द्रियों को निरन्तर अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इस कारण, शक्तिशाली इंद्रियों और मन पर नियंत्रण रखने के लिए, आत्मा को खुद को ईश्वर के विचार में लीन करना होगा। इस तरह, बुद्धि संस्कारों के रूप में मन में विद्यमान किसी विषय की जानकारी को बेहतर रूप से विश्लेषण कर सकती है और संस्कारों के प्रभाव को खत्म कर उस विषय के वास्तविक सत्य को जान सकती है। बुद्धि की स्थिरता प्राप्त करने का यही एकमात्र तरीका है।

बुद्धि को मलिन होने से बचाने का उपाय यह है कि जब इन्द्रियों के विषयों के भोग उपस्थित हों, तो उन्हें भोग लिया जाए, परन्तु भोग के विषय का चिन्तन न किया जाए। चिन्तन करते रहने से दुख और कलेश उत्पन्न होगा और ऐसा करके हम बुद्धि के अस्थिर होने के कारण प्रस्तुत कर देते हैं।

स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति अस्थिर बुद्धि वाले पुरुषों के विपरीत चीजों को देखने और समझने में सक्षम हो जाता है, । कुछ लोग गीता के अध्याय 2 के श्लोक 69 से यह अर्थ निकालते हैं कि स्थिर बुद्धि वाले पुरुषों को जो दिन दिखाई देता है, अस्थिर बुद्धि वाले पुरुषों को वह रात दिखाई देती है। स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति रात्रि में ईश्वर का चिंतन करता है और उसके सानिध्य में चला जाता है। लेकिन, इस श्लोक का इस तरह का अर्थ निकालना गलत है। यहाँ दिन और रात का अर्थ ज्ञान और अज्ञान से है।

भगवान कृष्ण ने स्थिर बुद्धि की पूरी अवधारणा को सार रूप में कह दिया है। उनके अनुसार जो व्यक्ति बिना किसी सांसारिक लाभ के और बिना अहं भाव के व अनासक्त तरीके से व्यवहार करता है, वह शांति प्राप्त करता है। ऐसा व्यक्ति आवेग में आकर ऐसा निर्णय नहीं ले सकता, जो सत्य से दूर हो।

 

कर्म

गीता में तीन शब्दों का प्रयोग किया गया है- कर्म, विकर्म और अकर्म। इन तीनों शब्दों के ठीक-ठीक अर्थों को जानना अत्यन्त आवश्यक है। कर्म का अर्थ है वो कार्य करना, जिनको करना व्यक्ति का कर्त्तव्य है, विकर्म का अर्थ है, अपने कर्त्तव्यों को उचित रीति से न करना अथवा अपने कर्त्तव्यों को न करना। अकर्म का अर्थ है कार्यों को केवल अपना कर्त्तव्य मान कर करना। संक्षेप में कहें, तो कर्म का अर्थ है- पुण्य-कर्म, विकर्म का अर्थ है- पाप-कर्म और अकर्म का अर्थ है- निष्काम-कर्म। स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति ही इन तीनों को ठीक-ठीक जान सकता है।

अर्जुन के सामने मुख्य प्रश्न था कि उसे युद्ध में भाग लेना चाहिए या नहीं। दूसरे शब्दों में, उसे यह स्पष्ट नहीं था कि उसे युद्ध लड़ना चाहिए या युद्ध नहीं लड़ने का निर्णय लेना चाहिए। धर्म और अधर्म के अर्थ के बारे में अर्जुन को संदेह नहीं था। उसे संदेह था कि युद्ध लड़ना धर्म के अविरुद्ध था कि विरुद्ध।

भगवान कृष्ण को केवल इसी मुद्दे को संबोधित करने की आवश्यकता थी कि अर्जुन को युद्ध में भाग लेना चाहिए या नहीं। इस कारण, इस उपदेश में विकर्म पर ज्यादा कुछ नहीं कहा गया है।

धर्म को किसी भी समय या परिस्थिति में छोड़ा नहीं जा सकता। जब कोई समूह युद्ध को लड़ना अधर्म मानने लगता है, जबकि युद्ध धर्म और अधर्म का निर्णय कराने वाला एक शक्तिशाली साधन होता है, तब अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म समझना बहुत सरल और स्वाभाविक हो जाता है। यही अर्जुन के संदेह का मूल कारण था।

भगवान कृष्ण ने अर्जुन के संदेह का समाधान किया और अंत में, अर्जुन ने युद्ध में भाग लिया। युद्ध के धर्म के विरुद्ध अथवा अविरुद्ध होने की शर्तों और सीमाओं की बात करते हुए, भगवान कृष्ण ने कर्म, विकर्म और अकर्म की व्याख्या की। उनका विचार था कि अर्जुन को यह तय करने से पहले कि उसे युद्ध में भाग लेना चाहिए या नहीं, इन शब्दों के वास्तविक अर्थों को समझ लेना चाहिए।

गीता के अध्याय 4 के श्लोक 18 का वास्तविक अर्थ कर्म, विकर्म और अकर्म शब्दों के वास्तविक अर्थों को समझ लेने के बाद ही समझा जा सकता है। कर्म को अकर्म में और अकर्म को कर्म में देखने का अर्थ है कि जब कोई व्यक्ति धर्म की रक्षा के लिए कोई कार्य करता है, तो वास्तव में वह कुछ नहीं कर रहा होता है और उसका ऐसा कार्य धर्म में ही लीन हो जाता है। कभी-कभी किसी श्रेष्ठ कार्य को पूर्ण करने के लिए कुछ अधार्मिक कार्य भी करने पड़ते हैं। यदि युद्ध का उद्देश्य स्वार्थ, लोभ, अहंकार आदि हो, तो युद्ध में भाग लेना विकर्म हो जाता है और यदि युद्ध का उद्देश्य धर्म की रक्षा हो, तो युद्ध में भाग लेना कर्म हो जाता है। अधर्म की ओर से युद्ध में भाग न लेना कर्म के समान हो जाता है और धर्म की ओर से युद्ध में भाग न लेना अकर्म के समान हो जाता है।

