शंका ५ – मनुष्य को स्वतन्त्र कहना अनुचित है। क्योंकि ईश्वर की इच्छा बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता।
समाधान – उपनिषद् में कहा है-स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च। (श्वेताश्वर उपनिषद् ६//८) अर्थात् ईश्वर का ज्ञान, बल और क्रिया स्वाभाविक है। उसमें मनुष्य जैसी इच्छा नहीं है। क्योंकि इच्छा भी अप्राप्त, उत्तम और जिसकी प्राप्ति से सुख होवे, उसकी होती है। ईश्वर के लिए कुछ भी अप्राप्त और उससे उत्तम पदार्थ नहीं है। वह पूर्ण आनन्दयुक्त है अतः ईश्वर में इच्छा संभव नहीं। किन्तु उसमें ईक्षण अर्थात् सब प्रकार की विद्या का दर्शन और विधिवत् सृष्टि करना है। उसने वेद में मानवमात्र के कर्तव्य कर्मों का उपदेश दिया है, किन्तु मनुष्य उसकी आज्ञा का उल्लंघन करके अनेक पापरूप कर्म करता है। जैसे असत्य भाषण की वेद में आज्ञा नहीं, किन्तु असत्य बोलता है, चोरी की आज्ञा नहीं, परन्तु चोरी करता है आदि?
जो ईश्वर की इच्छा बिना पत्ता न हिलने की बात कही है तो उसका समाधान यह है कि यदि ऐसा मान लें कि संसार में कोई भी क्रिया, कोई भी घटना ईश्वर की प्रेरणा के बिना नहीं होती, तो प्रश्न होता है कि फिर तो इस संसार में जो भी आपराधिक घटनाएं अथवा अन्यायपूर्ण कार्य हो रहे हैं, वे सब क्या ईश्वर की प्रेरणा से ही होते हैं या उनमें मनुष्यों का ही हाथ होता है? यदि कहो कि सब ईश्वर की प्रेरणा से ही होते हैं, तो फिर किसी अपराधी को उसके कर्म का दण्ड क्यों दिया जाता है? यदि कहो कि नहीं, उनमें ईश्वर की प्रेरणा नहीं होती, तो फिर सिद्ध हो गया कि मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता से, अपनी इच्छा से भी कर्म किया करता है। जैसे कोई चोर किसी के बाग में घुसकर वृक्ष हिलाकर फल तोड़ लाता है, जो ईश्वर की आज्ञा के विरुद्ध है क्योंकि ईश्वर ने चोरी की अनुमति नहीं दी है, तो वहां वृक्ष के पत्ते बिना ईश्वर की इच्छा के हिलते हुए भी दिखाई देते हैं। वस्तुतः जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। वह अपनी इच्छा से ही शुभ-अशुभ कर्म किया करता है और वह कर्म करने में ईश्वर के हाथ की कठपुतली नहीं है।
-डाक्टर धीरज कुमार आर्य
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