भगवान कृष्ण ने कहा है कि हमें किसी कार्य को करते हुए सभी इच्छाओं को छोड़ देना चाहिए। यहां, भगवान यह कहना चाहते हैं कि किसी कर्म को करते हुए हमें अपने इर्द-गिर्द घूमने वाली इच्छाओं को छोड़ देना चाहिए। लेकिन, हमें दूसरों के कल्याण की इच्छा को किसी भी हाल में नहीं छोड़ना चाहिए। जब कोई कार्य दूसरों के कल्याण के लिए किया जाता है, तो वह यज्ञ की श्रेणी में आ जाता है और ऐसे कर्मों का फल नहीं मिलता। दूसरों के कल्याण के लिए किए जाने वाले कार्य ज्ञान से ही पवित्र हो पाते हैं।

 

कर्मों के कारण

आत्मा ही कर्म करने वाला है। ईश्वर भी कुछ विशेष तरह के कर्म करता है। लेकिन, ईश्वर के कर्मों में विद्यमान विशालता के कारण उन्हें आत्माओं के कर्मों से आसानी से पृथक किया जा सकता है। ऐसा कहा जा सकता है कि सभी सांसारिक कार्यों के लिए कर्त्ता आत्मा ही है। साथ ही, कोई भी आत्मा एक क्षण के लिए भी कर्म किए बिना नहीं रह सकती। अब प्रश्न यह उठता है कि आत्मा को कर्म करने के लिए कौन प्रेरित करता है? हमारे पिछले कर्म अथवा उनसे मिले सुख व दुख हमारी आत्मा पर एक प्रकार का निशान छोड़ जाते हैं। हमारा हर कार्य सुख भोगने के लिए या दुख को दूर करने के लिए हमारी पिछली प्रवृत्तियों के अनुसार किया जाता है। इन प्रभावों को सामूहिक रूप से व्यक्ति का स्वभाव कह दिया जाता है। व्यक्ति का स्वभाव उसके गुणों के विकास का कारण बनता है और उसी के अनुसार वह कार्य करता है।

अब गीता के अध्याय 3 के श्लोक 35 में आने वाले ‘भय’ शब्द की व्याख्या की जाती है। जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, वेद में समाज के अच्छे संचालन के किए उसे चार खंडों में विभाजित किया गया है- समाज को शिक्षित करने का कार्य-भार संभालने वाले लोगों को ब्राह्मण कहा जाता है, जिन लोगों को दूसरों के अधिकारों की रक्षा करने का कर्त्तव्य सौंपा जाता है, उन्हें क्षत्रिय कहा जाता है। जिन लोगों को विभिन्न वस्तुओं की आपूर्ति को बनाए रखने का कार्य सौंपा जाता है, उन्हें वैश्य कहा जाता है। और जो लोग, समझ के कम होने के कारण किसी भी तरह की विद्या प्राप्त नहीं कर पाते व अपने शारीरिक श्रम के माध्यम से उपरोक्त तीनों वर्गों के लोगों की सेवा करते हैं, शूद्र कहलाते हैं। इन वर्गों को व्यक्तियों की आंतरिक प्रकृति और क्षमताओं के अनुसार तय किया जाता है। अपने स्वयं के वर्ग के कर्त्तव्यों का पालन ही किया जाना चाहिए, भले ही अन्य वर्गों के कर्त्तव्य अधिक आकर्षक प्रतीत हों। गीता के अध्याय 3 के श्लोक 35 में आने वाला ‘भय’ शब्द अपने स्वयं के वर्ग के कर्त्तव्यों को पूरा करने की अनिच्छा को दर्शाता है।

गीता के अध्याय 18 के श्लोक 16 में कहा गया है कि जो व्यक्ति आत्मा को कर्त्ता मानता है, उसकी बुद्धि खराब होती है। वास्तव में, यहाँ इस श्लोक का अर्थ यह है कि आत्मा, बुद्धि, मन आदि विभिन्न साधनों के बिना केवल आत्मा को ही कर्त्ता नहीं माना जा सकता। उदाहरण के लिए, एक कारखाने का मालिक कारखाने के सभी कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है। परन्तु, यदि मशीनरी घटिया है, भवन जर्जर अवस्था में है, कच्चा माल निम्न-स्तर का है, श्रमिक काम नहीं करना चाहते हैं, तो ऐसी अवस्था में कारखाने के मालिक को कारखाने में होने वाले सभी कार्यों के लिए उत्तरदायी ठहराना गलत है।

 

यज्ञ

‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ केवल ‘हवन’ नहीं है, बल्कि यह शब्द संपूर्ण संबंधित ज्ञान के साथ दूसरों के कल्याण के लिए किए गए सभी कार्यों को संदर्भित करता है। ‘हवन’ केवल प्रतीकात्मक रूप से ‘यज्ञ’ है। ‘हवन’ से, हम जो कुछ भी हमारे पास है, दूसरों के कल्याण के लिए देना सीखते हैं। वास्तव में, यदि, कोई डॉक्टर अपने सम्पूर्ण ज्ञान के अनुसार अपने रोगियों को स्वास्थ्य-लाभ दे रहा है, तो वह ‘यज्ञ’ कर रहा है। इसी प्रकार, यदि कोई शिक्षक अपने विद्यार्थियों को अपनी क्षमता के अनुसार ज्ञान दे रहा है, तो वह ‘यज्ञ’ कर रहा है। इस तरह ‘यज्ञ’ बहुत विस्तृत शब्द है व दूसरों के कल्याण के लिए किए गए सभी कार्य इसके अन्तर्गत आ जाते हैं।

इस ब्रह्मांड के रोम-रोम से इसमें निहित ‘दूसरों के कल्याण’ की भावना दिखाई देती है। इस कारण, कर्मों को ‘यज्ञ’ के रूप में करने में सक्षम होने के लिए, इस ब्रह्मांड के निर्माण के उद्देश्य को समझना आवश्यक है। इस ब्रह्मांड के निर्माण के उद्देश्य को समझने के पश्चात ही कोई अपने शरीर, अपनी ज्ञान-इंद्रियों, अपनी शक्ति, अपने ज्ञान आदि का उपयोग, बिना किसी सांसारिक स्वार्थ के दूसरों के कल्याण के लिए के कर सकता है।

यह निर्णय करने के लिए कि कोई कर्म ‘यज्ञ’ माना जा सकता है कि नहीं, उस कर्म को करने का ‘उद्देश्य’ बहुत महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई लुटेरा किसी व्यक्ति का धन चुराकर उस धन का उपयोग लोक कल्याण के लिए करता है, तो उसके ऐसे दान को ‘यज्ञ’ नहीं कहा जा सकता। कर्म करने के ‘उद्देश्य’ के पवित्र होने के साथ-साथ, यह भी आवश्यक है कि ऐसा कर्म व्यक्ति की स्वतन्त्र इच्छा से किया गया हो।

कर्मों को बहुत आसानी से निष्काम कर्म या ‘यज्ञ’ में परिवर्तित किया जा सकता है। जब हम यह महसूस करते हैं कि हमारे पास जो भी धन, ज्ञान, शक्ति आदि साधन हैं, वे सब ईश्वर द्वारा हमें दूसरों का हित करने के लिए ही दिए गए हैं, तो उन साधनों का ईश्वर की इच्छा के अनुरूप उपयोग करते हए हमारे द्वारा किए गए सभी कर्म ‘यज्ञ’ की श्रेणी में आ जाते हैं। ‘यज्ञ’ करने वाला स्वयं को ईश्वर का सेवक या प्रतिनिधि मानकर ही कार्य करता है। यदि, कोई कार्य किसी विशेष वर्ग के व्यक्तियों के कल्याण के लिए ही किया जाता है, तो वह कार्य ‘यज्ञ’ की श्रेणी में नहीं आता।

अपने उपदेश में ‘यज्ञ’ की विस्तृत व्याख्या करने के पीछे भगवान कृष्ण का उद्देश्य अर्जुन को यह समझाना है कि यदि कोई व्यक्ति युद्ध को ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में लड़ता है, तो उसका यह कर्म बंधन का कारण नहीं होगा। बल्कि, उसका ऐसा करना उसके मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करेगा। उसे अपनी सभी इंद्रियों व उनसे सम्बद्ध विषयों को ईश्वर को समर्पित करके युद्ध में भाग लेना चाहिए। उसे अपने परिजनों और रिश्तेदारों के लिए नहीं, बल्कि ‘धर्म’ या मानवता के लिए युद्ध लड़ना चाहिए।

यहां, इंद्रियों और मन को ‘यज्ञ’ स्वरूप कर्म करने के लिए प्रशिक्षित करने वाली विधियों को भी ‘यज्ञ’ कहा गया है। ये विधियां हैं- प्राण, इंद्रियों और मन को नियंत्रित करना, अध्ययन, तपस्या आदि।

इस प्रवचन की तीन मुख्य बातें हैं- पहली, हमें अपने सभी कार्यों को सभी के कल्याण के लिए ही करना चाहिए। दूसरी, ईश्वर इस ब्रह्मांड को आत्माओं के कल्याण के लिए ही बनाता है, बनाए रखता है और भंग करता है। जो उसके नियमों के अनुसार कार्य करते हैं, वे मोक्ष की ओर बढ़ जाते हैं। तीसरी, कर्त्तव्यों के त्याग अथवा कर्त्तव्यों के न करने को किसी भी तरह से ‘यज्ञ’ नहीं कहा जा सकता।

आचार्य शंकर ने उल्लेख किया है कि इस उपदेश का उद्देश्य इस संसार के प्रति उदासीनता की भावना जगाना है। परन्तु, इस सम्पूर्ण व्याख्यान माला का यह उद्देश्य कहीं भी दिखाई नहीं देता। भगवान कृष्ण ने अर्जुन को ब्रह्मांड के नियमों के अनुसार युद्ध में भाग लेने के लिए प्रेरित करने के लिए यह उपदेश दिया था। इस उपदेश की भावना यह है कि हमारे हर कर्म का उद्देश्य जन कल्याण की भावना ही होनी चाहिए, नाकि हमारा कोई सांसारिक स्वार्थ। इसके अतिरिक्त, हमारा हर कर्म ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में होना चाहिए।

ज्ञान का मूल उद्देश्य वैराग्य की भावना उत्पन्न करना है। ज्ञान हमें यह जानने में सक्षम बनाता है कि सभी अन्य आत्माएं हमारे अपने समान हैं। इस स्तर पर पहुंचने के बाद, व्यक्ति अपने आप में ईश्वर को देखने में सक्षम हो जाता है।

 

योग

गीता के अनेक श्लोकों में ‘योग’ शब्द का उल्लेख किया गया है। इस शब्द के सम्बन्ध में वेदों में जो कहा गया है, उसके अनुरूप ही इन श्लोकों की व्याख्या की जानी चाहिए। महर्षि पतंजलि ने ‘योग दर्शन’ नामक अपनी कृति में वेदों के अनुसार योग के पूरे विज्ञान को प्रस्तुत कर दिया है।

अपने उपदेश में, भगवान कृष्ण अर्जुन को योगी बनने के लिए कहते हैं। योग में स्थापित व्यक्ति को योगी कहा जाता है। चूंकि, यह उपदेश युद्ध के मैदान में दिया गया था, इसलिए भगवान कृष्ण के ये वचन कई लोगों को निरर्थक से लगते हैं। लेकिन वास्तव में इन शब्दों में एक विशेष अर्थ छिपा हुआ है। भगवान कृष्ण के अनुसार, योग में किसी कार्य को उच्चतम कौशल के साथ किया जाता है। योग का अभ्यास करने वाला व्यक्ति कभी भी अपने कर्त्तव्यों का त्याग नहीं करता, बल्कि, उन्हें किसी भी प्रकार के सांसारिक स्वार्थ के बिना वैराग्य की भावना के साथ करता है। इसके लिए स्थिर बुद्धि चाहिए। स्थिर बुद्धि का महत्व पानी के जहाज को अपना रास्ता खोजने में सहायक कम्पास के समान है। यह क्षमता केवल सात्विकी बुद्धि के पास ही होती है। केवल एक स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति ही कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य, भय और निर्भयता और बंधन और मोक्ष के बीच अंतर कर सकता है। स्थिर बुद्धि का प्रमुख तत्व है- ज्ञान।

इस उपदेश में अर्जुन से कहा गया है कि ज्ञान के माध्यम से वह अपने सभी संदेहों को दूर करके, लड़ने के लिए खड़ा हो जाए। इस पूरे उपदेश का उद्देश्य अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करना है। इस उपदेश का सार है कि अर्जुन को युद्ध करने के अपने कर्त्तव्य को नहीं छोड़ना चाहिए। इस धर्मोपदेश में योग की चर्चा सिर्फ इसलिए की गई है कि स्थिर बुद्धि को प्राप्त करने के लिए योग ही एकमात्र साधन है व स्थिर बुद्धि वाला व्यक्ति ही अपने कार्य को श्रेष्ठतम गुणवत्ता के साथ कर सकता है। जो व्यक्ति बुद्धिमान नहीं, वह योगी नहीं हो सकता। जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों और मन पर पूर्ण नियन्त्रण रखने में सक्षम है, जिसका मन शान्त रहता है, जो सुख-दुख, मान-अपमान, सर्दी-गर्मी आदि में सम अवस्था में रहता है और जो ईश्वर को समर्पित है, वहीं योग में स्थापित कहा जा सकता है।

यहां, बुद्धि की समता की उचित व्याख्या की आवश्यकता है। बुद्धि की समता का अर्थ है कि योगी अपनी प्रशंसा से न तो सुखी होता है और न अपमान से दुखी। वह प्रभावित नहीं होता, चाहे उसके साथ मित्रवत व्यवहार किया जाए अथवा बुरा व्यवहार किया जाए। इसके अलावा, बुद्धि की समता का अर्थ है कि सभी परिस्थितियों में, सभी स्थानों पर और सभी के साथ धर्म और अधर्म का समान दृष्टिकोण रखना चाहिए। इस कारण से, भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि वह अधर्म के पक्ष से लड़ते हुए अपने परिजनों और रिश्तेदारों को मारने पर दुखी न हो।

बुद्धि की समता न्याय का पर्याय है। इसका मतलब यह नहीं है कि एक अपराधी को उसी तरह से बचाना चाहिए, जैसे एक संत को। इसका अर्थ केवल इतना है कि दया या दंड एक समान होना चाहिए चाहे कर्म करने वाला मित्र हो, शत्रु हो, स्वजन हो या अस्वजन।

एक प्रश्न के उत्तर में भगवान कृष्ण कहते हैं कि दूसरों के कल्याण के लिए किए गए कार्य किसी भी तरह से व्यर्थ नहीं जाते। इन कार्यों का इस जन्म में या अगले जन्म में उचित फल मिलता है। अगले जन्मों में ऐसी आत्माएं, अपने मन पर पड़े इस जन्म के शुभ कर्मों के प्रभावों के कारण अनुकूल परिवारों में या अनुकूल परिस्थितियों में जन्म लेती हैं।

गीता के प्रसार के बाद तीन शब्दों- कर्मयोग, ज्ञानहोग और भक्तियोग बहुत प्रचलित हो गए हैं। लेकिन, इन शब्दों के गलत अर्थ प्रचारित किए जा रहे हैं। बिना कर्म के ज्ञान व्यर्थ है, बिना ज्ञान के कर्म व्यर्थ है। ज्ञान और कर्म दोनों तभी सार्थक होते हैं, जब उनका उद्देश्य भक्ति हो। इस कारण, यह कहा जा सकता है कि सच्ची आध्यात्मिकता के लिए ज्ञान, कर्म और भक्ति के इष्टतम संयोजन की आवश्यकता होती है। जब इन तीनों शब्दों-  ज्ञान, कर्म और भक्ति का प्रयोग ईश्वर के साक्षात्कार के उद्देश्य से किया जाता है, तो इन शब्दों के साथ ‘योग’ शब्द का लगाना अत्यंत उचित है।

 

ज्ञान और विज्ञान

अपनी इंद्रियों व सूक्ष्मदर्शी, माइक्रोफोन आदि विशेष उपकरणों से कुछ चीजों को जानना ज्ञान है। लेकिन, कुछ चीजें ऐसी होती हैं, जिन्हें इंद्रियों के माध्यम से या उच्चतम गुणवत्ता वाले उपकरणों की मदद से नहीं जाना जा सकता। ये चीजें हैं- ईश्वर, आत्माएं और प्रकृति का आधार अथवा मूल। ये तीनों चीजें शाश्वत हैं और इन्हें जानने को ही विशेष ज्ञान अर्थात विज्ञान कहा जाता है। संसार की सभी निर्जीव वस्तुएं, जिन्हें प्रकृति कहा जाता है, सृष्टि बनने पर व्यक्त होती हैं और प्रलय पर अव्यक्त हो जाती हैं। लेकिन, इसके विपरीत, ईश्वर व आत्माएं किसी भी स्थिति में परिवर्तित नहीं होते।

गीता के अध्याय 7 के श्लोक 8 से 12 में भगवान कृष्ण ने कहा है कि ईश्वर निर्जीव चीजों और आत्माओं में मौजूद है, लेकिन वे ईश्वर नहीं हैं। गीता का यह उपदेश भगवान कृष्ण ने ईश्वर में लीन रहते हुए दिया था। इसलिए, उनका मैं, मेरा आदि शब्दों का प्रयोग करना उचित था। वह वेदों के एक महान विद्वान थे। वह कभी भी स्वयं को ईश्वर के समकक्ष नहीं रख सकते थे। ऐसे में यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि श्रीमद्भगवद्गीता का यह उपदेश ईश्वर ने दिया था।

अर्जुन द्वारा पूछे गए एक स्वाभाविक प्रश्न के उत्तर में कि कोई व्यक्ति अधर्म को जानते  हुए भी गलत कार्य क्यों करता है, भगवान कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति प्रकृति के राजसिक तत्वों के प्रभाव से ऐसे कार्य करता है।

  प्रकृति तीन प्रकार के तत्वों से बनी है। इन तीनों में से निम्नतम को ‘तमस’ कहा जाता है। प्रकृति का यह तत्व जड़ता आदि के लिए उत्तरदायी होता है। मध्यम तत्व को ‘रजस’ कहते हैं। प्रकृति का यह तत्व क्रिया के प्रति प्रेम दर्शाता है। प्रकृति के उच्चतम तत्व को ‘सत्व’ कहा जाता है। प्रकृति का यह तत्व शांति लाने वाला होता है।

‘रजस’ तत्व मोह उत्पन्न करने वाला होता है और यह कर्मों के फल की इच्छा का कारण बनता है। जब, प्रकृति के इस तत्व पर ‘सत्व’ तत्व का प्रभुत्व हो जाता है, तब व्यक्ति धार्मिक हो जाता है और स्थिर बुद्धि को प्राप्त कर लेता है। इस कारण, भगवान कृष्ण ने अपने उपदेश में प्रकृति के इन तत्वों की व्याख्या और ईश्वर के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या करना उचित समझा। ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को समझ लेने पर ही मनुष्य भक्तियोग में अपने आप को स्थापित कर सकता है। ज्ञान और विज्ञान पर पूरा प्रवचन अध्याय 8 के श्लोक 1 और 2 में अर्जुन द्वारा पूछे प्रश्नों के उत्तर में है।

प्रलय में केवल प्रकृति ही विलीन होती है। सृष्टि व प्रलय की अवस्था में ईश्वर में कोई परिवर्तन नहीं होता। ईश्वर मोतियों की माला में धागे के समान हैं। मोतियों व मोतियों में गुंथे धागे की अलग-अलग सत्ता है। जिस प्रकार माला में धागा मोतियों को अक्षुण्ण रखता है, उसी प्रकार ईश्वर सभी प्राकृतिक वस्तुओं को धारण करता है।

ईश्वर प्रकृति की सभी चीजों के प्रकट होने का कारण है। अब प्रश्न उठता है कि यह कैसे संभव है कि जो ईश्वर प्रकृति के तीनों तत्वों से रहित है, वह ही प्रकृति के अस्तित्व का कारण है? यह बिंदु उचित स्पष्टीकरण का पात्र है। वास्तव में, किसी चीज के अस्तित्व के लिए उत्तरदायी दो तरह के कारण होते हैं। एक भौतिक कारण होता है और दूसरा निमित्त कारण होता है। उदाहरण के लिए, मिट्टी का घड़ा बनाने के लिए दो चीजों की आवश्यकता होती है, जिन्हें मिट्टी के घड़े के अस्तित्व का कारण कहा जाता है। एक, मिट्टी और दूसरा, घड़ा बनाने वाला। इन दोनों के बिना मिट्टी का घड़ा अस्तित्व में नहीं आ सकता। इस उदाहरण में मिट्टी घड़े का भौतिक कारण है व घड़े का निर्माता घड़े का निमित्त कारण है। इसी भांति, ईश्वर इस ब्रह्मांड के अस्तित्व का भौतिक कारण नहीं, बल्कि, निमित्त कारण है। प्रकृति के तीनों तत्व- ‘तमस’, ‘रजस’ और ‘सत्व’ प्रकृति की अव्यक्त अवस्था में एक दूसरे से जुड़े हुए होते हैं। ईश्वर के कारण ही ये तत्व अलग हो पाते हैं। यह ब्रह्मांड ओर कुछ नहीं बल्कि, प्रकृति के तत्वों का प्रकटीकरण है।

जीवित प्राणियों के शरीर, वास्तव में निर्जीव होते हैं। आत्माओं के विद्यमान होने के कारण से वे जीवित प्रतीत होते हैं। आत्माएं शाश्वत हैं। ईश्वर तीसरी शाश्वत सत्ता है। ईश्वर सभी निर्जीव वस्तुओं का निर्माण व  उनका पालन-पोषण करता है और आत्माओं को उनके पिछले कर्मों के अनुसार संबंधित शरीरों के साथ बांधता है। प्रवचन का यह पूरा भाग सांख्य दर्शन के अनुसार है।

 

क्षेत्र व क्षेत्रज्ञ

क्षेत्र आत्मा के शरीर को संदर्भित करता है, जो प्रकृति के तत्वों- ‘तमस’, ‘रजस’ और ‘सत्व’ का संयोजन है। जबकि, क्षेत्रज्ञ दो सत्ताओं को संदर्भित करता है- आत्मा, और ईश्वर। प्रारम्भ में क्षेत्रज्ञ ईश्वर ही होता है, जो शरीर और सम्बन्धित आत्मा को अच्छी तरह से जानता होता है। लेकिन, जब आत्मा भी अपने शरीर को, स्वयं को और ईश्वर को जान लेती है, तब आत्मा को भी क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। जो इस सत्य को जानता है, वही ज्ञानी कहलाता है।

गीता के अध्याय 13 के श्लोक 16 के अर्थ की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि ईश्वर अविभाजित और एकरूप सत्ता है। लेकिन, यह सत्ता विभाजित होती सी प्रतीत होती है। ऐसी अवधारणा का क्या कारण है? ईश्वर अपनी व्यापकता के कारण आत्माओं के शरीरों में भी विद्यमान है। विभिन्न आत्माओं की शारीरिक स्थिति उनके कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न होती है। उदाहरण के लिए, कुछ आत्माएं सुख का आनंद ले रही होती हैं, जबकि कुछ पीड़ा से ग्रसित होती हैं। इस कारण, ईश्वर आत्माओं के बीच विभाजित होता हुआ प्रतीत होता है।

जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, अव्यक्त अवस्था में, प्रकृति के तत्व- ‘तमस’, ‘रजस’ और ‘सत्व’ संतुलित अवस्था में मिले हुए होते हैं। लेकिन, ईश्वर की क्षमता व उसकी शक्ति के कारण, इन तत्वों की संतुलित अवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति की अभिव्यक्ति होती है। कुछ चीजों पर प्रकृति के ‘तमस’ तत्व का प्रभुत्व हो जाता है व अन्य चीजों पर प्रकृति के ‘रजस’ या ‘सत्व’ तत्वों का प्रभुत्व हो जाता है।

ईश्वर, आत्माएं और ब्रह्मांड

गीता के अध्याय 8 के श्लोक 9 में भगवान कृष्ण ने ईश्वर के कुछ गुणों जैसे सूक्ष्मता, सबका पालनकर्ता, अकल्पनीय, प्रबुद्ध और सर्वज्ञ (अविद्या से दूर) का उल्लेख किया है। गीता के अध्याय 7, 8, 9 और 13 के कईं श्लोक ईश्वर के गुणों की बात करते हैं। कहा गया है कि वह सर्वव्यापी है और प्रत्येक जीव के हृदय में निवास करता है। वह ज्ञान के प्रकाश से परिपूर्ण है। लेकिन, इन सभी शब्दों के सही अर्थ वेदों और अन्य संबंधित शास्त्रों के अध्ययन से ही अच्छी तरह से जाने जा सकते हैं। ईश्वर के विपरीत, आत्माएं सीमित ज्ञान वाली होती हैं। लेकिन, जब आत्माएं योगाभ्यास के माध्यम से ईश्वर में लीन हो जाती हैं, तो उन्हें मोक्ष प्राप्त होता है। गीता के अध्याय 7 के श्लोक 19 में ‘वसुदेव’ शब्द का प्रयोग किया गया है। इस शब्द का अर्थ है ‘सर्वव्यापी ईश्वर’। गीता के अध्याय 7 के श्लोक 24 में कहा गया है कि ईश्वर को इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता और मूर्ख लोग सोचते हैं कि वह जन्म लेता है। दूसरे शब्दों में, भगवान कृष्ण मूर्ति पूजा के खिलाफ हैं, क्योंकि मूर्तियाँ नाशवान होती हैं। इस कारण, जो लोग इंद्रियों के माध्यम से जाने जा सकने वाली वस्तुओं की पूजा ईश्वर मानकर करते हैं, वे अनादि ईश्वर को नहीं जान सकते। ऐसे श्लोकों के सही अर्थों को देखते हुए गीता के पाठकों को यह धारणा नहीं रखनी चाहिए कि यह उपदेश स्वयं ईश्वर ने दिया था।

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण ने वेदों के अनुरूप ही ईश्वर, आत्मा और प्रकृति नामक तीन अलग और शाश्वत सत्ताओं की वकालत की है। प्रकृति के परमाणुओं का अस्तित्व शाश्वत है, लेकिन ये परमाणु ईश्वर की शक्ति से प्रकट होने के बाद ही ब्रह्मांड के रूप में दिखाई दे पाते हैं। ब्रह्मांड के प्रलय अवस्था को प्राप्त होने पर प्रकृति के परमाणुओं का विनाश नहीं होता। यह दुनिया ‘कुछ भी नहीं’ से नहीं आती। यह प्रकृति की अव्यक्त अवस्था का प्रकटीकरण है। प्रकृति का व्यक्त व अव्यक्त होना ईश्वर की शक्ति से सम्भव हो पाता है। जो जीव संसार की सुंदरता में लीन हो जाते हैं और इस संसार को सब कुछ मान लेते हैं, वे ईश्वर को प्राप्त नहीं कर सकते। ज्ञान और कुछ नहीं, बल्कि इस वास्तविकता को समझना है।

 

भक्ति अथवा पूजा

‘भक्ति’ अथवा ‘पूजा’ शब्द की वास्तविक भावना को समझने के लिए हम इसे दो भागों में विभाजित कर देते हैं। एक, ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना दो, ईश्वर के गुणों के अनुसार व्यवहार करना। ‘ईश्वर का ज्ञान’ और ‘ईश्वर का साक्षात्कार’ एक दूसरे के पूरक हैं। केवल उसी चीज की पूजा करनी उचित है, जो जीवित हो और जिसमें आनंद हो। जब भी ‘भक्ति’ शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो उसे किसी व्यक्ति विशेष से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। इसके बजाय, इसे शाश्वत ईश्वर से जोड़ना चाहिए, जिसका व्यक्तिगत नाम ओम है। ईश्वर का ध्यान करने के लिए हमें एकांत स्थान पर सुखपूर्वक  बैठना चाहिए। महर्षि पतंजलि की कृति- ‘योग दर्शन’ में वर्णित सभी चरणों की गीता में वकालत की गई है।

गीता के अध्याय 8 के श्लोक 13 में उल्लेख है कि जो व्यक्ति मृत्यु के समय ईश्वर का स्मरण करता है, वह उस ईश्वर की प्राप्ति की ओर बढ़ने में सफल होता है। इसका बिल्कुल भी यह अर्थ नहीं है कि किसी को अपने जीवन के अन्य समयों में ईश्वर का स्मरण नहीं करना चाहिए। ऐसा कहने के पीछे श्री कृष्ण का उद्देश्य अर्जुन को निडर बनाना था। भगवान कृष्ण चाहते थे कि अर्जुन कर्म, विकर्म और अकर्म के विचारों को छोड़कर युद्ध में जाए। अर्जुन को दृढ़ विश्वास होना चाहिए था कि वह धर्म के लिए और ईश्वर को समर्पित बुद्धि से लड़ रहा है।

ईश्वर ने इस ब्रह्मांड को अपने आंतरिक स्वभाव के कारण बनाया है। इस ब्रह्मांड की रचना का एकमात्र उद्देश्य आत्माओं का कल्याण है। यह दुनिया आत्माओं को उनके द्वारा अर्जित सुखों का आनंद लेने और परम आनंद प्राप्त करने के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए एक आधार प्रदान करती है। जो व्यक्ति इस तथ्य को स्वीकार कर आत्माओं के कल्याण के लिए अपना योगदान देता है, वहीं ईश्वर का सच्चा उपासक है। दूसरे शब्दों में, जो कोई भी अपनी क्षमता के अनुसार दूसरों का कल्याण करता है, वह ईश्वर का उपासक है।

जो लोग किसी सांसारिक लाभ की आशा से कर्म करते हैं, वे इस संसार में बार-बार जन्म लेते हैं। ऐसे लोगों के विपरीत, जो व्यक्ति बिना किसी सांसारिक लाभ की अपेक्षा के अपने कर्म करते हैं, वे मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर हो जाते हैं।

जो लोग सांसारिक सुखों के भोग को जीवन का अंतिम उद्देश्य मानते हैं, उन्हें असुर कहा गया है। दिव्य प्रकृति के लोग ईश्वर को इस नाशवान प्रकृति का शाश्वत कारण मानते हैं और इस तथ्य को स्वीकार कर उसकी पूजा करते हैं।

गीता के अध्याय 8 के श्लोक 21 में कहा गया है कि ईश्वर को उसकी भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है।

बहुत से लोग मानते हैं कि यह उपदेश इस बात की वकालत करता है कि ईश्वर की प्राप्ति के बाद, आत्मा फिर कभी जन्म और मृत्यु के चक्र में नहीं आती। यह सही नहीं है। भगवान कृष्ण वेदों  प्रकाण्ड विद्वान थे। वे ऐसा कोई भी विचार नहीं दे सकते थे, जो वेदों के अनुरूप न हो। 

 

शुक्ल पक्ष, कृष्ण पक्ष, उत्तरायन और दक्षिणायन

इस उपदेश में कहा गया है कि जो लोग शुक्ल पक्ष और ग्रीष्म संक्रांति के दौरान मरते हैं, वे जन्म और मृत्यु के बंधन में वापस नहीं आते। कुछ लोगों का मानना ​​है कि शुक्ल पक्ष का अर्थ दिन का समय होता है और कृष्‍ण पक्ष का अर्थ रात का समय होता है। दूसरों का मत है कि एक महीने की अवधि के दौरान, 15 दिनों के लिए, चंद्रमा आकार में बढ़ता हुआ प्रतीत होता है और अगले 15 दिनों के लिए चंद्रमा आकार में कम होता हुआ प्रतीत होता है। संक्रांति- पृथ्वी सूर्य का एक चक्कर 12 महीने में पूरा करती है। छह महीनों की अवधि में, दिन का समय बढ़ता जाता है, जिसे ग्रीष्म संक्रांति कहा जाता है और अगले छह महीनों के दौरान जब रात का समय बढ़ता जाता है, तो उसे शीतकालीन संक्रांति कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि संक्रांति सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के घूमने के दौरान, सूर्य और पृथ्वी की स्थिति को संदर्भित करती है। अब गीता के शब्दों की भौतिक विज्ञान के तथ्यों के साथ संगति स्थापित करने की आवश्यकता है। चूँकि, ज्ञान को प्रकाश द्वारा संदर्भित किया जाता है, शुक्ल पक्ष और उत्तरायन को ज्ञान में वृद्धि के रूप में माना गया है और कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन को ज्ञान में कमी के रूप में माना गया है। एक दुष्ट और अज्ञानी व्यक्ति ईश्वर को केवल इस आधार पर प्राप्त नहीं कर सकता कि उसकी मृत्यु शुक्ल पक्ष और ग्रीष्म संक्रांति के दौरान हुई है। इसका स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि केवल एक योगी ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।

देवता और ईश्वर

यह भ्रांति है कि वेदों में भी अनेक देवताओं का उल्लेख है। कुछ चीजें हैं, जो सजीव और निर्जीव दोनों हो सकती हैं, जो दूसरों को केवल देती हैं और बदले में कुछ नहीं लेतीं। इन चीजों को ‘देवता’ कहा जाता है। इस हिसाब से 33 प्रकार के देवता हैं, 33 करोड़ नहीं। यह भ्रांति इसलिए विकसित हुई, क्योंकि संस्कृत शब्द ‘कोटि’ का अर्थ प्रकार भी है और करोड़ भी। ये 33 देवता हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, सभी आकाशीय पिंड, दस प्राण, जीवात्मा, वर्ष के बारह महीने, बिजली और इन सभी बत्तीस देवताओं को नियंत्रण करने वाली शक्ति, जिसे ‘यज्ञ’ कहा जाता है। वेदों के अनुसार इन तैंतीस देवताओं में से कोई भी पूजनीय नहीं है। इसके बजाय, पूजा करने योग्य केवल एक ही ईश्वर है, जो इस ब्रह्मांड का रचियता है। वेदों में जहां भी विष्णु, शिव आदि शब्द आते हैं, उनका अर्थ ईश्वर होता है, क्योंकि ये ईश्वर के भी नाम हैं, जो ईश्वर के कुछ विशिष्ट गुणों का वर्णन करते हैं। चंद्रमा, सूर्य वगैरह निर्जीव होते हुए भी कुछ अद्भुत शक्तियां रखते हैं। इन निर्जीव देवताओं की ये अद्भुत शक्तियाँ ईश्वर के कारण से ही हैं। यही कारण है कि ईश्वर इन देवताओं से की जाने वाली प्रार्थनाओं को भी सुनते हैं।

इन निर्जीव देवताओं की पूजा का अर्थ है, उनकी शक्तियों का ज्ञान प्राप्त करना और उस ज्ञान की सहायता से आत्माओं के हित के लिए कार्य करना। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि यदि किसी वस्तु में कोई विशेष शक्ति नहीं है, तो न तो उसका ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और न ही उस वस्तु से कोई लाभ प्राप्त किया जा सकता है। वास्तविक अर्थों में केवल वैज्ञानिक ही निर्जीव देवताओं की पूजा करते हैं। सूर्य आदि को नमस्कार करना, उनकी वास्तविक पूजा नहीं है।

निम्न बुद्धि के पुरुष ही देवताओं की पूजा करते हैं। देवताओं की पूजा का लाभ सीमित है, अर्थात केवल और केवल यह मोक्ष को प्राप्त नहीं करा सकती। इसके बजाय, जो लोग ईश्वर की पूजा करते हैं, वे देवताओं की शक्तियों के स्रोत को प्राप्त कर लेते हैं। ईश्वर की पूजा का लाभ इस अर्थ में स्थायी है कि बहुत लंबे समय तक आत्मा को जन्म नहीं लेना पड़ता।

 

मोक्ष से लौटना

कुछ लोगों का मानना है कि गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि मोक्ष प्राप्त करने के बाद आत्मा को फिर से जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती। यह धारणा वेदों और आप्त पुरुषों के विचारों के विरुद्ध है। इस तरह की व्याख्या अद्वैत दर्शन को मानने वालों द्वारा की जाती है, अर्थात, जो लोग यह मानते हैं कि ईश्वर नाम की एक ही सत्ता का अस्तित्व है। अन्य दो सत्ताओं – आत्मा और प्रकृति का अस्तित्व असत्य है। लेकिन, उनके कुछ अतार्किक कारणों से, ये सत्ताएं वास्तविक प्रतीत होती हैं। वेदों के मूल सिद्धांत के समर्थन में कि तीन शाश्वत सत्ताएँ हैं- ईश्वर, आत्माएँ और इस व्यक्त प्रकृति का मूल, हम इस निबंध के पहले के कुछ हिस्सों को दोहराते हैं-

“गीता के अध्याय 7, 8, 9 और 13 के कईं श्लोक ईश्वर के गुणों की बात करते हैं। कहा गया है कि वह सर्वव्यापी है और प्रत्येक जीव के हृदय में निवास करता है। वह ज्ञान के प्रकाश से भरा हुआ है लेकिन, इन सभी शब्दों का सही अर्थ वेदों और अन्य संबंधित शास्त्रों के अध्ययन के माध्यम से ही अच्छी तरह से जाने जा सकते हैं। ईश्वर के विपरीत, आत्माओं का ज्ञान सीमित होता है। लेकिन, जब आत्माएं योगाभ्यास के माध्यम से ईश्वर के विचार में लीन हो जाती हैं, तो मोक्ष प्राप्त करती हैं।”

“क्षेत्र आत्मा के शरीर को संदर्भित करता है, जो प्रकृति के तत्वों- ‘तमस’, ‘रजस’ और ‘सत्व’ का एक संयोजन है। जबकि, क्षेत्रज्ञ दो सत्ताओं- आत्मा और ईश्वर को संदर्भित करता है। प्रारम्भ में क्षेत्रज्ञ ईश्वर ही होता है, लेकिन जब आत्मा भी अपने शरीर को, स्वयं को और ईश्वर को जान लेती है, तब आत्मा को भी क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। जो इस सत्य को जानता है, वही ज्ञानी कहलाता है।”

“गीता के अध्याय 13 के श्लोक 16 के अर्थ की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि ईश्वर अविभाजित और एकरूप सत्ता है। लेकिन, यह सत्ता विभाजित होती सी प्रतीत होती है। ऐसी अवधारणा का क्या कारण है? ईश्वर अपनी व्यापकता के कारण आत्माओं के शरीरों में भी विद्यमान है। विभिन्न आत्माओं की शारीरिक स्थिति उनके कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न होती है। उदाहरण के लिए, कुछ आत्माएं सुख का आनंद ले रही होती हैं, जबकि कुछ पीड़ा से ग्रसित होती हैं। इस कारण, ईश्वर आत्माओं के बीच विभाजित होता हुआ प्रतीत होता है।”

“जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, अव्यक्त अवस्था में, प्रकृति के तत्व- ‘तमस’, ‘रजस’ और ‘सत्व’ संतुलित अवस्था में मिले हुए होते हैं। लेकिन, ईश्वर की क्षमता व उसकी शक्ति के कारण, इन तत्वों की संतुलित अवस्था छिन्न-भिन्न हो जाती है, जिसके परिणामस्वरूप प्रकृति की अभिव्यक्ति होती है। कुछ चीजों पर प्रकृति के ‘तमस’ तत्व का प्रभुत्व हो जाता है व अन्य चीजों पर प्रकृति के ‘रजस’ या ‘सत्व’ तत्वों का प्रभुत्व हो जाता है।”

“सभी जीवित चीजों के शरीर निर्जीव होते हैं। आत्माओं की विद्यमानता के कारण, वे जीवित प्रतीत होते हैं। आत्मा स्वभाव से शाश्वत है। ईश्वर तीसरी शाश्वत सत्ता है। वह सभी निर्जीव चीजों का निर्माण व पालन-पोषण करता है और आत्माओं को उनके पिछले कर्मों के अनुसार संबंधित शरीरों के साथ संयुक्त करता अथवा बांधता है। प्रवचन का यह पूरा अंश सांख्य दर्शन के अनुसार है।”

 “इस धर्मोपदेश की तीन मुख्य बातें हैं- पहली, हमें अपने सभी कार्यों को सभी के कल्याण के लिए करना चाहिए। दूसरी, ईश्वर इस ब्रह्मांड को आत्माओं के कल्याण के लिए बनाता है, बनाए रखता है और भंग करता है। इस कारण, जो उसके नियमों के अनुसार कार्य करते हैं, वे मोक्ष की ओर जाते हैं। तीसरी, कर्तव्यों का त्याग, किसी भी तरह से ‘यज्ञ’ नहीं कहा जा सकता है।”

‘आत्मा कभी नहीं मरती’- यह गीता की एक बुनियादी शिक्षा है और कोई भी इसकी अवहेलना नहीं कर सकता। यदि आत्मा की मुक्ति का अर्थ है- अपनी पहचान खोकर ईश्वर के साथ एक होना, तो यह धारणा सीधा गीता की मूल शिक्षा के विरुद्ध जाएगी। इस प्रकार, हमारी समझदारी गीता के विभिन्न श्लोकों को वेदों या ऋषियों के अन्य लेखों के अनुसार व्याख्या करने में निहित है। तदनुसार, आत्मा को योगाभ्यास से अर्जित किए गए मोक्ष या मुक्ति के फल के पूर्ण होने के बाद फिर से शरीर में आना पड़ता है और फिर से मुक्ति का फल अर्जित करना होता है। यह प्रक्रिया अनंत काल तक चलती रहती है। यह इस तथ्य के समान है कि भूख के शान्त होने के बाद, हमें 5-6 घंटे की अवधि के बाद फिर से अपनी भूख की निवृति के लिए भोजन करना पड़ता है। भोजन लेने और कुछ घंटों तक भूख से मुक्त रहने की यह प्रक्रिया हमारे जीवित रहने तक जारी रहती है।